वोट का बाज़ार है यहाँ — Maitreyi Pushpa | मैत्रेयी पुष्पा


Maitreyi Pushpa

भुगतिए नतीजा कभी वोट देने का और कभी न देने का 

मैत्रेयी पुष्पा

Maitreyi+Pushpa

लोकतन्त्र की अवधारणा के मूल में दो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं — नागरिकता की स्वायत्तता और नागरिकों के हक़ों की रक्षा। इन दोनों बातों के साथ और भी कई बातें जुड़ जाती हैं जो होती हैं मनुष्य के हित में ही। कहा जाता है कि नागरिक ही लोकतंत्र का आधार है, क्या यह माना भी जाता है ?
अपने नेतृत्व की अक्षमता शासक को नृशंस भी बना देती है कि वह नागरिक को अपनी मिल्कियत में शुमार करने लगता है

बेशक देश पर जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुनाव गुज़रता है तो प्रिय नेता जी आप नागरिक के साथ होते हैं। उसे केन्द्र में रख कर ही आप के दिन रात बीतते हैं। ताबड़तोड़ योजनायें बनती हैं जिन में देश के आदमी को ध्यान में रख कर पवित्रता और ईमानदारी भरी उद्घोषणाओं एवं नारों की खेप दर खेप उतारी जाती है। सभाओं और रैलियों में बेशक आपके भाषण ओजपूर्ण आत्मविश्वास से लबरेज़ होते हैं लेकिन वे इतने ज़ोर शोर से आते हैं कि आप की हार का डर उजागर होने लगता है। यों तो आप राष्ट्रधर्म की क़समें खाते थकते नहीं लेकिन आपका ख़ुशामदी लहजा बहुत कुछ बयान कर जाता है। जनता का धैर्य और उसकी विश्वसनीयता पर अभी भी आपका भरोसा है और कहीं तक यह भी यक़ीन है कि आप अपनी नाव खेकर ले जायेंगे क्योंकि आप की वाणी में जादूगरी है, भाषा में मन्त्रों जैसा पवित्र सौन्दर्य है जो हमें मुग्ध कर देता है। कोई कैसे जान पाये कि आपकी भीतरी बनावट कितनी अलग और कितनी जटिल है। कभी आप साक्षात देवता बनकर प्रकट होते हैं तो कभी गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में। हमारा विश्वास भी कितना भोला है कि आपके बहुरूपों में भटक जाता है।
जब नागरिक अपनी चेतना सम्पन्नता की ओर बढ़ा तो उस पर देशद्रोह का इल्ज़ाम लगने लगा। 
ऐसा ही तो समय था जब सरकार के घोटालों से जनता त्राहि त्राहि करने लगी थी और किसी संकटमोचक की खोज में थी। देश का नागरिक मान रहा था कि अब की बार वह अपने वोट की ताक़त से तख्ता पलट कर देगा। कड़वे अनुभवों से त्रस्त वह अब भरोसे के उन बोलों को सुनना चाहता था जो निजी स्वार्थ से हटकर देश के हित में हो। अब तक सारी जनता ने अपने लिये दर्शायी गयी सम्वेदना में जिन वादों को सुना है वे पूरी गरिमा के साथ प्रेषित किये गये मगर कोरे शब्दजाल सिद्ध हुये। माना कि विकास के नाम पर शहरों को सड़कें और फ़्लाइओवर मिले लेकिन किसानों और खेतिहर मजदूरों को क्या मिला ? चुने हुये लोगों की मनमानी ही रही न ? इसी मनमानी ने नागरिक की जिस चीज़ को रोंदा कुचला है या फिर पालतू बना लिया है वह है उस की आज़ादी और हक़दारी, बोलने की स्वतंत्रता, दख़लंदाज़ी की आवाज़। नागरिकों की अजेय और दुर्जेय शक्ति को तोड़कर उसे परतंत्र बनाने में नेता मंत्रियों की साज़िश। इसी करतूत ने नागरिकों को निष्क्रिय दशा में खदेड़ देने की कोशिश जारी रखी हैं। कारण कि अपने नेतृत्व की अक्षमता शासक को नृशंस भी बना देती है कि वह नागरिक को अपनी मिल्कियत में शुमार करने लगता है।

सरकारें मान लेती हैं कि नागरिक महज़ वोट है। वोट का बाज़ार है यहाँ। बस यहीं से उसकी स्वतंत्र चेतना कीली जा सकती है और उसके साथ स्वच्छंद व्यवहार किया जा सकता है इसलिये ही सरकार हर तरह से उसके धन बल को नियंत्रित करना चाहती है। इसके लिये तमाम नियम कानून और आदेशों के ज्ञाता अपनी कलायें उतारने के लिये जनता के सामने प्रस्तुत किये जाते हैं। वे आदेश के अनुसार बनी यथास्थिति को ऐसे बारीकऔर पेचीदा ढंग कहते हैं कि जनता के पास अपना कहने को कुछ रह नहीं जाता। वह ख़ाली हाथ जिसके सारे हथियार फिर सरकार के ही आधीन...अब कोई क्या बोले और क्या करे ? सरकारी नियम क़ायदा भी होता है और कोड़ा भी।

"ये करेंगे, वो करेंगे कि भारत भूमि को स्वर्ग बना देंगे" ऐसी ही तो मुनादियाँ की थीं हमारे सामने सभाओं और विशाल रैलियों में। प्रभाव, रुतबे तथा शक्ति में हिस्सेदारी बख़्शने के वादे किये थे। गतिशील सक्रियता देने की ज़िम्मेदारी ली थी आपने लेकिन यह क्या कि जब नागरिक अपनी चेतना सम्पन्नता की ओर बढ़ा तो उस पर देशद्रोह का इल्ज़ाम लगने लगा। साहब जी, आपकी सारी उदारता और सदाशयता का लोप क्यों होने लगा ? यहाँ तक कि अपने कहे को ही अनकहा मानकर आगे के हुक्मनामे जारी करते चले गये।

अब क्या कहें ? हुक्मनामों के आगे सुनवाई नहीं होती यह बात हम नागरिक होने के नाते नहीं रियाया हो जाने के कारण जान गये हैं। बड़ी कशमकश हमारी नागरिकता और रियायागीरी के बीच। लगभग घमासान सा मचा है दोनों स्थितियों में। हम हार जायेंगे क्या ? नहीं, हारते जीतते तो आप लोग हैं, नागरिक तो हराता जिताता है। लोकतंत्र में ऐसा ही तो विधान है। क्या यह विधान पलट दिया गया है कि अब की बार नागरिक की हार। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं होना चाहिये। नेता का अर्थ होता है - आगे ले जाने वाला, पीछे खींचने वाला नहीं। हम पीछे खींचे जा रहे हैं जैसे हमारी अक़्ल ठिकाने लगाई जा रही हो। बेशक, जब पुराने नेताओं को पराजित करने के बाद नये लोग सत्ता में आते हैं तो पुरानी सरकार के ख़िलाफ़ ऐसे नियम क़ानून लागू कर डालते हैं जिनकी गाज नागरिकों पर ही गिरती है। जैसे उनके घोटाले, हमसे भरपाई। उनकी योजनायें हमारे क़सूर...हम कभी वोट देने का नतीजा भुगतते हैं तो कभी न देने का। जब से देश आज़ाद हुआ है, बिलकुल ऐसा ही होता रहा है, यह हम नहीं कह रहे लेकिन अब हमारा देश आज़ादी की स्थिति से बहुत दूर निकल आया है।
अब तो...


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा