केदारनाथ सिंह की यादें — विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 15: | Vinod Bhardwaj on Kedarnath Singh


विनोद भारद्वाज जी अपने बहुचर्चित स्तंभ 'संस्मरणनामा' में इस दफ़ा केदारनाथ सिंह जी की यादें हम सब से साझा कर रहे हैं...   


जब वे साकेत में आ कर मेरे पड़ोसी हो गए, तो वे अक्सर कैलाश वाजपेयी के यहाँ शाम को तत्व चिंतन के लिए आ जाते थे। तत्व यानी मदिरा। कैलाश जी पीते नहीं थे। पर बोतल रख देते थे मेज़ पर। ओम थानवी और कुँवर नारायण उनके घर आए, तो उन्होंने उमदा स्कॉच पिलायी। होली के दिन कैलाश जी का फ़ोन आया, शाम को घर आइए। केदार जी भी आ रहे हैं। मैं वहाँ पहुँचा तो केदार जी एक अजीबोग़रीब लेबल की बोतल से पर्याप्त तत्व प्राप्त कर चुके थे। वो बहुत सस्ती शराब थी। कैलाश जी तो बच लिए, यह कह कर कि मुझे तो इस बारे में जानकारी नहीं। केदार जी अपनी विनम्रता और भोलेपन में बेख़बर थे। 


केदारनाथ सिंह की यादें 

विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा 

जब हम अपने समय की बहुचर्चित पत्रिका आरम्भ निकाल रहे थे, तो सभी बड़े कवियों की नई कवितायें हम छाप सके थे, पर पड़रौना में पढ़ा रहे केदार जी से कविता हम नहीं ले पाए। वे किसी पत्र का जवाब भी नहीं देते थे। मैं जब ग्यारहवीं का छात्र था, तो एक आयोजन में उनकी कविताएँ सुनी थीं, उनसे भाग कर ऑटोग्राफ़ भी कराये थे, पर उनसे मिलना-जुलना तभी शुरू हुआ, जब वह दिल्ली आ गए। 


एक बार दिनमान के दफ़्तर में वह आये, तो विष्णु खरे मेरी मेज़ पर बैठे हुए थे। अचानक केदार जी रघुवीर सहाय के कमरे की ओर जाते दिखे। तब उनके बाल बहुत काले थे, शायद खिज़ाब लगाना उन्होंने देर से बंद किया। विष्णु खरे बोले, केदार जी तो हिंदी कविता के विश्वजीत हैं, उसी की तरह हैंडसम। 

फिर केदार जी से मिलने-जुलने का लंबा सिलसिला शुरू हुआ। बेर सराय के फ़्लैट में हम मित्र उनके साथ बैठकी के लिए कई बार जाते थे। केदार जी विधुर थे और स्त्री कवियों के चहेते थे। एक बार साहित्य अकादमी ने चंडीगढ़ में एक बड़ा साहित्यिक आयोजन किया, त्रिलोचन, केदार जी, अरुण कमल, राजेश जोशी और मैं उसमें शामिल हुए थे। अस्सी के दशक की शुरुआत की यह बात है। हमारे साथ यात्रा में एक स्त्री कवि भी थी, जाना-माना नाम। वे केदार जी के साथ बड़ी स्टाइल से फ़्लर्ट कर रही थीं। केदार जी का अपना अलग स्टाइल था। मैंने यात्रा का पूरा आनंद उठाया। 

हमें यूनिवर्सिटी कैम्पस में एक हफ़्ता ठहराया गया था। रोज़ सुबह त्रिलोचन और केदार जी सैर के लिए निकलते थे, तो मैं भी चिपक जाता था। पंजाबी लड़कियाँ बोल्ड तो होती ही हैं। पर मुझे थोड़ा हैरानी होती थी, जब दोनों महा कवि लगभग बिंदास नख-शिख वर्णन पर आ जाते थे, ख़ास तौर पर त्रिलोचन जी। फिर मुझे अच्छा भी लगा कि दोनों वरिष्ठ एरॉस और इरॉटिक को बिलकुल त्याग नहीं चुके हैं। 

केदारनाथ सिंह व अशोक वाजपेयी | फ़ोटो: भरत एस तिवारी


मैं साकेत में रहता था और उन दिनों केदार जी जेएनयू कैम्पस में थे या शायद बेर सराय में। हमारे घर के लिए पाँच सौ चौदह नम्बर बस मदनगीर की ओर आगे चले जाती थी। इस बस की भीड़ काम करने वालियों से भरी रहती थी। काफ़ी भीड़ होती थी, ज़ाहिर है वो भीड़ पसीने वाली होती थी, ख़ुशबू वाली नहीं। केदार जी मेरे घर कभी-कभी आते थे। मैं थोड़ा जनवादी कवि की यह परेशानी समझ नहीं पाता था। मेरी एक कविता है मदनगीर, जो सोम दत्त ने साक्षात्कार में हवा कविता के साथ छापी भी थी। विष्णु खरे ने बरसों बाद मुझे बताया वो मदनगीर को ही भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देना चाहते थे। राजेश जोशी ने मुझे एक पोस्ट कार्ड भी लिखा था, उन कविताओं की तारीफ़ में। दरअसल इस कविता में बिना नाम लिए केदार जी भी हैं। वे मज़दूरों से भरी इस बस में सहज नहीं हो पाते थे। मैंने इस कविता में बाक़ायदा नागार्जुन की कलकत्ते की ट्राम वाली कविता का ज़िक्र भी किया है, तुम्हें घिन तो नहीं आती। 

इन सब बातों से केदार जी जैसे बड़े कवि का क़द छोटा नहीं हो जाता। हमें इन सच्चाइयों को भी जानना चाहिए। उन दिनों एक इंटर्व्यू में उन्होंने एक साथी कवि से तुलना करते हुए मुझे बेहतर कवि बताया था। बरसों बाद साहित्य अकादमी की उनकी फ़िल्म में मैं सबजेक्ट एक्स्पर्ट था, उन दिनों उनकी भेंट वार्ताओं की एक किताब मुझे प्रकाशक से प्रूफ़ की स्टेज पर मिल गयी, उसमें उनका वह इंटर्व्यू भी था और उनकी मेरे बारे में राय भी ज्यूँ की त्यों थी। पर किताब जब छप कर आयी, तो वो पंक्तियाँ उन्होंने हटा दी थीं। मैंने उनसे कोई शिकायत नहीं की। फ़िल्म भी अच्छी बनी। 

जब वे साकेत में आ कर मेरे पड़ोसी हो गए, तो वे अक्सर कैलाश वाजपेयी के यहाँ शाम को तत्व चिंतन के लिए आ जाते थे। तत्व यानी मदिरा। कैलाश जी पीते नहीं थे। पर बोतल रख देते थे मेज़ पर। ओम थानवी और कुँवर नारायण उनके घर आए, तो उन्होंने उमदा स्कॉच पिलायी। होली के दिन कैलाश जी का फ़ोन आया, शाम को घर आइए। केदार जी भी आ रहे हैं। मैं वहाँ पहुँचा तो केदार जी एक अजीबोग़रीब लेबल की बोतल से पर्याप्त तत्व प्राप्त कर चुके थे। वो बहुत सस्ती शराब थी। कैलाश जी तो बच लिए, यह कह कर कि मुझे तो इस बारे में जानकारी नहीं। केदार जी अपनी विनम्रता और भोलेपन में बेख़बर थे। 

केदार जी से कविता पर बातचीत में सचमुच आनंद आता था। बहुत बारीक समझ थी उनकी कविता की। श्रीकांत वर्मा के यहाँ मैं उनके साथ कई अद्भुत शामें बिता चुका हूँ। 

एक बार इंडिया इंटर्नैशनल सेंटर अनेक्स के बार में केदार जी एक अलग मेज़ पर बैठे थे। हम अशोक वाजपेयी के साथ थे। वेटर केदार जी का बिल ले कर अशोक जी के पास आ गया। आम तौर पर अशोक जी इस तरह के बिल चुपचाप साइन कर देते हैं। पर उस दिन वह केदार जी पर काफ़ी नाराज़ हो गए, बोले , आपको इक्कीस लाख के जो इधर पुरस्कार मिले हैं, उनका आप क्या करेंगे। उस दिन मैंने पहली बार केदार जी को सन्नाटे में निरुत्तर देखा। 

पर फ़र्क़ नहीं पड़ता जैसी अद्वितीय कविता के मेरे प्रिय कवि को मैं ख़ूब मिस करता हूँ। 

कभी हम गर्व से याद कर के यह कह सकते हैं कि हमने कुँवर नारायण, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और केदार जी के साथ इतने आत्मीय हो कर अपनी शामें बितायीं। उनके हाथ की गरमाहट को महसूस किया। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 15 : रघुवीर सहाय

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