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चंपारण : एक ओर शताब्दी-जश्न दूसरी और श्रमिक नेताओं का आत्मदाह


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चंपारण: काल सौ साल पहले मानो ठहर गया 

युवा पत्रकार उमेश सिंह की चंपारण से फैज़ाबाद की यात्रा पर निकले गोविंदाचार्य से की गयी महत्वपूर्ण चर्चा पढ़ना प्रारंभ करें इससे पहले यह बता दूं कि आज गोविंदाचार्य जंतर-मंतर पर उन प्रदर्शनकारियों के साथ हैं जो — मोतिहारी के करीब 7000 किसानों और 600 मज़दूरों का मिल में बकाया पैसा जिसके कारण 10 अप्रैल को दो मज़दूर- नरेश श्रीवास्तव और सूरज बैठा ने आत्मदाह कर लिया —  न्याय के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। 




गोविंदाचार्य का नाम आते ही ऐसे विराट व्यक्ति का चित्र उपस्थित हो जाता है जिसने चेतना के गौरीशंकर को स्पर्श कर लिया। छात्र जीवन में ही भारत माता के चरणों में सेवा का व्रत ले लिया, जो अनवरत-अनथक जारी है। वैदिक ऋषियों की वाणी 'चरैवेति-चैरेवेति’ उनकी हर धड़कन में गूंजती रहती है। मूल्यों व मुद्दों की राजनीति के हिमायती।

14 वर्ष की अल्पायु में दक्षिण के तिरुपति नगर से माता पिता के साथ काशी आए तो यहीं के होकर रह गए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमएससी करने के बाद शोध छात्र के रूप में रजिस्टर्ड हुए तो तीन माह तक वहां पढ़ाया भी। फिलहाल भीतर तो दूसरी ही धूनी रम रही थी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक के लिए वाराणसी, भागलपुर, पटना आदि क्षेत्रों में प्रचारक के रूप में कार्य किया। उसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का बिगुल फूंक दिया। इस आंदोलन में राम बहादुर राय और गोविंदाचार्य की बड़ी भूमिका थी। गोविंदाचार्य मीसा में जेल गए। 1988 सें 2000 तक भाजपा में महामंत्री रहे। वर्ष 2000 से अध्ययन हेतु राजनीति से खुद को पृथक कर लिया। समस्याओं-चुनौतियों से घिरे देश-समाज व इससे निपटने के लिए बौद्धिक, रचनात्मक और आंदोलनात्मक स्तर पर उनका काम जारी है। उद्देश्य अंतिम पात पर बैठे व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान लाना। भारत विकास संगम, कौटिल्य शोध संस्थान और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के जरिए 'विचारों की लौ’  जलाए हुए है जिससे नए भारत का निर्माण हो सके।

जब दुनिया व उसके लोग विविध प्रकार के सरहदों से घिरते जा रहे हो, ऐसे निर्मम समय में गोविंदाचार्य सरहदहीन नजर आते है। भाजपा के 'थिंक टैंक’  रहे गोविंदाचार्य देश की 'रोशन उंगली’ हैं। प्रकृति ऐसे ही 'रोशन उंगलियों’ वाले विराट मानवों को यदि और तैयार कर देती तो नित फैल रहे अंधेरे का रकबा निश्चित है घटता और देश वास्तविक अर्थों में प्रगति-खुशहाली और आनंद के मार्ग की ओर जाता।

देश महात्मा गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष का जश्न मना रहा है तो ऐसे वक्त में गोविंदाचार्य वहां की तस्वीर व तासीर को जानने के लिए गांव-गांव खाक छानते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि सौ साल पहले अंग्रेजों के समय में चंपारण जहां था, वहीं ठिठका है, ठहरा है, उदासी- वेबसी से लिपटा कराह रहा है। विचारक/प्रचारक/ लेखक/ कुशल संगठनकर्ता व प्रखर वक्ता गोविंदाचार्य फैजाबाद आए हुए थे। फैजाबाद से दिल्ली पहुंचते ही चंपारण सत्याग्रह शताब्दी  का सच दिखाने के लिए नरेश व सूरज के अप्रतिम बलिदान व आत्मदाह से उठे सुलगते सवाल और सीबीआई जांच की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर धरने में शामिल हुए।

पेश है बातचीत का प्रमुख अंश

आपने चंपारण की यात्रा में पिछले सौ साल में कितना बदलाव महसूस किया?

गोविंदाचार्य : सरकारें चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष का जश्न मना रही है लेकिन जश्न मनाने जैसा कोई भी बदलाव हमें देखने को नहीं मिला। कई दिनों तक घूमा, अध्ययन किया तो मुझे कई स्थानों पर ऐसा लगा कि काल सौ साल पहले ठहर गया है। खेती-किसानी की पद्धति बदल गई है। गोधन समाप्तप्राय है। खेती-किसानी की जो समृद्धि संस्कृति सौ साल पहले चंपारण में थी, उसमें छीजन आ गई है, समाप्ति की ओर है।


निलहे अंग्रेजों के मुकाबले आज तो अपनी सरकार है, फर्क है भी तो किस स्तर का?

गोविंदाचार्य : सौ साल पहले निलहे अंग्रेजों का बोलबाला था। मजदूर किसान पिस रहे थे। पिछले सौ वर्ष में ३० वर्ष गोरे अंग्रेजों का शासन था। अंग्रेजों के जाने के बाद सरकारें तो बदली है, मगर सरकारों का चरित्र नहीं बदला है। अंग्रेजों के समय की मांई-बांप संस्कृति आज भी है।


किसान, मजदूर व कामगारों की स्थितियों में पिछले एक शताब्दी में कितना सुधार आया है?

गोविंदाचार्य : चीनी मिले बंद है या बंद हो रही है। मिलों से जुड़े किसान मजदूर आगे का रास्ता नहीं खोज पा रहे है। मोतीहारी चीनी मिल के दो मजदूर नेताओं ने आत्मदाह कर लिया, मर भी गए। फिर भी विडंबना यह है कि एक तरफ चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में सरकारों द्वारा जश्न मनाया जा रहा है और उन्हीं दिनों चीनी मिल के दो मजदूर नेताओं नरेश श्रीवास्तव व सूरज बैठा ने आत्मदाह कर लिया। आत्मदाह के घटना की मीमांसा के साथ ही सीबीआई से आत्मदाह के कारणों की जांच जरूरी।

आत्मदाह करने की जानकारी क्या शासन-प्रशासन को नहीं थी?

गोविंदाचार्य : शासन-प्रशासन का श्रमिकों और अन्नदाताओं से संवेदनहीनता चरम पर थी। मिल मजदूरों से मिलने पर एक स्थानीय निवासी ने बताया कि आत्मदाह के दिन भी थाने को खबर दी गई थी। जिम्मेदार लोग आत्मदाह को बस बनरघुड़की समझ रहे थे। मगर इस बार ऐसा न था। आत्मदाह ने एक बार फिर नेता, अफसर और थैलीशाह के अघोषित सांठ-गांठ को उजागर कर दिया।

आत्मदाह करने वाले मजदूर नेताओं के घर की माली हालत कैसी दिखी?

गोविंदाचार्य : उन दोनों मजदूर नेताओं का घर देखने के बाद लगा कि ये नेता थोड़ा दूसरे तेवर के थे, बिकाऊ नहीं थे। सूरज बैठा का घर छपरैल का है। दूसरे नेता नरेश श्रीवास्तव के घर के छत के आधे हिस्से में खपरैल नहंी है। नरेश की माता की कमर की हड्डी टूटने के कारण बिस्तर पर थी।

महात्मा गांधी के नाम पर सरकारें बड़ा-बड़ा आयोजन की, वहीं दूसरी ओर ऐसी स्याह तस्वीर। क्या गांधी के साथ यह छल नहीं है?

गोविंदाचार्य : महात्मा गांधी के नाम पर दलों के लोगों के बीच अस्वस्थ भौंड़ी प्रतियोगिता हो रही थी। सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों दलों के अपने- अपने गांधी थे। सच्चे व वास्तविक गांधी इस भौंडी प्रतियोगिता में कहीं खो से गए।

ऐसा वहां क्या होना चाहिए जिससे कि मजदूर, किसान की हालत में सुधार आए और महात्मा गांधी के सपने साकार हो सके?

गोविंदाचार्य : चंपारण क्षेत्र का रिसोर्स एटलस बनाना है। बुनियादी शिक्षा को बेहतर बनाना है। पदमश्री से विभूषित कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर के मार्गदर्शन में शून्य लागत खेती के प्रशिक्षण के लिए किसानों का शिविर लगे तो वहां की स्थिति में बदलाव आएगा। सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में सामाजिक कार्यकर्ता अपनी क्षमता के अनुसार चंपारण में जिले में समय और शक्ति लगाए, यह वक्त की मांग है। मैं भी महीने में एक बार चंपारण क्षेत्र में जाने की कोशिश करूंगा।


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हाशिम अंसारी — सियासत न करिए बरख़ुरदार | Hashim Ansari - Siyasat Na Kariye Barkhurdar


जी-जान से पत्रकारिता कर रहे उमेश सिंह फ़ैजाबाद से हैं पिछले कुछ वर्षों से 'अमर उजाला' फैज़ाबाद संस्करण सम्हाल रहे हैं . इलाहबाद वि.वि. की पढ़ाई का असर उमेश के लेखन और विचारों में साफ़ दीख पड़ता है. वे हाशिम अंसारी को क़रीब से जानने-समझने वाले रहे हैं, शब्दांकन के लिए हाशिम चचा पर लिखने के मेरे निवेदन को स्वीकारा इसका आप सब पाठकों की तरफ़ से उन्हें शुक्रिया... अब यह आप को देखना है कि आप राजनीति के शिकार ही बने रहेंगे या फिर हाशिम अंसारी साहब से सीखेंगे कि भाईचारा क्या होता है !

भरत तिवारी
संपादक  

hamid Ansari

ताउम्र वनवासी राम रहे हाशिम चचा 

— उमेश  सिंह

राम के नाम और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर राजनीति करने वाले नेता और मंत्री बन गए पर मंदिर और मस्जिद का कुछ नहीं हुआ
Umesh Singh

उमेश  सिंह

पढ़ना-लिखना है ओढ़ना-बिछौना

रहिवास- सदभावना
७/२०/२४०
अशि्वनी पुरम कालोनी
देवकाली मंदिर
फ़ैज़ाबाद  उत्तर प्रदेश
पिन कोड- २२५००१
umeshkapanna@gmail.com
यह अयोध्या है। राजाराम को बिसार देती है लेकिन वनवासी राम उसकी हर सांस में अवगाहन करते है। मंदिर-मस्जिद विवाद में लोग बड़े हो गए पर हाशिम चचा ताउम्र गरीबी-गुरबत में लिपटे रहें। लखनऊ-दिल्ली खुद उनके घर आया। अपने लाभ के लिए हुकूमतें उनके पैरों में लोट गई लेकिन चचा लताड़ दिए। गरीबी में आत्मसम्मान से जीने की कला से वाकिफ थे। पांजीटोला में जीर्ण-शीर्ण मकां और बाहर के कमरे में पड़े तख्ते से लेटे-लेटे जब गुर्राते थे तो लखनऊ से लेकर दिल्ली तक की हुकूमतें कांपने लगती थी। यह एक गृहस्थ सूफी फकीर का ताप था। अक्खड़-फक्कड़ परंपरा के थे। मस्ती की धूनी में रमे रहते थे। बेबाक, बेलौस और अलहदा अंदाज था उनका। बोल कि लब आजाद है तेरे ... के प्रबल हिमायती पर कानूनी बंदिशों में रहकर। तालीम तो कक्षा दो तक ही थी लेकिन समाज के विश्वविद्यालय से पीएचडी थे। क्या मजाल कभी जुबान लड़खड़ाई हो। अयोध्या का यह चिराग बुधवार 20 जुलाई की अलसुबह बुझ गया। सुनते ही हिंदू मुस्लिम सब फफक पड़े। हाशिम अंसारी वर्ष 1949 से बाबरी मस्जिद के लिए लड़ रहे थे। लड़ने की कला कोई चचा से सीखे। नमाज-ए-जनाजा निकला तो मस्जिद चाहने वालों की आंखों में ही नहीं, राममंदिर वालों के आंखों से भी आंसू टपक रहे।



hamid Ansari अयोध्या

दोनों में दोस्ती का आलम यह था कि मुकदमे की पैरवी के लिए दोनों एक साथ ही तांगे-रिक्शे से कचेहरी जाते थे। आपस में बोलते-बतियाते-गरियाते-हंसी-मजाक करते हुए। 

मस्जिद के मुद्दई हाशिम अंसारी का जन्म अयोध्या में 1921 में हुआ। सामासिक संस्कृति की धारा उनकी धमनियों में पीढ़ियों से बहती रही है। हाशिम के पिता करीम बख्श कनक भवन मंदिर में सुरक्षा प्रहरी थे। परिवार के  भरण-पोषण के लिए हाशिम सिलाई का काम करने लगे। वर्ष 1949 में रामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने की घटना के बाद पहली बार वह उभरकर सामने आए। मूर्ति रखे जाने की घटना का विरोध करते हुए उन्होंने इसे हटाने के लिए सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में अर्जी दाखिल की। इसके बाद का सारा इतिहास तो सबके जेहन में है। विवादों की आंच को उन्होंने दिल तक नहीं आने दी। अयोध्या के नाम पर समूचे देश में भले मजहब की दीवारें खड़ी करने की कोशिशें सांप्रदायिक शक्तियां करती रही लेकिन अयोध्या उस दीवार को ढहाने से पीछे कभी नहीं हटी। इसके सबसे बड़ा उदाहरण मंदिर आंदोलन के श्लाका पुरुष रामचंद्रदास परमहंस व हाशिम अंसारी की गहरी दोस्ती में देखा जा सकता है। दोनों में दोस्ती का आलम यह था कि मुकदमे की पैरवी के लिए दोनों एक साथ ही तांगे-रिक्शे से कचेहरी जाते थे। आपस में बोलते-बतियाते-गरियाते-हंसी-मजाक करते हुए। वरिष्ठ पत्रकार इंदुभूषण पांडेय उन दिनों को याद करते हुए बोल पड़े — परमहंस और हाशिम शतरंज खेलने के  शौकीन थे। दोनों की जोड़ी जमती थी तो देखने लायक होती थी। दिगंबर अखाड़े की सीढ़ी पर दोनों लोग दुपहर में ताश खेलते दिख जाते थे। वर्ष 2003 में परमहंस का शरीर पूरा हुआ तो उनके शव के पास सिर रखकर हाशिम फूट-फूट कर रोते हुए बोल पड़े — दोस्त चला गया, अब लड़ने में मजा नहीं आएगा।

इसी अयोध्या से पल्टूदास ने बोला था —
डाल अल्लाह लिखा है, पांत-पांत पर राम।
कौन चिरैया अशगुन बोली जंगल जला तमाम। 
सांप्रदायिक आग जब धधकी और उसने मनुष्यता के जंगल को जलाने की कोशिश की तो उसके खिलाफ हाशिम अंसारी सीना तानकर दो-दो हाथ करने को खड़े हो गए। उपद्रवी तत्वों ने हाशिम चचा के  घर को निशाना बनाया तो परमहंस सहित अयोध्या के कई साधुसंत उनके पक्ष में खड़े हो गए। इस परिस्थिति का फायदा उठाने कुछ लोग हाशिम के घर पहुंच उन्हें दूसरी जगह बसाने की बात कहीं तो वह झट बोल उठे, इसी माटी से पैदा हुआ हूं और इसी में मिल जाऊंगा। सियासत न करिए बरखुरदार। आप चले जाइए, हमें यहां कोई खतरा नहीं है। बेलौस और बेबाक बोलते थे। दिसंबर 2014 के पहले भावुक हो बोल पड़े कि अब रामलला को तिरपाल में नहीं देख सकता। इस मामले की पैरवी नहीं करूंगा। राम के नाम और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर राजनीति करने वाले नेता और मंत्री बन गए पर मंदिर और मस्जिद का कुछ नहीं हुआ। हाशिम मस्जिद तो चाहते थे लेकिन मंदिर बनाने के विरोधी नहीं थे। एक बार कहा था कि हम मस्जिद तभी चाहते है जब उसके निर्माण में हिंदूओं की रजामंदी हो।

hamid Ansari हाशिम अंसारी


हनुमानगढ़ी से जिस मंगलवार को प्रसाद हाशिम के घर नहीं पहुंचता था, वह इसकी शिकायत वहां के महंत से जरूर करते थे। हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास से गजब की यारी थी। महंत ज्ञानदास हाशिम के शव के पास पहुंचे तो फफक पड़े। बोले चला गया मेरा दोस्त। हाशिम के परिजनों को स्नेहिल थपकी देते हुए कहा कि मैं हूं चिंता न करना। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने हाशिम अंसारी को याद करते हुए कहा कि उनका जाना उदास कर गया। अयोध्या के नाम पर धंधा करने वाले करोड़पति हो गए लेकिन हाशिम हमेशा मुफलिसी में रहे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें जरूर जन्नत नसीब होगी। तारीख में तो रहेंगे ही, उन्हें भरे दिल से आखिरी सलाम।

hamid Ansari परमहंस और हाशिम शतरंज खेलने




अमन के फरिश्ता हाशिम अंसारी को बिजली शहीद मस्जिद में जनाजे की नमाज के बाद मणिपर्वत पर शीश पैगंबर स्थित कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। जनाजे में संत-धर्माचार्य, मौलाना, राजनेता सहित भारी संख्या में आम जन अंतिम विदाई के लिए पहुंचे।

hamid Ansari हाशिम के पिता करीम बख्श कनक भवन मंदिर में सुरक्षा प्रहरी थे


दरअसल अयोध्या ने विभेद का व्याकरण पढ़ा ही नहीं है। यह बात दीगर है कि  अयोध्या को आधार बना चालाक-धूर्त किस्म के  लोग अपनी-अपनी रोटी सेंकने में सफल हो गए हो। अयोध्या सबकी — सब अयोध्या के। यहां की माटी में ऐसी खुशबू कि कौन नहीं रींझा यहां से। सभी धर्मों का क्रीड़ागंन रहा। हिंदू, बौध, जैन, मुस्लिम सब के सब यहां पले-पुसे और बढ़े। सदियाँ गुजरती है तो वहां की कोख से कोई फकीर पैदा होता है। अयोध्या के ऐसे ही फकीर थे हाशिम अंसारी जो सिलाई करते-करते रिश्तों की तुरपाई करने में जीवन को लगा दिया। हाशिम चचा जो विवाद में बढ़े, आदमकद हो गए, वह रात की शीतलहरी में कागज के पुतले की तरह गल-ढह जाएंगे। वक्त बड़ा निर्मम होता है, निश्चित है कि समीक्षा करेगा। जब समीक्षा होगी तो आज के आदमकदों का वजूद  मिट जाएगा लेकिन हाशिम चचा लोगों के दिलों में जिंदा रहेंगे।
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