
हिंदी साहित्य से बच्चों की दूरी
भरत तिवारी
यह तो हमसब जानते हैं कि बच्चों के लिए किताबें ज़रूरी होती हैं, पाठ्य पुस्तकों से मिलने वाले ज्ञान का व्यवहारिक ज़िन्दगी से कम नाता होता है, हमारी शिक्षा प्रणाली पाठ्यक्रम की पुस्तकों से तो ख़ूब परिचित कराती है लेकिन उस ज्ञान से जो इंसान को इंसानियत और आपसी प्रेम की समझ देता हो, उसे कहीं नज़रंदाज़ किये देती है। हममें से कितने ऐसे हैं जो अपने बच्चों को किताबों से न सिर्फ प्रेम करना सिखाते हैं बल्कि यह भी देखते हैं कि वे साहित्यिक किताबें खरीदें? अंग्रेजी किताबों के प्रति बच्चों के झुकाव पर तो बड़ी बहसें होती हैं लेकिन ज़मीनी तौर पर भारतीय भाषाएँ बच्चों को अपने से जोड़ने के लिए क्या कर रही हैं? यह प्रश्न पुस्तक मेले में लगे प्रकाशकों के स्टालों को देखने के बाद मेरे सीने पर सवार हो गया है। अंग्रेजी के दो बड़े प्रकाशनों पेंगुइन और हार्पर में बच्चों के लिए अलग-से बड़ा और सुन्दर कोना बना हुआ दिखा, बच्चों की भारी भीड़ भी दिखी। इन प्रकाशकों ने बताया कि बिक्री का क़रीब 30% बच्चों की किताबें होती हैं। यह 30% तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब पेंगुइन बुधवार (11 जनवरी) तक हुई बिक्री को 40लाख रुपया बताता है यानि 10लाख रुपये से अधिक बच्चों की पुस्तकों की खरीददारी सिर्फ एक प्रकाशक के स्टाल से हुई होगी। जब यही दृश्य मैं हिंदी के प्रकाशकों के स्टाल पर देखना चाहता हूँ तो ‘अँधेरा’ दिखता है, शून्य नज़र आता है।![]() |
नवोदय टाइम्स, १२ जनवरी |
हिंदी की वे किताबें जो बड़े-बच्चों में हिंदी-साहित्य के प्रति प्रेम पैदा कर सकती हैं, उन्हें हमारी असल संस्कृति सिखा सकती हैं—हर बड़े प्रकाशक के स्टाल पर उपलब्ध है—लेकिन ऐसा कुछ-भी नहीं होता दीखता जिससे यह लगे कि कम उम्र के पाठकों को तैयार किये जाने की कोशिश हो रही हो। ऐसे कैसे चलेगा? अंग्रेजी का दुखड़ा रोने-से कुछ नहीं होगा, बल्कि उनसे सीखने की ज़रूरत है—किस तरह कमउम्र से ही पाठक को साहित्य से जोड़ा जा सकता है और युवाओं के देश भारत को मानसिकरूप से सच्ची समृद्धि दी जा सकती है। यहाँ मैं राजकमल प्रकाशन के आमोद महेश्वरी और मेरी बेटियों के बीच हुई बात बताना चाहूँगा — ‘रागदरबारी’ पढ़ रही मेरी छोटी बेटी ने जब उनसे पूछा कि इसकी कितनी बिक्री होती है? तो उन्होंने कोई 10-12 रागदरबारी के बण्डल के ऊपर हाथ को हवा में ऊपर उठाते हुए बताया — सुबह इतना ऊंचा होता है! उसके साथ ही—मेरे यह बताने पर कि ‘रागदरबारी’ से आरुषी का साहित्य पढ़ना शुरू हो रहा है—आमोद ने ‘आपका बंटी’ और ‘सारा आकाश’ देते हुए बेटी से कहा ‘इन्हें भी पढ़ना’। यानी हिंदी के लेखक और प्रकाशक और थोड़ा-बहुत हम-पाठक यह जानते हैं कि बच्चों को क्या पढ़ना चाहिए... सवाल यह है कि इसके लिए हम क्या कर रहे हैं... प्रकाशकों के ऊपर यह दारोमदार है कि वे अपनी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी में—-बड़े-हो-रहे-बच्चों और हमारे साहित्य के बीच की दूरी को कम करने के प्रयासों को—प्रमुखता से शामिल करें।
भरत तिवारी
mail@bharattiwari.com
9811664796
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नामवर होना ~ भरत तिवारी
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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