Bharat me Che Guevara
Om Thanvi
अर्नेस्तो ‘चे’ गेवारा सरना 30 जून, 1959 की शाम दिल्ली पहुंचे थे।
वे छह महीने पहले क्यूबा में हुई सशस्त्र क्रांति के बड़े नायक थे। सरकार के गठन के बाद राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने उन्हें तीसरी दुनिया के देशों से संबंध कायम करने का जिम्मा सौंपा। क्यूबा की क्रांति के दूत बनकर चे ने कई देशों की यात्रा की। भारत सरकार से उन्हें खास बुलावा था, जिसने फिदेल कास्त्रो की सरकार को फौरन मान्यता दी।
दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर चे गेवारा और उनका दल |
मिस्र होते हुए चे भारत आए। हवाई अड्डे पर विदेश मंत्रालय के प्रोटोकॉल अधिकारी डीएस खोसला ने उनकी अगवानी की। क्यूबा के उस प्रतिनिधिमंडल में पांच लोग थे। चे की सुनहरे तारे वाली बगैर छज्जे की टोपी, लंबा सिगार और ऊंचे फीतों वाले जूते उन्हें बाकी लोगों से अलग करते थे। प्रतिनिधिमंडल को चाणक्यपुरी में नए बने अशोक होटल में ठहराया गया।
अगले ही रोज चे और उनके सहयोगी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिले। उनके साथ भोजन किया। उसके बाद ओखला औद्योगिक क्षेत्र में लकड़ी को आकार देने वाली मशीनों का कारखाना देखा। शाम को वाणिज्य मंत्री नित्यानंद कानूनगो से मिले। भारत और क्यूबा के भावी व्यापारिक रिश्तों के लिहाज से यह महत्त्वपूर्ण बैठक थी, जिसमें दोनों देशों के बीच आयात-निर्यात पर चर्चा हुई। अगले रोज प्रतिनिधिमंडल योजना आयोग गया। उस बैठक में आयोग के तीन सदस्य श्रीमन्नारायण, टीएन सिंह और सीएम त्रिवेदी शामिल हुए। वे लोग कृषि अनुसंधान परिषद भी गए, जहां उन्होंने गेहूं की एक उन्नत किस्म का जायजा लिया।
3 जुलाई, 1959 को चे गेवारा और उनके सहयोगी दिल्ली के पास पिलाना गांव में सहकारी परियोजना देखने गए। किसानों ने वहां उनका स्वागत किया। |
इस दौरान चे- जैसा कि उन्होंने खुद लिखा है- रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और सैन्य अधिकारियों से भी मिले। पांच या छह जुलाई को दल कोलकाता (तब कलकत्ता) के लिए रवाना हो गया। हवाना के दस्तावेजों में आठ जुलाई को लखनऊ का कोई चीनी अनुसंधान केंद्र देखने का भी जिक्र है। इसकी पुष्ट जानकारी नहीं मिल सकी। भारत से चे शायद बर्मा गए और फिर आगे वियतनाम। उनके पत्रों में बीत्रिज नामक किसी रिश्तेदार को रंगून से लिखा एक पत्र है जिस पर 13 जुलाई, 1959 की तारीख पड़ी है। फिर भी चे की भारत यात्रा का विस्तृत ब्योरा हमारे यहां उपलब्ध नहीं है। भारत से लौटने के बाद वे क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष और फिर उद्योग मंत्री- व्यवहार में वित्त मंत्री- बने। इसके बावजूद भारत में वे ‘क्यूबा के राष्ट्रीय नेता’ के रूप में मौजूद थे। भारत का उनका दौरा लंबा था। छहसात् ा दिन वे दिल्ली में रहे। बाद में दूसरे शहरों में गए। पर देश में छपी सामग्री में कहीं उस दौरे का ब्योरा नहीं मिलता। थोड़ी ही जानकारी मुझे मिली। पर चे के विचार-दर्शन में विश्वास करने वालों को यह काम गंभीरता से करना चाहिए।
मुझे अचंभा हुआ जब पिछला लेख पढ़कर बुजुर्ग पाठकों तक ने आंखें फैलाकर कहा- क्या?
चे गेवारा भारत आए थे! कवि मित्र लाल्टू कोलकाता में पले और बड़े हुए हैं। उन्होंने बताया कि वहां कभी किसी बहाने यह जिक्र नहीं सुना कि चे गेवारा ने कोलकाता अपनी आंख से देखा था। जबकि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय के साथ चे की वहां हुई मुलाकात की तस्वीर मौजूद है। हवाना से मैं वे तस्वीरें भी लाया हूं जो चे ने कोलकाता की सड़कों पर खुद खींचीं। सब जानते हैं, पढ़ने के अलावा छायाकारी ही उनका शौक था। मेरे अपने संग्रह की किताबों- जाहिर है, क्यूबा में हासिल- में चे की खींची ढेर तस्वीरें हैं: माचू-पिच्चू के शिखरों से लेकर हनोई के चौराहों तक।
यों चे गेवारा के भारत दौरे का थोड़ा जिक्र जॉन ली एंडरसन की लिखी मशहूर जीवनी ‘ए रिवोल्यूशनरी लाइफ’ और वयोवृद्ध पत्रकार केपी भानुमती की हाल में छपी किताब ‘कैंडिड कनवर्सेशंस’ में है। एंडरसन की किताब चे पर लिखी गई किताबों में सबसे मशहूर है। आठ सौ पन्नों में उन्होंने चिकित्सक से क्रांतिकारी होने की दास्तान बड़ी शिद्दत से बयान की है। बल्कि एंडरसन की बदौलत वेलेग्रांदे (बोलीविया) में चालीस साल पहले चे और उनके साथियों के गुपचुप गाड़े गए शव का ठिकाना मिल सका।
लेकिन जीवनी में चे के भारत-दौरे का अप्रामाणिक निष्कर्ष है और दौरे के सहयोगी पार्दो लादा के हवाले से बिलकुल किस्से जैसा ब्योरा। पार्दो के मुताबिक चे के ‘‘नायक’’ रहे नेहरू के साथ मुलाकात दोपहर शानदार खाने पर हुई। ‘‘सरकारी महल’’ (तीन-मूर्ति भवन?) में खाने की मेज पर इंदिरा गांधी और उनके बच्चे राजीव और संजय भी मौजूद थे। पार्दो कहते हैं, चे नेहरू से चीन और माओ के बारे में सवाल पूछते रहे और नेहरू उन (गंभीर) सवालों को नितांत अनसुना करते हुए मेज पर सजे पकवानों-फलों की बात करते रहे।
चे गेवारा ने प्रधानमंत्री नेहरू को क्यूबा के सिगार का डिब्बा भेंट किया। धूम्रपान के शौकीन नेहरू के चेहरे पर फैली मुस्कान तस्वीर में देखी जा सकती है। नेहरू ने लड़ाके गेवारा को कटारी भेंट की थी। (फोटो: कुंदनलाल) |
संयोग से हवाना में चे अध्ययन संस्थान में मुझे वह पूरी रिपोर्ट मिल गई, जो दौरे से लौटने के बाद चे ने फिदेल कास्त्रो के सुपुर्द की थी। साप्ताहिक ‘वेरदे ओलिवो’ के 12 अक्तूबर, 1959 के अंक में वह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई। उसका हू-ब-हू अनुवाद इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित है। उसे पढ़कर कोई भी जान सकता है कि चे गेवारा ने भारत को हताशा में नहीं, तटस्थ नजरिए से देखा। यहां की सामाजिक विषमताओं के साथ प्रगति की ललक को समझने की कोशिश की। खयाल रखें, भारत को अंग्रेजी राज से बरी हुए तब बमुश्किल बारह साल हुए थे। चे ने इस तथ्य पर गौर किया था।
अपनी तीन पृष्ठ की उस रिपोर्ट में चे ‘‘विरोधाभासों के देश’’ भारत के ‘‘औद्योगिक विकास’’ और ‘‘भयानक दरिद्रता’’ के बीच खाई वाले ‘‘विचित्र और जटिल परिदृश्य’’ के साथ विकास में आए ‘‘असाधारण सामाजिक महत्त्व के’’ ‘‘अभिनव परिवर्तन’’ लक्ष्य करते हैं। वे ‘‘कृषि-सुधार’’ की तकनीकों पर ध्यान देते हैं। भारत और क्यूबा के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को ‘‘एक-सा’’ करार देते हुए ‘‘दो उद्योगशील’’ देशों की ‘‘साथ-साथ’’ उन्नति की संभावना भी व्यक्त करते हैं। तकनीकी विकास में भारतीय वैज्ञानिकों की महारत का लोहा मानते हुए साफ कहते हैं कि ‘‘इस यात्रा में हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं... सबसे महत्त्वपूर्ण बात हमने यह जानी कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर करता है।’’
लेकिन चे के भारत-दर्शन में मुझे सबसे अहम बात यह लगी कि उन्होंने बगैर झिझक, भारत की स्वतंत्रता में गांधीजी के ‘‘सत्याग्रह’’ की भूमिका को पहचाना। रिपोर्ट में उनके अपने शब्द हैं: ‘‘जनता के असंतोष के बड़े-बड़े शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेजी उपनिवेशवाद को आखिरकार उस देश को हमेशा के लिए छोड़ने को बाध्य कर दिया, जिसका शोषण वह पिछले डेढ़ सौ वर्षों से कर रहा था।’’
मेरे मन में यहां पुरानी खुदबुद फिर उठती है। पढ़ने-लिखने वाला, शब्दों और दृश्यों में अभिव्यक्ति खोजने वाला संवेदनशील युवक क्यूबा लौटकर फिर हिंसा के उसी रास्ते पर क्यों लौट गया, जो कहीं नहीं ले जाता?
इसका जवाब चे ने भारत में ही देने की कोशिश की, केपी भानुमती को अपनी ओर से, तब जब वे दिल्ली के अशोक होटल में आॅल इंडिया रेडियो के लिए उनका इंटरव्यू लेने पहुंचीं। भानुमती के मुताबिक चे ने कहा, ‘‘आपके यहां गांधी हैं, दर्शन की एक पुरानी परंपरा है; हमारे लातिनी अमेरिका में दोनों नहीं हैं। इसलिए हमारी मन:स्थिति (माइंड-सेट) ही अलग ढंग से विकसित हुई है।’’
मगर यह बात भानुमती की किताब में नहीं है, जिसमें दुनिया के अनेक बड़े नेताओं के साथ चे गेवारा से उनकी बातचीत शामिल है। दिल्ली में सुजानसिंह पार्क के अपने घर में चे से मुलाकात के नोट्स और फोटो दिखाते हुए भानुमती ने मुझे आहत भाव से बताया कि प्रकाशक ने उनके कई अध्याय बेमुरव्वत होकर काट-छांट डाले।
भानुमती से बात करना दिलचस्प अनुभव है। वे उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, पर सक्रिय हैं।
आॅल इंडिया रेडियो के साथ उनका नाम उस दौर में चमक के साथ जुड़ा रहा, जब हमारे यहां रेडियो का जलवा था। भानुमती को टीस है कि उन्होंने एक दक्षिणपंथी राजनीतिक दल (वे नहीं चाहतीं कि नाम छपे) की शिकायत पर महानिदेशक मेनन से जिरह के बाद नौकरी छोड़ दी। बाद में वे अखबारों के लिए लिखने लगीं। बहरहाल, रेडियो के लिए उन्होंने हो ची मिन्ह, चाऊ एनलाई, जूलियस न्येरेरे जैसे नेताओं से लेकर गुन्नार मिर्डल, आंद्रे मालरो, अगाथा क्रिस्टी जैसी जाने कितनी शख्सियतों को इंटरव्यू किया। चे गेवारा उनमें प्रमुख थे। भानुमती के घर की दीवारों पर टंगी दर्जनों तस्वीरों में दो चे गेवारा की हैं।
दिल्ली के अशोक होटल में आॅल इंडिया रेडियो के लिए बात करतीं केपी भानुमती (फोटो: पीएन शर्मा) |
पहली जुलाई, 1959 की सुबह साढ़े आठ बजे भानुमती अशोक होटल के छठे माले पहुंचीं। चे गेवारा ने दरवाजा खुद खोला। अकेले थे। कोई सुरक्षाकर्मी तक नहीं। भानुमती के साथ ब्लिट्ज के संवाददाता राघवन और छायाकार पीएन शर्मा थे। राघवन भानुमती से मिन्नत कर इस शर्त पर साथ हो लिए थे कि इंजीनियर की जगह वे बातचीत की रेकार्डिंग कर देंगे और कोई सवाल नहीं पूछेंगे। भानुमती कहती हैं, वे संकोच के साथ मान गईं क्योंकि राघवन ने ही उन्हें चे के दौरे की सूचना दी थी। छायाकार शर्मा को गेवारा का फोटो लेने के लिए वॉयस आॅफ अमेरिका ने तैनात किया था, जिसका आॅल इंडिया रेडियो से प्रसारण का कोई तालमेल था। दिलचस्प बात यह है कि यहां के रेडियो को फोटो की दरकार नहीं थी, वाशिंगटन के रेडियो को थी!
बातचीत कोई आधा घंटा चली। ‘‘पर रेडियो पर प्रसारण मुश्किल से दो मिनट हुआ होगा।
‘न्यूजरील’ कार्यक्रम में कई घटनाएं समेटनी होती थीं। उसी में कहीं वह इंटरव्यू खप गया’’, भानुमती ने बताया। उसका टेप अब मौजूद नहीं है, क्योंकि ‘‘तब रेडियो में एक ही स्पूल (टेप की पुरानी चकरी) मिटा कर बार-बार इस्तेमाल करने की प्रथा थी।’’ लेकिन हमेशा की तरह चुनिंदा प्रश्नोत्तर उन्होंने लिखकर रख लिए। एक रोज क्यूबा के राजदूत उसकी प्रति लेने उनके घर आए। भानुमती ने खुशी- खुशी उन्हें चे से मुलाकात की दो तस्वीरें भी भेंट कर दीं।
भानुमती कहती हैं, चे से साक्षात्कार उनकी यादगार मुलाकात था। उनके शब्दों में: कोई फौजी वर्दी की तरफ ध्यान न देता तो कल्पना करना मुश्किल था कि वह शख्स कभी ‘गुरिल्ला’ रहा होगा। वकीलों या नेताओं की तरह चे तेज भी नहीं लगते थे। उनकी आवाज नम्र थी और लहजा किसी याजक की तरह भद्र। किसी परिजन की सी सहजता में, मगर बहुत सोचकर और लंबे अंतराल देकर बोलते थे, जैसे ज्योतिषी बोला करते हैं। पूरी मुलाकात के दौरान वे मोंटी-कारलो सिगार पीते रहे, जिसका डिब्बा मेज पर रखा था। बचपन से दमे के रोगी रहे जुझारू व्यक्ति में यह आदत देखकर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। हर सवाल को सुनते वक्त वे कश खींचते, जवाब देने से पहले राख झटक कर सिगार राखदानी पर ठहरा देते और माइक्रोफोन की ओर झुक जाते।
पहली जुलाई, 1959 की सुबह केपी भानुमती दिल्ली के अशोक होटल में चे गेवारा से मिलीं। शाम को उन्हें ऑल इंडिया रेडियो के “न्यूज़रील” कार्यक्रम में चे का इंटरव्यू प्रसारित करना था। उन्होंने सबसे पहले भारत आने का सबब पूछा।
चे ने कहा: “क्यूबा में बातीस्ता राज से आज़ादी के बाद मैं विएतनाम और दूसरे देशों की प्रत्यक्ष जानकारी हासिल करने के लिए निकला हूं, जिनका औपनिवेशिक शासन में दमन हुआ। भारत आपके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बुलावे पर आया हूं। मैं खुद चाहता था कि भारत में आज़ादी के बाद शुरू हुए विकास-कार्यों को नज़दीक से देखूं। लातिनी अमेरिका में हमने भी साम्राज्यवाद को बहुत झेला है और हमें बहुत नीचे से ऊपर उठना है।”
भानुमती ने पूछा- आप समाजवादी अर्थव्यवस्था और समाजवादी मनुष्य की बात करते हैं। इसे कुछ स्पष्ट करेंगे? इस पर गेवारा बोले: “हम अल्प-विकसित देशों को साम्राज्यवादी पराधीनता, कठपुतली हुकूमतों और शोषण के कुचक्र से बरी होना है। हम उपनिवेश या पर-निर्भर मुल्क रहे हैं, जहां कम विकास हुआ है या बेतरतीब विकास। भूख स्वाधीनता के संघर्ष के लिए श्रेष्ठ परिस्थितियां पैदा करती हैं। बाहरी ताक़त के गुलाम हुए बगैर भी आप समाजवादी मानस और समाजवादी अर्थव्यवस्था अर्जित कर सकते हैं। ऐसा न हो सका तो कोई अल्पविकसित देश कभी भ्रष्टाचार से मुक्त व्यवस्था नहीं देख पाएगा।”
चे ने इस बातचीत में भारत का ख़ास ज़िक्र किया: “भारत ने लंबे संघर्ष के बाद आज़ादी हासिल की है। नेहरू के प्रति मेरे मन में बहुत आदर है। वे देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता लाएंगे और भारत एक ताक़तवर मुल्क साबित होगा।” उन्होंने आगे कहा, “हमें ऐसा समाज तैयार करना होगा जिसमें सभी लोग वैयक्तिक मानवीय आकांक्षाओं की सामूहिक चेतना का साझा करें। नव-उपनिवेशवाद दक्षिणी अमेरिका से शुरू हुआ और फिर अफ्रीका व एशिया में उसने जड़ें जमायीं। ज़रा देखिए, विएतनाम और कोरिया में क्या हो रहा है। एशिया के कुछ मुल्कों में नृशंसता भयावह रूप में है। साम्राज्यवादियों की साज़िश पर काबू पाने के लिए हम अल्पविकसित यानी तीसरी दुनिया के देशों को एकजुट होना पड़ेगा।”
विचारधारा की बात करते हुए भानुमती ने एक सवाल यह भी पूछा कि आप कम्युनिस्ट माने जाते हैं, कम्युनिस्ट (साम्यवादी) मताग्रह एक बहु-धर्मी समाज में कैसे स्वीकार किये जा सकते हैं?
इस पर चे का जवाब यह था: “मैं अपने को कम्युनिस्ट नहीं कहूंगा। मैं एक कैथलिक होकर जन्मा, एक सोशलिस्ट (समाजवादी) हूं और बराबरी में और शोषक देशों से मुक्ति में भरोसा रखता हूं। मैंने लड़कपन के दिनों से भूख को देखा है, कष्ट, भयंकर ग़रीबी, बीमारी और बेरोज़गारी को भी। क्यूबा, विएतनाम और अफ्रीका में ये हालात रहे हैं, आज़ादी की लड़ाई लोगों की भूख से जन्म लेती है। मार्क्स-लेनिन के सिद्धांतों में उपयोगी पाठ (संदेश) हैं। ज़मीनी क्रांतिकारी मार्क्स के दिशा-निर्देशों को मानते हुए अपने संघर्षों का रास्ता खुद बनाते हैं। भारत में गांधी जी के सिद्धांतों की अपनी वकत है, जिन (सिद्धांतों) की बदौलत आज़ादी हासिल हुई।”
क्या गांधी-नेहरू के प्रति चे की प्रशंसा और आदर का भाव शिष्टाचार के नाते था? या यह कूटनीति थी?
मुझे लगता है, भारत में चे ने खुले नज़रिये से एक अजनबी- मगर जानदार और आकर्षक- विचार को समझने की कोशिश की। गांधी जी का ज़िक्र वे छोड़ सकते थे, जिनके बारे में उनसे पूछा नहीं गया था। वे सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तौर-तरीक़ों पर टीका कर सकते थे। लेकिन उन्होंने हवाना लौट कर जो रिपोर्ट पेश की, उसमें भी साफ़ लिखा कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह से भारत ने आज़ादी हासिल की और जन-असंतोष के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेज़ों को मुल्क छोड़ने के लिए बाध्य किया।
चे के उस नज़रिये का संकेत उनके कलकत्ता के प्रवास में भी देखा जा सकता है। वे किन्हीं कृष्ण का ज़िक्र करते हैं, जिन्होंने महाविनाश के शस्त्रों के मामले में उनकी आंखें खोलीं। अपनी रिपोर्ट में चे लिखते हैं: “वहीं (कलकत्ते में) कृष्ण नाम के एक विद्वान से मुलाक़ात का मौक़ा मिला। वह एक ऐसा चेहरा था, जो हमारी आज की दुनिया से दूर लगता था। उस निष्कपटता और विनयशीलता के साथ उन्होंने हमसे लंबी बात की, जिसके लिए यह मुल्क जाना जाता है। उन्होंने दुनिया की समूची तकनीकी शक्ति और सामर्थ्य को आणविक ऊर्जा के शांतिप्रिय उपयोग में लगाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए अंतरराष्ट्रीय बहसों की उस राजनीति की भरपूर निंदा की, जो आणविक हथियारों की ज़खीरेबाज़ी को समर्पित है।”
इस संवाद के प्रभाव के वशीभूत चे ने आगे लिखा, “भारत में युद्ध नामक शब्द वहां के जन-मानस की आत्मा से इतना दूर है कि वह स्वतंत्रता आंदोलन के तनावपूर्ण दौर में भी उसके मन पर नहीं छाया।”
कलकत्ता के उस मनीषी का ज़िक्र चे गेवारा ने दो महीने बाद हवाना में फिर किया। 8 सितंबर को सफ़र से लौटने के ठीक एक घंटे बाद, पत्रकारों से बातचीत करते हुए।
अमेरिका में एक बेहतर कायदा यह है कि तीस साल बाद गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक कर दिये जाते हैं। नाम-स्रोत काली स्याही से ढक कर। पुराने हवाना में एक कबाड़-से बाज़ार में मुझे ऐसा पुलिंदा पुस्तिका की शक्ल में मिला, जिसमें चे गेवारा को लेकर अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की क्यूबा से भेजी गयी सूचनाएं मूल (अमेरिकी फाइल की फोटोप्रति) रूप में संकलित थीं। पुस्तिका दस वर्ष पहले ऑस्ट्रेलिया में छपी। देख कर आश्चर्य होता है कि उसमें पहला दस्तावेज 1952 का है, जब चे की फिदेल कास्त्रो से मुलाक़ात तक नहीं हुई थी! उसके बाद उन पर लगातार नज़र रखी गयी। उस अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट से ही पता चला कि भारत के बाद चे पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) भी गये थे, जहां विशेषज्ञों के आने-जाने पर एक करार हुआ।
पुस्तिका में चे की हवाना वाली पत्रकार वार्ता का विवरण है। मोर्स पद्धति से अगले रोज़ अमेरिका भेजी गयी दो पेज की रिपोर्ट- जो भाषा और शैली में किसी पत्रकार की ख़बर जैसी लगती है- में बताया गया है कि कैसे चे ने यूरोप, मध्यपूर्व, एशिया और अफ्रीका की अपनी तीन महीने की यात्रा के अनुभवों का खुलासा किया। भारत के दौरे पर उनका कथन इस तरह उद्धृत है:
“क्यूबा के लोगों के प्रति भारत के लोग सहृदय थे। हमने पाया कि वे खेती लायक छोटी-छोटी ज़मीनों और बड़ी ज़मींदारियों से पैदा हुई समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहे हैं। ...एक भारतीय विद्वान कृष्ण से बातचीत करते हुए हमें महाविनाश के साधनों की बुराइयों का बोध हुआ। हिरोशिमा पहुंचने पर उस भयानक सच्चाई को जब हमने अपनी आंख से देखा तो बड़ी ग्लानि का एहसास हुआ कि कैसे उस वक्त हम लोगों ने खुशी का इजहार किया था, जब लोकतांत्रिक ताक़तों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वहां अणु बम गिराया।”
कोई बता सकता है कृष्ण नामक वे मनीषी कौन थे, जिनसे कलकत्ता में चे गेवारा को ज्ञान मिला? मुझे इस बाबत कहीं से पुख्ता जानकारी नहीं मिली। बहुत-से लोगों का खयाल था कि आज की दुनिया से दूर के चेहरे वाले विद्वान शायद जिद्दू कृष्णमूर्ति रहे हों। पर इसकी संभावना नहीं लगती। मैंने बंगलूर कृष्णमूर्ति न्यास में बात की। वरिष्ठ लेखक और यायावर कृष्णनाथ इन दिनों वहीं हैं। वहां इसकी पुष्टि नहीं हुई। पुपुल जयकर की लिखी जीवनी के मुताबिक मई 1959 में कृष्णमूर्ति दिल्ली में थे और गर्मी से परेशान होकर तीन महीने के लिए कश्मीर चले गये थे।
हवाना में जब चे के भारत दौरे की रिपोर्ट हासिल की, स्पानी भाषा में थी। थोड़ा भावन पता चल जाता तो वहां कुछ और दरयाफ्त करने का यत्न करता!
जो हो, दूर-देश से आने वाली बहुत सारी हस्तियां भारत से कुछ बोध लेकर गयी हैं। चे के स्वीकार में शायद उसी सिलसिले की अनुगूंज है। लेकिन इस मामले में हमें उससे ज्यादा नहीं मालूम जो चे ने खुद लिखा। दुर्भाग्य से देश में मार्क्सवादी समुदाय को भी चे की भारत यात्रा की स्मृति नहीं है। कलकत्ता में भी नहीं। इसकी एक वजह शायद यह हो कि उस वक्त अख़बारों में क्यूबा के प्रतिनिधिमंडल के दौरे की छिटपुट ख़बरें ही छपीं। दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स में ज़रूर एस मुलगांवकर ने चे की यात्रा को महत्व दिया। उन्होंने दो रोज़ लगातार पहले पेज पर तस्वीरें छापीं- एक रोज़ नेहरू के साथ, फिर वीके कृष्ण मेनन के साथ। लेकिन ख़बरों में औपचारिक बैठक-वार्ताओं का ब्योरा ज्यादा रहा।
बस एक शाम एक घंटे के लिए चे के कॉटेज एम्पोरियम जाने का ज़िक्र एक ख़बर के बीच में कहीं है।
कलकत्ता के अख़बारों में सिर्फ हिंदुस्तान स्टैंडर्ड में एक रोज़ (12 जुलाई) ख़बर नहीं, पर चे की तस्वीर छपी: कलकत्ता के अगरपाड़ा के पटसन कारखाने में 'सदाशय दौरे' (गुडविल मिशन) पर क्यूबा से आये अर्नेस्तो गेवाने (अख़बार में प्रूफ की भूल)। पांचवें पृष्ठ पर, कारखाने के दौरे के दो दिन बाद।
उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (तब पार्टी एक थी) का बांग्ला दैनिक स्वाधीनता वहां से निकलता था। लगा उसमें चे के कलकत्ता दौरे का भरपूर ब्योरा होगा। मेरे आग्रह पर एक वरिष्ठ प्रतिबद्ध लेखक ने जुलाई 1959 के अंकों के साथ स्वाधीनता के आगे-पीछे के अंक देख डाले। पार्टी के अख़बार ने क्यूबा क्रांति की ख़बरें भले बढ़-चढ़ कर छापी हों, गेवारा की यात्रा उसने पूरी तरह गोल कर दी। जबकि चे की यात्रा को पार्टी का अख़बार तो बढ़-चढ़ कर प्रचारित कर सकता था। यह बेरुखी क्यों रही, कोई नहीं जानता। वह छुपी यात्रा नहीं थी, दूसरे अख़बार में छपी तस्वीर से यह आप जाहिर है।
यह ज़रूर है कि चे कभी कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे नहीं जुड़े। वे रूसी साम्यवाद के आलोचक थे। उसे उन्होंने रूसी उपनिवेशवाद की संज्ञा दी थी। उन्हें इस पर एतराज़ था कि कोई साम्यवादी देश तीसरी दुनिया के अविकसित देशों से हथियारों और बाक़ी सहयोग के लिए मुनाफा कैसे कमा सकता है। बाद में चे ने माओ की नीतियों की बहुत तारीफ़ की। यह कहते हुए कि क्यूबा को अपना साम्यवाद खुद तलाशना होगा। 1965 में अल्जीरिया में एक खुली सभा में चे ने रूसी साम्यवाद की आलोचना की। क्यूबा लौटने पर उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी।
मगर भारत में पांच लोगों का प्रतिनिधिमंडल चे के नेतृत्व में क्यूबा क्रांति का दूत बन कर आया था। क्या यहां पार्टी का कोई नेता उनसे नहीं मिला? क्यूबा की क्रांति के बाद उसके किसी नायक ने पहली बार भारत आने पर कोई स्वागत या अभिनंदन हुआ? पार्टी के अख़बार में ही नहीं, चे की अपनी रिपोर्ट में भारत के दस दिन के प्रवास के दौरान किसी साम्यवादी नेता से मुलाक़ात का हवाला नहीं है। क्या पार्टी को उनसे दूर रहने का इशारा था? उस बेरुखी का ही नतीजा है कि चे की भारत यात्रा कोई पचास साल जनमानस की स्मृति से पूरी तरह ग़ायब रही। आगे जाकर भारत में उन्हें नवाजने वाले साम्यवादियों में भी।
मुझे आज भी चे गेवारा के मामले में देश के साम्यवादी दलों का रवैया कम पेचीदा नहीं लगता। अगले पखवारे - 9 अक्तूबर को - चे की शहादत के चालीस साल पूरे हो जाएंगे। दुनिया भर से आये दिन तरह-तरह के आयोजनों की ख़बरें आती हैं। इस सच्चाई के बावजूद कि क्रांति के बाद चे की जिम्मेवारी में उन बंदी सैनिकों के साथ नाइंसाफ़ी हुई, जिन पर विद्रोहियों पर जुल्म ढाने के आरोप थे। उन्हें बगैर वाजिब सुनवाई के मौत की सजा दी गयी। कुछ कथित गद्दारों पर चे ने खुद गोली दागी। उनके चरित्र में यह अंधेरा पहलू रहा।
लेकिन चे की शख्सियत में सघर्ष की दास्तान भी बहुत लंबी है। एक मानवीय चेहरे के साथ। सत्ता धारण कर भले कुछ बदल गये। पर सियरा-माएस्त्रा की पहाड़ियों में, फिदेल के विमत के बावजूद, वे घायल दुश्मन को इलाज के लिए उठा लाते थे। एक दफा फिदेल ने कहा, इसे हमने घायल किया था, ठीक होकर यह हमीं पर बंदूक तानेगा। चे का जवाब था- तब देखेंगे। लड़ाई में जो कमज़ोर होगा, मारा जाएगा। सब जानते हैं मकसद के साथ चे ने घर छोड़ा, डॉक्टरी का पेशा छोड़ा, देश छोड़ा, सत्ता छोड़ी और दूसरों के लिए लड़ते हुए अंतत: दुनिया भी। ज्यां पॉल सार्त्र ने चे से मिलने के बाद उन्हें “हमारे दौर का सबसे पूर्ण मनुष्य” कहा था।
उस क्रांतिकारी की याद में देश के साम्यवादी क्या कर रहे हैं?
क्या आपको नहीं लगता, वे अपनी पचास साल पुरानी उदासीनता को दुहरा रहे हैं?
और अंत में
हवाना से लौटते वक्त लंदन में गार्डियन अख़बार के दफ्तर में प्रदर्शनी देखने गया। वहां भारत के सिद्ध कार्टूनिस्ट मरहूम अबू अब्राहम के उन व्यंग्यचित्रों का संग्रह प्रदर्शित था, जो उन्होंने लंदन में 'ऑब्ज़र्वर' के लिए काम करते हुए बनाये। बाद में अबू इंडियन एक्सप्रेस में दिल्ली आ गये थे।
लंदन की प्रदर्शनी में एक रेखाचित्र चे गेवारा का था। अबू 1962 में हवाना गये। चे तब क्यूबा के उद्योग मंत्री थे। उस चित्र पर चे के तीन अक्षरों वाले दस्तखत हैं। यों भी वह एक बहुत उम्दा रेखांकन है।
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