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सुबोध गुप्ता की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 22: | Vinod Bhardwaj on Subodh Gupta




कला दुनिया की माया हैं, कहीं धूप कहीं छाया है। 
सुबोध प्यारा इंसान हैं, उसके दोस्त कहते हैं, उसका चक्रवर्ती भाग्य है, वह कल्पनाशील भी ख़ूब है। हुसेन ने कभी उसे पुरस्कार दिया था, पर कला की बाहरी दुनिया में आज उसका ज़्यादा नाम है। सफलता उसके सर नहीं चढ़ी है।...  विनोद भारद्वाज, संस्मरणनामा, सुबोध गुप्ता की यादें

सुबोध गुप्ता की यादें 

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

शुरू में ही यह बता दूँ कि कारण चाहे जो भी हों, आधुनिक भारतीय कला में सुबोध गुप्ता जैसी अंतरराष्ट्रीय सफलता किसी भी कलाकार को नहीं मिली है, हुसेन और सूजा को भी नहीं। आप बहस कर सकते हैं, पर तथ्य यही हैं। बहुत से लोग सुबोध को बर्तनवाला आर्टिस्ट कह कर अपनी भड़ास निकाल सकते हैं, पर उनके बर्तनों ने दुनिया के अनेक बड़े कला केंद्रों को एक नई कला भाषा दी। 

पिछले साल एक कलाकार से मुलाक़ात हुई, उसने निजी बातचीत में दावा किया कि मैं बहुत शुरू में सुबोध के साथ उसके बिहारवाले घर में गयी थी, वहाँ उसकी माँ की रसोई में तरकीब से रखे बर्तनों को देख कर मैंने उसे आयडिया दिए। मैंने हँस कर कहा, तो आप तो कुछ रॉयल्टी की भी हक़दार हैं। 

जो युवा सुबोध मेरे पास दिनमान के दफ़्तर में अपने चित्रों की पारदर्शियाँ ले कर आया था, कुछ चित्रों में बैंडवाले थे, कृष्ण खन्ना की याद दिलाने वाले, वह अगले दस सालों में अंतरराष्ट्रीय सफलता के कई दरवाज़े खोल चुका था। सुबोध की सक्सेस स्टोरी परी कथा के समान है। कुछ लोग यह भी कहते हैं, मी टू मूव्मेंट में उसका नाम लाने के पीछे उससे ईर्ष्या करने वाले भी थे। यहाँ मैं इस विवाद पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूँ। 



पटना कला महाविद्यालय में ऐसा भला क्या था कि नब्बे के दशक की शुरुआत में वहाँ अनेक युवा कलाकार दिल्ली आए और वे कला के विश्व में छा गए। वे कलाकार मुझसे क्यूँ इतना आत्मीय हो गए?

1989 में मेरी किताब आधुनिक कला का पहला संस्करण हुसेन ने एक जनवरी को अस्पताल में रिलीज़ किया और वह किताब पटना के छात्रों में बहुत लोकप्रिय हो गयी। चार सौ रुपए दाम उस ज़माने के हिसाब से काफ़ी थे। नरेंद्रपाल सिंह के अनुसार उसके संग्रह की मेरी इस किताब की इतनी बार फ़ोटो कॉपी करायी गयी, कि बेचारी किताब के पन्ने सब अलग हो गए। इस किताब की अनोखी लोकप्रियता के पीछे उसकी बोलचाल की आसान भाषा थी। मेरे एक मित्र की पत्नी कला की किसी परीक्षा के लिए मेरी मदद चाह रही थी। मैंने उसके पास जो किताब देखी, उसमें घनवाद कला आंदोलन पर जो मैंने चैप्टर पढ़ा, उसकी भाषा इतनी कठिन थी, कि मैं ही उसे समझ नहीं पाया। उसे पढ़ाता मैं क्या ख़ाक!

मैं जनसत्ता के उद्घाटन अंक से कला पर स्तंभ लिख रहा था। मंगलेश डबराल ने मुझसे कला पर ख़ूब लिखवाया था। मेरा नाम नहीं जाता था, आख़िर मैं दिनमान के स्टाफ़ में था। कभी कभी मेरी पत्नी देवप्रिया के नाम से भी वह कॉलम छपता था। मैंने मंगलेश से कहा, मैं उनके लिए आधुनिक कला के सौ सालों पर बारह किश्तें लिखूँगा। मैं कला कोश पर काम कर रहा था, उसमें ये लेख शामिल भी हुए। और यह किताब पटना के छात्रों में आज भी लोकप्रिय है। अब वह वर्हद् आधुनिक कला कोश है, वाणी प्रकाशन से बाद में नया संस्करण आया था। 

सुबोध की सफलता के पीछे उसकी पत्नी भारती खेर का भी बड़ा हाथ है, वह ख़ुद एक नामी कलाकार है, दिल्ली वह लंदन से आयी थी। सुबोध से उसका प्रेम विवाह हुआ। सुबोध अचानक एक दूसरी दुनिया में चला गया। 

खोज नाम की कलाकारों की अपनी संस्था का जन्म 1997 में हुआ, जिसमें अनिता दुबे, पूजा सूद, मनीषा पारेख, सुबोध, भारती खेर आदि नाम सक्रिय थे। खोज की कार्यशालाएँ शुरू में मोदीनगर के बाहरी हिस्से में होती थीं। सुबोध ने यहाँ कला को पर्फ़ॉर्मन्स आर्ट के रूप में देखा। मुझे याद है वह ज़मीन पर गोबर से अपना बदन बुरी तरह से पोत कर लेटा था और एमटीवी वाले उसका लाइव इंटर्व्यू रेकर्ड कर रहे थे। उसने एक प्योर नाम से एक विडीओ भी बनाया जिसमें वह गोबर से अपने नग्न शरीर का शुद्धिकरण भी कर रहा है। एक विडीओ कला के बड़े आयोजन में यह विडीओ चल रहा था, और सुबोध ने हँस कर मुझे बताया, यह विडीओ मुझे सात देशों की यात्रा करा चुका है



कोई नहीं जानता था कि आनेवाले सालों में वह सात क्या सत्तर देशों की यात्रा करेगा। 

स्टील के बर्तन उसकी दुनिया में आ चुके थे। मुंबई में कैमोल्ड गैलरी में उसके इन बर्तनों का मैंने इन्स्टलेशन देखा। बिहार का घर, घर के बर्तन, रीति रिवाज सुबोध की कला में आ गए। कुछ साल बाद मैं उसके बड़े स्टूडीओ गया तो वह लैपटॉप ले कर अपने किसी बड़े मूर्तिशिल्प के बारे में कोरिया के इंजीनियर से संवाद कर रहा था, कास्टिंग चीन में होनी थी, प्रदर्शनी लंदन में। सुबोध से मिलने के लिए उसकी सचिव से एपायंटमेंट भी ज़रूरी हो गया था। 

शायद 2004 में सुबोध ने मुझे अपने घर डिनर पर बुलाया, कहा टैक्सी ले कर आ जाइए, किराया मैं दूँगा। उसने अपने नए प्रोजेक्ट दिखाए। मुझसे कैटलॉग में हिंदी में कुछ लिखने के लिए कहा। प्रोजेक्ट दिलचस्प थे। अच्छी शाम बीती। मैं अपने साथ कलाकार रीना सिंह को भी ले गया था। लौट कर मैं भूल गया, कि मुझे कुछ लिखना भी था। क़रीब एक साल बाद उसने कहा, मेरा कैटलॉग छपने जा रहा है, आपको लिखना था। 

मेरे दिमाग़ के सब नोट्स ग़ायब हो चुके थे। मैंने कहा, एक लंबा इंटर्व्यू करना पड़ेगा। हम तीन शाम साउथ इक्स्टेन्शन के एक बार में मिलते रहे। मैंने जब लिख लिया, तो हाथ के लिखे को हम कम्पोज़ कराने क़रौल बाग़ की एक प्रेस में गए। सुबोध प्रेस के मालिक से सारे समय पुराने फ़र्निचर के बारे में बात करता रहा। उसकी नज़र काम की चीज़ों को दूर से पहचान लेती है। काम ख़त्म होने पर सुबोध ने मुझे पाँच हज़ार का एक चेक दिया, और कहा कि एक अपनी ड्रॉइंग भी दूँगा। 

सुबोध ने यह नहीं बताया कि कैटलॉग वेनिस बिनाले के लिए है। 2005 के बिनाले में सुबोध का बड़ा बर्तन इन्स्टलेशन था। मैं दूसरे कारणों से वेनिस गया, वहाँ सुबोध का काम देखा। बुक शॉप में गया, तो सुबोध का कैटलॉग डिस्प्ले में रखा था। अंग्रेज़ी में पीटर नागी ने लिखा था, हिंदी में मैंने। सुबोध हिंदी का अंग्रेज़ी अनुवाद जानबूझकर नहीं छपाना चाहता था। वह मैं बिहारी हूँ, हिंदीवाला हूँ की पहचान कभी छिपाता नहीं है। 

एक साल बाद एक प्रदर्शनी में सुबोध मिला, बोला कार में आपकी ड्रॉइंग है। छोटी सी पर अच्छी ड्रॉइंग थी बैगेज सिरीज़ की। धीरे से सुबोध ने कहा, एक लाख क़ीमत है इसकी। छह महीने बाद मिला एक गैलरी में, बोला तीन लाख में उसे अमित जज को बेच सकते हो। बहुत कम कलाकार ऐसे हैं, जो अपने काम को गिफ़्ट में देने के बाद बेच देने की भी सलाह ख़ुद ही देते हैं। वह ड्रॉइंग बाद में और भी महँगी बिकी, मेरी सारी किताबों की कुल रॉयल्टी से भी ज़्यादा क़ीमत पर। 

कला दुनिया की माया हैं, कहीं धूप कहीं छाया है। 

सुबोध प्यारा इंसान हैं, उसके दोस्त कहते हैं, उसका चक्रवर्ती भाग्य है, वह कल्पनाशील भी ख़ूब है। हुसेन ने कभी उसे पुरस्कार दिया था, पर कला की बाहरी दुनिया में आज उसका ज़्यादा नाम है। सफलता उसके सर नहीं चढ़ी है। कुछ बदलाव स्वाभाविक है। अभी भी मिलता है, आदर से बात करता है। उसकी सफलता को सलाम। ईर्ष्या करने वालों को भी सलाम। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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