चिड़िया ऐसे मरती हैं — मधु कांकरिया #Hindi #Love Story by Madhu Kankaria


चिड़िया ऐसे मरती हैं — मधु कांकरिया Hindi Love Story by Madhu Kankaria

Hindi Love Story by Madhu Kankaria

'Chidiya Aise Marti Hain'

प्रेम का होना ही है कि संसार दीख पड़ता है. प्रेम की चोली के दामन में सुख और दुःख दोनों एक सिक्के में गढ़े मढ़े होते हैं... और यह संसार जब कभी नहीं होगा तब प्रेम भी, लेकिन प्रेम की कहानी को कुछ नहीं होगा, वो तब भी ज़िन्दा रहेगी जिस तरह अब तक रहती आयी है... मधु कांकरिया की ये कहानी भी बस रहेगी... आप पाठक ने 'प्रेम' किया है और आप जानते हैं कि 'उसकी कहानी' आपमें है मगर आप यह नहीं जानते हैं कि आपकी दास्ताँ 'इस कहानी' में है जिसे आप पढ़ने जा रहे हैं.........
शुक्रिया मधु कांकरिया 
शुक्रिया रोहिणी अग्रवाल का जिन्होंने अपने लेख में  'चिड़िया ऐसे मरती हैं ' को लिखा और जिसे पढ़ के पता चला कि .... यह कहानी लिखी जा चुकी है.

आइये आग में डूबिये/ कि पार पाना है 

भरत तिवारी
संपादक शब्दांकन


मेरे कानों में हमेशा उसके बोल गूंजते रहते...पिय बिन सूनो है म्हारो देस। मुझे लगता, उसके प्रेम की खुशबू मेरे वजूद में इस कदर गुंथ गई है कि दुनिया के सारे डिटर्जेंट भी मिलकर उसे धो नहीं सकते। वह मोबाइल फोन का जमाना नहीं था। लैंड लाइन फोन का जमाना था। मैं कई बार दोपहर में उसके घर फोन मिला देता, वह हैलो-हैलो करती रहती। मैं उसकी आवाज के मनके को बीनता रहता पर कभी भूलकर भी जवाब नहीं देता। 


चिड़िया ऐसे मरती हैं — मधु कांकरिया

बात उन युवा और भटकते आवारा दिनों की है जब हम अकसर भिड़ जाया करते थे। देश, समाज और राजनीति पर बतियाते-बतियाते ‘औरत’ पर आ जाया करते थे। मेरे मित्र मेघेन के बड़े भाई विजय भी उस दिन की हमारी बैठक में शामिल थे। बड़े धैर्य और खामोशी के साथ वे हमारी बहस सुन रहे थे, पर जब हमारी बातें भटकती हुई ‘औरत’ पर अटक गईं तो वे चुप्पी संभाल नहीं पाए। शायद वे घाव खाए हुए थे। उनका मत था कि औरतें एक ही साथ कई समय और आयामों को जी लेती हैं जबकि पुरुष ऐसा नहीं कर पाते। अपनी बात की पुष्टि के लिए उन्होंने देवदास की पारो का उदाहरण लिया जो अतीत और वर्तमान दोनों के बीच आवाजाही कर रही थी। जो विवाह होते ही अपने हाथीपोता गांव की जमींदारी, हवेली, पति-बच्चों और सास की दुनिया भी संभाल रही थी और मन की दुनिया भी। जबकि देवदास पूरी तरह अतीत, प्रेम और स्मृतियों का ही होकर रह गया था। पारो से क्या बिछुड़ा कि जिंदगी ही हाथ से निकल गई।

“वे अतीत से मुक्त होते ही वर्तमान को साध लेती हैं इसलिए जिंदगी में हमसे कहीं ज्यादा कामयाब होती हैं।” बोलते-बोलते विजय एक संजीदा चुप्पी में डूब गए थे।

मेरा मानना था कि स्त्री हो या पुरुष, इनसान इतनी आसानी से पकड़ में आने वाली चीज नहीं है। उसके संघर्ष, विकास और आत्मिक उन्नयन की कहानी हर जगह नई है। क्योंकि बहुत कुछ यह जिंदगी के दबाव, उसकी सोच, मूल प्रवृत्ति और परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। फिर व्यक्ति, परिवार और समाज के अंतर्निहित संबंध भी मामले को और पेचीदा बना देते हैं। फर्ज कीजिए, यदि देवदास सामंती जमींदार परिवार का नहीं होता, किसी श्रमजीवी परिवार का इकलौता कमाने वाला होता, साथ में छोटे-छोटे भाई-बहन और बीमार विधवा मां होती तो क्या वह प्रेम में इस प्रकार आत्मविश्वास की विलासिता पाल पाता? बहरहाल, इसी बहस के दौरान मेरे कथाकार के भीतरी ठहरे शांत जल में पहली हलचल मची थी और इस कहानी का बीज पड़ गया था।

उस गहराती सांझ की डूबती उदासी में जाने क्या बीता था विजय पर, यादों के जख्म कि जख्मों की याद, कि अव्यक्त का दबाव वे और अधिक झेल नहीं पाए थे, जैसे गर्मी पाकर अनार फूट पड़ता है, जैसे माटी से कोंपल फूट पड़ती है। विजय के शब्द हमें सम्मोहित करते गए थे। विजय ने कहना शुरू किया—

“मित्रों, मैं आज भी उस रिश्ते को घाटे का सौदा नहीं मानता बल्कि यह मेरे जीवन का वह अनुभव था जिसने मुझे राजा भर्तृहरि की तरह जिंदगी के सत्य-असत्य का अनुभव कराया। जिसने मेरे स्वप्निल मानस, कल्पनाशील आत्मा और इंद्रधनुषी मिजाज पर यथार्थ का गिलाफ चढ़ाया। जिसने मुझे सही अर्थों में जिंदगी से मिलाया। मुझे खोला।”

बोलते-बोलते उन्होंने चारमीनार की पीली डिब्बी से निकाल एक सिगरेट सुलगाई। कुछ क्षण रुके, जैसे शून्य में से कुछ खोज रहे हों या सही शब्दों का चुनाव कर रहे हों, थोड़ा धुआं छोड़ा उन्होंने और फिर कहने लगे—मित्रो, स्वप्न और यथार्थ के थपेड़े खाते मेरे वे लमहे जो मुश्किल से 25 मिनट से भी कम रहे होंगे पर जिन्होंने औरत और जिंदगी पर मेरी समझ को पूरी तरह बदल ही डाला था, उन लमहों में मैंने देखा था एक स्त्री के अंतःकरण को पुनर्जन्म लेते। उस 25 मिनट की कहानी को सुनाने के लिए मुझे आपको दस साल पीछे ले जाना होगा। क्या आप लोगों में है इतना धैर्य उस पूरी कहानी को सुनने का? हम तल्लीन होकर उन्हें सुन रहे थे, हमने हामी भरी। उन्होंने कहना जारी रखा—

मेरी कहानी जिंदगी के उस दौर से शुरू होती है जब मेरे सपने हर रात मुझे रेशमा के पास ले जाते थे। दरअसल लंबी बेकारी के चलते उन दिनों जिंदगी मुझसे बेमानी हो चुकी थी और मैं उससे लगातार भागता फिर रहा था। हर सुबह मैं खुद को समझाता कि आने वाली शाम शायद नौकरी की कोई सौगात लेकर आए मेरे द्वार; पर शाम मुझे ना-उम्मीद करती। ऐसी ढेरों शाम गुजरने के बाद भी जब कोई ठीक-ठाक नौकरी का जुगाड़ मैं नहीं बैठा पाया तो जिंदगी की इस जिल्लत से छुटकारा पाने के लिए खुदकुशी का खयाल मुझे किसी प्रेयसी सा ही लुभाने लगा था।

क्योंकि मेरे सभी दोस्त अपने-अपने ठिकाने लग चुके थे। कुछ को अपने बाप-दादाओं का पुश्तैनी धंधा रास आ गया था तो कुछ ने अपने को किताबी कीड़ा बना डाला था और रात-दिन ‘कम्पीटीशन सक्सेस रिव्यू’ या ‘कम्पीटीशन मास्टर’ जैसी जनरल नॉलेज की पुस्तकों को घोट-घोटकर बैंक में क्लर्क बन जीवन की बाजी मार गए थे। बचे-खुचे खुशनसीब स्कूल या कॉलेज में पार्ट-टाइमर हो गए थे। थके-मरे उन दिनों मेरे लिए खाली हाथ और खाली उम्मीद घर में घुसने से बढ़कर लज्जाजनक इस संसार में कुछ भी नहीं था। शुरुआती दिनों मां और बापू जरूर पूछते—बैठा जुगाड़? बाद में तो उन्होंने पूछना भी बंद कर दिया था। बजाय पूछने के उन्होंने मेरा चेहरा पढ़ना शुरू कर दिया था। मुझे लगता मैं इस सृष्टि की सर्वाधिक निकृष्ट और अधूरी रचना हूं, बल्कि एक कीड़ा हूं, धीरे-धीरे रेंगने वाला। पराश्रित, परजीवी। क्योंकि मनुष्य वह होता है जिसके पास और चाहे कुछ हो न हो पर एक नौकरी जरूर होती है, नौकरी से मिलने वाली इज्जत होती है, घर से निकलने की हड़बड़ी होती है, जिसके पास वक्त नहीं होता है। जबकि मेरे पास यदि कुछ था तो वह वक्त ही था जिसे मैं काट नहीं पा रहा था, इस कारण वक्त मुझे काट रहा था। बहरहाल...ऐसे ही गर्द भरे बेकार और आवारा दिनों में कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी में मेरी मुलाकात रेशमा से हुई। उसे जय गोस्वामी और विष्णु दे की कविताओं की कोई किताब चाहिए थी। नेशनल लाइब्रेरी किताबों का एक अथाह समुद्र था और उसे जल्दी थी। उसे परेशान देख मैंने कहा कि वह सुविधानुसार किसी दूसरे दिन आ जाए, किताबें उसे मिल जाएंगी। उसने अविश्वास से मुझे देखा। मैंने हंसकर कहा—फुरसतिया आदमी हूं, किताबों के समुद्र से आपकी किताबों का कैटलॉग नंबर खोजकर, नोट कर लाइब्रेरियन को दे दूंगा। लाइब्रेरियन अच्छा आदमी है और मुझे जानता है क्योंकि पूरी दोपहर यह रीडिंग रूम ही मेरा बसेरा होता है और किताबें मेरी हमसफर जो थपथपाती रहती हैं मुझे जब-तब।

मेरी बात सुनकर हंस पड़ी वह और तभी मैंने नोट किया कि हंसते वक्त उसके गालों में गड्ढे पड़ते थे, ठीक वैसे ही जैसे शर्मिला टैगोर के गालों में पड़ते थे।

बोलते-बोलते विजय चुप हो गए...शायद उन्हीं गड्ढों में गिर गए थे।

विश्वजीत ने उन्हें हलके से हिलाया, वे झेंप गए और फिर चालू हो गए।

—हां तो मित्रो, अगले सप्ताह वह फिर आई और यह इत्तफाक ही था कि मैं भी वहीं था रीडिंग रूप में। किताब पाकर एक तृप्ति उसके चेहरे पर फूल सी खिल गई। उसने कृतज्ञता भरी आंखों से देखा मेरी ओर। उस दिन उसने हलके गुलाबी रंग का सलवार-सूट पहना हुआ था जो उस गुलाबी सांझ उस पर बहुत फब रहा था। कच्चे डाव से भरी-भरी और बदन से निकलती हलकी-हलकी खुशबू की लहर। गोरेपन की ओर उन्मुख सांवला रंग, तीखे नैन-नक्श, गहरी काली कटीली आंखें और धीमी खनकती आवाज। वह बंगाली सौंदर्य का एक नायाब नमूना थी। आविष्ट और अभिभूत सा मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगा कि उसने हठात् पूछा...आप क्या करते हैं? बस उसी क्षण सब कुछ चरमरा गया...मैं औंधे मुंह गिर पड़ा। किसी प्रकार शब्दों का गला घोंटते हुए मैंने कहा—बेकार हूं। नौकरी की तलाश में भटक रहा हूं।

उसने कहा कुछ नहीं, बस अपनी झील-सी गहरी काली आंखें मुझ पर टिका दीं, सहानुभूति और हमदर्दी की अपार लहरें थीं वहां, जिसे देख मैं प्रकंपित हुआ और अपने सारे दुःख-दैन्य को भूल कामना करने लगा, इंशाअल्लाह, जिंदगी में और कुछ मिले या न मिले पर कुछ पल की मोहलत जरूर मिले इन झरोखों में बैठने की, इस झील में डुबकी लगाने की।

वह स्टॉपेज तक मेरे साथ-साथ चलने लगी। मैं निहाल हो गया। जैसे कांसे का कटोरा जमीन पर गिर गया हो, बिना उसे छुए ही मेरा शरीर झनझना उठा। पहली बार मुझे पहला सुख मिला। पहली बार चैन की तलाश में भटकते मेरे चित्त को विश्वास का ठौर मिला, क्योंकि एक लड़की थोड़ी दूर ही सही, मेरे साथ-साथ चली थी।

उन अविस्मरणीय पलों में ही मैंने जाना कि मौसम बदलते ही सपने कैसे रंग बदल देते हैं कि स्वप्न ही जीवन के सबसे बड़े यथार्थ होते हैं। बहरहाल...वह बिना बोले भी बोलती जा रही थी और मैं अपने सपनों में रंग भरने में लगा हुआ था कि स्टॉपेज आ गया। उसने पूछा...”आप कहां तक पढ़े हुए हैं?”

मैंने बेसब्री से बताया कि मैंने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया है। उसकी आंखें इंजन के सर्चलाइट सी चमकने लगीं, “ख़ूब-भालो। यदि आपके पास समय हो तो मेरे दो नालायक छोटे-छोटे भतीजे हैं, इसी साल उनका बोर्ड है, उनकी भाषा बहुत कमजोर है और इम्तहान करीब हैं, आप उन्हें पढ़ा दें तो आभारी रहूंगी। बस, हिंदी-इंगलिश आप संभाल लें, बाकी विषय में ठीक-ठाक हैं।”

अंधे को क्या चाहिए। मैंने इतनी उतावली में हामी भरी कि वह हंस पड़ी। मैंने कहा—कम से कम इन जवान हाथों को बूढ़े हाथों से लेने की इस जिल्लत से तो निजात मिलेगी। वह शायद भीतर तक भीग गई थी। मेरी हताशा को पीछे धकेलते हुए उसने मुझे मिल्टन की एक कविता सुनाई—दे आल्सो सर्व हू वेट एंड स्टैंड (वे भी सर्व करते हैं जो सिर्फ खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे होते हैं)। मैं प्रभावित हुआ वह सिर्फ मोहक ही नहीं थी, बल्कि सांवला सौंदर्य, बुद्धि और संवेदना के रेशमी धागों में गुंथी हुई भी थी।

उस सांवली शाम पहली बार मैंने जिंदगी को कोसना छोड़ जिंदगी के सामने सिर झुकाया। बताना मुश्किल है कि उन उजाड़ भटकते आवारा दिनों में मुझे किसने अधिक संभाला, मिल्टन ने कि रेशमा ने। उसे जानते-जानते मैं प्यार करने लगा था और प्यार करते-करते जानने लगा था। उसे सुनते-सुनते मैं अपने भीतर की आवाज सुनने लगा था। उसे देखते-देखते अपने आप को, अपने आसपास को देखने लगा था। आते-आते हम इतना करीब आ गए थे कि एक-दूसरे के आसमान में उड़ने लगे थे। वह मेरे जीवन में इस कदर छा गई थी कि उसका होना तो होना था ही, उसका नहीं होना भी होना होता था। जब वह साथ नहीं होती तो उसकी हंसी की लहरों पर मैं देर तक तैरता रहता और सोचता रहता कि ऐसी निश्छल हंसी ही संसार को बचाएगी। उससे मिलने से पूर्व मैं बंगालियों से बहुत चिढ़ता था। ‘चोलबे ना! चोलबे ना!’ का उनका ‘कानूनी दिमाग’ मुझे विरक्ति से भर देता था; पर अब बंगाली मुझे दुनिया की सबसे उम्दा कौम लगती। मुझे हर बंगाली में सुभाष, टैगोर, बंकिम और नजरूल झांकते नजर आते। उत्तर कोलकाता में एक दुकान है ‘नेताजी’, कहते हैं कि जब नेताजी को अपने प्रोफेसर को जो बात-बात पर भारतीय जननायकों की हंसी उड़ाता था, थप्पड़ मारने के अपराध में प्रेसिडेंसी कॉलेज से निकाल दिया गया था तो उन्होंने कोलकाता के मिशनरी कॉलेज, ‘स्कोटिश चर्च कॉलेज’ में दाखिला ले लिया था जो इसी ‘नेताजी’ दुकान के पास पड़ता था। सुभाष बाबू अपने कॉलेज के दिनों में इसी दुकान पर खड़े होकर प्याजी, बैगूनी और आलू चॉप खाते थे। उस दुकानदार ने न केवल नेताजी के नाम पर अपनी दुकान का नाम ‘नेताजी’ रखा वरन् हर 23 जनवरी को नेताजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में पूरे कोलकाता को मुफ्त में बैगूनी, प्याज और चॉप खिलाता था। बंगालियों के इसी नेताजी प्रेम से प्रभावित होकर मैंने भी 23 जनवरी को रेशमा के साथ लाइन लगाकर उस दुकान से प्याजी खाई और नेताजी को श्रद्धांजलि दी।

बोलते-बोलते विजय फिर भावुक हो गए थे। उनकी आंखों में यादों के ढेर सारे चिराग भक से जल उठे थे। होंठों पर उंगली रखे वे जाने क्या सोचते रहे। खिड़की से टुकड़े भर दिखते आसमान में जाने क्या देखते रहे। थोड़ी देर रुककर मेज पर रखे गिलास से दो घूंट गटके, आंख के चश्मे को ठीक किया और फिर कहने लगे—मित्रो, हर दिन मेरा प्यार अधिक चमकीला और विराट् होता जाता था। उसे प्यार करते-करते मैं उसके विचारों, उसकी संस्कृति, यहां तक कि उसके रीति-रिवाजों और कवियों-लेखकों तक को प्यार करने लगा था। अब मैं टैगोर, जीवनदास, नजरूल और समरेश बसु को पढ़ने लगा था। मां रसोई में होती और पूछती क्या बनाऊं तो मेरा मन कहता कह दूं—राधाबल्लभी बना। मां शाम को पूजा करती तो मन कहता कह दूं—तुम बंगालियों की तरह शंख क्यों नहीं बजातीं, कितना मंगलमय लगता है बजते हुए शंख को सुनना। घर से निकलते वक्त बहन ‘बाई-बाई’ कहती तो हठात् मेरे मुंह से निकल पड़ता, ‘आस्छी’ (आता हूं)।

एक दिन एक बंगाली कविता मेरे हाथ लग गइ। ‘बाग्ंलार मुख देखे आच्छी आमि, ताइ देखते चाइना आर कारो मुख (बाग्ंला का मुख देख चुका हूं, इस कारण नहीं चाहता किसी और का मुख देखना) मैंने इतनी तबदीली की कि इसमें ‘बांग्लार मुख की जगह जोड़ दिया ‘रेशमार मुख (रेशमा का मुख)’। उसने सुना और वीरबहूटी बन गई।

मैंने चुटकी ली—लाडो, तू तो बीकानेर की केसरिया फीणी बन गई है।

उसके रसीले होंठों पर शरारत की चिड़िया फुदकी, अपनी रसभरी चितवन से रस की धारा उड़ेलते हुए उसने मुझे देखा और नहले पर दहला मारते हुए कहा—छेले मानुष, तूमि होच्छो कोलकातार...(बच्चू, तुम हो कोलकाता के...) कि मैंने उसे बीच में ही लपक लिया और कहा—रोसगुल्ला। ‘ना गो, झाल मूड़ी’ (जी नहीं, मसाला मूड़ी)।

अपने कहे पर वह आप ही हंस पड़ी। मैं भी हंस पड़ा। हम स्टॉपेज तक साथ-साथ चलने लगे। एकाएक हवाएं महकने लगीं। उसके बाल उड़ने लगे। उसके दुपट्टे का सिरा मुझे छू-छूकर लौटने लगा। मैंने सांझ के छुटपुटे में उस खरगोश लड़की के नाजुक पंजों को अपनी गरम-गरम हथेलियों में दबा लिया था और अपने होंठों से छुआ दिया था। मेरा रोम-रोम झनझना उठा था। उस अलबेली शाम सौंदर्य, यौवन और प्रेम, ये तीनों सत्य जैसे मिलकर मुझे मालामाल करने पर आमादा थे। मैंने महसूसा...मेरे अस्तित्व के अणु-अणु ने महसूसा, मेरे रोम-रोम ने कहा यह झनझनाहट, यह आवेग, यह पुलक, यह स्पर्श...यही सत्य है...बाकी सब झूठ है, बाजार है।

चलते-चलते उसने पूछा—ऐ झाल मूड़ी! तोमार बयस कोतो रे (झाल मूड़ी, तेरी उम्र कितनी?)!

मैंने कहा—ग्यारह महीने।

वह चौंकी—ए मां, से कि? (हे राम! सो कैसे?)

मैंने जवाब दिया—इनसान जन्म चाहे कभी ले, जीना तो वह तभी शुरू करता है जब प्रेम करना शुरू करता है। वाह! खूब भालो—वह एकाएक चिड़िया बन गई और चहचहाने लगी। गलियों में झूलते रोशनी के गुच्छे एकाएक जगमगाने लगे। दोस्तो, ऐसी कई अविस्मरणीय शामें मैंने उसके साथ बिताईं। ऐसी ही एक चमकदार शाम मैंने विदा होते उसके कान में फूंक मारी—‘तूमि रवे नीरवे हृदय मम, मम जीवने, मम यौवने, मम सकल भुवने तूमि भोरवी’ (तुम मेरे हृदय में रहोगी, मेरे जीवन-यौवन...मेरे सारे अस्तित्व में तुम सुगंध बिखेरती रहोगी)

उसने मेरे बंगाली प्रेम और कविता की तारीफ में कुछ नहीं कहा। मैं जल-भुन गया। लेकिन ठीक अलग होते क्षणों में उसने मेरे कान में दूसरी फूंक मारी—मांझी न बजाओ वंशी कि मेरा मन डोलता...

मैं हरिया गया। स्प्रिंग की तरह उछल पड़ा—बैंगी, (बंगाली छोकरी) तुम हमारे केदारनाथ तक कैसे पहुंच गईं? उसने पलटी मारी—मेड़ो छेले (मारवाड़ी छोकरा) जैसे तू पहुंच गया हमारे रवि बाबू तक। देर तक हम दोनों हंसते रहे। हंसते-हंसते देखते रहे।

मन एकाएक वृंदावन हो उठा। जिंदगी कविता बन गई और कविता जिंदगी।

विजय फिर रुक गए। कमरे की खिड़की से किसी पेड़ की कुछ टहनियां दिख रही थीं जिस पर कबूतर-कबूतरी के कुछ जोड़े बैठे थे। विजय उन्हें हसरत से देख रहे थे, शायद अतीत हूक बन हांट कर रहा था उन्हें। हमने पूछा—फिर क्या हुआ? उनकी आवाज थरथराई। किसी वीतरागी की तरह उन्होंने हमें देखा और जवाब दिया—फिर क्या होता? जैसे हर सपने आसमान की उड़ान भरने के बाद ध्वस्त हो लौट आते हैं धरती पर, जैसे हर झरना शिखर पर जाकर अवरोही मोड़ ले लेता है वैसा ही कुछ लेकिन नहीं हुआ मेरी कहानी के साथ।

तो फिर क्या हुआ—हमने एक साथ पूछा।


Madhu Kankaria
जन्म   23rd March, 1957
शिक्षा :M.A. (Eco),Diploma (Computer Science)

उपन्यास 
• खुले गगन के लाल सितारे
• सलाम आखरी
• पत्ता खोर
• सेज पर संस्कृत  
• सूखते चिनार
कहानी संग्रह
• बीतते हुए
• और अंत में ईसु
• चिड़िया ऐसे मरती है
• भरी दोपहरी के अँधेरे (प्रतिनिधि कहानिया)
• दस प्रतिनिधि कहानियां
• युद्ध और बुद्ध
सामाजिक विमर्श 
• अपनी धरती अपने लोग
• यात्रा वृतांत : बादलों में बारूद
सम्मान 
• कथा क्रम पुरस्कार 2008
• हेमचन्द्र स्मृति साहित्य सम्मान -2009
• समाज गौरव सम्मान -2009 (अखिल भारतीय मारवारी युवा मंच द्वारा)
• विजय वर्मा कथा सम्मान  2012
अनुवाद
• सूखते चिनार का तेलगु में अनुवाद
• Telefilm - रहना नहीं देश विराना है, प्रसार भारती
• पोलिथिन  में पृथ्वी कहानी पर फिल्म निर्माणाधीन
सम्पर्क :
H-602,Green Wood Complex, Near Chakala Bus Stop,
Anderi Kurla Rd, Andheri (East),
Mumbai-400093.
Mobile:-09167735950.
e-mail: madhu.kankaria07@gmail.com


वे मुस्कुराए। उदासी का अक्स भी झलका उस मुस्कुराहट में। धीरे-धीरे जवाब आया—बहुत अद्भुत हुआ मेरी कहानी के साथ। दोस्ती, जब सब कुछ दिव्य-दिव्य सा आगे बढ़ रहा था कि तभी एक गुलाबी शाम उसने छूटते ही मुझसे कहा—मुझे भगा ले चल।

मैं आसमान से गिरा...क्या कह रही हो? तुम्हें भगा ले चलूं? उसने अपने उसी अद्भुत अंदाज में कहा...क्योंकि अब मामला प्राइवेट से पब्लिक हो गया है। हमारे प्रेम की खुशबू मेरे बाबा (पिता) तक पहुंच चुकी है। उन्हें हर तरह की खुशबू से एलर्जी है फिर प्रेम की खुशबू तो दूर तक करंट मारती है। मैंने उसे झकझोरा—देख, मेरी जान पर आ बनी है और तू पहेलियां बुझा रही है। भालो करे बोल व्यापार टा कि? (ठीक से बता मामला क्या है?)

वह गमगीन हो गई—पूरा सत्य तो मुझे भी नहीं पता। मेरी मां हमेशा से ही बीमार रहती है, कल बाबा ने बताया कि—डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है, मुश्किल से छह महीने की मियाद बची है। मां चाहती है, उनके हाथों मेरा कन्यादान हो, इसीलिए एक हीरो आ रहा है इसी रविवार को उसका उद्धार करने, यदि उसने हां कर दी तो इसी फाल्गुन में...।

—ओह नो! भीतर के जंगल में न जाने कितने परिंदे जैसे एक साथ फड़फड़ाए।

वह एक क्षण जैसे मेरे समूचे जीवन की पराजय का क्षण बन गया था। यदि मैं कुछ न कर पाया तो...उफ! प्रेम ने रूमाल हिलाते-हिलाते मेरी आंतरिक सत्ता को हिला दिया था।

मुझे असमंजस, परेशानी और अनिश्चितता की नोक पर टंगा देख उसने मेरे चेहरे को अपनी हथेली में भरकर कहा—सही बता, क्या चल रहा है तेरे भीतर। साथ देगा न मेरा...। देख मेड़ो तू कहीं जैसलमेर की बालू का टीला मत बन जाना, जो बनते-बिगड़ते रहते हैं हवाओं के मूड़ पर, आज यहां, कल वहां।...

मैंने उसे गले लगाते हुए कहा...नहीं लाडो, मैं जैसलमेर का टीला नहीं विंध्याचल की पहाड़ी हूं, जो अटल रहती है अपने इरादों में। उसने अपने तप्त होंठ मेरे माथे पर छुआ दिए और कानों में गुनगुनाई, ‘पिय बिन सोना है म्हारो देश।’ मैंने उसे ठीक किया, लाडो, ‘सोना’ नहीं ‘सूना’। तूने जो कहा उसका मतलब तो है कि पिया के बिना सोना है मेरा देश। ऐसी उदास घड़ी में भी हम दोनों खिलखिला पड़े। मैं फिर चमत्कृत हुआ। वह तेजी से मेरे सपनों और मेरी संस्कृति की हिस्सेदार होने लगी थी। केदारनाथ से मीराबाई तक पहुंच गई थी, जबकि मैं रवींद्रनाथ में ही डूब-उतरा रहा था। नहीं, मुझे उसका साथ निभाना है, चाहे जैसे भी हो।

मैं घर चला आया और देखता रहा अपनी मां और युवा बहन को, वृद्ध होते पिता को। अपनी 110 वर्ग फीट के सीलन भरे, पलस्तर उखड़ी दीवारों वाले घर को। क्या इसमें समा सकती है मेरी रेशमा? क्या ऊंट की समाई हो सकती है चूहे के बिल में? क्या साझे शौचालय में डिब्बा लेकर जा सकेगी वह? उफ! जो प्रेम अभी धरती की गर्द-धूल से दूर आसमान में उड़ान भर रहा है उसे समय पूर्व धरती पर उतार दिया मैंने तो क्या बच पाएगा वह प्रेम? उफ! मैं क्या करूं?

खुले आसमान में काली चील सी उड़ती वह रात, जो बीतकर भी आज तक नहीं बीती। ठीक ही कहा है इसे आग का दरिया। यह सत्य था कि यदि मैं उसे भगाकर ले भी आता तो भूखा मरने की नौबत नहीं आती, क्योंकि तब तक एक कामचलाऊ नौकरी मुझे मिल गई थी। पर मैं डर गया था जिंदगी से दूर अपने परिजनों के सामने जिंदगी को इतनी जल्दी अपने आगोश में लेने से। भोर के अर्द्ध जागते-सोते पलों में, चेतन-अवचेतन के संधि-स्थल पर कोई झुटपुटा सा आलोक कौंधा और जैसे मुझे चेतावनी दे गया—यदि इस चांद को मैंने धरती पर उतार दिया तो सब कुछ चौपट हो जाएगा।

अगली शाम पानी में डोलते जहाज की तरह अपने डांवाडोल चित्त के साथ जब मैं पहुंचा उसके पास तो वह जैसे भागने को तैयार ही बैठी थी, छूटते ही पूछा उसने—तो कब भाग चलूं? मैं जम गया। एक मन किया कह दूं, चल अभी, पर तुरंत ही कबूतर के दड़बे जैसा घर स्मृति में कौंध गया, जहां सुबह ही वृद्ध पिता ने उल्टी कर दी थी तो मुझे तब तक बाहर खड़ा होना पड़ा था जब तक मां ने फिनाइल से पोंछा मार दुर्गंध को पछाड़ नहीं दिया था। मेरे मुंह से निकल पड़ा—मुझे छह महीने का समय दे लाडो, तब तक एक छोटा सा घर ढूंढ़ लूंगा...। तेरे जैसे चांद को इस अंधेरे में कैसे रखूं? छह महीने? उसकी पनीली आंखों में निराशा गहरा गई। खामोशी से उसने झांका मेरी आंखों में, शायद उसने मेरी घनघोर विवशता पढ़ ली थी। फिर वह मुझसे मिलने नहीं आई और एक दिन आया उसकी शादी का निमंत्रण कार्ड। टूटे मन से मैं उसके घर गया तो उसके भाई ने अपना भाई धर्म निभाते हुए मेरा मार्ग रोकने की चेष्टा की। लेकिन मेरी आवाज सुन वह खुद सामने आ गई। अपने भीतर उठते प्रचंड झंझावात पर काबू पाने के लिए मैंने उसे अपने आगोश में लिया, यह सोचते हुए कि अब वह मुझे कभी भी नहीं मिल पाएगी। मैंने महसूसा...वह कांप रही थी। मैंने इस प्रकार भींचा उसे जैसे सदा के लिए अपने भीतर उतार लेना चाहता हूं। मैंने बोलने की चेष्टा की तो मेरा गला भर आया, शब्द चुक गए। मैंने हंसना चाहा तो आंखों में आंसुओं की झिलमिल बन गई। मैंने उसके माथे पर हाथ फेरना चाहा कि तब तक उसकी मां आ गई, आवेग में मैंने उसकी हथेलियाँ को अपने हाथों में दबा लिया। वे लमहें हम दोनों पर भारी थे। हम दोनों थरथरा रहे थे। उसकी मां खींचने लगी...दो बंधे हाथ छूटे और दो विपरीत दिशा की ओर अग्रसर हुए ।

हम सभी भावाविष्ट हो सुन रहे थे उन्हें। गोधूलि सांझ के सन्नाटे में उनकी आवाज का कंपन छू रहा था हमें। कहीं-कहीं उनकी प्रेम कहानी हमारे भीतर जाने कब से दबी पड़ी किसी आदिम प्रेम कहानी को छूकर हमें भी उद्वेलित और विचलित किए जा रही थी। जमी बर्फ से जमे हमारे निजी कोने भी अनायास पिघलने लगे थे...कि तभी उद्दंड मेघेन पीछे से चिल्लाया—तो इसमें अद्भुत बात क्या हुई?

उन्होंने फिर एक सिगरेट सुलगाई और धुएं के छल्लों को देखते रहे दार्शनिक अंदाज में। फिर धीरे-धीरे कहना शुरू किया उन्होंने—मित्रो, असली कहानी तो अब शुरू होती है। मित्रो, मुझे कभी नहीं लगा कि मैं अपने सपनों के खंडहर में अपने आंसुओं और पीड़ाओं के साथ अकेला खड़ा हूं। मुझे कभी नहीं लगा कि मैंने उसे खो दिया है। प्रेम और सौंदर्य का जो पौधा उसने मेरी आत्मा में रोपा था वह दिन पर दिन सघन होता अपनी सुगंध फैला रहा था। मेरे कानों में हमेशा उसके बोल गूंजते रहते...पिय बिन सूनो है म्हारो देस। मुझे लगता, उसके प्रेम की खुशबू मेरे वजूद में इस कदर गुंथ गई है कि दुनिया के सारे डिटर्जेंट भी मिलकर उसे धो नहीं सकते। वह मोबाइल फोन का जमाना नहीं था। लैंड लाइन फोन का जमाना था। मैं कई बार दोपहर में उसके घर फोन मिला देता, वह हैलो-हैलो करती रहती। मैं उसकी आवाज के मनके को बीनता रहता पर कभी भूलकर भी जवाब नहीं देता। मैं स्वयं अपनी पीड़ा का ईश्वर था, इस कारण नहीं चाहता था कि उसके संसार में मेरे चलते कुछ भी खलबली मचे। नदी की उदास धारा की तरह दिन बीतते रहे। समय दौड़ता रहा लेकिन मैं वहीं का वहीं खड़ा रहा। हर रात वह मेरे सिरहाने आकर खड़ी हो जाती। उसके खयाल मेरे ख्वाब बन जाते। उन ख्वाबों के पंख झड़ते भी तो मैं उन्हें बटोरकर वहीं चिपका देता। मैंने उन ख्वाबों के मोतियों की आब धुंधली न होने दी। मां ने कई बार शादी के लिए कई लड़कियों की तस्वीरें दिखाईं। सूनी रातों की निस्तब्धता में मैं एक-एक कर उन लड़कियों की तस्वीरें देखता, मेरी यादें कांपने लगतीं, मेरी आंखों के आगे गड्ढा आ जाता, मैं उसे पार नहीं कर पाता। वह गड्ढा रेशमा के गालों का होता था। मैं मां को सारी तस्वीरें वापस लौटा देता। मां रोने लगती तो मैं उसे समझाता—मां, उसकी आवाज ‘मुझे भगा ले चल’ मेरे भीतर इस कदर कुंडली मारकर बैठ गई है कि अब कोई दूसरी आवाज मेरे भीतर घुस नहीं सकती। मेरे जीवन में जो कुछ भी सुंदर था, उसी के साथ था। ‘कभी खुशी से खुशी की तरफ नहीं देखा/तुम्हारे बाद किसी की तरफ नहीं देखा/ये सोचकर कि तेरा इंतजार लाजिम है/तमाम उम्र घड़ी की तरफ नहीं देखा’, मैंने मां को सुनाई अपनी पीड़ा। मां ठंडी सांस लेती, आंखें पोंछती और शिवजी की तस्वीर देखते-देखते जाने कब सो जाती, पर मेरी नींद उचट जाती। मैं उसके खयालों से खेलता रहता। उसके ख्वाबों की पंखुड़ियां रात भर मेरे बिछौनों पर झरती रहतीं। सुबह उठकर मैं उन्हें बुहार देता।

बहरहाल...अपने अकेलेपन की सीपी की कैद में जी रहा था कि एक धूप भरी दोपहर जाने किस अप्रत्याशित संयोग से किसी स्वप्न और यथार्थ की तरह वह मुझे मिल गई। मैं मैट्रो सिनेमा हॉल के सामने वाले स्टॉपेज पर खड़ा था और वह बस से उतर रही थी। अरे...अरे...मैं ठिठक गया। मेरी नस-नस झनझना उठी। एकाएक सारा परिवेश धुला-धुला, निखरा-निखरा और रोमानी हो गया था। मेरे रोम-रोम में जैसे कोई अनजान रागिनी बज उठी।

सामने वह थी।

वन की हिरणी सी वह भी चौंकी। तुम...आप...मैं शब्दातीत था; पर आंखें अपना काम कर रही थीं। वह थोड़ी भरी-भरी लग रही थी। तांत की हलके जामुनी रंग की मामूली साड़ी और बिना विशेष सजावट के भी वह दमक रही थी। उसके सुख से मैं सुखी हुआ। मेरे चारों ओर सब कुछ सुंदर और जादुई था। मोहाविष्ट सा मैं उसके साथ-साथ चलने लगा। एक गीत मेरे भीतर गूंजने लगा...चलो दिलदार चलें, चांद के पार चलें, तभी मुलायम-मुलायम शब्दों में उसने मेरी मां और बहन के बारे में पूछना शुरू कर दिया। मैं बेसब्री से इंतजार करने लगा कि वह मां और बहन से निपटकर मुझ तक आए तो मैं उसे बताऊं कि मेरा प्रेम जैसलमेर के बालू के धोरों सा नहीं वरन् विंध्याचल पर्वत सा है, देख लो, आज भी मैं वहीं और स्मृतियों के उसी घाट पर खड़ा हूं, अकेला।

फिर वह नौकरी के बारे में पूछने लगी। उसकी आवाज में वही प्रेम, वही जादू था और पलक झपकते ही फिर एक आनंद नगरी का निर्माण होने लगा था, जिसमें सिर्फ मैं था और वह थी। उसने कहा—चलिए कहीं बैठकर चाय पीते हैं। मैं निहाल हो गया। आज बहुत सारा जी लूंगा मैं। थोड़ी देर तक सपनों का एक रंगीन और खुशनुमा टुकड़ा हमारे साथ चलता रहा। भावनाओं का झीना-झीना सा पुल हम दोनों के बीच बनने ही लगा था कि तभी सब कुछ कच्चे कांच-सा दरक उठा।

चलते-चलते उसने बच्चों की एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान के बाहर पढ़ा—भारी डिस्काउंट, आज अंतिम दिन और जैसे उस रेशमा के भीतर से एक और रेशमा निकल आई हो। वह तुरंत दुकान में घुस गई। मैं हतप्रभ सा बाहर ही खड़ा रहा तो उसने तीन-चौथाई आंखों से मेरी ओर देखते हुए हलके अनुरोध भरे स्वर में कहा—दस मिनट ठहरिए और बिना एक क्षण गंवाए दुकानदार की तरफ मुड़ गई और एक कतार में लगे बाबासूटों को देखने लगी। जैसे कहानियों में कोई जादूगरनी एकाएक रूप बदल लेती है, मैं उसे पूरी तरह देख भी नहीं पाया था कि उसने चोला बदल लिया था। मैं तड़प उठा, जैसे कोई तेज धार का चाकू मेरी छाती में धसं गया हो। हैरानी और अविश्वास से भरी मेरी आंखें उसी ओर टंगी रही, उसके  चहेरे की ओर , वह तल्लीन थी बाबासूटों में। हम दोनों की दुनिया अब अलग हो चुकी थी। वह पूरी तरह निरपेक्ष थी मेरी उपस्थिति से।

न अतीत की कोई चांदनी छिटकी हुई थी उसके चेहरे पर और न ही वर्षों बाद हुए मिलन की कोई उत्तेजना, न लगाव और रोमांच ही था। शायद हर सत्य अपने विरोधी सत्य में ही दम तोड़ता है।

मेरे भीतर खालीपन भरने लगा था। एक दुकान के सामने चिथड़ों से लिपटा एक पैर कटा किशोर छाती के बल रेंगता भीख मांग रहा था। शायद बच्चों को चुराने वाला कोई गिरोह उसे वहां छोड़ गया था। एक अधनंगी पगली सड़क पर वहीं मूतने बैठ गई थी और पुलिस वाला उसे खदेड़ रहा था। बाबूनुमा लोगों का आना-जाना था। किसी को किसी से कुछ लेना-देना नहीं था। मैंने फिर देखा घड़ी की ओर, दस मिनट की मियाद पूरी हो गई थी। मैंने देखा रेशमा की ओर—वह दुकानदार से मोलभाव कर रही थी।

मेरा मन फिर मुर्दा हो गया—क्या यह वही रेशमा है जो सारी दुनिया भूल मुझमें डूब जाया करती थी, जो आज इतने वर्षों बाद मिली भी तो क्या मिली।

गनीमत थी तो सिर्फ यही कि इस हादसे का इकलौता साक्षी मैं ही था।

धूप एकाएक असह्य हो गई थी और बाजार में एकाएक मक्खियां भिनभिनाने लगी थीं। मैंने अंतिम बार बाजार बनी उस प्रेमिका को देखा और अनकहे का भारी बोझ लिए पराजित सा भाग खड़ा हुआ क्योंकि पहाड़ी नदी के पत्थरों की तरह मेरे शब्द घिस चुके थे। जो कुछ मैं उससे कहना चाहता था वह सब अब बेमानी और बेसुरा हो चुका था।

उनकी डूबती हुई आवाज जैसे किसी कुएं से आ रही थी। दोस्तों, मैंने उसे उस दिन नहीं खोया जब मैं उससे कुंवारे रूप में अंतिम बार मिला था, क्योंकि इतने वर्षों तक उसका न होना भी मेरे लिए सुंदर था। मैंने उसे आज खोया दुबारा मिलने के बाद।

उनके अंदर कुछ कांप रहा था—दोस्तो, पर मैं सचमुच आज भी उसे दोष नहीं दे पाता। आप चाहें तो इसे मेरा गधापन कह लीजिए पर मैं यही सोचता रहता हूं कि उसके सरोवर का पानी इतना सूख कैसे गया? कैसे लहरों के साथ दौड़ने वाली कविता, स्वप्न और सौंदर्य में ही विचरण करने वाली एक खरगोश लड़की सिर्फ दाल-रोटी की ही होकर रह गई।

उदासी उनके शब्दों के साथ रेंगने लगी थी—मुझे दुःख है कि मैंने उसे खो दिया; पर उससे ज्यादा दुःख इस बात का है कि उसने भी अपने आप को खो दिया।

बोलते-बोलते विजय एकाएक रुक गए। शायद हांफने लगे थे वे। जिंदगी में हुई ऑक्सीजन की कमी का मारा व्यक्ति ऐसे ही हांफने लगता है। एक गहरी सांस खींची उन्होंने और बैठ गए।

सूई फेंक सन्नाटे के बीच उनके शब्द अभी तक फड़फड़ा रहे थे।

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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-07-2016) को "गूगल आपके बारे में जानता है क्या?" (चर्चा अंक-2393) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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