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Book Review: मंगलेश डबराल की किताब 'एक सड़क एक जगह'


एक सड़क एक जगह

मंगलेश डबराल की किताब


EK SADAK EK JAGAH by MANGLESH DABRAL
वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव 2 जून, शाम 6 बजे, कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' में वरिष्ठ कवि श्री मंगलेश डबराल की किताब "एक सड़क एक जगह"- प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Tuesday, 2 June 2020
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मंगलेश डबराल की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 23: | Vinod Bhardwaj on Manglesh Dabral




प्रिय कवि मंगलेश डबराल जी, जिन्हें विनोद भारद्वाज जी साहित्य और कला में अपना अकेला हमउम्र दोस्त लिख रहे हैं, उनपर लिखा यह संस्मरण पढ़ने के बाद विनोद जी के प्रति मेरा सम्मान अचानक बहुत-बहुत बढ़ गया है. शुक्रिया उनका कि इस संस्मरणनाम में उनकी बतायी बातें मुझे बहुत कुछ नया सिखा गयीं.... सादर भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक 


 मंगलेश डबराल की यादें

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा


साहित्य और कला में मेरे हमउम्र दोस्त रहे ही नहीं। एक अकेले मंगलेश डबराल को यह दर्जा दिया जा सकता है। जब हम लघु पत्रिका आरम्भ लखनऊ से निकाल रहे थे, तो अपने गाँव काफलपानी से मंगलेश ने एक पोस्ट कार्ड लिखा था, यह मान कर कि मैं कोई वरिष्ठ अध्यापक हूँ। यह अलग बात है कि वह उम्र में मुझसे कुछ महीने बड़े हैं। 

यह मैं पहले ही बता दूँ, मंगलेश मेरे शुरू से ही प्रिय कवि हैं और एक बेहद नेक इंसान हैं। उनकी संपादन कला का भी मैं प्रशंसक रहा हूँ हालाँकि वह मेरा लिखा मैटर सीधे प्रेस में भेज देते थे। मैंने उनके संपादन में इतना लिखा है कि दो मोटी किताबें बन सकती हैं। मेरी दर्जनों कविताएँ जनसत्ता में उन्होंने ही छापी हैं। 

हमारे बीच दिलचस्प कहानियों की लंबी लिस्ट है, कुछ अनुभव ऐसे हैं, जो सामने लाया, तो साहित्यिक बवाल खड़े हो जाएँगे। फिर भी कोई फ़्लैट क़िस्म का संस्मरण मुझसे तो लिखा नहीं जाता। अपने समय में ऐसे क़िस्म के कुछ बवाल झेल चुका हूँ। 

लंबे समय तक वे मेरे पड़ोसी भी थे, पुष्प विहार और मालवीय नगर मेरे घर से पैदल की दूरी पर थे। हमारे बीच संगीत और फ़िल्म का एक रिश्ता भी था। वह भीमसेन जोशी के गायन के ज़बरदस्त प्रशंसक रहे हैं और ख़ुद भी तत्व प्राप्ति के बाद उसी शैली में गाने लगते थे। तत्व यानी शराब के बाद की शाम। प्रयाग शुक्ल होते थे हमारे साथ तो उन्होंने नियम बना रखा था, मंगलेश गायन शुरू करेंगे और वह बाहर सिगरेट पीने चले जाएँगे। पर उनके गायन में अनोखी पैशन थी, मुझे आनंद मिलता था। 

मैं मंगलेश के लिए ख़ूब लिखता था, मुझे वे पेमेंट भी दिलाते थे पर वह कभी यह उम्मीद नहीं करते थे कि मैं शाम के लिए उनके तत्व चिंतन का इंतज़ाम करूँ। हम शेयर कर के बोतल ख़रीदते थे। कभी उन्होंने नहीं कहा, आपकी कवर स्टोरी आई है, आप पार्टी दीजिए। मैं कितने संपादकों को जानता हूँ, जो लेखकों से कहते थे कि चेक कैश हो जाए, तो आधा पैसा मुझे नक़द दे दो। 

अब हमउम्र थे, तो दूसरी तरह की जिज्ञासाएँ तो रहती थीं, ख़ास तौर पर स्त्रियों को ले कर। यह स्वाभाविक है। मैं एक बार फ़िल्म फ़ेस्टिवल में व्यस्त था, तो मनमोहन तल्ख़ (जनसत्ता के फ़िल्म समीक्षक) ने उन्हें मेरी रिपोर्ट दी कि विनोद किसी रायपर की लड़की के साथ ख़ूब फ़िल्में देख रहा है। मंगलेश की छोटी सी जिज्ञासा थी, चुम्बन मिला क्या?

2007 में एक कार्यक्रम में मुझे उनके साथ विदेश जाने का मौक़ा मिला, टोक्यो में एक जापान भारत संवाद था। उनीता सच्चिदानंद ने एक जापानी अध्यापक के सहयोग से किया था जिसमें वह अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल जैसे वरिष्ठ लेखकों को भी ले जा सकी थीं। पर यात्रा का बजट कम था, छोटे से कमरे में एक छोटा सा पलंग था। जापानी क़द के हिसाब से पलंग बहुत छोटा था। मैं पलंग के एक तरफ़ सोता था। मंगलेश दूसरी तरफ़। लेकिन हमारे मुख अलग अलग कोनों में होते थे। 

कार्यक्रम टोक्यो के जिस इलाक़े में होते थे, वह गिंजा जैसी ग्लैमरस जगहों से दूर था। एक शाम हम दोनों ने वहाँ जाने का फ़ैसला किया। अशोक जी हमारे साथ हो लिए। मुझे भ्रम था की गिंजा में हमें गेइशा दिख जाएँगी। क्योटो बहुत दूर था। ज़ाहिर है गेइशा कहीं न मिली। मंगलेश ने अपनी किताब में टोक्यो के संस्मरण भी लिखे हैं। उनके यात्रा संस्मरण बहुत अलग तरह के हैं। 

एक कवयित्री का दिलचस्प संस्मरण है। नाम न पूछिएगा। वह मंगलेश के पास आती थी। मंगलेश ऐसी मदद के लिए विख्यात थे। कविताएँ सुधारना, स्पष्ट राय देना। उन्होंने उसे मेरे पास कुछ लेखन कार्य के लिए भेजा, मैं दिनमान के कुछ पेज संभालता था। वह मेरे साथ एक बार गोलचा सिनेमा के पास की विशिष्ट चाय की दुकान चली गयी। एक बार शायद मंगलेश ने उसे मेरे साथ मंडी हाउस देख लिया। 

एक दिन वह मेरे पास एक बड़ा सा लिफ़ाफ़ा ले कर आयी। बोली, मंगलेश जी ने आपके लिए भेजा है। मैं चौंका, आख़िर क्या है इस लिफ़ाफ़े में? मैंने लिफ़ाफ़ा उसीके सामने खोला। एक ख़त था, एक पार्कर पेन था और एक ढाई सौ रुपए का चेक। ख़त छोटा सा था, लिखा था, आप मेरे लिए लंदन से जो पार्कर पेन लाए थे, उसे वापस भेज रहा हूँ, उसके इस्तेमाल का शुल्क भी चेक से भेज रहा हूँ। 

यह ख़त और चेक मेरे निजी संग्रह में है। 

यह प्रसंग मंगलेश की ईमानदार भावुकता ही बताता है। उसे मेरा सलाम। 

हाल में मैंने एक जगह लिखा, उनके और प्रयाग जी के प्रेम परदे में रहते हैं। उनकी टीप थी, मेरे परदे तार तार हो चुके हैं। 

जनसत्ता के साहित्य कला संपादक के रूप में मंगलेश की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं, कितने ही आज के बड़े लेखकों को वे सामने लाए, इस पर शोध हो सकता है। नाम यहाँ गिनाना व्यर्थ है। 

एक बार शाम वह मेरे साथ घर पर आए। देवप्रिया मेरी पत्नी ने दरवाज़ा खोला। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, मंगलेश जी अभी हाथ मिला लीजिए, बाद में तो आप हाथ मिलाएँगे ही। मंगलेश थोड़ा झेंप गए। 

एक दिन हम स्कूटर से एक एम्बेसी की कॉकटेल पार्टी से वापस आए। मेरा घर पहले पड़ता था। मैंने विदा ली तो वह भावुक हो कर बोले, मैं देवप्रिया से प्रेम करता हूँ। 

मैं क्या कहता। 

फिर वह बोले, लेकिन मेरे प्रेम में वासना बिलकुल नहीं है। 

मुझे तो खैर सौ प्रतिशत वासना मुक्त प्रेम कभी समझ में नहीं आया। 

पर मंगलेश मेरे लिए हमेशा एक बहुत प्यारे इंसान हैं, एक हमउम्र प्रिय कवि, जिनसे सब कुछ सहज रूप में शेयर किया जा सकता है। ऐसे दोस्त आज बहुत कम हैं। 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

यशपाल

निर्मल वर्मा


सुबोध गुप्ता की यादें



अपनी जमीन को रिक्लेम करने की जरूरत है


 अपनी जमीन को रिक्लेम करने की जरूरत है

अनामिका शालीन महिला हैं. अगर वह जरा भी टेढ़ी हो जाएं, तो लपंटाचार्य जिदंगी भर के लिए अपनी लंपटई भूल जाएं!

सुधीश पचौरी

कवयित्री अनामिका ने भारतभूषण अग्रवाल सम्मान के लिए एक युवा कवि को क्या चुन दिया कि हिंदी साहित्य के लंपटों को आग लग गयी. एक महिला को लेकर जितने लंपटिया कशाघात हो सकते हैं, वो किये गये.

पांच की ज्यूरी में वह अकेली महिला थीं. अगर कोई मर्द (ज्यूरी) किसी को चुनता, तो भी क्या यही कहा जाता कि वे हर शाम एक युवा कवि को अपने संग घर ले के जाता था... अच्छा हुआ कि कुछ युवा लेखकों-लेखिकाओं को यह बदतमीजी नागवार लगी. फिर गरमी इतनी बढ़ी कि लंपटाचार्य को फेसबुक से अपनी टिप्पणी हटानी पड़ी!

पटना के प्रेमंचद समारोह में एक ‘सकूलर’ कवि के शामिल होने/ न होने को लेकर हुई है.पहली दो घटनाएं बताती हैं कि हिंदी साहित्य में बचा-खुचा मर्दवाद अब भी अपनी मर्दवादी ताल ठोकता रहता है, स्त्री-आखेट के लिए सोशल मीडिया को सबसे सही ठिकाना मानता है और वहीं से अपने ‘सेक्सिस्ट’ गोले दागता रहता है.


हिंदी साहित्य में कुछ स्त्रीत्ववादी स्वर में भले सुनाई पड़ने लगे हों, लेकिन मर्दवाद अब भी समझता है कि जब तक कोई लेखिका किसी मर्द साहित्यकार से ‘सही’ नहीं करवाती, तब तक उसका लेखिका होना असंभव है. अगर फिर भी वह लेखिका हो जाती है, तो उसका चरित्र संदिग्ध है!

अनामिका ने एक ज्यूरी के बतौर, कई कवियों की कविताओं में से एक कवि की एक कविता को उसी तरह चुना, जिस तरह अब तक ज्यूरी के पुरुष सदस्य चुनते रहे हैं.

पांच बरस पहले इसी अनामिका ने शायद अनुपम नामक एक युवा कवि की एक कविता को भारतभूषण सम्मान के लिए चुना था, तब किसी ने उनको लेकर कोई अभद्र टिप्पणी नहीं की थी, यद्यपि लंपटाचार्य तब भी थे!अभी उनको इतना कष्ट क्यों हुआ? इसका कारण है : ठेकेदारी! कल तक कुछ बड़े ठेकेदार होते थे, लेकिन सोशल मीडिया के सहारे कुछ नये लपके भी अपने ठेके चलाने के चक्कर में रहते हैं कि तय करें-कराएं कि कौन-सा सम्मान किसे, कब मिले? ऐसे में एक स्त्री किसी को सम्मान के लिए चुने और किसी ठेकेदार का चेला रह जाये, तो लेखिका से अपराध हुआ न! उसकी यह हिम्मत? अब निपटा देते हैं मेडम को! कर डालो चरित्र हनन!

अनामिका शालीन महिला हैं. अगर वह जरा भी टेढ़ी हो जाएं, तो लपंटाचार्य जिदंगी भर के लिए अपनी लंपटई भूल जाएं!

अकेली लेखिका के बारे में फोहश किस्से लिख उसे लज्जित कर उसे कंट्रोल में लाने के चक्कर में रहते हैं. यह शुद्ध ‘ब्लेकमेल’ है और ऐसे ब्लेकमेलियों से हिंदी भरी हुई है. ऐसों का इलाज ‘केस’ है या वह ‘सेवा’ है, जिसे किया जाता है, लेकिन कहा नहीं जाता.

हिंदी की तीसरी बीमारी ‘कमिटमेंट’ को ‘खूंटा’ समझ लेने की है. दो खूंटे हैं. एक सकूलर दूसरा कम्यूनल! अपने-अपने खूंटे में बंध कर पगुराना कमिटमेंट का दूसरा नाम है और छूआछूत इस कदर है कि किसी कम्यूनल से ‘हलो’ हो गया, तो सकूलर कम्यूनल हो गया! इतनी छूआछत और चाहते हैं ‘फासिज्म’ से लड़ना!

तो, प्रेमंचद का पटना वाला प्रोग्राम भाजपा का नहीं, बिहार सरकार का था. पहले सरकार महागठबंधन की थी, फिर एक रोज एनडीए की हो गयी. और सरकार पब्लिक के पैसे से चलती है. अगर मंगलेश उसमें चला गया, तो क्या अपराध? अखिल हिंदी क्षेत्र में हर जगह भाजपा सरकारें हैं, तब क्या सड़क पर चलना छोड़ दोगे?

लेकिन अफसोस, मंगलेश भी अपने जाने को लेकर क्षमाप्रार्थी ही नजर आया. क्यों? किसे सफाई दे रहो हो, यार? सरकारी मंचों का बायकाट करते रहोगे, तो क्या सब कुछ भाजपा को सौंप दोगे? इस समर्पणवाद से बाज आओ. अपनी जमीन को रिक्लेम करने की जरूरत है! मंच किसी के बाप के नहीं. आप अपनी कहो, वो अपनी कहें! आप ने बायकाट कर दिया, तो उन्हीं का काम कर दिया ना!

कहने की जरूरत नहीं कि आज साहित्य के प्रस्थापना विंदु (पैराडाइम) एकदम बदल गये हैं, लेकिन अब भी कुछ हैं, जो पुरानी प्रस्थापनाओं में ही अटके हैं.

उधर सोशल मीडिया में साहित्यकार के नाम पर एक विचित्र किस्म की नैतिक ब्रिगेड हावी है, जो जिस तिस के ‘अंतर्विरोधों’ को दिखा कर ‘पोल खोल’ अभियान चलाती रहती है.

कमिटमेंट को वे एक खूंटा समझती है और ईमानदारी को अपनी बेईमानी छिपाने का बहाना! साहित्य संस्कृति को लेकर जिस ‘रिगर’, जिस मेहनत और जिस धैर्य की जरूरत होती है, वह किसी-किसी ‘ब्लाॅग’ में हो तो हो, वरना ज्यादातर जगहों में, ‘मैं-मैं-मैं’ वाली आत्मश्लाघा और आत्मरति ही ‘साहित्य’ और ‘विचार’ के पर्याय नजर आते हैं.उक्त किस्से हिंदी साहित्य में पनप रही इसी तरह की बीमारियों के चिह्न हैं, जिनका ऐसा ‘क्रिटीक’ जरूरी है, जो ‘मेर तेर’ से परे रहे और नयी प्रस्थापनाओं को समझे!

(ये लेखक के अपने विचार हैं।
प्रभात ख़बर से साभार)
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मंगलेश डबराल: यह भी एक पक्ष है अग्निशेखरजी!



मंगलेश डबराल का अग्निशेखर को खुला पत्र 



अपनी फेसबुक वाल पर अग्निशेखर मुझसे सवाल करते चले आ रहे हैं, जिनमें वामपंथी बुद्धिजीवियों की भी गहरी आलोचना है. उन्होंने एक खुला पत्र  मेरे नाम लिखा था. मेरी तरफ से भी यह एक पत्र.

अग्निशेखर-जी, शुक्रिया कि आपने स्वीकार किया कि मैंने चार चीज़ें आपकी प्रकाशित कीं. मैं जनसत्ता का सांस्कृतिक हिस्सा देखता था, राजनीतिक नहीं. राजनीतिक रूप से जवाहर लाल कौल की बीसियों रचनाएँ छपीं और पुष्प सराफ के लेख भी जिनमें कश्मीरी पंडितों का दर्द होता था. जहां तक याद है, दो लम्बे रिपोर्ताज कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर मैंने दिए. जब विस्थापन शुरू हुआ तो कश्मीर से लौटने पर दो लेख मैंने लिखे जिनमें कश्मीर में आतंकवाद, प्रशासन और और हिन्दू-मुस्लिम नागरिकों को अलग-अलग देखे जाने  का विमर्श था. क्षमा कौल, जिनकी कविता मुझे विस्थापितों और महिलाओं की नियति और पीड़ा दर्ज करने के कारण—उनके मोदी-समर्थक विचारों के बावजूद— पसंद है और उनकी डायरी भी—जनसत्ता में आयीं. मुझे यह बताते हुए दुःख हो रहा है क्योंकि यह तो मेरी सामान्य, सम्पादकीय ज़िम्मेदारी थी,  मुझे रचनाएँ छपने का ही पैसा मिलता था. इससे अधिक मैं क्या छाप सकता था? आप मुझसे किस सवाल के जवाब का इंतज़ार कर रहे हैं? क्या इसका कि मैंने यात्रियों के हादसे के लिए सरकार को भी ज़िम्मेदार ठहराया है? आपने मोदी का वह वीडिओ देखा है जिसमें वे आतंकवाद के लिए सीधे मनमोहन सरकार को दोषी बता कर ललकार रहे हैं? क्या नागरिक जीवन के विनाश के लिए अपनी सत्ताओं से सवाल करना, उनका विरोध करना गलत है?



और आपकी त्रासदी पर कौन वामपंथी खामोश रहे जिसके कारण आप उनके पीछे पड गए हैं? वामपंथियों को भला-बुरा कहने, जो कि आजकल फैशन में है, से पहले तथ्यों को जान लिया कीजिये. क्या आप इस सचाई से इनकार कर सकते हैं कि जगमोहन ने असुरक्षा का अतिरंजित हौवा खड़ा करके पंडितों को पलायन की सुविधा मुहैया करवाई थी? यह बात तो तवलीन सिंह जैसी धुर वामपंथ-विरोधी, दक्षिणपंथी पत्रकार भी लिख चुकी हैं और बहुत सी किताबों में इसका ज़िक्र है. जब पंडितों के संगठन भाजपा के निकट और अंततः उसकी झोली में चले गए, तब भी क्या आप मासूम ढंग से कम्युनिस्ट पार्टियों से आपके हितों के लिए लड़ने की उम्मीद लगाये हुए थे? पनुन कश्मीर के आपके वाले धड़े ने क्या कभी इन पार्टियों से समर्थन के लिए कहा? क्या आप लोग कभी सुवीर कौल, निताशा कौल, संजय काक, सुधा कौल, एमके रैना, बंसी कौल, एमके टिक्कू और ऐसे बहुत से विवेकवान लोकतांत्रिक या वामपंथी बुद्धिजीवियों-कलाकारों के साथ खड़े हुए? क्या आपने कश्मीर समस्या को कभी उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने-जांचने की कोशिश की या उसे सिर्फ अपने उन ज़ख्मों और विलापों के भीतर से देखा जो सचमुच के थे, लेकिन उनके साथ घाटी के मासूम, मददगार और गैर-आंतकी मुसलमानों के ज़ख्म भी सिसक रहे थे? क्या यातना एक प्राइवेट, एकांगी स्थिति है? क्या आपने घाटी के आम मुसलमानों और आतंकियों के बीच फर्क करने की कोशिश की और उन घटनाओं को रेखांकित किया जो घाटी में बचे हिंदुओं और अधिसंख्य मुसलमानों के बीच बरकरार भाईचारे को बतलाती थी? क्या आतंकवाद ने सिर्फ हिन्दुओं का शिकार किया, मुसलमानों का नहीं?

 कवि लोग पारदर्शी प्राणी होते है, जिनके भीतर पूरी मनुष्यता की यातना दिख जाती है और वे वेध्य भी होते हैं जिनका सरलता से शिकार किया जा सकता है. सभी मनुष्यों की यंत्रणा उनका ह्रदय चीरती रहती है भले ही इसे कोई न पहचाने. लेकिन यह उस समय की बात है जब महजूर, नादिम, उससे पहले नुन्द या नूरुद्दीन और लाल द्यद और हब्बा खातून की परम्परा आपके भीतर हलचल करती लगती थी और आपके विचारों में कश्मीर के शैव, बौद्ध और सूफी दर्शनों का ताना-बाना कुछ नज़र आता था. अफ़सोस.

बेशक, मेरी कविता पर अपने विचार रखने के लिए आप पूरी तरह स्वतंत्र हैं और मैं असहमति का सम्मान करता आया हूँ. ज़रूरी नहीं कि हर चीज़ हरेक को पसंद आये. और आपके ये विचार तो कुछ भी नहीं हैं, आपके ही कुछ मित्र लोग मुझे हमारे साहित्यिक इतिहास को प्रश्नांकित करने और ख़राब कविता लिखने के लिए वापस घर का रास्ता दिखाने और फिर कभी सहित्य में प्रवेश न करने देने का अभियान चलाने के बारे में लिख चुके हैं. शायद पैसे या इच्छाशक्ति की कमी के कारण उनकी योजना पूरी नहीं हुई! आपने ‘पहाड़ पर लालटेन’ का ज़िक्र किया, लेकिन कई लोगों का यह कहना है कि मेरी वह लालटेन फूट चुकी है और बुझ चुकी है. यह भी एक पक्ष है.



मंगलेश डबराल जी की फेसबुक वॉल से
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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तानाशाह व अन्य कवितायेँ — मंगलेश डबराल | Manglesh Dabral 4 poems

manglesh dabral


मंगलेश डबराल - कवितायेँ


आसान शिकार



मनुष्य की मेरी देह ताकत के लिए एक आसान शिकार है
ताकत के सामने वह इतनी दुर्बल है और लाचार है
कि कभी भी कुचली जा सकती है
ताकत के सामने कमजोर और भयभीत हैं मेरे बाल और नाखून
जो शरीर के दरवाजे पर ही दिखाई दे जाते हैं
मेरी त्वचा भी इस कदर पतली है कि उसे पीटना बहुत आसान है
उसके ठीक नीचे ही बहता है ऱक़्त
और सबसे अधिक नाजुक और ज़द में आया हुआ है मेरा हृदय
जो इतना आहिस्ता धड़कता है
कि उसकी आवाज भी शरीर से बाहर नहीं सुनाई देती

मिट्टी हवा पानी ज़रा सी आग
थोड़े से आकाश से बनी है मेरी देह
उसे मिट्टी हवा पानी आग और आकाश में मिलाना है आसान
एक पुराने भुरभुरे काग़ज़ की तरह है मेरी आत्मा
जो हल्के दबाव से ही फट सकती है
पूरी तरह भंगुर है मेरा वजूद
उसे मिटाने के लिए किसी हरबे-हथियार की जरूरत नहीं होगी
किसी ताकतवर की एक फूंक ही मुझे उड़ाने के लिए काफ़ी होगी
मैं उड़ जाऊं गा सूखे हुए पत्ते या नुचे हुए पंख की तरह

मनुष्य की मेरी देह हमेशा उपलब्ध है
वह सड़क पार करती है दूर तक पैदल चलती है
सांस लेती है प्रेम करती है
थक कर बैठती है और फिर उठ खड़ी होती है
दुनिया के संभावित ताक़तवरों अत्याचारियों आततायियो को
उसे कहीं खोजने की ज़रूरत नहीं होती
मनुष्य की मेरी देह खड़ी रहती है उनके ठीक सामने
निष्कवच बिना किसी हथियार के।

तानाशाह


तानाशाह को अपने किसी पूर्वज के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वह उनकी
पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखता या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखता। यह स्वतःस्फूर्त
तरीके से होता है कि हवा में बंदूक की तरह उठा हुआ उसका हाथ या बंधी हुई
मुट्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई अंगुली किसी पुराने तानाशाह की
याद दिला जाती है या एक काली गुफा जैसा खुला हुआ उसका मुंह इतिहास
में किसी ऐसे ही खुले हुए मुंह की नकल बन जाता है। वह अपनी आंखों में
काफी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करता है लेकिन क्रूरता
कोमलता से ज्यादा ताकतवर होती है इसलिए वह एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है
और इतिहास की सबसे ठंढी क्रूर आंखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कुराता है
भाषण देता है और भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि वह एक मनुष्य है
लेकिन इस कोशिश में उसकी मुद्राएं और भंगिमाएं उन दानवों-दैत्यों-राक्षसों की
मुद्राओं का रूप लेती रहती हैं जिनका जिक्र प्राचीन ग्रंथों-गाथाओं-धारणाओं-
विश्वासों में मिलता है। वह सुंदर दिखने की कोशिश करता है आकर्षक कपड़े पहनता है
बार-बार बदलता है लेकिन इस पर उसका कोई वश नहीं कि यह सब
एक तानाशाह का मेकअप बन कर रह जाता है।

इतिहास में तानाशाह कई बार मर चुका है लेकिन इससे उस  पर कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि उसे लगता है उससे पहले कोई नहीं हुआ है।

मोबाइल


वे गले में सोने की मोटी जंजीर पहनते हैं
कमर में चौड़ी बेल्ट लगाते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं
वे एक आधे अंधेरे और आधे उजले रेस्तरां में घुसते हैं
और खाने और पीने का ऑर्डर देते हैं
वे आपस में जाम टकराते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं

उनके मोबाइलों का रंग काला है या आबनूसी
चांदी जैसा या रहस्यमय नीला
उनके आकार पतले छरहरे या सुडौल आकर्षक
वे अपने मोबाइलों को अपनी प्रेमिकाओं की तरह देखते हैं
और उन पर बात करते हैं
वे एक दूसरे के मोबाइल हाथ में लेकर खेलते हैं
और उनकी विशेषताओं का वर्णन करते हैं
वे एक अंधेरे-उजले रेस्तरां में घुसते हैं
और ज़्यादा खाने और ज़्यादा पीने का ऑर्डर देते हैं
वे धरती का एक टुकड़ा ख़रीदने का ऑर्डर देते हैं
वे जंगल पहाड़ नदी पेड़
और उनमें दबे खनिज को ख़रीदने का ऑर्डर देते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं

वे पता करते रहते हैं
कहां कितना खा और पी सकते हैं
कहां कितनी संपत्ति बना सकते हैं
वे पता करते रहते हैं
धरती कहां पर सस्ती है खाना-पीना कहां पर महंगा है
वे फिर से एक अंधेरे-उजले रेस्तरां में बैठते हैं
वे सस्ती धरती और महंगे खाने-पीने का ऑर्डर देते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं
वे फिर से जंजीरें ठीक करते हैं बेल्ट कसते हैं
वे अपने मोबाइलों को अपने हथियारों की तरह उठाते हैं
और कुछ जीतने के लिए चल देते हैं।

मुलाक़ात

(रंगकर्मी और चित्रकार मित्र विजय सोनी के निधन पर)


अब ऐसी ही जगहों में मुलाक़ात होती है
जहां कोई जा रहा होता है ज़्यादातर असमय

वहां चारों ओर आग जलाई जा रही होती है
या एक गड्ढा खोदा जा रहा होता है

लोग हड़बड़ाते हुए आते हैं कहते हैं
उम्मीद नहीं थी कि समय पर पहुंच पायेंगे
रास्ते में बहुत भीड़ है
हर कोई  कुछ खाने या कुछ ख़रीदने में जुटा है

कुछ तब आते हैं जब आग बुझ गयी होती है
गड्ढा भर दिया गया होता है

कभी-कभी मृतक के पास पहुंचने में कई दिन लग जाते हैं
कभी महीने या साल
कभी आख़िरी सलाम भी मन में ही कहना पड़ता है

यह ऐसा ही समय है
हर ख़बर बाज़ार से गुज़र कर आती है
और बाज़ार हमेशा हादसों को छिपाने की कोशिश करता है

जीते जी लोगों का होना भी पता चलता
वे पता नहीं किस दुनिया में रहने जाते हैं
या फिर हम ही जा चुके होते हैं कहीं और

अब संवेदनाएं भी पहले जैसी कहां रहीं
आंखें जितना देखती हैं दिल उससे भी कम महसूस करता है
अभाव कितना ही बड़ा हो दब जाता है किसी और चीज़ से

और दुख के जो आधे-अधूरे वाक्य बोले जाते हैं
उनका संबंध हमारे भीतर के हादसे से है
जो बाहर नहीं आता और दिखाई नहीं देता।


मंगलेश डबराल 

सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता... कैलाश वाजपेयी को याद करते मंगलेश डबराल Manglesh Dabral on Kailash Vajpeyi


सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देश

सन उन्नीस सौ साठ के बाद का दशक भारतीय समाज में आज़ादी, लोकतंत्र और नेहरूयुगीन महास्वप्न से मोहभंग और विरक्ति का दशक माना जाता है 

मंगलेश डबराल

सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता... कैलाश वाजपेयी को याद करते मंगलेश डबराल Maglesh Dabral on Kailash Vajpeyi

यह समाजवादी उम्मीदों, समतामूलक अवधारणाओं और परियोजनाओं की अर्थहीनता के उजागर होने का समय था और समाज में विकल्पों के लिए एक बेचैनी जन्म ले रही थी.
 
इस स्वप्नभंग के भीतर से एक ऐसी कविता पैदा हुई जिसे ‘नई कविता’ से अलग ‘सन साठ के बाद की कविता’ कहा गया और जिसके रचनाकारों— रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह और कैलाश वाजपेयी— ने हिंदी की आधुनिक कविता का व्यक्तित्व निर्मित करने में अहम भूमिका अदा की.

इनमें कैलाश वाजपेयी सबसे छोटे थे, उनका जन्म 1936 में उन्नाव ज़िले में हुआ था, लेकिन उनकी कविता ने आधुनिक भाव-बोध का मुहावरा तभी हासिल कर लिया था जब वे बहुत युवा थे: 

यह अधनंगी शाम और यह भटका हुआ अकेलापन
मैंने फिर घबराकर अपना शीशा तोड़ दिया’.

पहला संग्रह
कैलाश वाजपेयी का पहला कविता संग्रह ‘संक्रांत’ 1964 में प्रकाशित हुआ था जब वे सिर्फ 28 वर्ष के थे. तब तक वे एक अलग तेवर वाले गीतकार के रूप में चर्चित-प्रतिष्ठित हो चुके थे.

चाह अधूरी राह अधूरी
जीने का अरमान अधूरा
शायद इस अधबनी धरा पर
मैं पहला इंसान अधूरा’ 

और

'कुछ मत सोचो दर्द बढ़ेगा
ऊबो और उदास रहो' 

सरीखे उनके गीत कवि सम्मेलनों में धूम मचाते थे.

लेकिन वे उस समय के प्रचलित रूमानी, प्रेम और प्रकृति के गीतों से भिन्न एक वैयक्तिक और अस्तित्ववादी भाव-बोध लिए हुए थे और उनमें उनकी परवर्ती कविता के बीज भी छिपे थे.

'संक्रांत' के बाद प्रकाशित संग्रह 'देहांत से हटकर' में वे ऐसे कवि के तौर पर सामने आए जो आधुनिक मनुष्य के मोहभंग की, अपने समय, समाज, राजनीति और व्यवस्था से नाराज़गी और विरक्ति की कहानी लिख रहा था.

उन्हीं दिनों रघुवीर सहाय का प्रसिद्ध संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ भी आया था और इन दोनों संग्रहों को तुलनात्मक रूप से भी परखा जाता था.

विवाद

इसी दौर में कैलाश वाजपेयी की एक कविता ‘राजधानी’ विवाद का विषय बनी जिसमें कहा गया था कि 

‘सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देश.’

व्यवस्था पर ज़बरदस्त चोट करती इस कविता की कुछ और पंक्तियाँ इस तरह थीं:

‘चरित्र-रिक्त शासक
और संक्रामक सेठों की सड़ांध से भरी
इस नगरी में मैं जी रहा हूँ
जी रहा हूं जीवन की व्याकृति
झूठे नारों और खुशहाल सपनों से लदी
बैलगाड़ियां वर्षों से
‘जनपथ’ पर आ-जा रही हैं...’

यह शायद उस दौर की एकमात्र हिंदी कविता थी जिस पर संसद में भी हंगामा हुआ और कई सदस्यों द्वारा प्रतिबन्ध लगाने की मांग की गई.

इसी दशक में अकविता नामक काव्य आंदोलन भी शुरू हुआ जिसमें वैयक्तिक विद्रोह, परंपरा-भंजन और यौन-कुंठा की आवाजें बहुत मुखर थीं.

कैलाश वाजपेयी सीधे अकविता में शामिल नहीं हुए, लेकिन यह कहना सही होगा कि यौन-अभिव्यक्तियों को छोड़कर अकविता ने अपना भाषाई मुहावरा काफी हद तक कैलाश वाजपेयी की कविता से हासिल किया था.

परास्त बुद्धिजीवी
इसी दौर में उनकी एक और कविता ‘परास्त बुद्धिजीवी का वक्तव्य’ चर्चित हुई, जिसकी एक पंक्ति विचलित करने वाली थी:

‘अब हमें किसी भी व्यवस्था में डाल दो— हम जी जाएंगे.’

कैलाश वाजपेयी ने अस्तित्ववादी दार्शनिकों का अच्छा अध्ययन किया था और आधुनिक विचार पद्धतियों पर ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में उनके लेखों की याद आज भी बहुत से पाठकों को होगी.

कुछ वर्ष मैक्सिको के एक विश्वविद्यालय में पढ़ाकर लौटने के बाद उनके सफ़र का दूसरा दौर शुरू हुआ और वे भारतीय संत कवियों-संगीतकारों और तत्वाचिन्तकों, जैन-बौद्धवाद, हीनयान सम्प्रदाय, अद्वैत और सूफी दर्शन की ओर मुड़ गए. लेकिन उनकी कोशिश यह थी कि इन दार्शनिक परम्पराओं की मूल प्रस्थापनाओं, उनके सरोकारों और सार-तत्व को ग्रहण करके अपनी एक दार्शनिकता विकसित की जाए.


उनके परवर्ती संग्रह ‘सूफीनामा’, ‘पृथ्वी का कृष्णपक्ष’, ‘भविष्य घट रहा है’ और ‘हवा में हस्ताक्षर’, जिस पर उन्हें सन 2009 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ, इस तलाश के साक्ष्य हैं.

इस कोशिश में उनकी कविता साधारण से उदात्त की ओर, भौतिक से आधिभौतिक की ओर और अस्तित्व से शून्य की ओर यात्रा करती रही.

दार्शनिकता आम तौर पर कविता के लिए घातक मानी जाती है, उसे बोझिल और अपठनीय बना देती है, लेकिन कैलाश वाजपेयी की कविता पेचीदा रहस्यात्मक प्रश्नों से उलझने के बावजूद पठनीय बनी रहती है.

सांप्रदायिकता के धुर विरोधी
बौद्ध मिज़ाज़ की एक कविता में वे कहते हैं:

‘आंख भी न बंद हो
और यह दुनिया आंखों से ओझल हो जाए
कुछ ऐसी तरकीब करना
डूबना तो तय है इसलिए
नाव नहीं, नदी पर भरोसा करना.’

कुल मिलाकर वह एक ऐसी कविता बनी जो मृत्यु और अनस्तित्व के परदे से जीवन और अस्तित्व को देखती है और बाहरी से ज्यादा आतंरिक जीवन का ध्यान करती है.

बौद्ध और सूफी चिंतन की बुनियाद पर कैलाश वाजपेयी एक निजी अध्यात्म की खोज करते रहे और धार्मिकता, उसके पाखंडों-कर्मकांडों, धर्म की राजनीति और सांप्रदायिकता के धुर विरोधी बने रहे.

उनकी परवर्ती कविता सामाजिक सरोकारों और हस्तक्षेप की कमी के कारण नई पीढ़ियों के बीच कुछ कम प्रासंगिक हो चली थी, लेकिन उन्होंने कविता और जीवन में जिस अलग संसार की तामीर की थी, वह आकर्षण का विषय बना रहा.

उनके अंतिम संग्रह का नाम ‘हवा में हस्ताक्षर’ था और उनकी जीवन-दृष्टि भी इसी तात्कालिकता और नश्वरता से बनी थी.

लेकिन हवा में कैलाश वाजपेयी के हस्ताक्षर इसलिए बने रहेंगे कि उन्होंने संवेदना और भाषा के स्तर पर आधुनिक हिंदी कविता को एक नई प्रखरता दी.

मंगलेश डबराल
साभार बीबीसी डॉट कॉम
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