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मंगलेश डबराल की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 23: | Vinod Bhardwaj on Manglesh Dabral




प्रिय कवि मंगलेश डबराल जी, जिन्हें विनोद भारद्वाज जी साहित्य और कला में अपना अकेला हमउम्र दोस्त लिख रहे हैं, उनपर लिखा यह संस्मरण पढ़ने के बाद विनोद जी के प्रति मेरा सम्मान अचानक बहुत-बहुत बढ़ गया है. शुक्रिया उनका कि इस संस्मरणनाम में उनकी बतायी बातें मुझे बहुत कुछ नया सिखा गयीं.... सादर भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक 


 मंगलेश डबराल की यादें

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा


साहित्य और कला में मेरे हमउम्र दोस्त रहे ही नहीं। एक अकेले मंगलेश डबराल को यह दर्जा दिया जा सकता है। जब हम लघु पत्रिका आरम्भ लखनऊ से निकाल रहे थे, तो अपने गाँव काफलपानी से मंगलेश ने एक पोस्ट कार्ड लिखा था, यह मान कर कि मैं कोई वरिष्ठ अध्यापक हूँ। यह अलग बात है कि वह उम्र में मुझसे कुछ महीने बड़े हैं। 

यह मैं पहले ही बता दूँ, मंगलेश मेरे शुरू से ही प्रिय कवि हैं और एक बेहद नेक इंसान हैं। उनकी संपादन कला का भी मैं प्रशंसक रहा हूँ हालाँकि वह मेरा लिखा मैटर सीधे प्रेस में भेज देते थे। मैंने उनके संपादन में इतना लिखा है कि दो मोटी किताबें बन सकती हैं। मेरी दर्जनों कविताएँ जनसत्ता में उन्होंने ही छापी हैं। 

हमारे बीच दिलचस्प कहानियों की लंबी लिस्ट है, कुछ अनुभव ऐसे हैं, जो सामने लाया, तो साहित्यिक बवाल खड़े हो जाएँगे। फिर भी कोई फ़्लैट क़िस्म का संस्मरण मुझसे तो लिखा नहीं जाता। अपने समय में ऐसे क़िस्म के कुछ बवाल झेल चुका हूँ। 

लंबे समय तक वे मेरे पड़ोसी भी थे, पुष्प विहार और मालवीय नगर मेरे घर से पैदल की दूरी पर थे। हमारे बीच संगीत और फ़िल्म का एक रिश्ता भी था। वह भीमसेन जोशी के गायन के ज़बरदस्त प्रशंसक रहे हैं और ख़ुद भी तत्व प्राप्ति के बाद उसी शैली में गाने लगते थे। तत्व यानी शराब के बाद की शाम। प्रयाग शुक्ल होते थे हमारे साथ तो उन्होंने नियम बना रखा था, मंगलेश गायन शुरू करेंगे और वह बाहर सिगरेट पीने चले जाएँगे। पर उनके गायन में अनोखी पैशन थी, मुझे आनंद मिलता था। 

मैं मंगलेश के लिए ख़ूब लिखता था, मुझे वे पेमेंट भी दिलाते थे पर वह कभी यह उम्मीद नहीं करते थे कि मैं शाम के लिए उनके तत्व चिंतन का इंतज़ाम करूँ। हम शेयर कर के बोतल ख़रीदते थे। कभी उन्होंने नहीं कहा, आपकी कवर स्टोरी आई है, आप पार्टी दीजिए। मैं कितने संपादकों को जानता हूँ, जो लेखकों से कहते थे कि चेक कैश हो जाए, तो आधा पैसा मुझे नक़द दे दो। 

अब हमउम्र थे, तो दूसरी तरह की जिज्ञासाएँ तो रहती थीं, ख़ास तौर पर स्त्रियों को ले कर। यह स्वाभाविक है। मैं एक बार फ़िल्म फ़ेस्टिवल में व्यस्त था, तो मनमोहन तल्ख़ (जनसत्ता के फ़िल्म समीक्षक) ने उन्हें मेरी रिपोर्ट दी कि विनोद किसी रायपर की लड़की के साथ ख़ूब फ़िल्में देख रहा है। मंगलेश की छोटी सी जिज्ञासा थी, चुम्बन मिला क्या?

2007 में एक कार्यक्रम में मुझे उनके साथ विदेश जाने का मौक़ा मिला, टोक्यो में एक जापान भारत संवाद था। उनीता सच्चिदानंद ने एक जापानी अध्यापक के सहयोग से किया था जिसमें वह अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल जैसे वरिष्ठ लेखकों को भी ले जा सकी थीं। पर यात्रा का बजट कम था, छोटे से कमरे में एक छोटा सा पलंग था। जापानी क़द के हिसाब से पलंग बहुत छोटा था। मैं पलंग के एक तरफ़ सोता था। मंगलेश दूसरी तरफ़। लेकिन हमारे मुख अलग अलग कोनों में होते थे। 

कार्यक्रम टोक्यो के जिस इलाक़े में होते थे, वह गिंजा जैसी ग्लैमरस जगहों से दूर था। एक शाम हम दोनों ने वहाँ जाने का फ़ैसला किया। अशोक जी हमारे साथ हो लिए। मुझे भ्रम था की गिंजा में हमें गेइशा दिख जाएँगी। क्योटो बहुत दूर था। ज़ाहिर है गेइशा कहीं न मिली। मंगलेश ने अपनी किताब में टोक्यो के संस्मरण भी लिखे हैं। उनके यात्रा संस्मरण बहुत अलग तरह के हैं। 

एक कवयित्री का दिलचस्प संस्मरण है। नाम न पूछिएगा। वह मंगलेश के पास आती थी। मंगलेश ऐसी मदद के लिए विख्यात थे। कविताएँ सुधारना, स्पष्ट राय देना। उन्होंने उसे मेरे पास कुछ लेखन कार्य के लिए भेजा, मैं दिनमान के कुछ पेज संभालता था। वह मेरे साथ एक बार गोलचा सिनेमा के पास की विशिष्ट चाय की दुकान चली गयी। एक बार शायद मंगलेश ने उसे मेरे साथ मंडी हाउस देख लिया। 

एक दिन वह मेरे पास एक बड़ा सा लिफ़ाफ़ा ले कर आयी। बोली, मंगलेश जी ने आपके लिए भेजा है। मैं चौंका, आख़िर क्या है इस लिफ़ाफ़े में? मैंने लिफ़ाफ़ा उसीके सामने खोला। एक ख़त था, एक पार्कर पेन था और एक ढाई सौ रुपए का चेक। ख़त छोटा सा था, लिखा था, आप मेरे लिए लंदन से जो पार्कर पेन लाए थे, उसे वापस भेज रहा हूँ, उसके इस्तेमाल का शुल्क भी चेक से भेज रहा हूँ। 

यह ख़त और चेक मेरे निजी संग्रह में है। 

यह प्रसंग मंगलेश की ईमानदार भावुकता ही बताता है। उसे मेरा सलाम। 

हाल में मैंने एक जगह लिखा, उनके और प्रयाग जी के प्रेम परदे में रहते हैं। उनकी टीप थी, मेरे परदे तार तार हो चुके हैं। 

जनसत्ता के साहित्य कला संपादक के रूप में मंगलेश की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं, कितने ही आज के बड़े लेखकों को वे सामने लाए, इस पर शोध हो सकता है। नाम यहाँ गिनाना व्यर्थ है। 

एक बार शाम वह मेरे साथ घर पर आए। देवप्रिया मेरी पत्नी ने दरवाज़ा खोला। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, मंगलेश जी अभी हाथ मिला लीजिए, बाद में तो आप हाथ मिलाएँगे ही। मंगलेश थोड़ा झेंप गए। 

एक दिन हम स्कूटर से एक एम्बेसी की कॉकटेल पार्टी से वापस आए। मेरा घर पहले पड़ता था। मैंने विदा ली तो वह भावुक हो कर बोले, मैं देवप्रिया से प्रेम करता हूँ। 

मैं क्या कहता। 

फिर वह बोले, लेकिन मेरे प्रेम में वासना बिलकुल नहीं है। 

मुझे तो खैर सौ प्रतिशत वासना मुक्त प्रेम कभी समझ में नहीं आया। 

पर मंगलेश मेरे लिए हमेशा एक बहुत प्यारे इंसान हैं, एक हमउम्र प्रिय कवि, जिनसे सब कुछ सहज रूप में शेयर किया जा सकता है। ऐसे दोस्त आज बहुत कम हैं। 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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