मंगलेश डबराल: यह भी एक पक्ष है अग्निशेखरजी!



मंगलेश डबराल का अग्निशेखर को खुला पत्र 



अपनी फेसबुक वाल पर अग्निशेखर मुझसे सवाल करते चले आ रहे हैं, जिनमें वामपंथी बुद्धिजीवियों की भी गहरी आलोचना है. उन्होंने एक खुला पत्र  मेरे नाम लिखा था. मेरी तरफ से भी यह एक पत्र.

अग्निशेखर-जी, शुक्रिया कि आपने स्वीकार किया कि मैंने चार चीज़ें आपकी प्रकाशित कीं. मैं जनसत्ता का सांस्कृतिक हिस्सा देखता था, राजनीतिक नहीं. राजनीतिक रूप से जवाहर लाल कौल की बीसियों रचनाएँ छपीं और पुष्प सराफ के लेख भी जिनमें कश्मीरी पंडितों का दर्द होता था. जहां तक याद है, दो लम्बे रिपोर्ताज कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर मैंने दिए. जब विस्थापन शुरू हुआ तो कश्मीर से लौटने पर दो लेख मैंने लिखे जिनमें कश्मीर में आतंकवाद, प्रशासन और और हिन्दू-मुस्लिम नागरिकों को अलग-अलग देखे जाने  का विमर्श था. क्षमा कौल, जिनकी कविता मुझे विस्थापितों और महिलाओं की नियति और पीड़ा दर्ज करने के कारण—उनके मोदी-समर्थक विचारों के बावजूद— पसंद है और उनकी डायरी भी—जनसत्ता में आयीं. मुझे यह बताते हुए दुःख हो रहा है क्योंकि यह तो मेरी सामान्य, सम्पादकीय ज़िम्मेदारी थी,  मुझे रचनाएँ छपने का ही पैसा मिलता था. इससे अधिक मैं क्या छाप सकता था? आप मुझसे किस सवाल के जवाब का इंतज़ार कर रहे हैं? क्या इसका कि मैंने यात्रियों के हादसे के लिए सरकार को भी ज़िम्मेदार ठहराया है? आपने मोदी का वह वीडिओ देखा है जिसमें वे आतंकवाद के लिए सीधे मनमोहन सरकार को दोषी बता कर ललकार रहे हैं? क्या नागरिक जीवन के विनाश के लिए अपनी सत्ताओं से सवाल करना, उनका विरोध करना गलत है?



और आपकी त्रासदी पर कौन वामपंथी खामोश रहे जिसके कारण आप उनके पीछे पड गए हैं? वामपंथियों को भला-बुरा कहने, जो कि आजकल फैशन में है, से पहले तथ्यों को जान लिया कीजिये. क्या आप इस सचाई से इनकार कर सकते हैं कि जगमोहन ने असुरक्षा का अतिरंजित हौवा खड़ा करके पंडितों को पलायन की सुविधा मुहैया करवाई थी? यह बात तो तवलीन सिंह जैसी धुर वामपंथ-विरोधी, दक्षिणपंथी पत्रकार भी लिख चुकी हैं और बहुत सी किताबों में इसका ज़िक्र है. जब पंडितों के संगठन भाजपा के निकट और अंततः उसकी झोली में चले गए, तब भी क्या आप मासूम ढंग से कम्युनिस्ट पार्टियों से आपके हितों के लिए लड़ने की उम्मीद लगाये हुए थे? पनुन कश्मीर के आपके वाले धड़े ने क्या कभी इन पार्टियों से समर्थन के लिए कहा? क्या आप लोग कभी सुवीर कौल, निताशा कौल, संजय काक, सुधा कौल, एमके रैना, बंसी कौल, एमके टिक्कू और ऐसे बहुत से विवेकवान लोकतांत्रिक या वामपंथी बुद्धिजीवियों-कलाकारों के साथ खड़े हुए? क्या आपने कश्मीर समस्या को कभी उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने-जांचने की कोशिश की या उसे सिर्फ अपने उन ज़ख्मों और विलापों के भीतर से देखा जो सचमुच के थे, लेकिन उनके साथ घाटी के मासूम, मददगार और गैर-आंतकी मुसलमानों के ज़ख्म भी सिसक रहे थे? क्या यातना एक प्राइवेट, एकांगी स्थिति है? क्या आपने घाटी के आम मुसलमानों और आतंकियों के बीच फर्क करने की कोशिश की और उन घटनाओं को रेखांकित किया जो घाटी में बचे हिंदुओं और अधिसंख्य मुसलमानों के बीच बरकरार भाईचारे को बतलाती थी? क्या आतंकवाद ने सिर्फ हिन्दुओं का शिकार किया, मुसलमानों का नहीं?

 कवि लोग पारदर्शी प्राणी होते है, जिनके भीतर पूरी मनुष्यता की यातना दिख जाती है और वे वेध्य भी होते हैं जिनका सरलता से शिकार किया जा सकता है. सभी मनुष्यों की यंत्रणा उनका ह्रदय चीरती रहती है भले ही इसे कोई न पहचाने. लेकिन यह उस समय की बात है जब महजूर, नादिम, उससे पहले नुन्द या नूरुद्दीन और लाल द्यद और हब्बा खातून की परम्परा आपके भीतर हलचल करती लगती थी और आपके विचारों में कश्मीर के शैव, बौद्ध और सूफी दर्शनों का ताना-बाना कुछ नज़र आता था. अफ़सोस.

बेशक, मेरी कविता पर अपने विचार रखने के लिए आप पूरी तरह स्वतंत्र हैं और मैं असहमति का सम्मान करता आया हूँ. ज़रूरी नहीं कि हर चीज़ हरेक को पसंद आये. और आपके ये विचार तो कुछ भी नहीं हैं, आपके ही कुछ मित्र लोग मुझे हमारे साहित्यिक इतिहास को प्रश्नांकित करने और ख़राब कविता लिखने के लिए वापस घर का रास्ता दिखाने और फिर कभी सहित्य में प्रवेश न करने देने का अभियान चलाने के बारे में लिख चुके हैं. शायद पैसे या इच्छाशक्ति की कमी के कारण उनकी योजना पूरी नहीं हुई! आपने ‘पहाड़ पर लालटेन’ का ज़िक्र किया, लेकिन कई लोगों का यह कहना है कि मेरी वह लालटेन फूट चुकी है और बुझ चुकी है. यह भी एक पक्ष है.



मंगलेश डबराल जी की फेसबुक वॉल से
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-07-2017) को "झूल रही हैं ममता-माया" (चर्चा अंक-2666) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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