मोदीजी की वृहत विजय और मृणाल पाण्डे का पत्रकारिता फ़र्ज़


पाँच राज्यों के विधान सभा चुनाव नतीजे — मृणाल पाण्डे

मोदीजी की उत्तरप्रदेश विजय, बीजेपी का मणिपुर-गोवा पर धावा, देशवासियों की वर्तमान सोच और भूतकाल की पुनरावृत्ति... वो बातें जो मृणाल पाण्डे की राजनीतिक आँखें देख, कान सुन और दिमाग साध पा रहा है, उन्हें बता कर वो एक पत्रकार का फ़र्ज़ तो निभा ही रही हैं वरन हमसब को चेता भी रही हैं। ज़रुरत है उनकी कही बातों को राजनीति के सारे चश्में उतार के पढ़े और समझे जाने की।

भरत तिवारी   

  

भाजपा की कुल जीत इतनी बड़ी है, कि मणिपुर और गोआ सरीखे छोटे राज्यों के नतीजों पर अश्वत्थामा हत: कहने का पाप नाहक लिया गया। इससे मोदीजी का धर्मरथ भी कुछ अंगुल नीचे आ जाता है। 

मोदीजी की वृहत विजय और मृणाल पाण्डे का पत्रकारिता फ़र्ज़

बीतती हुई पीढ़ी के पाले में बैठ कर पत्रकार की निगाह से इतिहास को सिरे से बदलते हुए देखना एक अजीब अनुभव होता है, एकसाथ उत्तेजना, आह्लाद और अवसाद में गड्ड मड्ड। गुज़रे सत्तर बरसों में भारत में सरकारें बनाती रही जनता बदल चुकी हैं। और आज़ादी में होश सँभालनेवाली पीढ़ी की तादाद आज कुल आबादी की लगभग नब्बे फीसदी होगी। जो बुज़ुर्ग नेता राजनीति में महत्वपूर्ण रोल निभा रहे हैं उन्होंने भी आज़ादी के बाद ही जन्म लिया है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के सत्तर बरसों के प्रताप से पीढ़ियों के बीच अब नई तरह के अंतराल, वैचारिक खाँचे, उम्मीदें, लक्ष्य और आदर्श बन रहे हैं। और मँझली तथा पिछड़ी जातियों ने आगे आकर गाँधी के साथ आज़ादी की लड़ाई लड़नेवाले वर्गों को तो काफी पहले ही अप्रासंगिक बना दिया था। लिहाज़ा अब सरकार के लिये सफलता की सबसे बड़ी कसौटी यह है कि आज़ादी के पहले की पीढ़ी के गढ़े संविधान और लोकतांत्रिक संस्थानों के साथ वह इस बहुरंगी, मुखर और आक्रामक आबादी के हित-स्वार्थों के बीच किस तरह समन्वय बिठाती है ताकि लोकतंत्र की एकता अखंड रखी जा सके।

और उसका समय शुरू होता है, अब !

पचास साल पहले मान लिया गया था कि जैसे जैसे भारत एक औद्योगिक सभ्यता बनेगा और नई वैज्ञानिक समझ और आर्थिक समृद्धि बढ़ेंगे, समरसता भी बढ़ेगी। क्योंकि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में तमाम जाति, धर्म और इलाकाई जकड़बंदियाँ टूट जायेंगे और इससे उपजी सामाजिक क्रांति सब सूखे पत्तों को पूरी तरह झाड़-बुहार देगी। लेकिन पिछले दशकों में काँशीराम, जे पी और वी पी अपनी अपनी तरह से बदलाव की आँधी लाये पर भले ही कुछेक ड़ालें धराशायी हुईं, पत्ते झड़े, लेकिन वैमनस्य और पूर्वग्रहों के सारे पुराने बीज और जड़ें पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाये। वे ज़मीन के भीतर बने मौसम बदलने का इंतज़ार करते रहे और स्थिति अनुकूल होते ही उनका पुन: प्रकटीकरण हो गया। कई वैचारिक पेड़ों ने, जिनकी की मूल जड़ें सड़ गल चुकी थीं, किसी करिश्माती नेता के ज़हूरे से एक तरह की जड़ निरपेक्षता बना ली और हमारे अनदेखे अन्य स्रोत से जीवन रस पाते बाहरखाने हरे भरे आकर्षक नज़र आते रहे। ऐसे पेड़ अगर आज धराशायी नज़र आ रहे हैं तो इसका दोष आँधी को नहीं दिया जा सकता।


आज़ादी में होश सँभालनेवाली पीढ़ी की तादाद आज कुल आबादी की लगभग नब्बे फीसदी होगी। (फ़ोटो: aljazeera)

पचास साल पहले मान लिया गया था कि जैसे जैसे भारत एक औद्योगिक सभ्यता बनेगा और नई वैज्ञानिक समझ और आर्थिक समृद्धि बढ़ेंगे, समरसता भी बढ़ेगी।
विजय से दीप्त मोदी जी का 12 मार्च के भाषण में विनम्रता पूर्वक सबको साथ लेकर चलने का प्रबल संकल्प समयानुकूल था। उसकी सराहना की जा सकती है, लेकिन उसके तुरत बाद गोआ तथा मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी न होते हुए भी जिस उतावली से सदय राज्यपालों की मदद से पार्टी ने सरकार बनाने का दावा पेश ही नहीं किया नये मुख्यमंत्रियों की घोषणा भी कर दी, वह किरकिराहट पैदा करता है। जिस पार्टी ने पाँचों राज्यों के चुनाव बिना मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सामने रखे लड़े हों, उनका यह फटाफट फैसला समन्वय तथा पारदर्शी सुराज की नई घोषणाओं को मलिन बनाते हैं। और माहौल यदि लगातार कथनी करनी के बीच फाँकोंवाला बना रहा तो राजनीति के भीतर तथा बाहर समाज में मौके की तलाश में कई बीज और जड़ें किसी बहाने बाहर आकर कल्ले फोड़ सकती हैं। उसके बाद यदि राज्य की दमनकारी मशीनरी सड़कों पर आ कर नागरिकों को भय और मूकता का संदेश देने लगी तो तस्वीर इतनी सुहानी न रह जायेगी। भाजपा की कुल जीत इतनी बड़ी है, कि मणिपुर और गोआ सरीखे छोटे राज्यों के नतीजों पर अश्वत्थामा हत: कहने का पाप नाहक लिया गया। इससे मोदीजी का धर्मरथ भी कुछ अंगुल नीचे आ जाता है।

PM Narendra Modi, Rajnath Singh, L K Advani, Amit Shah and others during the BJP Parliamentary Party meeting (Photo: deccanchronicle)

यह नहीं कि शीर्ष से तो समरसता की बात की जाये, पर जब साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ या संगीत सोम फिर पुरानी वाक्शूरता की तलवारे भँजाते हुए अल्पसंख्यकों, मीडिया तथा अकादमिक संस्थानों में आलोचकों के प्राण अकच्छ करने लगें तो शीर्ष मौन साधे रहे। 

यह कहना इसलिये ज़रूरी है कि स्वयं प्रधानमंत्री खतरों के खिलाड़ी हैं। और उन्होंने किसी अन्य समवर्ती नेता से आगे बढ़कर दो महत्वपूर्ण बातें पकड़ी हैं : एक, कि भीतरखाने यह देश अपने अस्तित्व की अखंड़ता के बारे में बेहद चिंतित है। और दो : कि नेता को भारत की जनता से सीधा संवाद स्थापित कर मेहनतकशी, स्वच्छता सफाई, और अनुशासन परकता जैसे दैनिक जीवन और सामान्य ज्ञान की भीषण कमी को सायास हटाना चाहिये। एक समय था जब कि युद्ध जीतना, हारना, चढ़ाई करना, राज्य विस्तार का काम शासकों व उनकी (फौरी तौर से जुटाई) सेना के ही ज़िम्मे होता था। प्रजाजन युद्धकाल में भी यथासंभव अपने पुश्तैनी धंधे ही निबटाती रहती थी। बहुत बात बढ़ी तो कुछ दिन को गाँववाले जा कर जंगल में छिप जाते थे और लूटपाट खत्म हुई तो फिर वापस आ कर बुनकरी, खेती, लोहारी, बढईगिरी वगैरा के काम सँभाल लेते। लेकिन आज़ादी के सात दशकों में बहुत कुछ बदल चुका है। वैश्वीकृत बाज़ारों तथा तकनीकी तरक्की व हरित श्वेत क्रांतियों, ग्लोबल मौसम तब्दीली ने देश में काम धंधों का रूप बदल कर उनमें राज्य का सतत हस्तक्षेप सहज बना दिया है। सो गरीब किसान या बुनकर के लिये भी पुरानी राज्य निरपेक्षता धारे रखना असंभव है। उसकी राज्य से जुड़ी निज हित स्वार्थों की चिंता को पहचान कर ही मोदी जी ने बहुत चतुराई से उनको अच्छे दिनों का सपना बेचा है। उनके लिये आनेवाले समय की कठिनतम शासकीय चुनौती यहीं से उपजती है।

जिन अनुभवी आँखों ने अभी अपना अनुपात बोध नहीं खोया है, वे देख सकती हैं कि मोदी जी के भाषण में जो बातें साफ तौर से कही गईं उतनी ही महत्वपूर्ण वे थीं जिनकी तरफ इशारा किया गया। क्योंकि वे जिन सवालों को जगा रही थीं, वे सिर्फ संविधान के सवाल नहीं, भारत की एकता, वफादारी और सार्वजनिक शांति के विराट् सवाल थे। राज्य एक वैध, आत्मीय और अंतरंग इकाई है, सुदूर, विदेशी या सिर्फ बड़े लोगों की मिल्कियत नहीं, इसकी तरफ प्रधानमंत्री ने अपने 12 तारीख के भाषण में बार बार इंगित किया। (Photo: Times of India)
जिस पार्टी ने पाँचों राज्यों के चुनाव बिना मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सामने रखे लड़े हों, उनका यह फटाफट फैसला समन्वय तथा पारदर्शी सुराज की नई घोषणाओं को मलिन बनाते हैं। 

जिन अनुभवी आँखों ने अभी अपना अनुपात बोध नहीं खोया है, वे देख सकती हैं कि मोदी जी के भाषण में जो बातें साफ तौर से कही गईं उतनी ही महत्वपूर्ण वे थीं जिनकी तरफ इशारा किया गया। क्योंकि वे जिन सवालों को जगा रही थीं, वे सिर्फ संविधान के सवाल नहीं, भारत की एकता, वफादारी और सार्वजनिक शांति के विराट् सवाल थे। राज्य एक वैध, आत्मीय और अंतरंग इकाई है, सुदूर, विदेशी या सिर्फ बड़े लोगों की मिल्कियत नहीं, इसकी तरफ प्रधानमंत्री ने अपने 12 तारीख के भाषण में बार बार इंगित किया। इतनी बार दुहराये जाने के बाद उनका राज्य के व्यवहार तथा नीति निष्पादन में सकारात्मक उदाहरण भी ज़मीन पर जल्द दिखने चाहिये। यह नहीं कि शीर्ष से तो समरसता की बात की जाये, पर जब साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ या संगीत सोम फिर पुरानी वाक्शूरता की तलवारे भँजाते हुए अल्पसंख्यकों, मीडिया तथा अकादमिक संस्थानों में आलोचकों के प्राण अकच्छ करने लगें तो शीर्ष मौन साधे रहे।

आज मोदीजी भाजपा का वैसे ही प्रतिनिधि नज़र आते हैं, जैसे कभी (इंडिया इज़ इंदिरा) इंदिरा गाँधी कांग्रेस के लिये बन गई थीं। (Photo
: Livemint)

आज जो जन समर्थन का ज्वार मोदी जी के साथ है वह इंदिरा युग की याद दिलाता है। और आज मोदीजी भाजपा का वैसे ही प्रतिनिधि नज़र आते हैं, जैसे कभी (इंडिया इज़ इंदिरा) इंदिरा गाँधी कांग्रेस के लिये बन गई थीं। गौरतलब है कि भारत में अक्सर ऐसा ज्वार अखिल भारतीयता या एक जादुई नेता के सम्मोहन का ही नहीं, केंद्रीकरण का भी ज्वार साबित हुआ है। और इससे मुख्यनेता भले ही छायादार वटवृक्ष बन कर छा जाये उसकी उपस्थिति नये नेताओं की टोली को उगने नहीं देती। राजीव गाँधी की भारी चुनावी जीत और उसके पुण्य फलों का चंद सालों के भीतर क्षय दिखाता है कि यदि किसी कारण शिखर पर अचानक वटवृक्ष की छाँव में पले बिरवे को ला कर खड़ा कर दिया जाय तो उनके रक्तचाप का उस ऊँचाई से सहज अनुकूलन होने में बहुत वक्त लग जाता है। ऐसा नेता संकट की घड़ी में असाधारण क्षमता अथवा त्यागमय नेतृत्व का कोई परिचय नहीं दे पाता उतना तक नहीं जितना सोनिया गाँधी ने अचानक शिखर पर खड़ी कर दी जाने पर दिया था। काँग्रेस के शासनकाल में जिन आर्थिक सामाजिक खंभों ने बीसेक बरस अखिल भारतीय केंद्रीकरण को टिकाये रखा वे सब समय पर मरम्मत या पुनर्रचना न होने से ध्वस्त पड़े हैं। इस उद्धवस्त धर्मशाला में क्या बिना शीर्ष पर सिरे से बदलाव किये कांग्रेस एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में ज़िंदा रह सकेगी ? पर गोआ तथा मणिपुर पर पार्टी की लुजलुजी प्रतिक्रिया देख कर कहने को मन करता है, हाय रे उम्रभर काकवत् परमुखापेक्षी बने रहने वालों की यह पस्तहिम्मत थकन !
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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