इस लोकतंत्र को क्या नाम दें
— रामचन्द्र गुहा
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Ramachandra Guha (Photo: Bharat Tiwari) |
बीते एक दशक में हमारे लोकतंत्र की सेहत कुछ बिगड़ी है। — रामचन्द्र गुहा
चंद रोज बाद भारत अपनी आजादी की 70वीं वर्षगांठ मनाएगा। ऐसे में यह बात करना जरूरी है कि बीते दशक में देश ने क्या और कैसी प्रगति की? इसका लोकतंत्र और मुखर हुआ है या कि पीछे गया? भारत जैसे विशाल, घनी आबादी और चौंकाने की हद तक विविधता वाले देश में इन सवालों का सीधा और सरल जवाब शायद ही किसी के पास हो। सच तो यह है कि बीते एक दशक में हमारे लोकतंत्र की सेहत कुछ बिगड़ी है। चुनाव अब भी स्वतंत्र और निष्पक्ष ही हो रहे हैं, लेकिन चुनाव खर्च बेतहाशा बढ़ा है। इस खेल का कोई स्तर नहीं रह गया है। जिसके पास जितना धन है, वह उतना ही सफल है। आपराधिक चरित्र वाले सांसद-विधायक भरे पड़े हैं।
राजनीतिक हस्तक्षेप ने शिक्षण संस्थानों को तो चौपट किया ही था, अब यह रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया तक पहुंच चुका है। — रामचन्द्र गुहा
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Cartoonist Satish Acharya |
भारतीय लोकतंत्र के कमजोर होते जाने का एक कारण राजनीतिक जमात में लगातार बढ़ती तानाशाही प्रवृत्ति भी है। कांग्रेस का नेतृत्व लंबे समय से एक परिवार के हाथों में है। यही हाल क्षेत्रीय दलों का भी है। टीएमसी और बीजेडी जैसे दल व्यक्ति विशेष के हाथों संचालित हैं। इधर तेजी से बढ़ी और भारतीय राजनीति में सही मायने में अकेली बची राष्ट्रीय पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कम होता गया है। भाजपा का नेतृत्व उसी तरह दो हाथों में सिमटकर रह गया है, जैसा कि सत्तर के दशक में कांग्रेस के साथ था। यहां भी उसी तरह हाईकमान संस्कृति पनप चुकी है। इसके तमाम खतरे भी दिखाई दे रहे हैं।
भारत में आर्थिक उदारीकरण का सबसे बड़ा शिकार आदिवासी ही हुए हैं और इसका सबसे ज्यादा लाभ गैर-आदिवासियों ने उठाया है।— रामचन्द्र गुहा
राजनीति और सार्वजनिक संस्थाओं के नजरिये से देखें, तो भारतीय लोकतंत्र की पूर्णता में कुछ कमी दिखती है। पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका की अपेक्षा हमारे राजनीतिक दल, मीडिया, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल, अदालतें और कानून-व्यवस्था लागू करने वाली संस्थाओं का बुरा हाल दिखता है। दरअसल इसकी हालत दस या बीस साल पहले की तुलना में ज्यादा खराब है।
फ्रांसिसी मानव विज्ञानी लुइस डुमांट ने भारतीयों, खासकर हिंदुओं को ‘होमो हाईआर्कियस’ कहा है। यह विशेषण या वर्गीकरण बहुत गलत नहीं है, क्योंकि समाज को बांटने के लिए जाति-व्यवस्था जैसे खतरनाक हथियार की खोज यहीं की है। लैंगिक असमानता को हथियार बनाकर इस्तेमाल करने का श्रेय भी भारतीयों को ही है। हिंदू-मुसलमान, दोनों ने ही पुरुष सत्ता को बढ़ावा दिया।
भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता के उन्मूलन और महिलाओं को भी समान अधिकार की वकालत करके सामाजिक भेदभाव की इन दो बड़ी कुल्हाड़ियों की धार को भोथरा करने का काम किया। संविधान स्वीकार किए जाने से अब तक जाति और लैंगिक समानता के मामले में प्रगति धीमी भले रही हो, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ, यह कहना गलत होगा। बीते दशक में इसने ठीक-ठाक गति पकड़ी। शहरीकरण से न सिर्फ राज्यों की सीमाएं, बल्कि जातियों की सीमाएं भी टूटी हैं। अंतरजातीय ही नहीं, अंतरधार्मिक विवाहों का भी चलन बढ़ा है।
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Cartoonist Satish Acharya |
भारतीय समाज आज भी तमाम वर्गों और जातियों में बंटा हुआ है। सिर पर मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथाओं का पूरी तरह से खत्म न होना आज भी हमारे लोकतंत्र को कलंकित कर रहा है। लेकिन इस वर्ग-विभाजन को चुनौतियां भी मिल रही हैं। यह अंबेडकर की विरासत का असर है कि दलित शिक्षित भी हुए हैं, संगठित भी। उनकी सामाजिक-राजनीतिक हैसियत व हिस्सेदारी बढ़ी है। महिलाएं भी आगे आई हैं और उनकी सामाजिक साझेदारी बढ़ी है। लेकिन इस चेतना ने ऊंची जातियों के अहं और पितृसत्ता की भावना को उकसाया, जिसका नतीजा दलितों पर हमले के रूप में सामने आया है। लेकिन इन सारे बदलावों के बावजूद दलितों और महिलाओं का शोषण-दमन थमा नहीं है।
हाल के वर्षों में दलितों-महिलाओं का जीवन-स्तर तो बेहतर हुआ है, पर दूसरी ओर मुसलमान व आदिवासी दस-बीस साल पहले की अपेक्षा इस वक्त ज्यादा कमजोर दिख रहे हैं। हिंदुत्व के उभार के साथ इनका असुरक्षा बोध बढ़ा है। औद्योगीकरण और विकास की विभिन्न धाराओं ने आदिवासियों से छीना ही है। भारत में आर्थिक उदारीकरण का सबसे बड़ा शिकार आदिवासी ही हुए हैं और इसका सबसे ज्यादा लाभ गैर-आदिवासियों ने उठाया है। उनकी गरीबी दूर हुई, जीवन-स्तर सुधरा। इसे भारतीय उद्यमशीलता का आधार बढ़ने के रूप में भी देख सकते हैं, क्योंकि उद्योगों व उद्यमिता पर विशेष जातियों या वर्गों का वर्चस्व टूटा है। आज दक्षिण व पश्चिम भारत के पुणे, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों में हर उम्र का भारतीय इनोवेटिव से लेकर जोखिम भरे व्यापार करता दिख जाएगा। उद्यमिता की इस नई ऊर्जा का लाभ देश के दूसरे हिस्सों को भी करों व सब्सिडी के रूप में मिला। पिछले कुछ दशकों में आर्थिक विकास ने लाखों भारतीयों को निराशा से उबारकर सुरक्षा व सम्मान का माहौल दिया है।
तो क्या भारत दस साल पहले की अपेक्षा अब ज्यादा लोकतांत्रिक है? या कि अब यह उतना लोकतांत्रिक नहीं रहा? जवाब न पहला है—न दूसरा, लेकिन शायद दोनों। भारतीय राजनीतिक लोकतंत्र की गुणवत्ता भले ही पिछले एक दशक में कमजोर हुई हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र गहराया है। हम आज फिर 2007 वाले दौर में ही हैं, एक दोषपूर्ण व अपूर्ण यानी कह सकते हैं कि ‘आधा-आधा’ लोकतंत्र। भारतीय गणतंत्र ‘हिंदू पाकिस्तान’ नहीं है, लेकिन जीवन में हर दिन जिस तरह हिंसा का जहर घुलता गया है और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों क्षरण हुआ है, वह अच्छा संकेत नहीं है।
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।
लेख साभार 'हिंदुस्तान')
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लेख साभार 'हिंदुस्तान')
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vicharniy alekh
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