कुछ यादें अनमोल होती हैं। और उन अनमोल यादों को साझा किया जाना बीते कल के साथ किया जाने वाला वह बेहद ज़रूरी काम है जो भविष्य को, हमसब को आशान्वित करता है। विनोद भारद्वाज जी का हर संस्मरणनामा इस बात का प्रमाण है। और हाथ कंगन को आरसी क्या...पढ़िए मनजीत बावा की यादें! ... भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक (एक तस्वीर जो सरदार मदन गोपाल सिंह साहब ने इस संस्मरण के लिए दी है, उसका उन्हें बहुत शुक्रिया।)
एक बार राष्ट्रीय कला संग्रहालय में कम्प्यूटर कला की एक प्रदर्शनी आयोजित हुई। उसका कार्ड देनें वे (मनजीत बावा) दिनमान के दफ़्तर आए, मैं कहीं गया हुआ था। उन्होंने मेरी मेज़ पर बैठ कर एक छोटी सी ड्रॉइंग बनायी और हिंदी में लिखा, हाथ से बनायी है, कम्प्यूटर से नहीं। वह ड्रॉइंग मेरे काग़ज़ों में कहीं छिपी पड़ी है। मिल जाए, तो बेच कर वेनिस घूम आऊँ।
मनजीत बावा की यादें
— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा
हुसेन और सूजा मुझसे काफ़ी सीन्यर कलाकार थे, उनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति थी। स्वामीनाथन भी उसी वर्ग के थे। लेकिन मनजीत को हम अपना दोस्त मानते थे, हालाँकि उम्र में वह मुझसे काफ़ी बड़े थे। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मनजीत वास्तव में हम सब का मन जीत लेते थे। एक मस्त फक्कड़ कलाकार जो उस ज़माने में दिल्ली के खंडहरों में शैलोज मुखर्जी का प्रेत खोज रहे थे। मनजीत स्वामी के शिष्य थे, और स्वामी ख़ुद शैलोज के व्यक्तित्व से प्रभावित थे। पियक्कड़ शैलोज पर ज़बरदस्त कलाकार और अध्यापक। उनके कई नामी छात्र आज अस्सी की उम्र पार कर गए हैं, पर वे शैलोज को ऐसे प्यार से याद करते हैं जैसे वे कल ही उनकी क्लास से बाहर निकले हों।
पर इस जीवनी में अर्पणा कौर ग़ायब हैं। यह भी हो सकता है कि अर्पणा ने बात करने से इंकार कर दिया हो। बाद के वर्षों में वह मनजीत का नाम भी लेना नहीं पसंद करती रही हैं।
मनजीत की कला और व्यक्तित्व को स्वामी ने बहुत प्रभावित किया। भारतीय लघु चित्रकला के सपाट रंगों का बैक्ग्राउंड में बारीक इस्तेमाल, पश्चिमी कला शास्त्र, ख़ास तौर पर पिकासो का बहिष्कार ये सब स्वामी का असर था। मनजीत की रेखांकन में ग़ज़ब की प्रतिभा थी, अवनि सेन ने इस कला के गुण सिखाए थे।
मनजीत के बारे में बात करनी है, तो जिस मनजीत को हम शुरू में जानते थे, वह एक खड़खड़िया स्कूटर वाले मस्त मनजीत थे, जो गढ़ी स्टूडीओ की शाम की तत्व चिंतन बैठक यानी रम ज्ञान प्राप्ति के बाद मुझे स्कूटर में बैठा कर घर भी छोड़ आते थे। एक बार तो कवि गगन गिल भी थीं और मुझे याद है मनजीत हम दोनों को किसी तरह से लाद कर मूलचंद अस्पताल के बस स्टॉप तक गए थे।
अमिताभ दास ने बताया की वे लंदन में ब्लैक पैन्थर की ट्रेनिंग भी ले चुके थे। एक बार धूमीमल गैलरी के बाहर वह एक मनचले को बुरी तरह से हड़का भी चुके थे।
मैंने मज़ाक़ में मनजीत से कहा, जैसे एक छोटा पेग होता है और एक बड़ा पेग होता है, उसी शैली में आप छोटा हुसेन बनते जा रहे हैं। न्यूज़ में रहने की कला आप भी जान गए हैं। .... इना पुरी ने लिखा है मैंने कहा कि आप नेक्स्ट हुसेन बनोगे। वैसे मेरे कॉमेंट में एक व्यंग्य अधिक था।
शायद मदनगोपाल सिंह ने एक बार बताया था कि एक बार वह देर रात गायन आदि के बाद उनके घर से निकले, तो मालूम पड़ा कि सुबह हो गयी और वे मज़दूरों के साथ बैठे गा बजा रहे हैं। ऐसे मस्त थे मनजीत।
ललित कला के गढ़ी स्टूडीओ में एक अपर हाउस था और एक लोअर हाउस। अपर हाउस में स्वामी, कृष्ण खन्ना, संतोष आदि के बड़े स्टूडीओ थे। लोअर हाउस में एक बड़े कक्ष में मनजीत, अमिताभ दास, मृणालिनी मुखर्जी, अर्पणा कौर आदि काम करते थे। ऊपरी हिस्से में मनजीत का स्टूडीओ था। वे पेंट करने के बाद अपने ब्रश एक आध्यात्मिक आलोक में धीरे धीरे साफ़ करते थे।
मनजीत मस्त थे, पर अंदर से बेटे की असामान्य ग्रोथ के कारण बहुत दुखी भी रहते थे। उनकी पत्नी शारदा, मनजीत का कहना था, इस त्रासदी के कारण तांत्रिकों के चक्कर लगाने लगी थीं। इस दौर में ही अर्पणा कौर उनकी मित्र बनीं। बरसों बाद ललित कला के रवींद्र भवन में मनजीत की एक बड़ी प्रदर्शनी में मैं मनजीत के साथ बैठा हुआ था। उनकी मित्र और कलाविद् इना पुरी ने मुझसे कहा, मैं मनजीत की जीवनी लिख रही हूँ, आपका भी इंटर्व्यू करना है। मैंने उनसे कहा, अर्पणा कौर से ज़रूर मिलिएगा।
पर इस जीवनी में अर्पणा कौर ग़ायब हैं। यह भी हो सकता है कि अर्पणा ने बात करने से इंकार कर दिया हो। बाद के वर्षों में वह मनजीत का नाम भी लेना नहीं पसंद करती रही हैं। मृणाल पांडे जब वामा टाइम्ज़ ग्रूप की स्त्री पत्रिका की संपादक थीं, तो ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद वह कवर के लिए किसी सोणी सिखणी को खोज रही थीं, मैंने अर्पणा कौर का नाम सुझाया और उस अंक के लिए उन पर लिखा भी।
दरया गंज में हमारा दफ़्तर था, पुरानी सी इमारत में। एक बार अर्पणा कौर दफ़्तर आयीं, बहुत परेशान थीं। बैग से गुरुग्रंथ साहेब का गुटका संस्करण निकाल कर बोलीं, मैं क़सम खा कर कहती हूँ, मनजीत मेरे बारे में उलटी सीधी बातें कर रहा है। मेरी आज भी अर्पणा से मित्रता है, पर वह मनजीत पर कुछ बोलना नहीं चाहती हैं।
इना पुरी ने मनजीत की जीवनी में एक घटना का ज़िक्र किया है, जो मैंने ही उन्हें बतायी थी। रवि जैन के घर में पार्टी थी। मनजीत धीरे धीरे मीडिया स्टार बनते जा रहे थे। मैंने मज़ाक़ में मनजीत से कहा, जैसे एक छोटा पेग होता है और एक बड़ा पेग होता है, उसी शैली में आप छोटा हुसेन बनते जा रहे हैं। न्यूज़ में रहने की कला आप भी जान गए हैं।
इना पुरी ने लिखा है मैंने कहा कि आप नेक्स्ट हुसेन बनोगे। वैसे मेरे कॉमेंट में एक व्यंग्य अधिक था।
इसमें कोई शक नहीं, जब मनजीत लंबे समय तक कोमा में रहे, तो इना पुरी ने उनकी देखभाल बहुत मन से की। उनकी लिखी जीवनी जब छप कर आयी, तो मैं आउटलुक हिंदी में उस पर लिखना चाहता था। वह ख़ुद किताब ले कर मेरे घर आयीं, किताब देते हुए उनकी आँखों में आँसू थे।
मनजीत का डलहौज़ी में एक मेहर होटेल था, भाई मनमोहन के साथ वे उसे चलाते थे। उन्नीस सौ पच्चासी में मैं उनके निमंत्रण पर पत्नी देवप्रिया के साथ गरमियों में एक हफ़्ते के लिए वहाँ ठहरा भी था। पुराने होटलों के कमरे की दीवारें पतली होती थीं। एक हनीमून जोड़ा हमारे बग़ल वाले कमरे में था। कोई उत्साही सरदार जी अपनी नई नवेली दुल्हन को अपनी कॉलेज की लड़कियों के सच्चे झूठे क़िस्से सुनाते थे। और कैसेट पर वे एक गाना बार बार जाने क्यूँ बजाते रहते थे, अभी ग्यारह नहीं बजे हैं। मनजीत को हम पूरी रिपोर्ट देते थे। वे कहते थे, सही कमरा मिला है आपको।
उन दिनों जेराम पटेल भी डलहौज़ी में थे। शाम को वे भी आ जाते थे कला चर्चा के लिए।
जेराम भाई मुझसे बहुत स्नेह करते थे, एक बार उन्होंने मुझे वडोदरा बुलाया, पर वह अस्पताल से अभी आए ही थे। बिस्तर पर गफ़लत में कुछ सिल्वर, ब्लैक बोल रहे थे। मैं बहुत प्रभावित हुआ कि कलाकार अपनी बीमारी में भी रंगों को ले कर चिंतित है। उनके नौकर ने मुझे धीरे से बताया, वे होंडा सिटी गाड़ी ख़रीदने वाले हैं, उसके रंग की बात कर रहे हैं। ध्रुव मिस्तरी के घर गया, तो उनकी पत्नी से पता चला वे हमेशा स्कूटर चलाते रहे, इसलिए कार शायद उनका बड़ा सपना थी।
मनजीत भी स्कूटर से छोटी कार, फिर बड़ी कार, फिर लग्ज़री कार में शिफ़्ट होते रहे। कला बाज़ार बढ़ रहा था बड़ी तेज़ी से। इम्पीरीयल होटेल में उन्हें स्टूडीओ बनाने की अच्छी जगह मिल गयी थी। गढ़ी की दुनिया जा चुकी थी। वहाँ एक विदेशी उनसे पेंटिंग ख़रीदना चाह रहा था। मनजीत उसे समझा रहे थे, एक साल की वेटिंग लिस्ट है। मनजीत बाज़ार के नुस्ख़े अच्छी तरह से जान गए थे।
छोटी कार के दिनों में एक बार मैं मनजीत के साथ जयपुर गया था। वाहनों की हड़ताल थी, और मनजीत तेज़ रफ़्तार से गाड़ी चला रहे थे, मुझे लगा मैं जैसे उड़ रहा हूँ। वे उनके मस्ती के दिन थे।
एक बार राष्ट्रीय कला संग्रहालय में कम्प्यूटर कला की एक प्रदर्शनी आयोजित हुई। उसका कार्ड देनें वे दिनमान के दफ़्तर आए, मैं कहीं गया हुआ था। उन्होंने मेरी मेज़ पर बैठ कर एक छोटी सी ड्रॉइंग बनायी और हिंदी में लिखा, हाथ से बनायी है, कम्प्यूटर से नहीं। वह ड्रॉइंग मेरे काग़ज़ों में कहीं छिपी पड़ी है। मिल जाए, तो बेच कर वेनिस घूम आऊँ।
हुसेन और राम कुमार का एक मज़ेदार क़िस्सा है। हुसेन की बेटी अकीला की शादी का कार्ड सिल्क स्क्रीन में था। हुसेन ने राम कुमार से हँस कर कहा, कार्ड बेच कर हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीद कर मुंबई आ जाना।
मेरी एक किताब का विमोचन मनजीत ने कुछ मित्रों के बीच मेरे घर में किया था और तबला बजाते हुए ख़ूब मस्त हो कर गाया था। वे भी क्या दिन थे।
एक दुखद प्रसंग भी है उनके असिस्टेंट महेंद्र सोनी का। वे गैंग्रीन का शिकार हो गए थे। मनजीत के बहुत निकट थे। निधन से पहले उनका फ़ोन आया, गुरु जी ने बड़ा धोखा दिया।
कला बाज़ार का यह काला पक्ष है। जब कला के दाम नहीं थे, तो असिस्टेंट कम वेतन में भी ख़ुश थे। जब दाम लाखों में पहुँच गए, कलाकार सोशल लाइफ़ में व्यस्त हो गए, तो इन असिस्ट करने वालों को लगा, हमें हमारी मेहनत के बदले में बहुत कम मिल रहा है।
एक हद तक यह बात सही थी।
पर मनजीत को कहीं किसी अंधेरे कोने में कोमा का सदमा दबोचने के लिए बुरी तरह से इंतज़ार कर रहा था। एक बड़ा कलाकार एक लंबी नींद में सो कर चुपचाप कहीं चला गया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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