रघुवंशमणि का पैना व्यंग्य !
चिंतानिधान जी में एक तरह का दुचित्तापन हमेशा बना रहता था जिसके कारण वे अक्सर नामानुरूप अतिचिंतातुर हो जाया करते थे. वे अपनी चिंताओं का समाधान करना चाहते थे, मगर अक्सर ये समाधान नयी चिंताओं को जन्म दे देते थे. मिस्टर विलबी ने उन्हें अंडे पर बैठी, चारों तरफ नज़र दौड़ाती परेशान मुर्गी की तरह देखा तो समझ गए कि वे कुछ सोच-विचार रहे हैं.
“क्या बात है चिंतानिधान जी? लगता है कुछ गंभीर बात सोच रहे हैं.” मिस्टर विलबी ने अपने सामान्य वाक्य को प्रश्नवाचक रूप में फेका.
“कुछ नहीं सोच रहा था कि ये राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह का मामला कुछ जटिल सा हो गया है.” चिंतानिधान जी ने अपनी आकुलता जाहिर की.
“अब इसमें जटिल क्या है, भाई! जो राष्ट्रभक्त हैं, राष्ट्रभक्त हैं. जो बाकी बचे वो राष्ट्रद्रोही होंगे. ये तो बहुत आसान है.” विलबी ने उन्हें सोचमुक्त करने की कोशिश की.
“क्या भाई! इतना आसान थोड़े न है?”
“तो इसमें कठिनाई ही क्या है? आप तो जबरिया बातों को कठिन बनाते है.” विलबी ने प्यार से झिड़कते हुए कहा.
“देखिये न! कुछ लोग देशद्रोही होते हैं, फिर देशभक्त भी हो जाते हैं. ये इतना सीधा तो थोड़े नहीं है.”
“आप किन लोगों की बात कर रहे हैं?”
“करन जौहर एंड कम्पनी की. कुछ दिन पहले वे देशद्रोही थे, उनकी फिल्म पर देशभक्तों की पहरेदारी थी. मगर अब थोडा पैसा जमा करके वे देशभक्त भी हो गए हैं.” चिंतानिधान जी ने बात रक्खी.
विलबी को लगा कि चिन्तानिधान की चिन्ता वाकई कुछ गहरी है. कुछ देर सोचकर उत्तर दिया. “अब ये मामला भगवन और भक्त के बीच है.”
“क्या मतलब?” चिन्तानिधान जी बिगड़-चौंक गए.
“राजनीति में तमाम लोग भगवान होते हैं. उनकी कृपा के बिना कोई भी काम सुफल नहीं हो सकता. उन्हें प्रसाद चढ़ाना ही पड़ता है. उसके बाद ही वे माथे पर तिलक लगते हैं.”
“तब फिर राष्ट्र का क्या मतलब, राष्ट्रप्रेम का क्या मतलब.”
“राष्ट्र को भगवान या खुदा से ऊपर मानने वाले लोग नास्तिक और काफ़िर होते हैं. उन्हें कोई सिफत हासिल नहीं होती, प्रसाद नहीं मिलता. जिनके माथे पर भगवानों का तिलक होता है, उन पर कृपा बरसती है.”
चिन्तानिधान जी असंतुष्ट से लाजवाब हो गए. इतने में बगल के मंदिर से एक भजननुमा गीत बजने लगा.
.............इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.
शिक्षा:- बुद्धिमानी प्रसाद चढ़ाने में है, पूजा करने में नहीं.
![रघुवंशमणि का पैना व्यंग्य ! | Raghuvansh Mani's satire रघुवंशमणि का पैना व्यंग्य ! | Raghuvansh Mani's satire](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUgHLk3za6nytZpYO60j3K9-1jMFCtwDsKOlYr7_1uvedJqhY9S824T9gu-SzS-g6ANsi2BjC2NrHbRBoarCOUYiF5C18pOLOuXv7AVoOjxMsrwQcNAg9kGAPHN9zjHlVxUvH11ebireC_/s640-rw/raj-thackeray-karan-johar-ae-dil-hai-mushki-326x245.jpg)
राष्ट्रधर्म
-रघुवंशमणि
(राज)नीति कथाएं
चिंतानिधान जी में एक तरह का दुचित्तापन हमेशा बना रहता था जिसके कारण वे अक्सर नामानुरूप अतिचिंतातुर हो जाया करते थे. वे अपनी चिंताओं का समाधान करना चाहते थे, मगर अक्सर ये समाधान नयी चिंताओं को जन्म दे देते थे. मिस्टर विलबी ने उन्हें अंडे पर बैठी, चारों तरफ नज़र दौड़ाती परेशान मुर्गी की तरह देखा तो समझ गए कि वे कुछ सोच-विचार रहे हैं.
“क्या बात है चिंतानिधान जी? लगता है कुछ गंभीर बात सोच रहे हैं.” मिस्टर विलबी ने अपने सामान्य वाक्य को प्रश्नवाचक रूप में फेका.
“कुछ नहीं सोच रहा था कि ये राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह का मामला कुछ जटिल सा हो गया है.” चिंतानिधान जी ने अपनी आकुलता जाहिर की.
“अब इसमें जटिल क्या है, भाई! जो राष्ट्रभक्त हैं, राष्ट्रभक्त हैं. जो बाकी बचे वो राष्ट्रद्रोही होंगे. ये तो बहुत आसान है.” विलबी ने उन्हें सोचमुक्त करने की कोशिश की.
“क्या भाई! इतना आसान थोड़े न है?”
“तो इसमें कठिनाई ही क्या है? आप तो जबरिया बातों को कठिन बनाते है.” विलबी ने प्यार से झिड़कते हुए कहा.
“देखिये न! कुछ लोग देशद्रोही होते हैं, फिर देशभक्त भी हो जाते हैं. ये इतना सीधा तो थोड़े नहीं है.”
“आप किन लोगों की बात कर रहे हैं?”
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“करन जौहर एंड कम्पनी की. कुछ दिन पहले वे देशद्रोही थे, उनकी फिल्म पर देशभक्तों की पहरेदारी थी. मगर अब थोडा पैसा जमा करके वे देशभक्त भी हो गए हैं.” चिंतानिधान जी ने बात रक्खी.
विलबी को लगा कि चिन्तानिधान की चिन्ता वाकई कुछ गहरी है. कुछ देर सोचकर उत्तर दिया. “अब ये मामला भगवन और भक्त के बीच है.”
“क्या मतलब?” चिन्तानिधान जी बिगड़-चौंक गए.
“राजनीति में तमाम लोग भगवान होते हैं. उनकी कृपा के बिना कोई भी काम सुफल नहीं हो सकता. उन्हें प्रसाद चढ़ाना ही पड़ता है. उसके बाद ही वे माथे पर तिलक लगते हैं.”
“तब फिर राष्ट्र का क्या मतलब, राष्ट्रप्रेम का क्या मतलब.”
“राष्ट्र को भगवान या खुदा से ऊपर मानने वाले लोग नास्तिक और काफ़िर होते हैं. उन्हें कोई सिफत हासिल नहीं होती, प्रसाद नहीं मिलता. जिनके माथे पर भगवानों का तिलक होता है, उन पर कृपा बरसती है.”
चिन्तानिधान जी असंतुष्ट से लाजवाब हो गए. इतने में बगल के मंदिर से एक भजननुमा गीत बजने लगा.
.............इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.
शिक्षा:- बुद्धिमानी प्रसाद चढ़ाने में है, पूजा करने में नहीं.
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