महिला क्षेत्र — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


वह एक एरिया है, जहां से यह अहसास लिया जा सकता है कि गेट पार वाले इलाके में महिलाएं होती हैं।

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 6

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1


इगतपुरी का विपश्यना केंद्र प्राकृतिक रूप से बहुत मनोरम स्थल पर बना हुआ है। पहाड़ी के नीचे बने हुए कमरे। कहीं कोई आवाज नहीं। रात को कभी कभी ट्रेन की सीटी सुनाई देती। उसके अलावा चिड़ियों की चहचहाहट। खामोशी ऐसी कि वहां रहने वाला कोई कभी कुछ नहीं बोलता था। पूर्णतया शांति का वातावरण। शांति के साथ पूरी तरह से प्राकृतिक शुद्ध वातावरण, जहां सिर्फ पौधों, पत्तियों, फूलों की गंध ही आती। बहुत गंभीरता से प्रकृति पर ध्यान केंद्रित करने पर चिड़ियों की आवाज ही आती।

पूरे विपश्यना के दौरान लगातार बारिश होती रही। वहां बने आवासों के आकार के मुताबिक लोगों की अलग अलग स्वाभाविक अनुभूतियां बारिश के प्रति भी रही होंगी। मैं जिस क्षेत्र के आवास में ठहरा हुआ था, वहां कंक्रीट की छत थी। तमाम आवास ऐसे हैं जहां दीवारों के ऊपर सीमेंट सीट रखी हुई है या संभवतः कुछ आवासों पर टिन शेड भी हों। सबकी आवाज बारिश के समय अलग अलग होती थी। उन कमरों में तो नहीं गया कि वहां बैठने या सोने के समय जब बारिश होती है तो उसकी बूंदों से कैसी ध्वनि आती है, लेकिन आते जाते तेज बारिश या हल्की बारिश होने पर टिन या सीमेंट सीट पर पड़ने वाली बूंदों की ध्वनियां अलग अलग अहसास देती थीं। स्वाभाविक है कि उन अलग अलग आवासों में रहने वाले लोग बारिश की बूंदों का अपने तरीके से आनंद लेते रहे होंगे। बारिश की बूंदों के अलावा मेरे आवास के बगल में कुछ दूरी पर एक पानी का पंप लगा हुआ था, जो सुबह चलता था। शांति की आदत ऐसी पड़ी कि उस पंप की आवाज भी बहुत बुरी लगती कि यह क्या खुरखुर की आवाज आती थी। उसके अलावा पंखे की सनसनाहट और घड़ी की टिकटिक भी महसूस होता, जो सामान्यतया परिवार के साथ रहने पर शोर वाले इलाके में महसूस नहीं होता।

जब बारिश तेज होती तो पानी बहने की कल-कल की ध्वनि सुनाई देती है। दिन में वरामदे में खड़े होकर मैं बारिश का खूब आनंद लेता। सामने ही हरी भरी पहाड़ी थी और जब तेज बारिश होती थी, पहाड़ी पर भी पानी की कई धाराएं बहने लगती थीं। उसी मार्ग से लगातार पानी बहने से अलग सा मार्ग दिखता। हालांकि जब बारिश बंद हो जाती तब यह पहचानना थोड़ा कठिन हो जाता था कि पहाड़ी के किस हिस्से से पानी बहता हुआ निकलता था। आवास के सामने एक पंक्ति में कुछ कुटिया और बनी थी, उसके बाद केले की खेती थी। केले के खेत में जाने की मनाही थी। कई बार मन हुआ कि टहलते हुए केले के खेत में जाकर घूमा जाए। लेकिन अलकतरा रोड जहां खत्म रही थी, वहीं लिखा था कि 10 दिन की साधना शिविर में आए विद्यार्थियों को आगे जाना मना है। वहीं खड़े होकर केले की बागवानी नजर आती। केले के कुछ पेड़ों में घवद या घार ( भोजपुरी  इलाके में केले का जो फलों के गुच्छे को घवद और अवधी इलाके में घार कहते हैं, हिंदी में क्या कहते हैं, पता नहीं) निकली हुई नजर आती थी। बिल्कुल वैसी ही घवद, जैसे हमारे खेतों में होती थी। लेकिन विपश्यना केंद्र के नियमों में बंधे होने की वजह से मैं उस केले की बागवानी में नहीं जा पाता था। मैं ही नहीं, उधर रहने वाले तमाम लोगों को देखा, कोई भी उस सीमा को पार नहीं करता, जिसके आगे जाना प्रतिबंधित रखा गया था। उसके अलावा पपीते के पेड़ भी थे, जिन पर फल लगे थे। आम का सीजन नहीं होने के कारण आम पर फल नहीं थे। कटहल जैसे कुछ पेड़ भी हैं। अन्य पहाड़ी पौधे भी हैं, लेकिन फलदार वृक्ष भरपूर लगाए गए हैं।



वहां फलों के बारे में भी निर्देश लिखा हुआ है और फलों, पत्तों को तोड़ना कुछ पाप टाइप बताया गया है। सही सही शब्द तो याद नहीं कि क्या लिखा हुआ है, लेकिन यही है कि फलों, पत्तों को तोड़ना, उनका इस्तेमाल किसी हाल में नहीं करना है। यहां तक कि अगर कोई फल नीचे गिरा हुआ है तो उसे भी उठाना या खाना नहीं है। स्पष्ट निर्देश है कि वह साधकों के लिए नहीं।

बहरहाल अगस्त महीने में जब मैं वहां था, पपीते और केले के अलावा फल के कोई वृक्ष फलों से लदे हुए नहीं थे। केले भी पेड़ पर लगे हुए कच्चे होते हैं और पपीते भी। इसलिए निर्देशों का कोई मतलब नहीं था। इसके अलावा सुबह शाम केले मिलते ही थे खाने को। कई रोज तो पपीते भी दिए गए पके हुए। हालांकि पपीते में गड़बड़ यह थी कि उसे छीलकर नहीं देते थे और उसे वैसे ही बंदर की तरह उसका गूदा चाभना होता था। तमाम लोग प्रयास कर पूरा गूदा चाभ जाते थे। मेरा मुंह पूरा न खुलने की वजह से ठीक से चाभने में दिक्कत होती और गूदा रह ही जाता था। फिर भी पपीता भी खाता था। साथ ही हल्दी वाला दो गिलास दूध तो सबेरे शाम फिक्स ही रहता।

साधना का आनंद और शरीर की अनुभूतियों के बारे में महसूस करने के लिए इगतपुरी आश्रम में भरपूर माहौल रहता है। हालांकि साधना के लिए जो हॉल बना हुआ है, बड़े वाले हॉल में ढाई सौ से ऊपर और छोटे हॉल में 100 से ऊपर लोग रहते हैं। लेकिन इतने लोगों के रहने के बावजूद भरपूर सन्नाटा होता है। हॉल में धम्म सेवक पैर दबाकर चलते थे, जिससे कि आवाज पैदा न हो। उन्हीं को देखकर साधकों की भी आदत पड़ जाती है कि वे भी उसी तरह पैर दबाकर चलते हैं। इस तरह से पूरी तरह शोर मुक्त माहौल हो जाता है।

आवास से ध्यान केंद्र जाते समय निचले पहाड़ी हिस्से से ऊपर पगोडा के कोने पर एक गेट बंद मिलता है, जिस पर महिला क्षेत्र का बोर्ड लगा होता है और गेट बंद होता है। वह एक एरिया है, जहां से यह अहसास लिया जा सकता है कि गेट पार वाले इलाके में महिलाएं होती हैं। उसके अलावा आचार्य निवास (जहां गोयनका जी रहते थे, वह दो-तीन मंजिला इमारत है, और सड़क पर बोर्ड लगाकर उस दिशा में एरो लगी होती थी कि यह आचार्य निवास है) और पगोडा के बीच में एक छोटा हॉल था। जिस तरह से पुरुषों को दो हॉल में बिठाया जाता था, उसी तरह संभवतः यह महिलाओं के लिए ध्यान हॉल था, वहां पर खड़े होकर देखने पर कभी कभी महिलाएं दिख जाती थीं। वह भी उसी समय, जब हॉल में से निकलने का वक्त हो। उसके अलावा सबके नाश्ते और खाने का एक ही वक्त था, चाहे वह पुरुष हो या महिला। खाने जाते वक्त आचार्य निवास से मुख्य द्वार की ओर बढ़ने पर एक बोर्ड और महिला क्षेत्र का मिलता है, वहां अगर खड़ा हुआ जाए तो करीब 500 मीटर की दूरी पर महिलाएं जाती हुई नजर आती हैं।

थोड़ा आगे बढ़ने पर रास्ते पर टिन शेड की छाजन है। उसके समानांतर महिलाओं को चलने की सड़क है। वह समानांतर सड़क करीब 200 मीटर चलती है, उसके बाद पुरुष अपने भोजनालय और महिलाएं अपने भोजनालय में जाती हैं। उस दौरान भी किसी महिला को नहीं देखा जा सकता। बहुत घनी झाड़ियां लगी हुई हैं। वह भी करीब 8 फुट ऊंची। झाड़ियों की जड़ की तरफ अगर देखें तो उस पार हल्का हल्का अहसास होता है कि महिलाएं चल रही हैं। जहां कहीं झाड़ियां विरल हुई हैं और महिलाएं वहां से नजर आ सकती हैं, वहां विपश्यना केंद्र के प्रबंधन ने बाकायदा पॉलिथीन लगाकर ढंक दिया है। आप बिल्कुल ही किसी महिला का चेहरा नहीं देख सकते हैं।

इसके अलावा खाना खाने के बाद जहां पुरुष लोग प्लेट देने जाते हैं, उसके आगे महिलाओं का भोजनालय है। प्लेट देते समय उधर से भी प्लेट देते हाथ दिख सकते हैं। उस समय भी अहसास लिया जा सकता है कि उस पार महिलाएं खाना खा रही हैं। विपश्यना केंद्र में बर्तन साफ करने में ज्यादातर महिलाएं ही दिखती थीं, लेकिन देखने से लगता है कि वह मजदूर हैं। विपश्यना करने वाली महिलाएं नहीं। एकदम मशीन की तरह से लगातार अनवरत, तेजी से थाली, गिलास और कटोरियां धुलते हुए नजर आती हैं। ज्यादातर काले रंग की अधेड़ उम्र की महिलाएं, लेकिन देखने से ही मेहनती लगती हैं। उत्तर में जिस तरह से पुरुष धोती पहनते हैं, उसी स्टाइल में महिलाएं साड़ी पहने हुए होती हैं।

शून्यागार में भी एक पोर्शन में लिखा हुआ दिख जाता है, महिला क्षेत्र। पुरुष साधक इधर प्रवेश न करें। लेकिन वहां कभी किसी महिला का कपड़ा, हाथ, पैर की भी अनुभूति नहीं हुई। मैं नहीं देख सका। पगोडा के शून्यागार में सिर्फ दो दिन जाने का मौका मिला। उसमें एक रोज ही थोड़ा ऊपर की ओर बढ़कर देखने की कोशिश की कि आगे क्या है, उसमें ऊपर जाते समय बाएं हाथ की ओर महिला क्षेत्र लिखा हुआ था। दाएं पुरुष  क्षेत्र था, जिसमें प्रवेश करने की कोई मनाही नहीं थी। किसी भी गैलरी में घूमकर देखा जा सकता था।

इसके अलावा कहीं ऐसी जगह नहीं है, जहां उन दस दिनों के दौरान महिलाओं का अहसास भी ले सकें। यह नियम कड़ा तो है, लेकिन शायद बेहतर भी है।

ध्यान कराने और व्यक्तियों को बंधनों से मुक्त कराने की एक कवायद आचार्य रजनीश ने भी की थी। उनका भी तरीका यही था कि ग्रंथियों से मुक्त हों। पहले जो कुछ भरे पड़े हैं, उसे खाली कर दें। यहां तक कि रजनीश ने सेक्स के बारे में भी बड़ा खुलकर कहा है कि उसका अहसास ले लें। जो करना हो कर लें। लेकिन चौबीसों घंटे सेक्स के फॉर्म में न रहें। सामान्यतया भारतीय पुरुषों के बारे में यह देखने को मिलता है कि जहां 4 लोग मिल जाएं, सेक्स और महिला की चर्चा छिड़ ही जाती हैं। मतलब सेक्स का कीड़ा चौबीसों घंटे दिमाग पर हावी रहता है और वह किसी भी काम में ध्यान भंग करने के लिए पर्याप्त है। ऐसा सुनने में आता है कि रजनीश के आश्रमों में महिला पुरुष सभी संगीत के धुन में एक साथ नाचते हैं, थिरकते हैं।

इसके विपरीत गोयनका जी के ध्यान केंद्र में महिलाएं अलग रहती हैं। मुझे इसका लाभ यही समझ में आया कि अगर सबको फ्री छोड़ दिया जाए तो शायद लोग दूसरे की नाक पर घूंसा मारने को भी अपनी स्वतंत्रता समझने लगेंगे। दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप करने की भारतीयों की लत तो भयावह है। अगर ऐसी स्थिति में महिला पुरुष साथ रहें और उन्हें नचाया जाए तो कुछ भी कांड हो सकता है। राम मनोहर लोहिया का स्त्री पुरुष संबंध पर कथन जायज है कि पुरुष और महिला की सहमति से दोनों के बीच बना कोई भी संबंध गलत या नाजायज नहीं है। लेकिन विपश्यना या ध्यान केंद्र में, जहां तमाम या कहें सभी अपरिचित ही आते हैं, किस तरह से यह सीमा लगाई जा सकेगी?  ऐसे में बेहतर  यही है कि ओशो वाले फॉर्मूले के विपरीत ग्रंथियों से मुक्त होने के गोयनका के फार्मूले को माना जाए, जिससे कोई व्यक्ति दूसरे की नाक पर घूसा मारने को अपनी स्वतंत्रता न समझ बैठे।

विपश्यना करने के लिए गए लोगों में ज्यादातर संख्या युवाओं की ही थी। अनुमानतः 25 से 50 साल के बीच की उम्र के लोग 90 प्रतिशत थे, जबकि 10 प्रतिशत लोग इससे कम या ज्यादा उम्र के थे। जैसा कि हॉल में बैठने वाले असिस्टेंट टीचर ने बताया था कि बहुत कम उम्र के बच्चों को नहीं लिया जाता था, ऐसे में बच्चे तो नहीं ही थे। उसके अलावा एक विकलांग व्यक्ति भी थे, जिनको कोई दूसरे सज्जन व्हील चेयर पर बिठाकर लाते थे। मुझे वहां के किसी साथी ने बताया कि वह तीसरी बार विपश्यना करने आए हैं। इस तरह से तमाम लोग ऐसे थे जो विपश्यना रिपीट भी मार रहे थे।

शारीरिक अनुभूतियों और शरीर के एक एक अंग में लगातार मन को गुजारने की प्रक्रिया जारी रही। सुबह साढ़े चार से साढ़े छह बजे, फिर आठ से ग्यारह बजे, दोपहर एक बजे से 5 बजे और फिर 6 से 9 बजे शाम तक विपश्यना चलती 7 से 8.30 बजे तक गोयनका जी का प्रवचन चलता। यही रूटीन अनवरत जारी रहा।

धर्म किसे कहते हैं? मूल रूप से भारतीय परंपरा में धर्म कुदरत के कानून को कहते हैं, विश्व के विधान को कहते हैं, निसर्ग के नियम को कहते हैं, जिसकी हुकूमत सब पर चलती है। कुदरत की हुकूमत अणु-अणु पर चलती है। प्रकृति के नियम बंधे बंधाए हैं और वह सब पर एक जैसे लागू होते हैं। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। कुदरत का राज्य तो इतना अच्छा राज्य है कि उसमें भूल की संभावना नहीं है। किसी गणतंत्र या किसी राजा के राज्य में भूल संभव है। जो व्यक्ति प्रकृति के नियम को तोड़ता है तो उसे तत्काल दंड मिलता है। यह प्रकृति का बंधा बंधाया नियम है। प्रकृति के नियम के पालन करने वाला दंड से मुक्ति पाता ही है, उसका लाभ भी उसे तत्काल मिलता है। पुरस्कार तत्काल मिलता है। विपश्यी साधक इसे अच्छी तरह समझने लगता है। वह देखने लगता है कि क्रोध, वासना, द्वेश, ईर्ष्या, वासना जगाने पर तत्काल व्याकुलता आती है। अंतर्मुखी होकर यथार्थ का दर्शन करने लगता है। उसे समझ में आने लगता है कि विकार जगते ही व्याकुलता आती है। वहीं अगर विकार  नहीं जगते हैं तो उसे तत्काल सुख मिलता है। उसे शांति मिलती है। मस्तिष्क स्वस्थ और प्रसन्न होता है। किसी भी पंथ का व्यक्ति हो, उसकी बोली, वेश भूषा, दार्शनिक मान्यता, जाति, पंथ, कर्मकांड, मान्यता कुछ भी हो, विकार जगाने पर दंड मिलता ही है। निर्विकार होने पर पुरस्कार मिलता ही है। सारा अभ्यास, जो विकारों से मुक्त करता है, वह धर्म है। ऊपरी हिस्से के विकारों को नहीं, अंदर से विकारों को समाप्त करने से असल लाभ होता है। मन का संवर करने से कल्याण होता है। सारे मानस पर संवर कर लेने वाला भिक्षु यानी साधक दुखों से मुक्त हो जाता है। विकारों से मुक्त होने से व्यक्ति दुखों से मुक्त हो जाता है।

विपश्यना करने वाला आत्मा, परमात्मा आदि को साइड में रखता है। वह इस पर ध्यान ही नहीं देता कि आत्मा है या नहीं। परमात्मा है या नहीं। अगर है, तब भी और नहीं है तब भी। अगर है तो उसे किनारे रखकर अपने शरीर की अनुभूतियों को जानना है। यह समझना है कि राग और विकार कहां जागा। अनुभव से जानते ही उसे दूर करना है। उसका आरंभ नहीं होने देना है और समझना है कि यह अनित्य है।

सचमुच सारे संस्कार अनित्य हैं। इनका उत्पाद होना और व्यय हो जाना इसका स्वभाव है। यह नहीं बदलता। अनित्यता का स्वभाव नित्य है, यह बना रहता है। संस्कार मरता है, फिर जन्म ले लेता है। प्रतिक्षण इसका पुनर्जन्म होता है। इस तरह से प्रतिक्षण संस्कार बढ़ते रहते हैं, हमेशा नए संस्कार उत्पन्न होते हैं। अगर क्रोध उत्पन्न हुआ तो वह लगातार बढ़ता जाता है। पुराना क्रोध समाप्त हुआ, अगले क्षण फिर उत्पन्न हुआ और बढ़ता गया। घंटों क्रोध बना रहता है। इसी तरह से अगर किसी से प्रेम उत्पन्न हो, भय, वासना उत्पन्न होने पर इसका संवर्धन होता रहता है। पुराना खत्म होता है, नया आता है और पुराने में जो बचा रहता है, उसमें जुड़कर यह बढ़ता जाता है। अगर इसे समता से देखा जाए तो वह संस्कार निरुद्ध (इसका आशय समाप्त होने से है) हो जाता है। इसका शमन होता है, दमन नहीं होता। विकारों का शमन होते ही परम सुख की अनुभूति होती है।

यह कहने से या समझने से बाद नहीं बनती। अनुभूति से जानने पर ही इससे मुक्ति मिलती है। राग द्वेश न जगाने से ही दुखों से मुक्ति मिलती है। पुराने राग द्वेश भी धीरे धीरे खत्म होने लगते हैं। दुख है, दुख का कारण है, उसका निवारण हो सकता है और निवारण ही दुखों की मुक्ति है। इसके लिए खुद प्रयास करना होता है। कोई और तरीका नहीं है कि इसे पढ़कर या समझकर मुक्ति पाई जा सके। किसी दूसरे के करने से किसी अन्य व्यक्ति मुक्ति नहीं मिल सकती। अपने दुखों की मुक्ति के लिए खुद ही कोशिश करनी होती है कि विकार खत्म हो।

आठ तरह की बातें हमारे जीवन में स्पर्श करती रहती हैं। सुख भी आता है, दुख भी आता है, लाभ भी होता है हानि भी होती है, यश भी होता है, निंदा भी होती है। जीत भी होती है हार भी होती है। इसकी वजह से जिसका चित्त विचलित नहीं होता, समता में रहता है, संतुलन बनाए रहता है। ऐसा समता में रहने वाला व्यक्ति अशोक यानी दुखों से मुक्त हो जाता है, नया मैल नहीं चढ़ाता, योगक्षेम से परिपूर्ण होता है। ऐसा मंगल हर गृहस्थ प्राप्त कर सकता है।

जीवन में तमाम सुख आते हैं। कर्मों के प्रभाव से सुख आता है, दुख आता है। कुल मिलाकर कवायद यह करनी होती है कि नए संस्कार न बनने पाएं। हर व्यक्ति अपना मालिक खुद है, अपनी गति खुद बनाता है। पहले जो हुआ सो हुआ, वर्तमान का मालिक अगर व्यक्ति खुद हो जाए तो उसके भविष्य के अपने सभी विकार खत्म हो जाएंगे। व्यक्ति का कल्याण हो जाएगा, उसे दुखों से मुक्ति मिल जाएगी।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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