हाशिम अंसारी — सियासत न करिए बरख़ुरदार | Hashim Ansari - Siyasat Na Kariye Barkhurdar


जी-जान से पत्रकारिता कर रहे उमेश सिंह फ़ैजाबाद से हैं पिछले कुछ वर्षों से 'अमर उजाला' फैज़ाबाद संस्करण सम्हाल रहे हैं . इलाहबाद वि.वि. की पढ़ाई का असर उमेश के लेखन और विचारों में साफ़ दीख पड़ता है. वे हाशिम अंसारी को क़रीब से जानने-समझने वाले रहे हैं, शब्दांकन के लिए हाशिम चचा पर लिखने के मेरे निवेदन को स्वीकारा इसका आप सब पाठकों की तरफ़ से उन्हें शुक्रिया... अब यह आप को देखना है कि आप राजनीति के शिकार ही बने रहेंगे या फिर हाशिम अंसारी साहब से सीखेंगे कि भाईचारा क्या होता है !

भरत तिवारी
संपादक  

hamid Ansari

ताउम्र वनवासी राम रहे हाशिम चचा 

— उमेश  सिंह

राम के नाम और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर राजनीति करने वाले नेता और मंत्री बन गए पर मंदिर और मस्जिद का कुछ नहीं हुआ
Umesh Singh

उमेश  सिंह

पढ़ना-लिखना है ओढ़ना-बिछौना

रहिवास- सदभावना
७/२०/२४०
अशि्वनी पुरम कालोनी
देवकाली मंदिर
फ़ैज़ाबाद  उत्तर प्रदेश
पिन कोड- २२५००१
umeshkapanna@gmail.com
यह अयोध्या है। राजाराम को बिसार देती है लेकिन वनवासी राम उसकी हर सांस में अवगाहन करते है। मंदिर-मस्जिद विवाद में लोग बड़े हो गए पर हाशिम चचा ताउम्र गरीबी-गुरबत में लिपटे रहें। लखनऊ-दिल्ली खुद उनके घर आया। अपने लाभ के लिए हुकूमतें उनके पैरों में लोट गई लेकिन चचा लताड़ दिए। गरीबी में आत्मसम्मान से जीने की कला से वाकिफ थे। पांजीटोला में जीर्ण-शीर्ण मकां और बाहर के कमरे में पड़े तख्ते से लेटे-लेटे जब गुर्राते थे तो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक की हुकूमतें कांपने लगती थी। यह एक गृहस्थ सूफी फकीर का ताप था। अक्खड़-फक्कड़ परंपरा के थे। मस्ती की धूनी में रमे रहते थे। बेबाक, बेलौस और अलहदा अंदाज था उनका। बोल कि लब आजाद है तेरे ... के प्रबल हिमायती पर कानूनी बंदिशों में रहकर। तालीम तो कक्षा दो तक ही थी लेकिन समाज के विश्वविद्यालय से पीएचडी थे। क्या मजाल कभी जुबान लड़खड़ाई हो। अयोध्या का यह चिराग बुधवार 20 जुलाई की अलसुबह बुझ गया। सुनते ही हिंदू मुस्लिम सब फफक पड़े। हाशिम अंसारी वर्ष 1949 से बाबरी मस्जिद के लिए लड़ रहे थे। लड़ने की कला कोई चचा से सीखे। नमाज-ए-जनाजा निकला तो मस्जिद चाहने वालों की आंखों में ही नहीं, राममंदिर वालों के आंखों से भी आंसू टपक रहे।



hamid Ansari अयोध्या

दोनों में दोस्ती का आलम यह था कि मुकदमे की पैरवी के लिए दोनों एक साथ ही तांगे-रिक्शे से कचेहरी जाते थे। आपस में बोलते-बतियाते-गरियाते-हंसी-मजाक करते हुए। 

मस्जिद के मुद्दई हाशिम अंसारी का जन्म अयोध्या में 1921 में हुआ। सामासिक संस्कृति की धारा उनकी धमनियों में पीढ़ियों से बहती रही है। हाशिम के पिता करीम बख्श कनक भवन मंदिर में सुरक्षा प्रहरी थे। परिवार के  भरण-पोषण के लिए हाशिम सिलाई का काम करने लगे। वर्ष 1949 में रामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने की घटना के बाद पहली बार वह उभरकर सामने आए। मूर्ति रखे जाने की घटना का विरोध करते हुए उन्होंने इसे हटाने के लिए सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में अर्जी दाखिल की। इसके बाद का सारा इतिहास तो सबके जेहन में है। विवादों की आंच को उन्होंने दिल तक नहीं आने दी। अयोध्या के नाम पर समूचे देश में भले मजहब की दीवारें खड़ी करने की कोशिशें सांप्रदायिक शक्तियां करती रही लेकिन अयोध्या उस दीवार को ढहाने से पीछे कभी नहीं हटी। इसके सबसे बड़ा उदाहरण मंदिर आंदोलन के श्लाका पुरुष रामचंद्रदास परमहंस व हाशिम अंसारी की गहरी दोस्ती में देखा जा सकता है। दोनों में दोस्ती का आलम यह था कि मुकदमे की पैरवी के लिए दोनों एक साथ ही तांगे-रिक्शे से कचेहरी जाते थे। आपस में बोलते-बतियाते-गरियाते-हंसी-मजाक करते हुए। वरिष्ठ पत्रकार इंदुभूषण पांडेय उन दिनों को याद करते हुए बोल पड़े — परमहंस और हाशिम शतरंज खेलने के  शौकीन थे। दोनों की जोड़ी जमती थी तो देखने लायक होती थी। दिगंबर अखाड़े की सीढ़ी पर दोनों लोग दुपहर में ताश खेलते दिख जाते थे। वर्ष 2003 में परमहंस का शरीर पूरा हुआ तो उनके शव के पास सिर रखकर हाशिम फूट-फूट कर रोते हुए बोल पड़े — दोस्त चला गया, अब लड़ने में मजा नहीं आएगा।

इसी अयोध्या से पल्टूदास ने बोला था —
डाल अल्लाह लिखा है, पांत-पांत पर राम।
कौन चिरैया अशगुन बोली जंगल जला तमाम। 
सांप्रदायिक आग जब धधकी और उसने मनुष्यता के जंगल को जलाने की कोशिश की तो उसके खिलाफ हाशिम अंसारी सीना तानकर दो-दो हाथ करने को खड़े हो गए। उपद्रवी तत्वों ने हाशिम चचा के  घर को निशाना बनाया तो परमहंस सहित अयोध्या के कई साधुसंत उनके पक्ष में खड़े हो गए। इस परिस्थिति का फायदा उठाने कुछ लोग हाशिम के घर पहुंच उन्हें दूसरी जगह बसाने की बात कहीं तो वह झट बोल उठे, इसी माटी से पैदा हुआ हूं और इसी में मिल जाऊंगा। सियासत न करिए बरखुरदार। आप चले जाइए, हमें यहां कोई खतरा नहीं है। बेलौस और बेबाक बोलते थे। दिसंबर 2014 के पहले भावुक हो बोल पड़े कि अब रामलला को तिरपाल में नहीं देख सकता। इस मामले की पैरवी नहीं करूंगा। राम के नाम और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर राजनीति करने वाले नेता और मंत्री बन गए पर मंदिर और मस्जिद का कुछ नहीं हुआ। हाशिम मस्जिद तो चाहते थे लेकिन मंदिर बनाने के विरोधी नहीं थे। एक बार कहा था कि हम मस्जिद तभी चाहते है जब उसके निर्माण में हिंदूओं की रजामंदी हो।

hamid Ansari हाशिम अंसारी


हनुमानगढ़ी से जिस मंगलवार को प्रसाद हाशिम के घर नहीं पहुंचता था, वह इसकी शिकायत वहां के महंत से जरूर करते थे। हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास से गजब की यारी थी। महंत ज्ञानदास हाशिम के शव के पास पहुंचे तो फफक पड़े। बोले चला गया मेरा दोस्त। हाशिम के परिजनों को स्नेहिल थपकी देते हुए कहा कि मैं हूं चिंता न करना। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने हाशिम अंसारी को याद करते हुए कहा कि उनका जाना उदास कर गया। अयोध्या के नाम पर धंधा करने वाले करोड़पति हो गए लेकिन हाशिम हमेशा मुफलिसी में रहे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें जरूर जन्नत नसीब होगी। तारीख में तो रहेंगे ही, उन्हें भरे दिल से आखिरी सलाम।

hamid Ansari परमहंस और हाशिम शतरंज खेलने




अमन के फरिश्ता हाशिम अंसारी को बिजली शहीद मस्जिद में जनाजे की नमाज के बाद मणिपर्वत पर शीश पैगंबर स्थित कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। जनाजे में संत-धर्माचार्य, मौलाना, राजनेता सहित भारी संख्या में आम जन अंतिम विदाई के लिए पहुंचे।

hamid Ansari हाशिम के पिता करीम बख्श कनक भवन मंदिर में सुरक्षा प्रहरी थे


दरअसल अयोध्या ने विभेद का व्याकरण पढ़ा ही नहीं है। यह बात दीगर है कि  अयोध्या को आधार बना चालाक-धूर्त किस्म के  लोग अपनी-अपनी रोटी सेंकने में सफल हो गए हो। अयोध्या सबकी — सब अयोध्या के। यहां की माटी में ऐसी खुशबू कि कौन नहीं रींझा यहां से। सभी धर्मों का क्रीड़ागंन रहा। हिंदू, बौध, जैन, मुस्लिम सब के सब यहां पले-पुसे और बढ़े। सदियाँ गुजरती है तो वहां की कोख से कोई फकीर पैदा होता है। अयोध्या के ऐसे ही फकीर थे हाशिम अंसारी जो सिलाई करते-करते रिश्तों की तुरपाई करने में जीवन को लगा दिया। हाशिम चचा जो विवाद में बढ़े, आदमकद हो गए, वह रात की शीतलहरी में कागज के पुतले की तरह गल-ढह जाएंगे। वक्त बड़ा निर्मम होता है, निश्चित है कि समीक्षा करेगा। जब समीक्षा होगी तो आज के आदमकदों का वजूद  मिट जाएगा लेकिन हाशिम चचा लोगों के दिलों में जिंदा रहेंगे।
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