अकबर, एस पी और उदयन की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 24: | Vinod Bhardwaj on MJ Akbar, SP Singh and Udayan Sharma


अकबर, एस पी और उदयन की यादें 

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

मैं आज के मुबशर जमाल अकबर को बिलकुल नहीं जानता, वैसे भी वह एम जे अकबर के नाम से जाने जाते हैं, मी टू मूव्मेंट में काफ़ी बदनाम हो गए हैं। 1973 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया की पत्रकारिता ट्रेनिंग स्कीम के लिए मैं चुना गया था, शुरू में हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकार तीन महीने एक साथ ट्रेनिंग लेते थे। अकबर और एस पी सिंह हमसे पहले की स्कीम में आए थे। उदयन शर्मा मेरे साथ का था। उस साल चुने गए दो साथी, ब्रज शर्मा और राकेश माथुर आज भी मेरे अच्छे दोस्त हैं। ब्रज गल्फ़ में कई साल काम करने के बाद अब गोवा निवासी हो गया है, और वह मेरे लिखे का अंग्रेज़ी अनुवाद तेज़ी से करने की कला में माहिर है। वह मेरा हमदम मेरा दोस्त है। राकेश लंदन में संस्कृति के आरामदायक कोच में विराजमान है। दोनों मेरे निकट संपर्क में हैं। 

एस पी और उदयन छोटी उम्र में इस दुनिया से चले गए। दोनों हिंदी के चर्चित संपादक थे, एस पी तो अंतिम दिनों में मशहूर टी वी प्रेज़ेंटर था। उपहार सिनेमा त्रासदी के कवरेज ने शायद उसकी हेल्थ पर नेगेटिव असर डाला। 

मैंने अपना साहित्यिक जीवन एक संपादक की हेसीयत से शुरू किया पर पत्रकार जीवन में यह कुर्सी मुझे एक मुसीबत नज़र आयी। लेकिन अकबर, एस पी और उदयन संपादक की कुर्सी के लिए बने थे। बरसों बाद मुझे आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने बुला कर कहा, मैं डेली न्यूज़ का आदमी हूँ, आलोक मेहता मुझे नई दुनिया में बुला रहे हैं। आपका नाम मैंने प्रस्तावित किया है, ड्राइवर, गाड़ी और सत्तर हज़ार की नौकरी आरामदायक है। मैंने हँस कर कहा, रोज़ सुबह अंग्रेज़ी संपादक विनोद मेहता के कमरे में हाज़िरी मुश्किल काम है। कला के काम ज़्यादा आरामदायक हैं। 

लेकिन बॉम्बे में ट्रेनिंग कार्यक्रम में इन तीन भविष्य के संपादकों का साथ यादगार अनुभव रहा। हमारा एक ग्रूप सा बन गया था। मैं और उदयन नेपीयन सी रोड के एक शानदार फ़्लैट की पाँचवीं मंज़िल से ख़ूबसूरत समंदर का नज़ारा लेते थे। हम एक सरकारी कर्मचारी के पेइंग गेस्ट थे। अकबर ने जूहु की चाँद सोसायटी में छोटा फ़्लैट ले लिया था। उसका मल्लिका जोसेफ़ से इश्क़ चल रहा था। मैंने जब पहली बार उसे ट्रेनिंग क्लास में तेज़ी से अंग्रेज़ी बोलते देखा, तो उससे प्रभावित हुआ था। वह कहानियाँ भी लिखता था, ख़ुशवंत सिंह की इलस्ट्रेटेड वीकली में उप संपादक था। मैं एस पी के साथ धर्मवीर भारती के धर्मयुग में आ गया था, और दिनमान में ट्रान्स्फ़र का इंतज़ार कर रहा था। भारती जी ताक़तवर थे, मुझे वह रिलीज़ नहीं कर रहे थे। इस तरह से साल के अंत में मैं दिल्ली दिनमान में आ सका, हालाँकि मैनज्मेंट की नज़र में 'हमारा डूब रहा दिनमान' था। 

अकबर, एस पी और उदयन तीनों दिनमान को पत्रकारिता को आदर्श मानते थे। जब अकबर ने टाइम्स की नौकरी छोड़ी, तो मुझसे उसने दिनमान शैली के लेखन के लिए आमंत्रण दिया। मेरे फ़िल्म पर एक लेख ओपीयम ऑफ़ द प्यूपल को ख़ुद अनुवाद कर के छापा भी। बरसों बाद टाइम्स के मालिक समीर जैन जब दिनमान को बंद करना चाह रहे थे, तो मैंने उन्हें अकबर द्वारा मुझे लिखे ख़त भी दिखाए, जिनमें दिनमान शैली की तारीफ़ थी। मैंने दिनमान में उन दिनों डिस्कूलिंग के वक़ील और साइकल के प्रवक्ता इवान इलिच पर एक लंबा लेख लिखा था। अकबर अमेरिका से पेनिनस्युला नाम की एक अंग्रेज़ी पत्रिका का संपादक चुना गया था, जिसे स्टारडस्ट के नारी हीरा निकाल रहे थे। उसने मुझसे प्रवेशांक के लिए इलिच पर लेख भी लिखवाया था। पर इमर्जन्सी ने इस पत्रिका को निकलने नहीं दिया। बाद में अकबर संडे का संपादक हो गया, एस पी रविवार का और उदयन भी कलकत्ता आ गया। एस पी ने रविवार छोड़ा नवभारत टाइम्स के लिए, तो उदयन रविवार का संपादक बन गया। रविवार ने दिनमान शैली को शोख़ियों में थोड़ा घोल कर एक नया नशा तय्यार कर दिया। अकबर नया हीरो साबित हुआ। एस पी के कहने पर मैंने रविवार के लिए कुछ इंटर्व्यू भी किए। दिनमान डूब रहा था। 

एस पी को मैं आज भी बहुत मिस करता हूँ, हमेशा मुस्कुराने वाला चेहरा। विष्णु खरे जब उसके साथ नवभारत टाइम्स में थे, एक दिन एस पी ने कहा, इतना बड़ा विद्वान है, इतनी अच्छी अंग्रेज़ी जानता है, मैं उनकी जगह होता तो यह नौकरी न करता। मुझसे भी उसने बॉम्बे में पहली मुलाक़ात में यह कहा था, कि पंडित आदमी हो पत्रकार क्यूँ बन गए। दिनमान से जब मेरा ट्रान्स्फ़र नवभारत में हुआ, तो कुछ समय के लिए मेरा बॉस भी था। 

उदयन तो ख़ैर मेरे साथ एक ही फ़्लैट में साल भर रहा, मस्त आदमी था। एक बार दिनमान के दफ़्तर में आया, तो दूर से चाभी का गुच्छा उसने मेरी मेज़ पर फेंका, आँख बच गयी बस। बॉम्बे में उसके साथ गीता भवन खाने के लिए जाने का एक अलग आनंद था। वह भी दिनमान जाना चाहता था। 

अकबर से एक यादगार मुलाक़ात कलकत्ता में हुई, शायद 1982 में। मैं फ़िल्म फ़ेस्टिवल कवर कर रहा था। वह संडे का सफल संपादक था, अंग्रेज़ी दैनिक टेलीग्राफ़  का संपादक होने वाला था। उसके घर पर जन्मदिन की पार्टी हुई, फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा भी थे। मल्लिका से मेरी कई साल बाद मुलाक़ात हुई, मैंने उसे अकबर की नई पोस्ट पर बधाई दी। 

उसका जवाब ही सब कुछ कह रहा था, क्या फ़र्क़ पड़ेगा, अभी पीटर स्कॉट , फिर स्कॉच। 

कई साल बाद अकबर मुझे एक रेस्तराँ में मिला, ज़रा सी हेलो हुई। 

कुछ साल पहले वह फ़्रान्स दूतावास में नैशनल डे का मुख्य अतिथि था, मंत्री था, भीड़ से घिरा हुआ। 

मैं दूर लॉन में स्कॉच पीता हुआ पुराने दिनों को याद करता रहा। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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