नदियाँ जोड़ने का अभियान — मृणाल पाण्डे | #RiverLinking



भारत एक नदी मातृक देश है। यहाँ की तमाम बड़ी छोटी नदियों ने ही अपने अपने तटों पर हज़ारों बरसों से नाना सभ्यताओं और परंपराओं को उपजाया और सींचा है। बचपन से ही हर बच्चा सप्तमहानदियों का गुण गान सुनता है, जब जब कोई जन किसी भी देवप्रतिमा का पवित्र जल से अभिषेक करे।

   गङ्गेच यमुने चैव गोदावरी सरस्वति 

        नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु 

— मृणाल पाण्डे




नदियों को गैर कुदरती तरह से जोड़ने से जब दो अलग तरह के जल मिलेंगे, तो हर नदी के गिर्द अनादिकाल से मौजूद तमाम तरह की वनस्पति और जलचरों में भारी भले बुरे बदलाव आ सकते हैं।




गङ्गेच यमुने चैव गोदावरी सरस्वति /  नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु के परिचित मंत्र में हर पात्र के जल में सात बड़ी नदियों : गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी के समावेश की कामना है। जल ही जीवन है, इसलिये देवता भी बिना जल के अभिषेक के प्रसन्न नहीं किये जा सकते। अन्य धर्मों में भी पारंपरिक वंदना वज़ू या मस्तक पर पवित्र जल के छिड़काव बिना संपन्न नहीं की जा सकती।

जल का इस उपमहाद्वीप के जीवन में महत्व समझ कर 1858 में सर आर्थर थॉमस कॉटन नाम के एक अंग्रेज़ इंजीनियर ने पहले पहल सरकार को सुझाव दिया था, कि मानसून तो चार ही महीने का होता है, वह भी दैवनिर्भर। उसके बाद यह महादेश लगातार बाढ सुखाड़ से किसी न किसी इलाके में जूझता रहता है। लिहाज़ा भारत की कुछ बड़ी नदियों को क्यों न नहरों के जाल की मार्फत इस तरह से जोड़ दिया जाये कि एक साथ सारे देश को, हर मौसम में जीवनयापन और खेती दोनो के लिये पर्याप्त पानी मिल सके। सुझाव में दम था, लेकिन इसकी प्रस्तावित अभियांत्रिकी का काम बहुत पेचीदा और खर्चीला था। ’57वीं क्रांति की मार की मार से उबर रही ब्रिटिश सरकार के लिये करने को तब और भी कई ज़रूरी प्रशासकीय काम सर पर सवार दिखते थे। लिहाज़ा विचार कागज़ों पर ही सीमित रहा।

इसका कुल खर्च आकलन के अनुसार कम से कम तीन ट्रिलियन डालर बैठेगा जो समयानुसार और भी बढ सकता है। क्या येन केन अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिये दिन रात जूझ रहा देश इतना व्यय सह सकता है?




कोई दो सौ बरस बाद लोकतांत्रिक भारत में पानी की बढती किल्लत के दबाव से इस विचार को फिर सामने लाया गया। पर इस बार जब बात निकली तो दूर तलक गई। कुछ बड़ी बातें सामने आईं जिनके अनुसार आज की बुनियादी तौर से बदल चुकी भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों में यह मामला परवान चढाना आसान नहीं होगा। फिर बात है खर्चे की। देश के सारे जलसंसाधनों की शक्ल बदल कर 30 बड़ी नदियों और 3000 अन्य जलस्रोतों को जोड़नेवाली इस विराट् परियोजना को परवान चढाने के लिये कम से कम 15,000 किमी नहरें बनानी होंगी। इसका कुल खर्च आकलन के अनुसार कम से कम तीन ट्रिलियन डालर बैठेगा जो समयानुसार और भी बढ सकता है। क्या येन केन अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिये दिन रात जूझ रहा देश इतना व्यय सह सकता है? इस सबके बावजूद सरकार में योजना के पैरोकारों का कहना है कि तमाम जोखिमों के बाद भी नदी जोड़नेवाली जल व्यवस्था के तीन भारी फायदे होंगे। एक, यह करीब 8 करोड़ सात लाख एकड़ ज़मीन की सिंचाई की व्यवस्था सुलभ कर देगा। दो, इससे बड़े पैमाने पर पनबिजली योजनायें चालू की जा सकेंगी जिनसे हर गाँव को बिजली मिल सकेगी। फिर सालाना जल की उपलब्धि भारत की दो बड़ी तकलीफों : सुखाड़ और बाढ दोनो को भी कम करेगी, जो हर बरस लाखों को दरबदर करती और भूखा बनाती आई हैं।

पर्यावरण दशा के मद्देनज़र हिमालय में पहाडों से किसी तरह की बड़ी छेड़छाड़ के संभावित सभी नतीजों पर भी सोचना होगा

अब आइये इस प्रस्ताव के विरोधियों की आपत्तियां भी समझें। इतनी बड़ी परियोजना एक ही तरह के नक्शे की तहत नहीं चलाई जा सकती। इसके तीन बड़े भाग कर उनके लिये तीन तरह के कार्यक्रम बनाने ज़रूरी होंगे। एक भाग वह होगा, जो दुर्गम होते हुए भी उस जलसंपन्न सारे उत्तरभारत की उन बड़ी नदियों को जोड़ेगा जिन सबके गोमुख हिमालय में हैं।



पर उत्तरी जलक्षेत्र में किसी भी हस्तक्षेप से पहले दो पडोसी देशों: नेपाल और भूटान को भी अनिवार्यत: राज़ी करना होगा जिनसे हम जल साझी करते आये हैं। भूगर्भीय दृष्टि से इस बेहद नाज़ुक इलाके की लगातार बिगड़ती पर्यावरण दशा के मद्देनज़र हिमालय में पहाडों से किसी तरह की बड़ी छेड़छाड़ के संभावित सभी नतीजों पर भी सोचना होगा। दूसरे हिस्से में दक्षिण भारत की 16 नदियों का क्षेत्र आता है जो उत्तर की तुलना में कम जल संसाधनयुक्त रहा है। यहाँ की बड़ी नदियाँ एकाधिक राज्यों से हो कर बहती हैं। और इसके मद्देनज़र योजना के तीसरे तथा खासे पेचीदा हिस्से में अंतर्राज्यीय जलबँटवार तथा बाँधनिर्माण से जुड़े नाज़ुक मसलों को रखा गया है, जिन पर बहुत समय से तमिलनाडु व कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात, राजस्थान और गुजरात के बीच तनातनी चली आई है।

इस बिंदु पर गौरतलब यह है, कि नदी जोड़ने की योजना का मूल खाका बहुत पहले की भौतिक स्थिति और नदीजल स्तर पर बनाया गया था। तब से अब तक ग्लोबल वार्मिंग तथा आबादी में बेपनाह बढोतरी से भारत में बहुत बड़े पैमाने पर तरह तरह के बदलाव आ चुके हैं। उदाहरण के लिये 1901 से 2004 तक के कालखंड पर उपलब्ध मौसमी डाटा पर किये (मुंबई तथा चेन्नई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के समवेत) शोध से यह जानकारी मिली है कि सौ बरसों में आबादी तो 32 करोड़ से सवा सौ करोड़ हो गई, लेकिन उसीके साथ देश में होनेवाली कुल बारिश 19 फीसदी घट गई है। नतीजतन महानदी तथा गोदावरी सरीखी दक्षिणी नदियों के क्षेत्र में जो कभी अतिरिक्त जल से संपन्न थे आज पानी की भारी कमी हो गई है। उत्तर में भी गंगा यमुना व ब्रह्मपुत्र सभी के उद्गमस्रोत ग्लेशियर तेज़ी से पीछे सरकते जा रहे हैं।




इसके अलावा एक बात और। मूल नदी जोडो योजना सारे भारत भूमि को एक सरीखा मानकर चलती है। जबकि भारत की बनावट कहीं पहाड़ी है, तो कहीं मैदानी। हमारी तकरीबन सारी नदियाँ ऊबड़ खाबड़, रेतीली, पथरीली हर तरह की भौगोलिक ज़मीन से गुज़रती हैं। इससे उन सबके जल की कुछ रासायनिक विशेषतायें आगई हैं और उनके ही बूते हर इलाके का अलग अलग किस्म का जलचर थलचर जीवन बना, और वानस्पतिक विकास हुआ है। नदियों को गैर कुदरती तरह से जोड़ने से जब दो अलग तरह के जल मिलेंगे, तो हर नदी के गिर्द अनादिकाल से मौजूद तमाम तरह की वनस्पति और जलचरों में भारी भले बुरे बदलाव आ सकते हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि उनके बारे में अभी कोई अंदाज़ा लगाना कठिन है। उधर लगभग 27.66 लाख एकड़ डूबने से कोई 15 लाख की आबादी भी बेघर हो जायेगी। उदाहरण के लिये मध्यप्रदेश की केन तथा बेतवा नदियों को लें जिन पर काम जारी है। उनको जोड़ने के दौरान उस इलाके की 5,500 हेक्टेयर ज़मीन डूब में आयेगी। इससे पन्ना का अभयारण्य दुष्प्रभावित होगा और वहाँ के संरक्षित बाघों के साथ दोनो नदियों के दुर्लभ होते जा रहे घडियालों और मछलियों की प्रजातियों के लुप्त होने की भी आशंका बनती है। राजनैतिक चुनौतियाँ भी कम नहीं। पानी की लगातार बढती कमी ने जल बँटवार के मुद्दे को राजनेताओं के क्षेत्रीय वोटर समूहों की तुष्टि के लिये बहुत महत्वपूर्ण बना डाला है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक सभी सशंक हैं। संविधान की तहत चूंकि जल संसाधनों पर अंतिम राजकीय हक राज्य सरकारों के पास होता है, जिस भी राज्य को लगेगा कि नदी जोड़ने से उसके लोगों के लिये पानी कम होजायेगा वे तुरत योजना पर अडंगा लगा सकते हैं। कुल मिला कर नदीजोड़ योजना की जितनी तारीफ की गई है, उसके लायक नहीं साबित होती। कम से कम अपने मौजूदा नक्शे की तहत।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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