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'भारत तेरे टुकड़े होंगे' की घातक राजनीति — सत्येन्द्र पीएस


स्थानीय जानकारों के मुताबिक केंद्र में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार और राज्य में लंबे समय से भाजपा सरकार होने के कारण अब इस संगठन को राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता का मसला छोड़ देने को कहा गया है





“मंदिर वहीं बनाएंगे” से अब “भारत तेरे टुकड़े होंगे” तक पहुंच चुका है आरएसएस

— सत्येन्द्र पीएस

सत्येन्द्र पीएस (वरिष्ठ पत्रकार)
पहले तो आरएसएस सिर्फ मुसलमानों को निशाने पर लेता था और वह मंदिर बनाने, समान नागरिक संहिता और धारा 370 के नाम पर भड़काता था। अब उसके निशाने पर हिंदू भी हैं

धार्मिक घृणा फैलाकर गिरोह तैयार करना आरएसएस की पुरानी शगल रही है। माधव सदाशिव गोलवलकर ने सपना देखा कि भारत में संविधान के रूप में मनुस्मृति लागू की जाए। लंबी यात्रा के बाद 1990 में “राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे” तक का मुकाम आया। भाजपा केंद्र में सरकार बनाने में सफल हुई। 2014 के लोकसभा चुनाव तक राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता मसला रहा। अब 2018 आते आते भाजपा आरएसएस की राजनीति “भारत तेरे टुकड़े होंगे” का प्रचार कर जनता का समर्थन लेने तक पहुंच चुकी है।

मध्य प्रदेश की राजनीति से जुड़े लोगों का कहना है कि संगठन भाजपा के लिए ही काम करता है। 

मध्य प्रदेश में नवंबर दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। कई मौकों पर राज्य में विधानसभा चुनाव करीब आने पर देश का एक शीर्ष दक्षिणपंथी संगठन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में प्रचार करने के लिए पर्चे बांटता है। पिछले चुनाव तक 'जागो जनता जनार्दन' के नाम से छपने वाले इस पर्चे का नाम इस बार 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' कर दिया गया है।



पर्चे में बिरसा मुंडा का जिक्र करके उन्हें हिंदू बताया गया है।

इस पर्चे से पता चलता है कि पहले तो आरएसएस सिर्फ मुसलमानों को निशाने पर लेता था और वह मंदिर बनाने, समान नागरिक संहिता और धारा 370 के नाम पर भड़काता था। अब उसके निशाने पर हिंदू भी हैं, जिन्हें भारत तेरे टुकड़े होंगे के समर्थक, साहित्यकार, कलाकार, आरक्षण मांगने वाला, आरक्षण का विरोध करने वाला करार दे रहा है।

भारत तेरे टुकड़े होंगे? शीर्षक से प्रकाशित रंगीन पर्चे के पहले पेज पर भारत का नक्शा है
भारत तेरे टुकड़े होंगे? शीर्षक से प्रकाशित रंगीन पर्चे के पहले पेज पर भारत का नक्शा है
भारत तेरे टुकड़े होंगे? शीर्षक से प्रकाशित रंगीन पर्चे के पहले पेज पर भारत का नक्शा है, जिसे केसरिया, सफेद और हरे रंग से भारत के तिरंगे झंडे का रूप दिया गया है। कश्मीर को आरी से काटते एक मुस्लिम को दिखाया गया है, जो चांद तारा युक्त हरा झंडा थामे हुए है। उसके बगल में जिहादी पत्थरबाज लिखा गया है।

नेपाल के पास एक चीन का झंडा लिए फौजी खड़ा है, जिसके बगल में चीन लिखा हुआ है।

बिज़नेस स्टैंडर्ड  “जन जागरण मंच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए काम करता है लेकिन उनमें इतना नैतिक साहस भी नहीं है कि वे इस संगठन को अपना सकें। राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और 370 का मुद्दा इनके लिए सत्ता पाने का औजार था।” — पंकज चतुर्वेदी (मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता)




वहीं पूर्वोत्तर भारत को आरी से काटते हुए मुस्लिम दिख रहे एक दाढ़ी टोपी वाले व्यक्ति को दिखाया गया है, जिसे बांग्लादेशी और रोहिंग्या लिखा गया है।

मध्य भारत को आरी से काटते हुए एक व्यक्ति को हंसिया हथौड़ा लिए एक हिंदू से दिख रहे व्यक्ति को दिखाया गया है, जिसके बगल में शहरी नक्सलवाद लिखा गया है।

वहीं दक्षिण भारत के जिस हिस्से को हरा दिखाया गया है, उसके बाईं ओर हरा कपड़ा पहने एक व्यक्ति आरक्षण बढ़ाओ का हैंड पोस्टर पकड़े है और दाईं ओर लाल कुर्ता पहने एक व्यक्ति आरक्षण हटाओ का। दोनों मिलकर एक संयुक्त आरी से भारत को काट रहे हैं।

शहरी नक्सलवादियों और राजनीतिक दलों को जातीय वैमनस्यता फैलाने वाला बताया गया है, जो आरक्षण बढ़ाने और हटाने के नाम पर दंगे करा रहे हैं।
शहरी नक्सलवादियों और राजनीतिक दलों को जातीय वैमनस्यता फैलाने वाला बताया गया है, जो आरक्षण बढ़ाने और हटाने के नाम पर दंगे करा रहे हैं। 
दूसरे पेज पर जनजागरण अभियान शीर्षक के तहत शहरी नक्सलवादी का वर्णन किया गया है, जिन्हें साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार और पुरस्कार लौटाने वाला बताया गया है। इन्हें बहुत ताकतवर बताया गया है, जो आतंकियों को बचाने के लिए रात को उच्चतम न्यायालय खोलवा सकते हैं।

इसके अलावा शहरी नक्सलवादियों और राजनीतिक दलों को जातीय वैमनस्यता फैलाने वाला बताया गया है, जो आरक्षण बढ़ाने और हटाने के नाम पर दंगे करा रहे हैं। बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठ का वर्णन है।

सबसे दिलसस्प तीसरे पेज का कार्टून है, जिसमें दिखाया गया है कि राजा खिलजी से लड़ने के लिए सहयोग मांग रही है और जनता उसे नोटा देने को कह रही है।

इस पर्चे के आखिरी पन्ने पर यह दिखाया गया है कि आदिवासी भगवान बिरसा मुंडा हिंदू थे। बताया गया है कि 33 प्रतिशत बांग्लादेशी हिंदुओं (जिन्हें संभवतः दलित दिखाने की कोशिश की गई है) उन्हें मुस्लिमों ने मार मारकर मुस्लिम बना दिया।

आखिर में सलाह दी गई है समाज को तोड़ने के षडयंत्र का हिस्सा न बनें। नोटा पर मतदान न करें। जाति के आधार पर मतदान न करें। राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर मतदान करें। इसी पेज पर यह भी सूचना दी गई है कि जनजागरण मंच, मध्य भारत ने पर्चा भेजा है, जिसकी 2 लाख प्रतियां छापी गई हैं

देश के प्रतिष्ठित आर्थिक अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड में संदीप कुमार ने भोपाल से खबर लिखी है। अखबार के मुताबिक, “जनजागरण मंच से जुड़े एक शीर्ष नेता नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताते हैं कि शीर्ष स्तर से मिले निर्देशों के कारण इस बार राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और कश्मीर में 370 जैसे मुद्दों के स्थान पर शहरी नक्सलवाद, विदेशी घुसपैठ, जातिवादी आंदोलन और अलगाववाद को प्रमुखता दी गयी है।

अखबार के मुताबिक 'जागो जनता जनार्दन ' जहां उग्र हिंदुत्व की विचारधारा को आगे बढ़ाता था वहीं इस बार जनता को समझाया जा रहा है कि विदेशी घुसपैठियों की मदद से देश के टुकड़े करने की साजिश की जा रही है। मध्य प्रदेश के मालवा निमाड़ अंचल में सक्रिय आदिवासी संगठन जयस इस बार प्रदेश में विधानसभा चुनाव लडऩे जा रहा है। वह आदिवासियों को लगातार उनकी गैर हिंदू पहचान के प्रति जागरुक कर रहा है। इस पर्चे में बिरसा मुंडा का जिक्र करके उन्हें हिंदू बताया गया है।



इस पर्चे में सीधे सीधे आरएसएस या भारतीय जनता पार्टी का नाम नहीं आया है। लेकिन मध्य प्रदेश की राजनीति से जुड़े लोगों का कहना है कि संगठन भाजपा के लिए ही काम करता है। स्थानीय जानकारों के मुताबिक केंद्र में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार और राज्य में लंबे समय से भाजपा सरकार होने के कारण अब इस संगठन को राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता का मसला छोड़ देने को कहा गया है। अब जंग थोड़ी सीधी हो गई है और यह प्रचारित कराया जा रहा है कि साहित्यकार और कलाकार के भेष में नक्सली छिपे हुए हैं और ये देश में तरह तरह के बंटवारे फैला रहे हैं। अब सीधे सीधे विपक्षी दलों को देश को तोड़ने वाला बताया जा रहा है।

इस पर्चे में एक और अहम बात निकलकर सामने आती है। भाजपा को इस बात का भयानक डर है कि नरेंद्र मोदी सरकार से निराश लोग इस बार वोट न देने या नोटा का विकल्प अपना सकते हैं। यानी सरकार को अपनी नालायकी का अहसास है। इसके लिए वोटरों को यह किसी काल्पनिक खिलजी को तैयार किया गया है, जो भारत पर कब्जा करना चाहता है और वोटर खिलजी पर ध्यान न देकर अपने उस शासक को नोटा देने को कह रहा है, जो उसे खिलजी से बचाएगा।

मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी के हवाले से बिज़नेस स्टैंडर्ड ने लिखा है, “जन जागरण मंच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए काम करता है लेकिन उनमें इतना नैतिक साहस भी नहीं है कि वे इस संगठन को अपना सकें। राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और 370 का मुद्दा इनके लिए सत्ता पाने का औजार था।

— सत्येन्द्र पीएस 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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हमें उन लोगों के साथ खड़े होने की जरूरत है, क्योंकि वे हमारे साथ खड़े रहते हैं #NoMoreFakeCharges



उस अंतरराष्ट्रीय जगत को दिखाना चाहते हैं कि हमारे यहां अदालतें हैं और लोगोंं की रक्षा के लिए रात को भी अदालतें खुलती हैं। न्याय होता है। भूख, बेकारी, बीमारी से बिलबिलाते भारत को विकसित या विकास की ओर अग्रसर दिखाने में लगी सरकार अपने मुंह पर यह कालिख लगने नहीं देना चाहती कि आम जन की आवाज उठाने वाले मार दिए जाते हैं। 

सड़क पर खून पीने के लिए दौड़ रहे जॉम्बी किसी को, कहीं भी पीट सकते हैं


— सत्येन्द्र पीएस 





अरुंधति राय का मैं बहुत पहले से समर्थक रहा हूं। उनका लिखा वाकिंग विद कॉमरेड्स पढ़ा था, तभी से। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा कि सरकार इस समय अपर कास्ट हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की मुहिम में लगी है। समाज के वंचित तबके के लाखों लोगों को कुछ गिरफ्तारियों के माध्यम से कुचला गया है। रॉय ने कहा कि गिरफ्तारियां उस सरकार के बारे में खतरनाक संकेत देती हैं जिसे अपना जनादेश खोने का डर है, और दहशत में आ रही है। बेतुके आरोपों को लेकर वकील, कवि, लेखक, दलित अधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया जा रहा है, हमें साफ-साफ बताइए कि भारत किधर जा रहा है।

महाराष्ट्र पुलिस ने कई राज्यों में वामपंथी कार्यकर्ताओं के घरों में मंगलवार 28 अगस्त 2018 को छापा मारा और  हैदराबाद में तेलुगु कवि वरवर राव, मुंबई में कार्यकर्ता वेरनन गोन्जाल्विस और अरुण फरेरा, फरीदाबाद में ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और दिल्ली में सिविल लिबर्टीज के कार्यकर्ता गौतम नवलखा के आवासों में तकरीबन एक ही समय पर तलाशी ली गई। तलाशी के बाद राव, भारद्वाज, फरेरा, गोन्जाल्विस और नवलखा को आईपीसी की धारा 153 (ए) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। यह धारा धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, आवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने और सौहार्द बनाए रखने के में बाधा डालने वाली गतिविधियों से संबद्ध है। जिन अन्य लोगों के आवास में छापे मारे गए, उनमें सुसान अब्राहम, क्रांति टेकुला और गोवा में आनंद तेलतुंबड़े शामिल हैं। राव की दो बेटियों और एक पत्रकार सहित अन्य के आवासों में पुलिस टीम ने तलाशी ली। झारखंड में आदिवासी नेता फादर स्तान स्टेन स्वामी के परिसरों में भी तलाशी ली गई।

जिन लोगोंं को गिरफ्तार किया गया है, वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इनमें से ज्यादातर लोग आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों के बीच काम करते हैं। गिरफ्तार किए गए लोग गांवों, जंगलों में रहने वाले उन लोगों के उत्पीडऩ के खिलाफ सरकार से लड़ते हैं, जो अपनी लड़ाई लडऩे में सक्षम नहीं हैं। सरकार कुछेक दर्जन लोगों के ऊपर हमले बोलकर लाखों लोगों को दबा देना चाहती है, जो सामान्य जिंदगी जीने की जद्दोजहद कर रहे हैं।

यह सही है कि एक सामान्य या कथित रूप से पावरफुल अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग का व्यक्ति गिरफ्तार होता है तो रात को अदालतें नहीं खुलतीं। गिरफ्तार किए गए लोगों का अंतरराष्ट्रीय औरा है। इन लोगों को मौजूदा भाजपा सरकार ही नहीं गिरफ्तार कर रही है, इसके पहले कांग्रेस के शासनकाल में पीयूसीएल के पदाधिकारियों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें जेल में डाला गया।

पुलिस की नजर में नक्सली साहित्य सामान्यतया माओ की लिखी कविताएं, माक्र्स, लेनिन की किताबें आदि होता है। अगर लाल कवर वाली कोई किताब हो, उसे भी नक्सली साहित्य माना जाता है

इन लोगों की गिरफ्तारी पर न्यायालय रात में खुल जाते हैं। न्यायालय रात में खुलें, शायद यह सरकार और न्यायालय भी दिखाना चाहते हैं। उस अंतरराष्ट्रीय जगत को दिखाना चाहते हैं कि हमारे यहां अदालतें हैं और लोगोंं की रक्षा के लिए रात को भी अदालतें खुलती हैं। न्याय होता है। भूख, बेकारी, बीमारी से बिलबिलाते भारत को विकसित या विकास की ओर अग्रसर दिखाने में लगी सरकार अपने मुंह पर यह कालिख लगने नहीं देना चाहती कि आम जन की आवाज उठाने वाले मार दिए जाते हैं। यह न्यायालय इसलिए खुल जाते हैं कि जिन लोगों पर छापे मारे गए हैं, वे हाई प्रोफाइल हैं। किसी ने किताब लिखकर, किसी ने प्रतिष्ठित संस्थानों में छात्र जीवन में टॉप करके, किसी ने अपनी पारिवारिक शैक्षणिक पृष्ठभूमि के कारण दुनिया में नाम कमाया है। सरकार चाहती है कि यह जिन लोगों को समर्थन कर रहे हैं, वे डर जाए। साथ ही यह भी चाहती है कि अंतरराष्ट्रीय जगत में सरकार की मुंह पर कालिख न लगे। इसलिए अदालतें रात में भी खुल जाती हैं। इसके पहले कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सरकार ने विनायक सेन, साईंबाबा सहित कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कराया है। उस समय भी अदालतें खुली हैं।

ऐसा नहीं है कि पीयूसीएल के सभी पदाधिकारियों के लिए अदालतें रात में खुलती हैं। तमाम कार्यकर्ताओं को तो उनके कार्यक्षेत्र में निपटा दिया जाता है और कोई पूछता भी नहीं है।

मौजूदा सरकार के कार्यकाल में सीधे सीधे संविधान पर हमला हो रहा है। सरकार संविधान को ही खारिज कर रही है। सरकार के समर्थक लोग, अपर कास्ट हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले संविधान की प्रतियां जला रहे हैं।





इसके पहले 2010 में सीमा आजाद और विश्वविजय की गिरफ्तारी को याद कर लें। सीमा जबरन जमीन अधिग्रहण के खिलाफ, गैरकानूनी खुदाई और मायावती के गंगा एक्सप्रेसवे जैसी योजनाओं के खिलाफ अपनी मैगजिन में मुहिम चला रही थीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़े लिखे युवा देश बदलने निकले थे कि वे बदलाव कर पाएंगे। आम लोगोंं की जिंदगी में कुछ राहत आ सकेगी। उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बसपा सरकार थीकेंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी। पुलिस ने दोनों को माओवादी बताया और पकड़ लिया। एक सामान्य परिवार के लोगों को गिरफ्तार कर लिए जाने पर मुकदमा लडऩा भी दूभर हो जाता है। गिरफ्तारी के बाद इनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चला। स्थानीय अदालत ने इन्हें उम्रकैद की सजा सुना दी। लंबे समय तक जेल में रहे। उनके ऊपर भारी मात्रा में नक्सली साहित्य रखने का आरोप लगाया गया। पुलिस की नजर में नक्सली साहित्य सामान्यतया माओ की लिखी कविताएं, माक्र्स, लेनिन की किताबें आदि होता है। अगर लाल कवर वाली कोई किताब हो, उसे भी नक्सली साहित्य माना जाता है। पुलिस ने दोनों पर भारत सरकार से युद्ध छेडऩे का इल्जाम लगाया था।  पुलिस का कहना है कि दोनों मिलकर केंद्र तख्तापलट कर माओवादी सरकार बनाना चाहते हैं। इसलिए दोनों देशद्रोही हैं। सीमा आजाद के वकील रवि किरण का कहना है कि पुलिस की दलील है कि जो झोले के अंदर से साहित्य मिला उसे पढऩे से पता चलता है कि ये लोग आतंकवादी है, गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त हैं, आतंकवादी हैं और देशद्रोही हैं।

2010 में ही हेम पांडेय को पुलिस ने मार दिया था। 32 साल की उम्र थी हेम पांडे की। आंध्र प्रदेश पुलिस ने दो जुलाई 2010 को भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य आजाद के साथ मुठभेड़ में उसे मार दिया था। आरोप लगा कि आजाद और हेम को नागपुर से उठाकर करीब 300 किलोमीटर दूर आदिलाबाद में मारा गया। हेम वामपंथी पत्रकार था और ऑपरेशन ग्रीन हंट पर स्टोरी करने के इरादे से दंतेवाड़ा जा रहा था। शांत व्यक्तित्व वाला हेम उत्तराखंड के जन आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहा। कुमाऊं विश्वविद्यालय के पिथौरागढ़ कॉलेज में उसने दो बार छात्र संघ का चुनाव भी लड़ा। अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद उसने अल्मोड़ा कैंपस में पीएचडी शुरू की। वो अपनी जीवन साथी बबिता के साथ स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। बाद में दिल्ली आकर भी उसने अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लिखना जारी रखा। वह ऐसे विषयों पर लिख रहा था, जिन पर सामान्यतया नहीं लिखा जाता। उसके लेखन में आम आदमी की भूख थी, अपनी जमीन से बेदखल किए जा रहे लोगों का संघर्ष था।

स्वाभाविक है कि अदालतें सबके लिए नहीं खुलीं। तमाम लोग मार दिए गए। उस दौर में भी कुछ लोगों के लिए अदालतें खुली थीं और इस बार भी खुली हैं। 


यह लोग सामान्यतया शासन सत्ता को असहज करने वाले लोग हैं। इस दौर में सरकार का मीडिया घरानों पर दबाव है। हर तरह से अभिव्यक्ति को कुचला जा रहा है। सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार से असहमत है तो उसके लिए खतरा पैदा हो गया है। जो व्यक्ति जितना ही जमीनी है, उसके लिए जीना उतना ही दुश्वार है। सरकार ने अपने समर्थन में जॉम्बी खड़े किए हैं, जो सड़क पर न्याय करने के लिए बैठे हैं। सड़क पर न्याय करने वाले गुंडों, कानून तोडऩे वालों को सरकार का समर्थन है। सरकार के मंत्री ऐसे असमाजिक और कानून तोडऩे वाले लोगों को सम्मानित कर रही है। इतना ही नहीं, अगर किसी महिला का पति मौजूदा सत्ता का समर्थक हो गया है तो उसकी पत्नी का जीना हराम हो गया है। अगर किसी का रिश्तेदार सरकार की भक्ति में लीन है तो वह सरकार का विरोध करने वाले अपने रिश्तेदारों को आजिज किए हुए है।

उन लोगों के लिए खतरा ज्यादा है, जो गांव गिरांव और जमीन से जुड़े हैं। कवि एवं कहानीकार उदय प्रकाश का उदाहरण लें। जब उन्होंने कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या से आहत होने के बाद साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का फैसला किया तो उसका तीखा विरोध हुआ। सोशल मीडिया में उनका लिखना मुहाल हो गया। व्यक्तिगत रूप से उन्हें सोशल मीडिया पर गालियां पड़ीं। उसके बाद जब तमाम लोगों ने सम्मान लौटाने शुरू किए तो उदय प्रकाश को पुरस्कार वापसी गैंग का सरगना घोषित कर दिया गया। अनूपपुर स्थित उनके पैतृक गांव में उन्हें इस आधार पर निशाना बनाया गया। यह इस हद तक किया गया कि न सिर्फ उदय प्रकाश, बल्कि उनका पूरा परिवार खौफ के साये में आ जाएं।

यही हाल जाने माने पत्रकार दिलीप मंडल का रहा है। सोशल मीडिया पर अगर वह मनुवाद के खिलाफ मुखर होते हैं तो उन्हें तरह तरह की गालियां दी जाती हैं। धमकियां आती हैं। मार देने की बात कही जाती है। उनके परिवार, उनकी कथित जाति को खोजकर उन्हें गालियां दी जाती हैं। यह डर इस तरह पैदा किया जाता है कि मंडल किसी तरह से लिखना बंद कर दें।

दिलीप मंडल और उदय प्रकाश जैसे लोग न सिर्फ ब्राह्मणवादियों के निशाने पर हैं, बल्कि अपनी पैतृक जाति से भी कट चुके हैं। उन्हें न तो जातीय समर्थन मिलता है न समाज के पावरफुल लोगों का। सरकार द्वारा समाज में छोड़े गए जॉम्बी उनके जीवन के लिए कभी भी खतरा बन सकते हैं। इसे हम स्वामी अग्निवेश के उदाहरण से समझ सकते हैं। सड़क पर खून पीने के लिए दौड़ रहे जॉम्बी किसी को, कहीं भी पीट सकते हैं। जरा सा भी चर्चित हो चुके व्यक्ति को यह डर सताना स्वाभाविक है। अब इसमें उन लोगों को थोड़ा सुरक्षित माना जा सकता है, जो सोसाइटी में रहते हैं। निजी कार में चलते हैं। क्योंकि सड़क पर घूम रहे जॉम्बियों की पहुंच से वे थोड़ा सा दूर हो जाते हैं।

कोरेगांव-भीमा, दलित इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वहां करीब 200 साल पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी, जिसमें पेशवा शासकों को एक जनवरी 1818 को ब्रिटिश सेना ने हराया था। अंग्रेजों की सेना में काफी संख्या में दलित सैनिक भी शामिल थे। इस लड़ाई की वर्षगांठ मनाने के लिए हर साल पुणे में हजारों की संख्या में दलित समुदाय के लोग एकत्र होते हैं और कोरेगांव भीमा से एक युद्ध स्मारक तक मार्च करते हैं। पुलिस के मुताबिक इस लड़ाई की 200 वीं वर्षगांठ मनाए जाने से एक दिन पहले 31 दिसंबर को एल्गार परिषद कार्यक्रम में दिए गए भाषण से हिंसा भड़क गई। पेशवाओं और दलितों में संघर्ष हुआ। तमाम लोग घायल हुए। आगजनी हुई। गिरफ्तारियां हुईं। लेकिन दंगा भड़काने के मुख्य आरोपी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना गुरु मानते हैं और उनके ऊपर उंगली तक नहीं उठाई गई। 



झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश के तमाम इलाके ऐसे हैं जहां सरकार लोगों से जमीन छीन रही है। गैर कानूनी तरीके से लोगों को हटाया जा रहा है। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में सीधे सीधे संविधान पर हमला हो रहा है। सरकार संविधान को ही खारिज कर रही है। सरकार के समर्थक लोग, अपर कास्ट हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले संविधान की प्रतियां जला रहे हैं। वंचित तबकों को मिल रही थोड़ी बहुत सुविधाओं का खुलेआम विरोध कर रहे हैं। वंचित तबकों को न्याय से भी वंचित करने की कवायद की जा रही है। ऐसे में जो भी थोड़े बहुत नामी और ताकतवर लोग सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर रहे हैं और वंचितों का समर्थन कर रहे हैं, उनके ऊपर छापेमारी कर, उनकी गिरफ्तारियां कर वंचितों को और दबाया जा रहा है। अपने हक की आवाज उठाने वालों को संदेश दिया जा रहा है कि आप जिसे ताकतवर समझते हैं, सरकार की नजर में उनकी कोई औकात नहीं है।

देश की 80 प्रतिशत आबादी रोजी रोजगार और अच्छे जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। पूंजीवादी सरकार कुछ साहूकारों के खजाने भरने की कवायद में है। सरकारी अस्पताल, स्कूल, विश्वविद्यालय को खत्म किया जा रहा है। सरकारी रोजगार खत्म किया जा रहा है। बहुत कम वेतन पर काम करने के लिए वंचितों को मजबूर किया जा रहा है। ऐसे में जो लोग सरकार की इन नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, सरकार उन पर हमले बोल रही है।

हम उन गिरफ्तार 5 लोगों का किसी तरह मदद करने की स्थिति में नहीं हैं। हम अपनी ही मदद नहीं कर सकते तो उनकी क्या करेंगे? लेकिन हमें उन लोगों के साथ खड़े रहने, उन लोगों के प्रति अच्छी भावना रखने की जरूरत है, जिससे भविष्य में भी हमारी दुर्गति के खिलाफ आवाज उठाने वाले कुछ लोग मिल सकें। पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया है, जिनके लिए रात में शीर्ष अदालतें खुल रही हैं, वे सामान्य रूप से रोजी रोटी के लिए काम कर आलीशान जीवन जी सकते थे। लेकिन उन्होंने सरकार को असहज करने वाले सवाल हमारे हक में उठाए हैं। हमें उन लोगों के साथ खड़े रहना चाहिए, क्योंकि वे हमारे हक के लिए लड़ रहे हैं।

— सत्येन्द्र पीएस 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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बलात्कारी बचाओ !


बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली जा रही है — सत्येंद्र प्रताप सिंह  

आक्रोशों लिखना पड़ रहा है, ऐसा पहले नहीं हुआ कि इतनी बेशर्मी से स्वतंत्र भारत के निवासी पर उसकी ही बनायी सरकार उसे पूरी तरह बेदम कर दे। नागरिकों के अधिकार का ऐसा अभूतपूर्व बलात्कार, उसके संस्कारों पर ऐसा घिनौना हमला!


वरिष्ठ युवा पत्रकार सत्येंद्र प्रताप सिंह अपनी फेसबुक वाल पर लिखते हैं ―

भारत मे एक निर्भया रेप केस हुआ था। पूरे देश मे आक्रोश था। सरकार ने  उस मामले के सभी अपराधियों को एक हफ्ते के भीतर गिरफ्तार कर लिया। निर्भया के भाइयों को पढ़ने लिखने, नौकरी का इंतजाम किया गया। उसके मां बाप के पास राहुल और प्रियंका का नंबर था, जो कभी भी उनसे बात कर सकती थीं, किसी तरह की मदद ले सकती थीं।

कश्मीर के कठुआ में अभी 8 साल की बच्ची आसिफा का रेप और मर्डर हुआ है। पूरी सरकार, आरएसएस बलात्कारियों के साथ खड़ी है। बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली जा रही है। मध्य प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और सांसद नन्द कुमार सिंह चौहान कह रहे हैं कि रेप में पाकिस्तान का हाथ है।

उत्तर प्रदेश के उन्नाव में लड़की का बलात्कार होता है। साल भर बाद भी कोई कार्रवाई नही होने पर लड़की मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्महत्या की कोशिश करती है। बलात्कारी विधायक का भाई लड़की के बाप  को मर जाने के पहले तक पीटता है। सरकार उसे अधमरे हाल में जेल भेज देती है और बलात्कार पीड़ित लड़की का बाप वहीं जेल में मर जाता है। मुख्यमंत्री सहित उत्तर प्रदेश की पूरी ठाकुर लॉबी बलात्कारी विधायक के साथ खड़ी है।

फिलहाल इसके आगे क्या कहूँ, यही कि आप कोई भी धारणा बनाने से पहले उस दिमाग का उपयोग कीजिए जो आपको पृथ्वी की अन्य सभी प्रजातियों से ऊपर करती है, जिसके पीछे मानव पूर्वजों की लाखों वर्षों की ― पुरा पाषाण से वर्तमान तक, गुफ़ा की दीवारों पर उकेरे चित्र से मोबाइल ― मेहनत है, सबसे बड़ी विरासत है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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महिला क्षेत्र — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


वह एक एरिया है, जहां से यह अहसास लिया जा सकता है कि गेट पार वाले इलाके में महिलाएं होती हैं।

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 6

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1


इगतपुरी का विपश्यना केंद्र प्राकृतिक रूप से बहुत मनोरम स्थल पर बना हुआ है। पहाड़ी के नीचे बने हुए कमरे। कहीं कोई आवाज नहीं। रात को कभी कभी ट्रेन की सीटी सुनाई देती। उसके अलावा चिड़ियों की चहचहाहट। खामोशी ऐसी कि वहां रहने वाला कोई कभी कुछ नहीं बोलता था। पूर्णतया शांति का वातावरण। शांति के साथ पूरी तरह से प्राकृतिक शुद्ध वातावरण, जहां सिर्फ पौधों, पत्तियों, फूलों की गंध ही आती। बहुत गंभीरता से प्रकृति पर ध्यान केंद्रित करने पर चिड़ियों की आवाज ही आती।

पूरे विपश्यना के दौरान लगातार बारिश होती रही। वहां बने आवासों के आकार के मुताबिक लोगों की अलग अलग स्वाभाविक अनुभूतियां बारिश के प्रति भी रही होंगी। मैं जिस क्षेत्र के आवास में ठहरा हुआ था, वहां कंक्रीट की छत थी। तमाम आवास ऐसे हैं जहां दीवारों के ऊपर सीमेंट सीट रखी हुई है या संभवतः कुछ आवासों पर टिन शेड भी हों। सबकी आवाज बारिश के समय अलग अलग होती थी। उन कमरों में तो नहीं गया कि वहां बैठने या सोने के समय जब बारिश होती है तो उसकी बूंदों से कैसी ध्वनि आती है, लेकिन आते जाते तेज बारिश या हल्की बारिश होने पर टिन या सीमेंट सीट पर पड़ने वाली बूंदों की ध्वनियां अलग अलग अहसास देती थीं। स्वाभाविक है कि उन अलग अलग आवासों में रहने वाले लोग बारिश की बूंदों का अपने तरीके से आनंद लेते रहे होंगे। बारिश की बूंदों के अलावा मेरे आवास के बगल में कुछ दूरी पर एक पानी का पंप लगा हुआ था, जो सुबह चलता था। शांति की आदत ऐसी पड़ी कि उस पंप की आवाज भी बहुत बुरी लगती कि यह क्या खुरखुर की आवाज आती थी। उसके अलावा पंखे की सनसनाहट और घड़ी की टिकटिक भी महसूस होता, जो सामान्यतया परिवार के साथ रहने पर शोर वाले इलाके में महसूस नहीं होता।

जब बारिश तेज होती तो पानी बहने की कल-कल की ध्वनि सुनाई देती है। दिन में वरामदे में खड़े होकर मैं बारिश का खूब आनंद लेता। सामने ही हरी भरी पहाड़ी थी और जब तेज बारिश होती थी, पहाड़ी पर भी पानी की कई धाराएं बहने लगती थीं। उसी मार्ग से लगातार पानी बहने से अलग सा मार्ग दिखता। हालांकि जब बारिश बंद हो जाती तब यह पहचानना थोड़ा कठिन हो जाता था कि पहाड़ी के किस हिस्से से पानी बहता हुआ निकलता था। आवास के सामने एक पंक्ति में कुछ कुटिया और बनी थी, उसके बाद केले की खेती थी। केले के खेत में जाने की मनाही थी। कई बार मन हुआ कि टहलते हुए केले के खेत में जाकर घूमा जाए। लेकिन अलकतरा रोड जहां खत्म रही थी, वहीं लिखा था कि 10 दिन की साधना शिविर में आए विद्यार्थियों को आगे जाना मना है। वहीं खड़े होकर केले की बागवानी नजर आती। केले के कुछ पेड़ों में घवद या घार ( भोजपुरी  इलाके में केले का जो फलों के गुच्छे को घवद और अवधी इलाके में घार कहते हैं, हिंदी में क्या कहते हैं, पता नहीं) निकली हुई नजर आती थी। बिल्कुल वैसी ही घवद, जैसे हमारे खेतों में होती थी। लेकिन विपश्यना केंद्र के नियमों में बंधे होने की वजह से मैं उस केले की बागवानी में नहीं जा पाता था। मैं ही नहीं, उधर रहने वाले तमाम लोगों को देखा, कोई भी उस सीमा को पार नहीं करता, जिसके आगे जाना प्रतिबंधित रखा गया था। उसके अलावा पपीते के पेड़ भी थे, जिन पर फल लगे थे। आम का सीजन नहीं होने के कारण आम पर फल नहीं थे। कटहल जैसे कुछ पेड़ भी हैं। अन्य पहाड़ी पौधे भी हैं, लेकिन फलदार वृक्ष भरपूर लगाए गए हैं।



वहां फलों के बारे में भी निर्देश लिखा हुआ है और फलों, पत्तों को तोड़ना कुछ पाप टाइप बताया गया है। सही सही शब्द तो याद नहीं कि क्या लिखा हुआ है, लेकिन यही है कि फलों, पत्तों को तोड़ना, उनका इस्तेमाल किसी हाल में नहीं करना है। यहां तक कि अगर कोई फल नीचे गिरा हुआ है तो उसे भी उठाना या खाना नहीं है। स्पष्ट निर्देश है कि वह साधकों के लिए नहीं।

बहरहाल अगस्त महीने में जब मैं वहां था, पपीते और केले के अलावा फल के कोई वृक्ष फलों से लदे हुए नहीं थे। केले भी पेड़ पर लगे हुए कच्चे होते हैं और पपीते भी। इसलिए निर्देशों का कोई मतलब नहीं था। इसके अलावा सुबह शाम केले मिलते ही थे खाने को। कई रोज तो पपीते भी दिए गए पके हुए। हालांकि पपीते में गड़बड़ यह थी कि उसे छीलकर नहीं देते थे और उसे वैसे ही बंदर की तरह उसका गूदा चाभना होता था। तमाम लोग प्रयास कर पूरा गूदा चाभ जाते थे। मेरा मुंह पूरा न खुलने की वजह से ठीक से चाभने में दिक्कत होती और गूदा रह ही जाता था। फिर भी पपीता भी खाता था। साथ ही हल्दी वाला दो गिलास दूध तो सबेरे शाम फिक्स ही रहता।

साधना का आनंद और शरीर की अनुभूतियों के बारे में महसूस करने के लिए इगतपुरी आश्रम में भरपूर माहौल रहता है। हालांकि साधना के लिए जो हॉल बना हुआ है, बड़े वाले हॉल में ढाई सौ से ऊपर और छोटे हॉल में 100 से ऊपर लोग रहते हैं। लेकिन इतने लोगों के रहने के बावजूद भरपूर सन्नाटा होता है। हॉल में धम्म सेवक पैर दबाकर चलते थे, जिससे कि आवाज पैदा न हो। उन्हीं को देखकर साधकों की भी आदत पड़ जाती है कि वे भी उसी तरह पैर दबाकर चलते हैं। इस तरह से पूरी तरह शोर मुक्त माहौल हो जाता है।

आवास से ध्यान केंद्र जाते समय निचले पहाड़ी हिस्से से ऊपर पगोडा के कोने पर एक गेट बंद मिलता है, जिस पर महिला क्षेत्र का बोर्ड लगा होता है और गेट बंद होता है। वह एक एरिया है, जहां से यह अहसास लिया जा सकता है कि गेट पार वाले इलाके में महिलाएं होती हैं। उसके अलावा आचार्य निवास (जहां गोयनका जी रहते थे, वह दो-तीन मंजिला इमारत है, और सड़क पर बोर्ड लगाकर उस दिशा में एरो लगी होती थी कि यह आचार्य निवास है) और पगोडा के बीच में एक छोटा हॉल था। जिस तरह से पुरुषों को दो हॉल में बिठाया जाता था, उसी तरह संभवतः यह महिलाओं के लिए ध्यान हॉल था, वहां पर खड़े होकर देखने पर कभी कभी महिलाएं दिख जाती थीं। वह भी उसी समय, जब हॉल में से निकलने का वक्त हो। उसके अलावा सबके नाश्ते और खाने का एक ही वक्त था, चाहे वह पुरुष हो या महिला। खाने जाते वक्त आचार्य निवास से मुख्य द्वार की ओर बढ़ने पर एक बोर्ड और महिला क्षेत्र का मिलता है, वहां अगर खड़ा हुआ जाए तो करीब 500 मीटर की दूरी पर महिलाएं जाती हुई नजर आती हैं।

थोड़ा आगे बढ़ने पर रास्ते पर टिन शेड की छाजन है। उसके समानांतर महिलाओं को चलने की सड़क है। वह समानांतर सड़क करीब 200 मीटर चलती है, उसके बाद पुरुष अपने भोजनालय और महिलाएं अपने भोजनालय में जाती हैं। उस दौरान भी किसी महिला को नहीं देखा जा सकता। बहुत घनी झाड़ियां लगी हुई हैं। वह भी करीब 8 फुट ऊंची। झाड़ियों की जड़ की तरफ अगर देखें तो उस पार हल्का हल्का अहसास होता है कि महिलाएं चल रही हैं। जहां कहीं झाड़ियां विरल हुई हैं और महिलाएं वहां से नजर आ सकती हैं, वहां विपश्यना केंद्र के प्रबंधन ने बाकायदा पॉलिथीन लगाकर ढंक दिया है। आप बिल्कुल ही किसी महिला का चेहरा नहीं देख सकते हैं।

इसके अलावा खाना खाने के बाद जहां पुरुष लोग प्लेट देने जाते हैं, उसके आगे महिलाओं का भोजनालय है। प्लेट देते समय उधर से भी प्लेट देते हाथ दिख सकते हैं। उस समय भी अहसास लिया जा सकता है कि उस पार महिलाएं खाना खा रही हैं। विपश्यना केंद्र में बर्तन साफ करने में ज्यादातर महिलाएं ही दिखती थीं, लेकिन देखने से लगता है कि वह मजदूर हैं। विपश्यना करने वाली महिलाएं नहीं। एकदम मशीन की तरह से लगातार अनवरत, तेजी से थाली, गिलास और कटोरियां धुलते हुए नजर आती हैं। ज्यादातर काले रंग की अधेड़ उम्र की महिलाएं, लेकिन देखने से ही मेहनती लगती हैं। उत्तर में जिस तरह से पुरुष धोती पहनते हैं, उसी स्टाइल में महिलाएं साड़ी पहने हुए होती हैं।

शून्यागार में भी एक पोर्शन में लिखा हुआ दिख जाता है, महिला क्षेत्र। पुरुष साधक इधर प्रवेश न करें। लेकिन वहां कभी किसी महिला का कपड़ा, हाथ, पैर की भी अनुभूति नहीं हुई। मैं नहीं देख सका। पगोडा के शून्यागार में सिर्फ दो दिन जाने का मौका मिला। उसमें एक रोज ही थोड़ा ऊपर की ओर बढ़कर देखने की कोशिश की कि आगे क्या है, उसमें ऊपर जाते समय बाएं हाथ की ओर महिला क्षेत्र लिखा हुआ था। दाएं पुरुष  क्षेत्र था, जिसमें प्रवेश करने की कोई मनाही नहीं थी। किसी भी गैलरी में घूमकर देखा जा सकता था।

इसके अलावा कहीं ऐसी जगह नहीं है, जहां उन दस दिनों के दौरान महिलाओं का अहसास भी ले सकें। यह नियम कड़ा तो है, लेकिन शायद बेहतर भी है।

ध्यान कराने और व्यक्तियों को बंधनों से मुक्त कराने की एक कवायद आचार्य रजनीश ने भी की थी। उनका भी तरीका यही था कि ग्रंथियों से मुक्त हों। पहले जो कुछ भरे पड़े हैं, उसे खाली कर दें। यहां तक कि रजनीश ने सेक्स के बारे में भी बड़ा खुलकर कहा है कि उसका अहसास ले लें। जो करना हो कर लें। लेकिन चौबीसों घंटे सेक्स के फॉर्म में न रहें। सामान्यतया भारतीय पुरुषों के बारे में यह देखने को मिलता है कि जहां 4 लोग मिल जाएं, सेक्स और महिला की चर्चा छिड़ ही जाती हैं। मतलब सेक्स का कीड़ा चौबीसों घंटे दिमाग पर हावी रहता है और वह किसी भी काम में ध्यान भंग करने के लिए पर्याप्त है। ऐसा सुनने में आता है कि रजनीश के आश्रमों में महिला पुरुष सभी संगीत के धुन में एक साथ नाचते हैं, थिरकते हैं।

इसके विपरीत गोयनका जी के ध्यान केंद्र में महिलाएं अलग रहती हैं। मुझे इसका लाभ यही समझ में आया कि अगर सबको फ्री छोड़ दिया जाए तो शायद लोग दूसरे की नाक पर घूंसा मारने को भी अपनी स्वतंत्रता समझने लगेंगे। दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप करने की भारतीयों की लत तो भयावह है। अगर ऐसी स्थिति में महिला पुरुष साथ रहें और उन्हें नचाया जाए तो कुछ भी कांड हो सकता है। राम मनोहर लोहिया का स्त्री पुरुष संबंध पर कथन जायज है कि पुरुष और महिला की सहमति से दोनों के बीच बना कोई भी संबंध गलत या नाजायज नहीं है। लेकिन विपश्यना या ध्यान केंद्र में, जहां तमाम या कहें सभी अपरिचित ही आते हैं, किस तरह से यह सीमा लगाई जा सकेगी?  ऐसे में बेहतर  यही है कि ओशो वाले फॉर्मूले के विपरीत ग्रंथियों से मुक्त होने के गोयनका के फार्मूले को माना जाए, जिससे कोई व्यक्ति दूसरे की नाक पर घूसा मारने को अपनी स्वतंत्रता न समझ बैठे।

विपश्यना करने के लिए गए लोगों में ज्यादातर संख्या युवाओं की ही थी। अनुमानतः 25 से 50 साल के बीच की उम्र के लोग 90 प्रतिशत थे, जबकि 10 प्रतिशत लोग इससे कम या ज्यादा उम्र के थे। जैसा कि हॉल में बैठने वाले असिस्टेंट टीचर ने बताया था कि बहुत कम उम्र के बच्चों को नहीं लिया जाता था, ऐसे में बच्चे तो नहीं ही थे। उसके अलावा एक विकलांग व्यक्ति भी थे, जिनको कोई दूसरे सज्जन व्हील चेयर पर बिठाकर लाते थे। मुझे वहां के किसी साथी ने बताया कि वह तीसरी बार विपश्यना करने आए हैं। इस तरह से तमाम लोग ऐसे थे जो विपश्यना रिपीट भी मार रहे थे।

शारीरिक अनुभूतियों और शरीर के एक एक अंग में लगातार मन को गुजारने की प्रक्रिया जारी रही। सुबह साढ़े चार से साढ़े छह बजे, फिर आठ से ग्यारह बजे, दोपहर एक बजे से 5 बजे और फिर 6 से 9 बजे शाम तक विपश्यना चलती 7 से 8.30 बजे तक गोयनका जी का प्रवचन चलता। यही रूटीन अनवरत जारी रहा।

धर्म किसे कहते हैं? मूल रूप से भारतीय परंपरा में धर्म कुदरत के कानून को कहते हैं, विश्व के विधान को कहते हैं, निसर्ग के नियम को कहते हैं, जिसकी हुकूमत सब पर चलती है। कुदरत की हुकूमत अणु-अणु पर चलती है। प्रकृति के नियम बंधे बंधाए हैं और वह सब पर एक जैसे लागू होते हैं। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। कुदरत का राज्य तो इतना अच्छा राज्य है कि उसमें भूल की संभावना नहीं है। किसी गणतंत्र या किसी राजा के राज्य में भूल संभव है। जो व्यक्ति प्रकृति के नियम को तोड़ता है तो उसे तत्काल दंड मिलता है। यह प्रकृति का बंधा बंधाया नियम है। प्रकृति के नियम के पालन करने वाला दंड से मुक्ति पाता ही है, उसका लाभ भी उसे तत्काल मिलता है। पुरस्कार तत्काल मिलता है। विपश्यी साधक इसे अच्छी तरह समझने लगता है। वह देखने लगता है कि क्रोध, वासना, द्वेश, ईर्ष्या, वासना जगाने पर तत्काल व्याकुलता आती है। अंतर्मुखी होकर यथार्थ का दर्शन करने लगता है। उसे समझ में आने लगता है कि विकार जगते ही व्याकुलता आती है। वहीं अगर विकार  नहीं जगते हैं तो उसे तत्काल सुख मिलता है। उसे शांति मिलती है। मस्तिष्क स्वस्थ और प्रसन्न होता है। किसी भी पंथ का व्यक्ति हो, उसकी बोली, वेश भूषा, दार्शनिक मान्यता, जाति, पंथ, कर्मकांड, मान्यता कुछ भी हो, विकार जगाने पर दंड मिलता ही है। निर्विकार होने पर पुरस्कार मिलता ही है। सारा अभ्यास, जो विकारों से मुक्त करता है, वह धर्म है। ऊपरी हिस्से के विकारों को नहीं, अंदर से विकारों को समाप्त करने से असल लाभ होता है। मन का संवर करने से कल्याण होता है। सारे मानस पर संवर कर लेने वाला भिक्षु यानी साधक दुखों से मुक्त हो जाता है। विकारों से मुक्त होने से व्यक्ति दुखों से मुक्त हो जाता है।

विपश्यना करने वाला आत्मा, परमात्मा आदि को साइड में रखता है। वह इस पर ध्यान ही नहीं देता कि आत्मा है या नहीं। परमात्मा है या नहीं। अगर है, तब भी और नहीं है तब भी। अगर है तो उसे किनारे रखकर अपने शरीर की अनुभूतियों को जानना है। यह समझना है कि राग और विकार कहां जागा। अनुभव से जानते ही उसे दूर करना है। उसका आरंभ नहीं होने देना है और समझना है कि यह अनित्य है।

सचमुच सारे संस्कार अनित्य हैं। इनका उत्पाद होना और व्यय हो जाना इसका स्वभाव है। यह नहीं बदलता। अनित्यता का स्वभाव नित्य है, यह बना रहता है। संस्कार मरता है, फिर जन्म ले लेता है। प्रतिक्षण इसका पुनर्जन्म होता है। इस तरह से प्रतिक्षण संस्कार बढ़ते रहते हैं, हमेशा नए संस्कार उत्पन्न होते हैं। अगर क्रोध उत्पन्न हुआ तो वह लगातार बढ़ता जाता है। पुराना क्रोध समाप्त हुआ, अगले क्षण फिर उत्पन्न हुआ और बढ़ता गया। घंटों क्रोध बना रहता है। इसी तरह से अगर किसी से प्रेम उत्पन्न हो, भय, वासना उत्पन्न होने पर इसका संवर्धन होता रहता है। पुराना खत्म होता है, नया आता है और पुराने में जो बचा रहता है, उसमें जुड़कर यह बढ़ता जाता है। अगर इसे समता से देखा जाए तो वह संस्कार निरुद्ध (इसका आशय समाप्त होने से है) हो जाता है। इसका शमन होता है, दमन नहीं होता। विकारों का शमन होते ही परम सुख की अनुभूति होती है।

यह कहने से या समझने से बाद नहीं बनती। अनुभूति से जानने पर ही इससे मुक्ति मिलती है। राग द्वेश न जगाने से ही दुखों से मुक्ति मिलती है। पुराने राग द्वेश भी धीरे धीरे खत्म होने लगते हैं। दुख है, दुख का कारण है, उसका निवारण हो सकता है और निवारण ही दुखों की मुक्ति है। इसके लिए खुद प्रयास करना होता है। कोई और तरीका नहीं है कि इसे पढ़कर या समझकर मुक्ति पाई जा सके। किसी दूसरे के करने से किसी अन्य व्यक्ति मुक्ति नहीं मिल सकती। अपने दुखों की मुक्ति के लिए खुद ही कोशिश करनी होती है कि विकार खत्म हो।

आठ तरह की बातें हमारे जीवन में स्पर्श करती रहती हैं। सुख भी आता है, दुख भी आता है, लाभ भी होता है हानि भी होती है, यश भी होता है, निंदा भी होती है। जीत भी होती है हार भी होती है। इसकी वजह से जिसका चित्त विचलित नहीं होता, समता में रहता है, संतुलन बनाए रहता है। ऐसा समता में रहने वाला व्यक्ति अशोक यानी दुखों से मुक्त हो जाता है, नया मैल नहीं चढ़ाता, योगक्षेम से परिपूर्ण होता है। ऐसा मंगल हर गृहस्थ प्राप्त कर सकता है।

जीवन में तमाम सुख आते हैं। कर्मों के प्रभाव से सुख आता है, दुख आता है। कुल मिलाकर कवायद यह करनी होती है कि नए संस्कार न बनने पाएं। हर व्यक्ति अपना मालिक खुद है, अपनी गति खुद बनाता है। पहले जो हुआ सो हुआ, वर्तमान का मालिक अगर व्यक्ति खुद हो जाए तो उसके भविष्य के अपने सभी विकार खत्म हो जाएंगे। व्यक्ति का कल्याण हो जाएगा, उसे दुखों से मुक्ति मिल जाएगी।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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अगर दुख है तो उसका कारण होगा — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


यदि आप शांति की खोज में रहने वालों में से एक है और आप इस श्रृंखला को नहीं पढ़ रहे हैं, तो मेरी सलाह मानिये, और ज़रूर पढ़िए. 

चिंतन मनन से यह (दुःख) दूर नहीं होता, बल्कि सच्चाई में जाना पड़ता है। बगैर सच्चाई जाने उसका निवारण नहीं किया जा सकता। यह कारण भीतर ही मिलता है कि शरीर की संवेदनाओं में क्या बदलाव हो रहा है, जिसकी वजह से दुख हुआ। — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 7

Echo and Narcissus, Painting by John William Waterhouse, 1903
मैं या मेरे के भाव से जितनी ही गहरी आसक्ति होती है, उतना ही दुःख होता है। यह अनुभूति से समझ में आने लगता है — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1



               



सुबह सबेरे मैं शून्यागार की ओर चल पड़ा। घर से हल्का कंबल, जो एसी कमरों में इस्तेमाल करते हैं और बेडशीट लेकर आया था। मैंने कंबल कंधे पर रख लिया। हल्की-हल्की टिप टिप बारिश हो रही थी। अंधेरा भी था। विपश्यना केंद्र की वेबसाइट में मिली जानकारी के मुताबिक मुझे टॉर्च भी ले जाना था। लेकिन टॉर्च मैं घर से लेकर नहीं गया था। पहुंचकर खरीद लेने का निर्देश पत्नी की ओर से था, लेकिन मैंने नहीं खरीदा। यह सोचकर कि इसकी जरूरत नहीं होगी। हालांकि रात में और सुबह सबेरे टॉर्च रहने पर जरूर थोड़ी सी सुविधा होती, लेकिन न होने पर भी कोई खास असुविधा नहीं हुई। रात के अंधेरे में सड़क पर चलना भी एडवेंचर है। अगर सांप बिच्छू और कीड़े मकोड़ों का भय कुछ ज्यादा हो तो टॉर्च जरूरी हो जाता है। इसके अलावा भी सीढ़ियों के उतार चढ़ाव और सड़कों पर सहूलियत के लिए भी जरूरी है। पहाड़ी इलाका होने की वजह से सड़क के बगल में गहरे गड्ढे हैं। हालांकि विपश्यना केंद्र पर इंतजाम इतना चाक चौबंद है कि कहीं गड्ढे, खाईं में गिरने की कोई संभावना नहीं है। इसके अलावा पर्याप्त मात्रा में रोड लाइट्स भी लगी हैं। कभी ऐसा मौका नहीं आया कि बिजली चली गई हो और गहरे अंधेरे में सड़क पर चलना पड़ा हो। अगर गहरे अंधेरे में चलना पड़ा होता तो शायद ज्यादा खतरनाक हो सकता था, क्योंकि बारिश में सड़कों पर फिसलन बहुत ही तेज होती है। फिसलन से बचाव में मेरे सैंडल की भी अहम भूमिका रही, जिसकी गोटियां बहुत बड़ी और सड़क पर थमी रहने वाली थीं। सिर्फ एक बार फिसलन का शिकार हुआ, लेकिन इतना नहीं कि गिर जाऊं। उसके बाद कुछ ज्यादा ही संभलकर चलने लगा।

सुबह छाता लगाकर हाथ में पानी की बोतल और कंधे पर कंबल रखे शून्यागार पहुंचा। कंबल ले जाने की दो वजहें थीं। एक तो गुरु जी ने बता दिया था कि कुछ लोग ठंड लगने की शिकायत करते हैं, उसके बाद मुझे भी ठंड महसूस होने लगी थी। दूसरी वजह यह थी कि पहले दिन जब शून्यागार में मैं लेटा था तो खुले फर्श पर सोने से कमर में ठंड लग रही थी। ऐसा लगता है कि दूसरी वजह ज्यादा जिम्मेदार थी, जिसकी वजह से कंबल लेकर गया था।



शून्यागार में आधे घंटे तक मैं सिर से लेकर पांव तक शरीर के विभिन्न अंगों से गुजरते हुए शारीरिक हरकतों की अनुभूतियां करता रहा। इसी बीच बगल के किसी शून्यागार से तेज खर्राटे की आवाज आने लगी। मुझे यह फील हुआ कि मैं ही एक नहीं हूं, जो शून्यागार में आराम फरमाता हूं। और भी दिग्गज आए हुए हैं। कुछ देर तक मैं खर्राटे सुनता रहा। शारीरिक अनुभूतियों से ध्यान हट ही गया। इस बीच बारिश भी तेज हो गई। बारिश की बूंदों की मधुर आवाज कानों तक पहुंच रही थीं। साथ ही पक्षियों के कलरव की आवाज भी रह रहकर आती रही। इस बीच यह भी याद आता रहा कि शरीर में होने वाली अनुभूतियों को महसूस करना है और जब याद आती थी तो अनुभूति महसूस करने लग जाता। हां, ऐसा होता कि सिर के ऊपरी हिस्से से महसूसना शुरू किया और और पेट-पीठ तक पहुंचते पहुंचते खर्राटे की आवाज या बारिश की बूंदें महसूस करने लगता था।

इस दौरान कुछ कुछ विपश्यना के बारे में और थोड़ा बहुत धर्म के बारे में एक मोटी सोच विकसित होने लगी थी। हालांकि यह संशय बरकरार रहा कि क्या इस तरह से शारीरिक अनुभूतियों से राग, द्वेश निकल जाएगा और दुखों से मुक्ति मिल जाएगी? हालांकि बात तर्कसंगत लगती है कि शरीर तमाम परमाणुओं से बना हुआ है, उसमें हलचल होती है। लेकिन उसकी अनुभूति... यह बड़ा मुश्किल है। बौद्धिक स्तर पर तो यह साफ लगता है कि अपने शरीर की अनुभूति को जानें और उसमें बदलावों को अनुभव करें। लेकिन यह खुद करके देखने वाला काम थोड़ा मुश्किल है। — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



मैं इंतजार कर रहा था कि कोई धम्म सेवक आए और बगल के शून्यागार में शयन साधना कर रहे विपश्यी साधक के खर्राटे पर लगाम लगाए। हालांकि आधे घंटे के इंतजार के बाद भी ऐसा नहीं हुआ। संभव है कि शून्यागार में साधक को डिस्टर्ब न करने का निर्देश हो। भले ही साधक खर्राटासन कर रहा हो।

आखिरकार मैंने भी लेटकर ध्यान केंद्रित करने का मन बना लिया। कंबल बिछा लेने की वजह से लेटने पर पीठ व कमर में ठंड नहीं लग रही थी। साथ ही बैठने वाला आसन सिर के नीचे लगाने के बावजूद उसमें से बदबू नहीं आई क्योंकि वह कंबल से ढका हुआ था। थोड़ी देर तक लेटकर मैंने ध्यान लगाने की कोशिश की।  लेकिन शरीर को उचित तापमान पर आराम मिला और आखिरकार मैं भी सो गया।

एक घंटे के करीब सोने के बाद फिर वही कवायद। नाश्ते के लिए भागना। धुलने के लिए कपड़े देना और धुले हुए कपड़े वापस लाना। नहाना और उसके बाद ध्यान केंद्र में पहुंच जाना। दो दिन पूरे हो गए थे, इसलिए शून्यागार में जाने की गुंजाइश भी नहीं बची थी। हॉल में जाकर ध्यान करने का विकल्प ही बचा रह गया।

सुबह 8 बजे से लेकर 11 बजे तक शरीर की अनुभूतियों, शरीर में होने वाली हलचलों को महसूस किया और उसके बाद 2 घंटे तक खाने और आराम करने के लिए वक्त। उसके बाद फिर से 1 बजे से लेकर 5 बजे तक वही कवायद शुरू करना होता था।

ध्यान में थोड़ा बदलाव भी किया गया। गुरु जी की ओर से यह एक नई राहत थी। कुछ भी नया करने में थोड़ा रूटीन बदलता, तो वह अच्छा लगता था। सर के ऊपरी हिस्से से लेकर पांव तक संवेदनाओं को 24 घंटे तक महसूस कर लेने के बाद गोयनका जी ने बताया कि अब उल्टा भी महसूस करें। सिर से लेकर पांव तक संवेदनाएं महसूस करते हुए जाएं, उसके बाद फिर पांव के तलवे से संवेदना महसूस करते हुए सिर के ऊपरी छोर तक पहुंचना। नियमों के फेरबदल से दिलचस्पी बढ़ जाती थी। बोझिल मामला थोड़ा हल्का हो जाता था कि आज कुछ नया हुआ।

दोपहर को जब ध्यान के बीच में 5 मिनट का विश्राम होता था, वह वक्त बहुत कम रहता। अगर पेशाब भी करना है और पानी भी पीना है तो दोनों दो अलग दिशाओं में होने के कारण स्वाभाविक रूप से 5 मिनट से ज्यादा समय लग जाता था। उसके अलावा बैठे बैठे ध्यान करने के बाद बाहर निकलकर शांत वातावरण, खुली हवा में सांस लेने का आनंद भी बहुत बेहतर अनुभूति देता। लेकिन घंटी बाबा पहुंच जाते और वे तत्काल प्रभाव से घंटी टुनटुनाने और हांकने का काम शुरू कर देते थे।

बोलना तो मैं खूब चाहता था, लेकिन बोलता नहीं था। इससे अपनी साधना टूटने का कोई भय नहीं रहता, लेकिन यह सोचकर नहीं बोलता था कि दूसरे लोग जो कुछ हासिल करने या किसी सांसारिक दुख का निवारण करने आए हैं, वह लोग किसी भी हाल में मेरी वजह से डिस्टर्ब न हों। लेकिन जब ब्रेक में मैं निकला तो एक विपश्यी टकरा गए। उन्होंने भी मेरी ओर देखे बगैर कहा कि बड़ी मुश्किल है। वैसे ही वह अपने में फुसफुसाए, क्योंकि कोई साधक किसी से बोलता नहीं था। इसकी मनाही थी। लेकिन जब वह फुसफुसाए तो मुझे भी कुछ कहने का मौका मिल गया। मैंने कहा कि भाई साब आपसे किसी ने दुश्मनी निकाल ली। जिसने आपको यहां भेजा है, सोचिए कि कौन है? उन्होंने उसी गंभीरता से धीरे से कहा कि मौसी का लड़का है। मैंने कहा कि बचपन में उसको आपने पीटा होगा, इसलिए उसने दुश्मनी निकाल ली। यह कहते ही मेरी हंसी फूट पड़ी। ऐसी हंसी, जो रुक ही नहीं रही थी। शांति पठार के शांति की ऐसी की तैसी कर दी मेरी हंसी ने। साथ चल रहे सज्जन सीरियस थे, लेकिन मेरी हंसी रुक ही नहीं रही थी। उन्होंने कहा कि पहले बार बार मन में खयाल आता था कि घर द्वार छोड़कर सन्यास ले लूं। अब यहां विपश्यना करने के बाद जो सन्यास देख रहा हूं, ऐसा लगता है कि घर जाने के बाद कभी सन्यास लेने का खयाल मन में नहीं आएगा। उनके यह कहने के बाद मेरी हंसी और तेज हो गई।

इसी बीच एक धम्म सेवक आ टपके। उन्होंने पहले हमारे साथी को धमकाया कि आप तो बुजुर्ग लगते हैं। इस तरह से बात कर रहे हैं। उनकी ज्यादा गलती नहीं थी। मुझे तेज हंसी आ रही थी। उसकी वजह से शांति पठार की शांति भंग हो रही थी। हालांकि उन्होंने सॉरी बोला और पेशाब करने बढ़ गए। उसके बाद धम्म सेवक मुझसे लड़ पड़ा। बोला कि दो दिन से देख रहा हूं कि आप बात कर रहे हैं। आपसे हाथ जोड़ते थक गया। मान ही नहीं रहे हैं। क्या नाम है आपका, कहां रह रहे हैं ? अभी आपको गुरु जी के पास ले चलता हूं। साधना करनी है कि नहीं।

मुझे उसका चींखना चिल्लाना देख-सुनकर गुस्सा आ गया। मैंने कहा कि आप झूठ बोल रहे हैं। कल कब देखा बात करते। फिर उन्होंने कहा कि चलिए आपको गुरुजी के पास ले चलते हैं, बहुत बहस कर रहे हैं। मुझे थोड़ा और गुस्सा आया। मैंने कहा कि तुम धमकी दे रहे हो? चलो मैं तुमको तुम्हारे गुरु जी के पास ले चलता हूं। उसके बाद धम्म सेवक महोदय शांत हुए। उन्होंने हाथ जोड़ा और कहा कि अब आप शांत रहिए, कृपया मौन बनाए रहें।



यह गतिविधि देखकर लगा कि इन धम्म सेवकों को कोई खास प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। कुछ सामान्य निर्देश दिए जाते हैं और उसके बाद यह अपने विवेक से काम करते हैं कि किससे लड़ना है। किसका दरवाजा पीट देना है। किसके दरवाजे के सामने घंटी बजानी है। किसके दरवाजे के सामने ज्यादा घंटी बजानी है। हालांकि मुझे फील हुआ कि विपश्यना केंद्र पर इन धम्म सेवकों को साधकों से लड़ने की अनुमति नहीं होती। इन्हें पर्ची मिली होती है और अगर कोई साधक किसी नियम का उल्लंघन कर रहा हो तो धम्म सेवक उस व्यक्ति का नाम और आवास संख्या पूछकर पर्ची काट देते हैं और पर्ची काटने की वजह उसमें लिख दी जाती है। भोजनालय में देर तक बैठने की पर्ची पहले ही कट चुकी थी। और जो धम्म सेवक मुझसे लड़ रहा था, वह भी बेचारा बार बार पर्ची और पेन के लिए अपनी जेब की ओर हाथ बढ़ाता था, लेकिन वह शायद पर्ची और पेन भूल आया था। मुझसे मेरा कार्ड मांग रहा था, जिस पर मेरा विस्तृत ब्योरा होता, लेकिन मैं वह लेकर नहीं घूमता था, वह कमरे पर ही पड़ा रहता था।

इतने के बाद मामला रफा दफा हो गया। धम्म सेवक ने मुझे जाने की इजाजत दे दी और मैं हॉल की ओर बढ़ चला। हॉल में फिर वही ऊपर से नीचे तक और फिर नीचे से सिर के सबसे ऊपरी हिस्से तक संवेदनाओं को महसूस करना। 5 बजे भवतु सब्ब मंगलं हो गया और साधु साधु करते हम नाश्ते के लिए भोजनालय की ओर दौड़ पड़े।

शाम की 6 बजे से 9 बजे तक की सामूहिक साधना चलती थी, जिसमें डेढ़ घंटे तक गोयनका जी का प्रवचन चला। इस दौरान कुछ कुछ विपश्यना के बारे में और थोड़ा बहुत धर्म के बारे में एक मोटी सोच विकसित होने लगी थी। हालांकि यह संशय बरकरार रहा कि क्या इस तरह से शारीरिक अनुभूतियों से राग, द्वेश निकल जाएगा और दुखों से मुक्ति मिल जाएगी? हालांकि बात तर्कसंगत लगती है कि शरीर तमाम परमाणुओं से बना हुआ है, उसमें हलचल होती है। लेकिन उसकी अनुभूति... यह बड़ा मुश्किल है। बौद्धिक स्तर पर तो यह साफ लगता है कि अपने शरीर की अनुभूति को जानें और उसमें बदलावों को अनुभव करें। लेकिन यह खुद करके देखने वाला काम थोड़ा मुश्किल है।

कल्पना से नहीं, अनुभूति से सच्चाई को जानना है। अनित्य का अनुभव करना है। अनित्य के साथ तादात्मय स्थापित करके उससे मुक्त होते चले जाना और नए कर्म नहीं बनाना और पुराने को निकालते जाने से ही सत्य की अनुभूति होगी। अंतर्मन के स्वभाव को पलटना प्रमुख है। कोई निर्माण नहीं करना है, कुछ आरोपित नहीं करना है। सच्चाई को देखना है। जब यह अनुभूति करने लगेंगे तो यह महसूस होने लगेगा कि संसार के सभी प्राणी दुखी हैं। दुख है, यह सत्य है। यह जीवन जगत की सच्चाई है, इसे नकारा नहीं जा सकता।
अगर दुख है तो उसका कारण होगा। कुछ अकस्मात नहीं होता। कारणों से ही दुख की उत्पत्ति होती है। अगर कारणों को दूर कर दिया जाए, उसका निवारण कर दिया जाए तो दुख दूर हो जाएगा। अगर दुख को साक्षी भाव से देखते देखते गहराइयों तक चले जाएंगे तो दुख का असल कारण पकड़ में आ जाएगा। जड़ों से दुख का कारण निकालने के लिए दुख को साक्षी भाव से देखेंगे, उसे केवल देखेंगे तो यह साफ हो जाएगा कि दुख है। यह साफ हो जाएगा कि दुख है, यह समझ में आ जाए तो यही आर्य सत्य हो जाएगा। साक्षी भाव से दुख को देख लिए तो यह पहला आर्य सत्य है। उसके कारण को अनुभूति से जानें। कारण को भी भोक्ता भाव से नहीं साक्षी भाव देखेंगे तो यह कारण भी आर्य सत्य हो जाएगा। सही कारण पकड़ में आएगा। जब कारण पकड़ में आ जाए तो उसे निकलने का रास्ता भी निकाल लिया। कारण का निवारण संभव है, यह पता चल गया तो यह भी आर्य सत्य हो गया। इस तरह से अनुभूति कर उस कारण को भी दृश्टा भाव से साक्षी भाव से देखना शुरू करेंगे तो स्वभाव पलट जाएगा और उसका निवारण हो जाएगा तो यह निवारण भी आर्य सत्य बन जाएगा।

जन्म लेते ही बच्चे की जरूरतें शुरू हो जाती हैं। पहली जरूरत बच्चे को सांस की होती है। पैदा होते ही बच्चा चिल्लाता है। उसे सांस मिल जाती है। उसके बाद भूख। तमाम बीमारियां आती हैं। वह दुख पैदा करती हैं। तमाम इच्छाएं जगती हैं, उसके न मिलने का दुख होता है। तमाम प्रिय चीजें, वस्तुएं, लोगों के बिछड़ने का दुख होता है। तमाम अप्रिय चीजें पास आने पर दुख होता है।

चिंतन मनन से यह दूर नहीं होता, बल्कि सच्चाई में जाना पड़ता है। बगैर सच्चाई जाने उसका निवारण नहीं किया जा सकता। यह कारण भीतर ही मिलता है कि शरीर की संवेदनाओं में क्या बदलाव हो रहा है, जिसकी वजह से दुख हुआ। जो कुछ कामना की जाती है, वह पूरी न होने पर बहुत दुख होता है। यह बुद्धि से समझने पर समझ में आता है कि ऐसा होने की वजह से दुख हुआ, लेकिन अनुभूति के स्तर पर देखे बगैर इसका निवारण नहीं हो सकता। शरीर की पीड़ा बढ़ती जाती है और व्यक्ति ब्याकुल होता जाता है। अनुभूतियों के स्तर पर समझने पर यह समझ में आता है कि यह कामना पूरी नहीं होने पर क्या बदलाव हुआ, जिसकी वजह से दुख हुआ। संक्षिप्त होकर इसकी गहराइयों में देखने पर बात समझ में आता है कि दुख का सही स्वरूप क्या है। इससे साफ होता है कि उस दुख से चिपकाव या आशक्ति पैदा कर ली गई, जिसकी वजह से दुख पैदा होता है। मैं या मेरे के भाव से जितनी ही गहरी आसक्ति होती है, उतना ही दुःख होता है। यह अनुभूति से समझ में आने लगता है।



आसक्तियां व्याकुल करती हैं। तृष्णा- यह दुख का ही एक स्वरूप है। जो कुछ है, उससे तृप्ति नहीं है, जो नहीं है उसकी इच्छा होती है। इसी को तृष्णा कहते हैं। तृष्णा ही हमको व्याकुल करने के लिए बहुत है। अगर तृष्णा के प्रति आशक्ति हो जाए तो व्याकुलता कई गुना बढ़ जाती है। अगर किसी को खुजली हो जाए तो खुजलाने की इच्छा होती है, खुजलाने की तृष्णा जागती है। उसे खुजलाते हैं। लेकिन वह खुजलाने की तृष्णा पूरी नहीं होती। एक तृष्णा के बाद दूसरी तृष्णा जागती जाती है। प्रज्ञा यानी प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव से ही इसे जाना जा सकता है। उसे ही देखना होता है कि संवेदना क्यों जागी। शरीर की विभिन्न इंद्रियों की वजह से संवेदना जगती है और उससे राग और द्वेश जगता है। जन्म के बाद से कर्म संस्कार बनाते हैं। लोग प्रतिक्षण कर्म का संस्कार बनाते हैं और उसके मुताबिक राग द्वेश जगता जाता है। जो ज्ञान स्ववेदन से जाना जाता है, वही सत्य होता है।

अविद्या की वजह से संस्कार बनते हैं। वेदना अगर है तो विद्या है, वेदना नहीं है तो अविद्या है। स्ववेदन से जागा ज्ञान विद्या है। स्ववेदन से पता चलेगा कि दुख है, दुख का कारण है, देखते देखते स्वभाव को तोड़ लें तो उसका निवारण है, अगर इस अनुभूति तक पहुंच गए कि तृष्णा या दुख जागे ही नहीं तो यह इसका नितांत निरोध है। अगर इसको अनुभूति के स्तर पर नहीं जानें तो यह केवल बुद्धि विलास है। बगैर अनुभव के विद्या नहीं है, अविद्या ही अविद्या है। अविद्या अगर जड़ों से दूर हो जाए, वेदना को जानते रहें तो कष्टों का निवारण हो जाता है।

घंटों बैठे रहने, हाथ पांव, आंख न खोलने पर हाथ, पांव सब दुखने लगता है। दर्द ही अनुभूति होने लगती है और लगने लगता है कि कितनी मुसीबत में फंस गए। एक एक मिनट घंटे के बराबर लगने लगता है। उस समय जो गुरु जी की आवाज आती है तो लगता है कि अब इस बंधन से मुक्ति मिलने वाली है। वह गजब की खुशी देती है। इसी तरह तमाम सांसारिक बंधनों में व्यक्ति बंधा रहता है। अगर इन बंधनों से मुक्ति मिल जाए तो...

अगले सप्ताह पढ़ें आठवां भाग



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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कि मैं और मेरा कुछ नहीं है — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


photo: dnaindia.com

तीसरा छोटी घंटी होती है, जिसका इस्तेमाल साधकों को हांकने के लिए धम्म सेवक लोग करते थे...

सम्यक दर्शन वह है, जो सच्चाई अपनी अनुभूति पर उतरे। सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई, तर्क वितर्क करके मानी गई बात सम्यक दर्शन नहीं है। खुद अनुभूति करने वाला सत्य, सम्यक दर्शन है। — सत्येंद्र प्रताप सिंह 

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 5

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1




विपश्यना की इस अवधि के दौरान सुबह 4 बजे उठकर फ्रेश होना व ब्रश करके धम्म हॉल में साढ़े चार बजे पहुंचना सबसे कड़ी सजा और एक साथ कराहती हुई तीन बार सुनाई देने वाली भवतु सब्ब मंगलं की आवाज कैद से रिहाई लगने लगी। अलार्म घड़ी की जरूरत पड़नी ही बंद हो गई। धम्म सेवक की धमक और उनकी घंटी की टुनटुनाहट का एक नैतिक दबाव होता था, जिसमें सुबह सबेरे उठ जाना पड़ता था। तीसरे रोज मे लगने लगा कि घंटी बाबा घंटी बजाकर दफा हो जाएं, आज तो मैं नहीं जाने वाला। घंटी बाबा ने उस रोज दरवाजा भी पीट दिया। हालांकि गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन मैंने दरवाजा खोलकर चींखने चिल्लाने और घंटी बाबा को खदेड़ देने के बजाय उठकर मेडीटेशन हॉल में जाने में ही भलाई समझी। जल्दी जल्दी फ्रेश होने के बाद करीब साढ़े 5 बजे हॉल में पहुंचा। उस वक्त तक असिस्टेंट टीचर लोग आकर बैठ चुके थे।




करीब एक घंटे तक ही ध्यान करना पड़ा, उसके बाद भवतु सब्ब मंगलं और साधु साधु हो गया। ध्यान कोई खास बोझिल नहीं लगा। साढ़े छह बजे नाश्ता करने के बाद कपड़े लेकर कमरे पर आया और नहाने के बाद सोया भी। मन में यह चल रहा था कि सीरियस होकर ध्यान लगाना चाहिए। इतने दिन तक घर छोड़कर यहां रह रहे हैं तो संभव है कि ध्यान लगाने से कुछ सकारात्मक हासिल हो जाए।

यह सब सोचते हॉल में पहुंच गया। लेकिन सब दर्शन धरा का धरा रह गया, जब पालथी मारकर बैठने की बारी आई। हालांकि मैं अकेला नहीं था, तकलीफ ज्यादातर लोगों को हो रही थी। तीन घंटे बैठने के दौरान एक एक घंटे के अंतराल पर 5 मिनट की दो छुट्टियां होती थीं। इस दौरान बेचैनी ने लोगों को शायद कुछ नया ईजाद करने को मजबूर किया, जिससे ध्यान केंद्रित हो सके। मैंने पाया कि कुछ लोग जब सीधे बैठते थे तो अंगूठा और पहली उंगली मिलाकर गोल आकृति बनाते थे, जैसा कि बुद्ध के फोटो में मिलता था। उस ध्यान की तकलीफ में बुद्ध बनने की दिशा में यह अच्छा प्रयत्न लगा। कुछ लोग ऐसे भी दिखे, जो एक हाथ के ऊपर दूसरा हाथ रखकर बैठते थे। यह भी बुद्ध की एक मुद्रा है, शायद इससे वह लोग बुद्ध हो जाने और दुखों से मुक्ति पा जाने की फीलिंग लेते थे।

ऐसा नहीं कि सभी लोग बेचैन ही रहते थे। अगली दो पंक्तियों में जो बैठे थे, वे ज्यादातर सीरियस रहते थे। उन्हें किसी कुर्सी की जरूरत भी नहीं हुई। एक अधेड़ से व्यक्ति तो बिल्कुल 90 अंश पीठ सीधी करके बैठे रहते। इतना ही नहीं, वह बाकायदा पैंट शर्ट पहनकर बैठते। बाल तो उनका बेहद करीने से सजा रहता। पूरी खोपड़ी के ऊपरी हिस्से का बाल उड़ चुका था। बाईं ओर कान के पास बचे बालों के अवशेष को वह कुछ ज्यादा बढ़ाए हुए थे। इतना बड़ा कि उस अवशेष बाल की लड़ियों से अपने गंजे सर को ढंकते हुए दाहिने कान की ओर ले जाते थे। वह भी बड़े सलीके से चिपके हुए। ऐसा लगता था कि कोई क्रीम लगाकर उसे गंजी खोपड़ी पर फिक्स कर लिया गया हो। कहने का मतलब यह कि अगली पंक्ति में बैठे उस अधेड़ साधक के ऊपर रूटीन बदल जाने का कोई असर नही था और वह बड़ी गंभीरता से साधना करते थे। उनकी मुद्रा में कोई बदलाव कभी नहीं आया।
हां, मैं जरूर पीड़ा में था। जब पीड़ा ज्यादा होती तो मैं अगली पंक्ति का निरीक्षण करता। राहत मिलती थी। यह फीलिंग आती कि मैं तो पहली बार आया हूं... मेरे आगे बैठे लोग तो दूसरी, तीसरी बार फंसे हैं। यह सोचकर सुकून मिलता। अगली पंक्ति में बेचैन लोगों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम थी। पहली बार आए साधकों की हालत ज्यादा खराब थी। यह सब मुझे बहुत फनी लगा। 3 घंटे बीत गए।




इस रोज मैंने पहले जाकर थोड़ा आराम किया, फिर खाने पहुंचा। मकसद यह था कि लंबी लाइन से बचा जा सके। लाइन से बच भी गया। लेकिन मुझे खाना खाने में ज्यादा ही वक्त लगता है। खासकर खाना अगर मुंह के अनुकूल न हो तो समय लग जाता है। खाने में मुझे करीब 45 मिनट लग गए। सब्जी-रोटी निगलने में दिक्कत होने की वजह से। सवा बारह बजते ही एक धम्म सेवक धमक पड़े। उन्होंने बड़े प्यार से नाम पता पूछा। पता से आशय गृह जनपद या जन्म स्थान से या आधार कार्ड पर लिखे पते से नहीं था। उन्होंने इतना जानना चाहा कि विपश्यना केंद्र में रहने के लिए मुझे कौन सा आवास आवंटित हुआ है। उन्होंने एक पर्ची काट दी और मुझे थमा दी। उन्होंने कहा कि 12 बजे धम्म हॉल में गुरु जी को दे दीजिएगा।

मैं 12 बजे जाने के मूड में नहीं था, लेकिन एक पर्ची धम्म सेवक ने थमाई थी, एक पर्ची पहले से ही मेरे आवास के बाहर लगी थी कि धम्म हॉल में पहुंचें। मतलब गुरु जी का बुलौवा पहले से चिपका था। आखिरकार मुझे गुरु जी के पास जाने का फैसला करना पड़ा। उसी ध्यान कक्ष में। उसी मुद्रा में गुरु जी के सामने बैठ गया, जैसे इसके पहले बैठा था। उन्होंने ध्यान के बारे में पूछा। मैंने कहा कि यह बहुत बोझिल काम है। इसमें कैसे मन लग सकता है, कैसे ध्यान केंद्रित हो सकता है। गुरु जी ने कहा कि पहले की तुलना में तो आप अब ज्यादा सीरियस बैठते हैं। आंख भी बंद रखते हैं। पहले तो आप दूसरों का मुंह ही देखते रहते थे। इतना बदलाव तो दिख रहा है। मैंने भी हामी भरी कि अब थोड़ा सीरियसली बैठने की कवायद कर रहा हूं।

मैंने गुरु जी को अपनी समस्या से भी अवगत कराया। तीसरे दिन मुझे पता चल गया कि यह सड़ी सी मोजे की बदबू कहां से आती है। रोजाना तेज बारिश की वजह से लोगों के पैरों की नमी हॉल में आती थी और उससे आसन में सिलन लग गई थी, जिससे हल्की बदबू महसूस होती थी। तीन रोज तक तो मैं यह ही सूंघता रह गया था कि मेरे आस पास बैठा वह कौन आदमी है, जिसका मोजा बास मारता है। इस समस्या का समाधान तो गुरु जी भी नहीं कर सकते थे। मैंने यह समस्या कही भी नहीं। दूसरी समस्या यह थी कि खूबसूरत और हवादार बने धम्म हॉल की सभी खिड़कियां धम्म सेवक लोग बंद कर दिया करते थे। इसकी वजह से हॉल में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ जाता था और बड़ी जोर की नींद आती थी। ऐसा अनुभव कभी कभी ऑफिस में भी हुआ है। छुट्टियों में टेक्निकल स्टॉफ देर से आते हैं और ऑफिस का एसी ऑन नहीं होता है तो बेचैनी, नींद जैसी समस्या मैंने फील की है। धम्म हॉल में होने वाली यह समस्या मैंने गुरु जी को बताई। उन्होंने कहा कि कुछ लोग ठंड लगने की शिकायत करते हैं, जिसकी वजह से धम्म सेवक खिड़कियां बंद कर देते हैं। मैं उनसे कह दूंगा कि कुछ खिड़कियां खुली रखें। साथ ही जब लोग बाहर निकलते हैं तो पंखे चलाकर कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकाल दें। उन्हें मेरी यह समस्या जेन्यून लगी।

गुरु जी ने कहा कि घर परिवार छोड़कर आए हैं तो प्रयास करें कि कुछ लेकर जाएं। वही इमोशनल ब्लैकमेलिंग, जो मेरे दिमाग में पहले चल चुका था कि आए हैं तो सीरियस होकर कुछ ध्यान ही कर लें। हो सकता है कि फायदा हो जाए। मैंने भी हां में हां मिला दी कि अब कोशिश कर रहा हूं कि कुछ ध्यान वगैरा केंद्रित हो जाए। गुरु जी ने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप सबसे बेहतर अनुभव लेकर जाएं। हालांकि उनके यह कहने का मेरे ऊपर कोई क्रांतिकारी असर नहीं पड़ा।

उन्होंने पूछा, “कुछ सोचकर आए होंगे, कुछ समस्या होगी, जिसका समाधान होगा।“

मैंने कहा, “बिल्कुल नहीं। मुझे कोई समस्या है ही नहीं। और ऐसी कोई समस्या तो बिल्कुल नहीं है, जिसका समाधान यहां आने पर हो जाए। न तो मैं कोई समस्या लेकर आया हूं और न समाधान सोचकर।“






उन्होंने कहा कि कुछ सोचकर तो आए होंगे। मैंने कहा कि खूबसूरत पहाड़ियों और बुद्ध के दर्शन ने मुझे आकर्षित किया। मैंने उन्हें धम्म सेवक द्वारा दी गई दूसरी पर्ची पकड़ा दी। वह मुस्कराए और कहा कि आप आराम करने चले गए होंगे, खाना खाने देर से पहुंचे। मैंने कहा, ऐसा कुछ नहीं है। मुंह का ऑपरेशन होने से खाने में देरी लगती है और कोई ऐसी सब्जी वगैरा हो, जिसे निगलने में दिक्कत हो तो ज्यादा वक्त लग जाता है। गुरु जी ने कहा कोई बात नहीं, मैं बोल दूंगा। आप अपनी सुविधा मुताबिक वहां बैठकर खाना खा सकते हैं। यही सब खुसुर-फुसुर वार्ता हुई। फिर मैं कमरे सोने पर चला आया।

इसके बाद तपस्या से जूझना था। सामूहिक ध्यान ढाई से साढ़े तीन बजे तक हुआ। फिर हमारे बैच को गुरु जी ने बुलाया। इस बार मैंने उचककर देखा तो जिन छह लोगों को मेरे साथ बुलाया जाता था उनमें से एक एमबीबीएस, दो एमबीए, दो बीई डिग्रीधारक थे। मैं ही वहां सबसे कमजोर डिग्री वाला था। मतलब पीजी तो मैं भी हूं। लेकिन सामान्यतया माना जाता है कि जो गदहा बच्चे होते हैं, वही बीए, एमए, बीएड वगैरा करते हैं। ऊपर से मास्टर इन जर्नलिज्म। मतलब कि आदमी किसी काम का न हो तो चलो यह भी कर लें, टाइप की एक और डिग्री। संदेह तो मुझे पहले से ही था कि हॉल में बैठे ज्यादातर लोग इलीट हैं, लेकिन जब यह सूची देखी तो मेरा संदेह और पुख्ता लगने लगा।

उस रोज मुझे पगोड़ा के शून्यागार का आवंटन हो गया। मतलब तीसरे, चौथे दिन और पांचवें दिन की सुबह मैं शून्यागार में ध्यान कर सकता था। मुझे थोड़ी खुशी हुई कि शून्यागार में क्या होता है, शून्यागार कैसा होता है, यह देखने का मौका मिलेगा। वहां ध्यान लगाने पर हो सकता है कि ध्यान का कुछ केंद्रण हो।

मैं उसी रोज शून्यागार देखने चला गया। वहां खड़े धम्म सेवक ने मेरा नाम शून्यागार में लगी सूची से मिलाया और शून्यागार संख्या बता दी। नया नया साधक सबसे नीचे वाले शून्यागार में साधना करने को पाता है। मैंने कमरे का निरीक्षण किया, कुछ देर ध्यान में बैठा। फिर वापस चला गया कमरे में सोने।

विपश्यना केंद्र पर घंटा बजने में कोई सिमिट्री नहीं होती थी। अगर शाम के 5 बजे हैं तब भी करीब 8 बार टन, टन की आवाज आती थी। सुबह सबेरे 4 बजे भी आठ बार ही घंटा बजता था। मेरे पास कलाई घड़ी नहीं थी। मोबाइल ने ऐसी आदत डाली है कि कलाई घड़ी खत्म ही हो गई है। मोबाइल आने के बाद से उसी में समय देखने की आदत सी हो गई है। विपश्यना केंद्र में मोबाइल जमा करा लिया गया था, जिसकी वजह से टाइमिंग की दिक्कत होती थी। घंटी उस तरह से नहीं बजती, जैसा हम लोगों के स्कूलों में बजती थी। स्कूल में अगर पहला पीरियड खत्म होता तो एक बार, पांचवां पीरियड खत्म होने पर 5 बार और छुट्टी होने पर लगातार टन..टन.. टन.. टन.. घंटी बजती थी।

विपश्यना केंद्र पर स्कूल की घंटी से इतर व्यवस्था है। घंटी भी तीन तरह की। एक बड़ा वाला घंटा, जो कहीं दूर बजता था, तेज आवाज में। दूसरा तवे के आकार की घंटी थी, जैसा कि स्कूलों में होती है। यह धम्म हॉल के बाहर लगी होती है। तीसरा छोटी घंटी होती है, जिसका इस्तेमाल साधकों को हांकने के लिए धम्म सेवक लोग करते थे। इसे वो हाथ में लिए रहते थे और समय पूरा होने पर टुनटुनाने लगते थे।

यह घंटी और घंटे मेरे लिए व्यवस्था का प्रश्न बन गए कि आखिर इसके बजने में कोई सिमिट्री है भी या ऐसे ही जब मन होता है और जैसे मन होता है, बजाते रहते हैं। व्यवस्था संबंधी प्रश्न धम्म सेवकों से पूछने का निर्देश था। मैंने अपने मेडीटेशन हॉल के सामने एक धम्म सेवक को पकड़ा, जो घंटी बजाते थे। उन्हें मझले और छोटे आकार की घंटी बजाते हुए देखता था। छोटी घंटी का मतलब तो मैं समझ गया था। जब साधकों को हांककर धम्म हॉल में ले जाना होता था, तब उसका इस्तेमाल किया जाता था। मझले और बड़े घंटे के बजने का क्रम और वजह साफ नहीं हो रहा था। मैंने उनसे कहा कि व्यवस्था संबंधी एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूं। यह घंटी आपने तीन बार क्यों बजाई। उन्होंने कहा कि ऐसे ही शुरू से ही हम लोग बजाते और सुनते आए हैं, इसलिए। फिर मैंने उनसे पूछा कि छुट्टी के वक्त भी आप तीन बार ही घंटी बजाते हैं, उस समय तो टन..टन.. टन.. टन... करके लगातार घंटी बजाना चाहिए। हमारे स्कूल में ऐसा ही होता था और हम समझ जाते थे कि छुट्टी हुई। लेकिन आप लोग तीन बार ही घंटी बजाते हैं। धम्म सेवक हंसने लगे। कहा कि यह तो मुझे नहीं पता, मैंने सोचा भी नहीं कि ऐसा क्यों किया जाता है। बहरहाल, पहली बार मैंने वहां किसी को हंसते देखा। वर्ना पहले ही तमाम जगहों पर निर्देश लिखे थे कि सर नीचे करके चलें, जिससे किसी साधक की नजर से नजर न मिले। किसी दूसरे की साधना आपकी वजह से भंग न हो। मैं नजरें नीची करके नहीं चलता था, सबको देखते-ताकते ही चलता था, लेकिन अन्य लोग भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते और मैं भी नहीं देता था। कुछ लोग सर नीचे करके भी चलते थे। ऐसे में तीसरे दिन धम्म सेवक की हंसी थोड़ा अलग लगी, उसके पहले किसी को मुस्कुराते देखा भी नहीं हुआ। हालांकि घंटी समस्या अनुत्तरित ही रह गई कि इसको बजाने में कोई सिमिट्री है या यूं ही बजाया जाता है।

शाम पांच बजे नाश्ते के बाद धम्म हॉल में पहुंचा। शाम 6 से 9 का समय सामूहिक ध्यान और प्रवचन का होता है, उस वक्त पगोडा में नहीं ध्यान करना होता है। एक घंटे तक ध्यान के बाद गोयनका जी की मधुर आवाज में प्रवचन चला। उन्होंने बताया कि कल प्रज्ञा के क्षेत्र में अपना कदम रखेंगे। अब तक शील के आधार पर समाधि का अभ्यास करते रहे। आनापान की साधना से मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते रहे। शील का पालन कल्याणकारी है, इससे व्यक्ति तमाम दुखों से छुटकारा पाता है। व्यक्ति खुद को दुखी नहीं करता, दूसरे को दुख नहीं पहुंचाता। केवल शील पालन से सभी दुख से मुक्ति नहीं मिलती। उसके लिए समाधि जरूरी है। हमें सम्यक समाधि की ओर जाना है। सम्यक समाधि के लिए शील करना है। केवल समाधि से मुक्ति नहीं मिल सकती। जितनी बार विकार जागे और उसे समाधि से दबाया जाए तो विकार भीतर दब जाएगा। लेकिन वह विकार कभी भी फूट सकते हैं। जब तक अंतरमन की गहराइयों में दबे विकारों से छुटकारा न पा लें, तब तक सही मायने में छुटकारा नहीं मिलता। परिपूर्ण रूप से चित्त के शोधन का काम प्रज्ञा से होता है। शील, समाधि के लिए और समाधि, प्रज्ञा के लिए। प्रज्ञा, विमुक्ति के लिए। यह प्रक्रिया है।






प्रज्ञा क्या है? धम्म के 3 अंग शील में हैं, 3 अंग समाधि में। आठ अंग वाले धम्म में शेष 2 अंग प्रज्ञा में हैं। प्रज्ञा में सम्यक संकल्प, सम्यक दृष्टि। हमारे संकल्प विकल्प चलते हैं, लेकिन इसमें बदलाव आना चाहिए। नया साधक जब आता है तो जिन विकारों का असर है, उसका विचार आता है। जैसे ही सांस का काम, मन का ऑपरेशन शुरू करते हैं तो किसी के प्रति क्रोध, काम वासना, प्रेम आदि के विचार आते हैं। लेकिन कुछ चिंतन के बाद दूषित विचार खत्म होने लगते हैं। लेकिन कुछ विकार रहते ही हैं, लेकिन उसके रहते भी सम्यक दर्शन भी शुरू हो जाता हैं। दर्शन के तमाम अर्थ हैं और उसके उसके अर्थ बदलते हैं। बाहरी चीजें देखने और ध्यान करने के अर्थ में बुद्ध के काल में दर्शन शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था। हर संप्रदाय के लोग अपनी अपनी दार्शनिक मान्यता को दर्शन कह देते हैं, लेकिन यह भी सम्यक दर्शन नहीं है।

सम्यक दर्शन वह है, जो सच्चाई अपनी अनुभूति पर उतरे। सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई, तर्क वितर्क करके मानी गई बात सम्यक दर्शन नहीं है। खुद अनुभूति करने वाला सत्य, सम्यक दर्शन है। अपनी अनुभूति का विश्लेषण व विघटन करने को सम्यक दर्शन कहा जाता है। उसका विभाजन करते करते अंतिम सत्य को अपनी अनुभूति से जानने को सम्यक दर्शन कहा जाता है। सिद्धार्थ को जो प्रज्ञा, जो बोधि जागी, उसने सिद्धार्थ को मुक्ति दी उससे और किसी को मुक्ति नहीं मिली। अपनी अनुभूति के ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। श्रुति ज्ञान या सुनकर जाने ज्ञान से अंध श्रद्धा हो सकती है। दूसरा स्तर यह होता है कि सुनी बात को तर्क की कसौटी पर चिंतन करके कसा जाता है। जो विभिन्न संप्रदाय हैं, उसे अंध श्रद्धा या भय के नाते या प्रलोभन के कारण लोग उसे मानने लगते हैं। संप्रदाय मरने के बाद का भय दिखाते हैं जैसे पाप लगेगा, नर्क जाओगे, इसके आधार पर लोग इसे मानने लगते हैं। संप्रदाय मरने के बाद का लाभ भी दिखाते हैं, जैसे कि मरने के बाद अप्सराएं मिलेंगी, हूरें मिलेंगी, बहुत बढ़िया सोम रस मिलेगा आदि आदि। इन प्रलोभनों से सांप्रदायिक मान्यता में लुभाया जाता है। उसके अलावा तर्क वितर्क करके साम्प्रदायिक मान्यताओं की ओर आकर्षित किया जाता है। हालांकि तर्क की अपनी सीमा है। इस तरह से तर्क या बुद्धि से देखना भी अपना नहीं है, वह अपनी अनुभूति नहीं है। इसके बाद की स्थिति होती है कि अनुभूति से जानना। जब अनुभूति से जानकारी मिलती है तो उसे भावनामयी प्रज्ञा कहा जाता है। अनुभूति के माध्यम से सत्य का दर्शन कराने वाली प्रज्ञा यानी भावनामयी प्रज्ञा हमारा कल्याण कर सकती है। 


फिर साफ होने लगेगा कि मैं और मेरा कुछ नहीं है...

श्रुत प्रज्ञा तभी कल्याणकारी है, जब वह तर्क प्रज्ञा की ओर ले जाए। तर्क वाली प्रज्ञा तभी फायदेमंद है, जब वह भावनामयी प्रज्ञा की ओर ले जाए। किसी भी सुख के समय खुशी होती है, उसके बाद जैसे ही वह सुख खत्म होता है, व्यक्ति दुखी होता है। यही अनुभूति करनी है कि यह सुख अनित्य है। उसके जाने पर क्या रोना, उसी तरह से दुःख भी अनित्य है। वह भी एक तरंग है, जिसे अनुभूति से समझा जा सकता है। शरीर की अनुभूतियों से इन तरंगों को महसूस किया जा सकता है कि कैसे यह सुख उत्पन्न होता है और कैसे दुख उत्पन्न होता है और वह तरंग गुजरने के साथ दुख या सुख खत्म हो जाता है। यह सब कुछ अनित्य है। अनात्म भाव जागने पर इसकी अनुभूति होने लगेगा। फिर साफ होने लगेगा कि मैं और मेरा कुछ नहीं है।

इसके साथ ही व्यक्ति को सांसारिक जीवन में मैं और मेरा ही कहना होगा। अगर अतिवाद करेंगे कि मैं कुछ नहीं, मेरा कुछ नहीं तो मुश्किल हो जाएगी। आसक्ति, राग और द्वेश को लेकर मध्य मार्ग अपनाना है। अंदर की प्रज्ञा पुष्ट होने के साथ बाहर की चीजों से आसक्ति कम होती जाती है।

बुद्ध के संदेशों, सांसारिक कष्टों और कुछ व्यावहारिक अनुभवों के बारे में गोयनका जी ने बताया। साथ ही उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तीसरा और पांचवां रोज सबसे कठिन लगता है साधकों को। शायद विपश्यना केंद्र ने 10 दिन के मानव व्यवहार पर अध्ययन किया होगा, जिससे यह तथ्य सामने आया होगा। निश्चित रूप से तीसरे दिन बेचैनी ज्यादा थी। प्रवचन सुनने के बाद 20 मिनट तक का सामूहिक ध्यान हुआ।

बहरहाल... भवतु सब्ब मंगलं के साथ तीसरा रोज भी बीत गया और साधु साधु कहते मैंने दिन बिता लिया।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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भवतु सब्ब मंगलं — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 4

तपस्या बहुत कठिन लगने लगी थी। रात को 9 बजे से लेकर सुबह 4 बजे तक सोने के वक्त को छोड़कर लगातार व्यस्तता। व्यस्तता भी ऐसी, जो बोझिल हो। सुबह सबेरे घंटा बजता। घंटा अगर जगाने में सफल नहीं हुआ तो घंटी वाले बाबा टपक पड़ते थे। चार बजे अगर किसी व्यक्ति के कमरे की लाइट नहीं जली रहती तो वह कमरा घंटी बाबा के खास निशाने पर रहता था। वहां लंबे समय तक रुककर घंटी बजा देते थे। मैं बहंटिया कर सोने की कवायद करता तो घंटी बाबा लौटकर भी घंटी टुनटुनाने लगे। घंटी बाबा के पास छोटी घंटी होती थी। वह तब तक घंटी बजाते रहते थे, जब तक कि आप आजिज होकर उठ न जाएं।







सुबह साढ़े चार बजे मेडीटेशन हॉल यानी ध्यान केंद्र में पहुंचने का क्रम जारी रहा। बदलाव यह आया कि पहले रोज किसी तरह काटने के बाद दूसरा दिन और बोझिल हो गया था। सिर्फ मुझे ही बोझिल नहीं लग रहा था। साथ में विपश्यना कर रहे दो चोटी वाले युवकों की चोटी पर भी असर पड़ गया। जूड़े वाली चोटी खुल चुकी थी। पोनी वाली चोटी भी खुलकर सामान्य बाल में तब्दील हो चुकी थी। सभी लोग किसी तरह से तपस्या कर रहे थे। सुबह सबेरे की दो घंटे की तपस्या किसी तरह कटी और आखिरकार साढ़े छह बजा और भवतु सब्ब मंगलं हो गया।

उस समय मुझे पत्नी बहुत याद आईं। संभवतः उन्होंने कुछ लोगों से और इंटरनेट से जानकारी हासिल कर ली थी कि वहां हाफ पैंट नहीं चलता। फुल पाजामा या पैंट पहनना होता है।
ऑपरेशन के पहले भूजा मेरा सबसे फेवरेट था। ऑफिस में भी रोज एक बुढ़ऊ चाचा के ठेले से लइया, चना, नमक और मिर्च ले आता था। वही मेरा नाश्ता होता था photo: annestravelandphotography

दूसरे दिन कपड़े देने थे धुलने के लिए। तत्काल भागकर गया नाश्ता करने। नाश्ता करने के बाद नहाया, नहाने के बाद सोने की कवायद। साढ़े सात बजे उठकर फिर भोजनालय की ओर भागते पहुंचा, क्योंकि धुलाई के लिए कपड़े देने का वक्त पौने आठ बजे तक ही निर्धारित था। वहां कपड़ा देने के बाद यह भी पूछ लिया कि कितने बजे तक धुलाई के लिए कपड़ा दिया जा सकता है। धम्म सेवक से पूछा, क्योंकि वह व्यवस्था संबंधी सवाल था। धम्म सेवक ने 15 मिनट का  राहत दिया और बताया कि 8 बजे तक कपड़े देने पर दूसरे दिन सुबह मिल जाता है, लेकिन उससे ज्यादा देरी करने पर मुश्किल होती है। उस समय मुझे पत्नी बहुत याद आईं। संभवतः उन्होंने कुछ लोगों से और इंटरनेट से जानकारी हासिल कर ली थी कि वहां हाफ पैंट नहीं चलता। फुल पाजामा या पैंट पहनना होता है। उन्होंने मुझे कहे बगैर ही 3 पायजामे और 3 जांघिया बनियान रख दिए थे। उन पायजामों में 2 वेस्टर्न स्टाइल के एलास्टिक वाले पायजामे थे, जो बहुत ही आरामदेह साबित हुए। एक गांधी आश्रम का डोरी वाला पायजामा था। थोड़ी असुविधा के साथ वह भी सुविधाजनक था। वर्ना मैंने तो जबरी हाफ पैंट रखवाई थी, जो ध्यान करने के लिए अनुमति प्राप्त कपड़ा नहीं था। वह किसी काम का साबित नहीं हुआ। पायजामे, टीशर्ट, कुर्ता, जांघिया-बनियान पर्याप्त संख्या में थे, जिससे कि बारी बारी से उसे धुलाई के लिए दिया जा सके। अगर धुलाई में मामला फंसे तो एक जोड़ा कमरे पर मौजूद रहे। हालांकि ऐसा कभी हुआ नहीं। मैं 8 बजे कपड़े दे देता था और दूसरे रोज उसी समय, उसी जगह कार्यालय के सामने बिछी चौकियों पर कपड़े मिल जाते।

कभी इगतपुरी में बारिश, झरने, पहाड़ियों का आनंद लेने जाना हो तो रेन कोट और छाता दोनों लेकर जाना जरूरी है।

बारिश लगातार हो रही थी। जिस दिन मैं इगतपुरी पहुंचा, उस रोज भी। वहां के लोगों ने भी बताया कि 15-20 दिन से ऐसे ही बारिश हो रही है। हालांकि लोगों का कहना था कि यहां पहाड़ी पर ज्यादा बारिश हो रही है, लेकिन निचले इलाके में बिल्कुल बारिश नहीं हो रही है। विपश्यना के शांति पठार पर तो बारिश ने राहत ही न दी। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि बारिश नहीं हो रही थी और मैं बगैर छाता लिए पेशाब करने चला गया। उतने में बारिश शुरू हो गई और शौचालय से धम्म हॉल के बीच की करीब 300 मीटर दूरी भीगते हुए तय करनी पड़ी। ऐसी स्थिति में अगर कभी हल्की धूप भी नजर आती थी तो छाता लेकर ही कमरे से बाहर निकलना होता, जिससे भीगने के खतरे से बचा जा सके। साथ ही यह भी अहसास हुआ कि कभी इगतपुरी में बारिश, झरने, पहाड़ियों का आनंद लेने जाना हो तो रेन कोट और छाता दोनों लेकर जाना जरूरी है। अगर बारिश तेज हो रही हो तो छाते से उसे संभालना मुश्किल है। इस खूबसूरत बारिश में अगर पहाड़ियों पर घूमना है, झरनों का पूर्ण आनंद लेना है और बारिश एन्जॉय करना है तो छाता और रेनकोट बहुत जरूरी है। यह भी फीलिंग आई कि इस बारिश में अगर नव विवाहित जोड़ा आता है, हनीमून के लिए, तो वह प्रकृति का ज्यादा आनंद ले सकता है। तेज बारिश और उसी में रेनकोट पहने, छाता लिए, एक दूसरे का हाथ थामे घूमने का आनंद। यह कल्पना ही भीतर से गुदगुदाती रही।


विपश्यना में शाम 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए बिल्कुल बोझिल नहीं होता था। उसमें एक अच्छाई और जुड़ गई थी कि शुरुआत में एक घंटे ध्यान के बाद भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। फिर गोयनका जी का डेढ़ घंटे का भाषण चलता था, जो खासा मनोरंजन कराने वाला, ज्ञानवर्धक और राहत देने वाला होता था।




धुलाई के लिए कपड़े देने के बाद हॉल में वापस आ गया। मैंने बड़ी मेहनत से ध्यान लगाया। दिल में यह बात थी कि दो घंटे तक ध्यान करने के बाद असिस्टेंट टीचर कमरे पर ध्यान करने को भेज देंगे। उसके बाद आराम से मैं जाकर कमरे पर सो जाऊंगा। लेकिन दूसरे दिन धोखा हो गया। असिस्टेंट टीचर ने नए साधकों को कुछ नहीं कहा। पुराने साधकों के लिए जरूर कहा कि जो लोग यहां ध्यान करना चाह रहे हों, यहां ध्यान करें। अगर पगोडा के शून्यागार में ध्यान करना चाह रहे हों तो वहां भी ध्यान करने को जा सकते हैं।

photo: annestravelandphotography
शून्यागार और ध्यान। यह मेरे लिए नया था। हालांकि पगोडा, शून्यागार और ध्यान के बारे में डॉक्यूमेंट्री देख चुका था, लेकिन वह केवल थियरी थी। प्रैक्टिकल में नहीं देखा था कि शून्यागार क्या होता है और कैसे ध्यान किया जाता है। नए साधकों को वहीं बैठे रहने दिया गया। इस तरह से 8 बजे से लेकर 11 बजे तक तीन घंटे तक का लंबा वक्त कुछ ज्यादा ही भारी पड़ गया। तमाम लोगों ने कमर दर्द की बात बताकर कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने की अनुमति ले ली। कुछ लोगों को वहीं आसन पर ही एक कुर्सी नुमा आसन मिल गया। उस पर पालथी मारकर बैठे रहने के बाद पीछे पीठ टिकाया जा सकता था। हालांकि मेरे खयाल में यह नहीं आया कि कुर्सी या अर्ध कुर्सी ली जाए, जिस पर पैर लटकाकर बैठने व पीठ टिकाने या पीठ टिकाने वाली सुविधा मिल सके। 11 बजे तक किसी तरह कट गया। समय पूरा होते ही हम भोजनालय की तरफ भागे। खाना खाने की जल्दबाजी इसलिए थी कि जल्दी से कमरे पर पहुंच जाएंगे। उसके बाद डेढ़ घंटे आराम करने का मौका मिल जाएगा। जल्दी भागकर खाना खाने का लाभ यह हुआ कि मैं 11.45 तक कमरे पर पहुंच गया। मेरे पास सोने के लिए करीब सवा घंटे का वक्त मिल गया।

लेकिन साढ़े बारह बजे मेरी खुशी काफूर हो गई। बहुत गहरी नींद में था, उसी समय दरवाजा पीटे जाने की आवाज आई। मैं अचकचाकर उठा। दरवाजा खोला तो सामने एक मोटे से धम्म सेवक खड़े थे। उन्होंने हाथ जोड़े। कहा कि गुरु जी ने अभी आपको बुलाया है। मुझे समझ में न आया कि कौन सी आफत आ गई। यह अचानक बुलावा क्यों आ गया। धम्म सेवक से पूछा कि कहां बुलाया है ? मुझे बताया गया कि जिस हॉल में ध्यान करते हैं, वहीं अभी पहुंचें। मैं हड़बड़ाया सा उखड़ा उखड़ा जल्दी जल्दी कपड़े पहनकर मेडीटेशन हॉल में पहुंच गया। वहां कुछ लोग पहले ही गुरु जी से ज्ञान ले रहे थे। मैं भी बैठ गया। पौने एक बजे गुरु जी के पास जाने की मेरी बारी आई। गुरु जी आसन पर ऊपर बैठे रहते और साधक को नीचे बैठाया जाता। यह व्यवस्था मुझे कुछ खास नहीं जंची कि आखिर साधक को नीचे और गुरु जी को मचान पर काहे को बैठाया गया है। लेकिन व्यवस्था का सवाल था। उनके चौकी नुमा आसन के गोड़े के पास नीचे मैं बैठ गया। उन्होंने पूछा कि कैसा चल रहा है?

मैंने बहुत साफ साफ बताया कि कुछ खास नहीं चल रहा है। गुरु जी ने पूछा कि ध्यान में मन लगता है? मैंने कहा, “कुछ देर तो लगता है, फिर इधर उधर की बातें सोचने लगता हूं।“ यह पूछने पर कि सांस का आना जाना फील होता है, मैंने साफ मना कर दिया। गुरु जी को बताया कि बिल्कुल महसूस नहीं होता, जब तेज तेज सांस लेता हूं तो जरूर थोड़ा सा मूंछ के बाल पर और अंदर आती जाती सांस फील होती है। उसके अलावा नाक की आंतरिक त्वचा पर किसी खास तरह की अनुभूति होती हो, ऐसा कुछ भी नहीं है। गुरु जी ने कहा कि अच्छा है, सांस अगर महसूस न हो तो तेजी से सांस ले लिया करें। धीरे धीरे कंसंट्रेशन बन जाएगा। शुरुआत में दिक्कत होती है। फिर कंसंट्रेशन बनने लगता है। फिलहाल इतनी सी वार्ता हुई । उन्होंने कहा कि जाकर आराम करें। शायद गुरु जी को ऐसा फील हुआ कि बंदे को सोते में जगा दिया गया है और काफी गुस्से में है।


अब आराम क्या करता। एक बजे से ध्यान का सत्र शुरू होने वाला था और सिर्फ 10 मिनट बाकी रह गए थे। मैं बाहर निकल गया। वह 10 मिनट मेरे लिए प्रकृति की खूबसूरती देखने का वक्त था। मैं उस 10 मिनट में कई गलियों में घूमा, जहां पहले नहीं गया था। एक मुख्य पगोडे के साथ वहां दो पगोडे और दिखे। उन्हें देखने के बाद याद आया कि नेट पर तपोवन 1 और तपोवन 2 के लिए भी बुकिंग हो रही थी, जिनके लिए वे दोनों पगोडा बने हुए थे। रास्ते में घूमते हुए कुछ महिला कर्मी भी मिलीं जो झाड़ू लगाने और गिरे हुए पत्तों को साफ करने का काम कर रही थीं। साथ ही बादलों के बीच ढंकी सामने की पहाड़ियां भी अद्भुत अहसास दे रही थीं। ध्यान की बोरियत के बीच प्रकृति के सौंदर्य को 10 मिनट देखकर मैं खासा रिफ्रेश फील कर रहा था।

ध्यान का वक्त होने पर मैं फिर हॉल में आ गया। ढाई बजे तक अपनी मर्जी के मुताबिक ध्यान करने के बाद असिस्टेंट टीचर ने टेप चलाया। एक घंटे का सामूहिक ध्यान शुरू हुआ (हालांकि उसके पहले भी हॉल में सामूहिक ध्यान ही था) इस ध्यान में गोयनका जी की रनिंग कमेंट्री सुनाई जाती थी। उन्होंने ध्यान के तरीके मे थोड़ा बदलाव किया। उन्होंने कहा कि सांस लेने की वजह से नाक के नीचे ऊपरी होठों पर जो तिकोना सा हिस्सा बन रहा है, वहां पर ध्यान केंद्रित करें। महसूस करें कि ऊपरी होठों के उस तिकोने से हिस्से पर सांस और उसके अलावा भी किस तरह का अहसास हो रहा है।




अब मामला थोड़ा मनोरंजक लगा। आती जाती सांस को महसूस करने से इतर नाक के नीचे और ऊपरी होठ पर जो तिकोना हिस्सा बन रहा था, वहां संवेदनाओं को महसूस करना था। गोयनका जी ने बताया कि गर्मी, सर्दी, खुजलाहट, सनसनाहट जो भी कुछ महसूस हो, उसे महसूस करें। यह महसूसना साढ़े तीन बजे तक चला। भवतु सब्ब मंगलं हो गया। उसके बाद असिस्टेंट टीचर ने लोगों को बुलाना शुरू किया। हॉल में बैठे लोगों का 6-6 लोगों का बैच बना और कहा गया कि आइंदा बैच नंबर बुलाने पर आप लोग आ जाएंगे, नाम लेकर किसी को नहीं बुलाया जाएगा।

बुलाए गए 6 लोग ठीक उसी तरह से असिस्टेंट टीचर के सामने बैठ गए, जैसा कि सारनाथ में बुद्ध अपने 5 शिष्यों को संदेश देते हुए बैठे हैं। बुद्ध को ऊंचे आसन पर पालथी मारे दिखाया गया है, जबकि शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य उनके सामने नीचे जमीन पर बैठे हैं। कुछ उसी स्टाइल में 6 साधकों को, 3 आगे और 3 उनके पीछे बिठाया गया और असिस्टेंट टीचर चौकी पर विराजमान थे। मैं आगे ही बैठा था। गुरु जी ने पूछा कि कैसा ध्यान चल रहा है। मैंने बड़ी साफगोई से कहा कि बकवास है बिल्कुल। ध्यान वगैरा कहीं केंद्रित नहीं होता है। अन्य लोगों से भी पूछा गया तो कुछ ने तो लाज लिहाज में बताया कि ध्यान केंद्रित हो रहा है और मूंछ के पास वाले इलाके में अनुभूति भी आ रही है। हालांकि मेरे अलावा एक सज्जन और थे, जिन्होंने बताया कि कोई केंद्रण नहीं होता है। आधे आधे घंटे तक कुछ और सोचते बीत जाता है। उनको गुरु जी ने वही फार्मूला बताया कि कुछ देर तक तेज तेज सांस लेकर संवेदना महसूस करें। इतने लंबे वक्त तक संवेदना महसूस न करना और दूसरी सोच में पड़े रहना सही नहीं है।




गुरुजी के साथ यह खुसुर-फुसुर पूरी हुई। गुरुजी इतना धीरे से बोलते थे कि आवाज सामने बैठे 6 लोगों को ही सुनाई दे। अन्य लोग हॉल में ध्यान करते रहें। उन्होंने कहा कि अब आप लोग जाएं। दूसरे ग्रुप को बुलाने के लिए वह मुखातिब हुए। मैंने सोचा भी नहीं कि जाएं का मतलब अपने आसन पर बैठने से है या कुछ और। मैं सरपट उस ध्यान केंद्र से बाहर निकल गया और कमरे में सोने के लिए चला गया। अच्छी नींद आई। सोकर उठा तो नाश्ता करने चला गया। नाश्ते में वही नमकीन मिक्चर वाला भूजा, केले औऱ दूध। दूसरे रोज भूजा खाने की कोशिश की, लेकिन वह खाना मेरे मुंह के लिए बहुत कष्टकर था। हालांकि ऑपरेशन के पहले भूजा मेरा सबसे फेवरेट था। ऑफिस में भी रोज एक बुढ़ऊ चाचा के ठेले से लइया, चना, नमक और मिर्च ले आता था। वही मेरा नाश्ता होता था। लेकिन विपश्यना केंद्र में खाने की दिक्कत की वजह से वह लाई भूजा मुझे बिल्कुल रास न आया। चार केले खाने के बाद दो गिलास हल्दी वाला दूध पीकर मैं निकल आया।

शाम के 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए कठिन नहीं लगता था। इसकी एक वजह यह थी कि यही वह समय है, जब हम लोग ऑफिस में मैक्सिमम टॉर्चर होते हैं। पहले कहावत सुनी थी कि मूतने की फुर्सत नहीं है, लेकिन कार्यालय के इस वक्त में मैंने अहसास किया कि मूतने की फुर्सत न होना क्या होता है। इस दौरान हालत यह रहती है कि अगर पहले मूतना भूल गए हैं तो ऐसा लगता है कि पेट के नीचे वाला पोर्शन जहां पेशाब जमा होता है, वह फट जाएगा और पेशाब बाहर आ जाएगा। लेकिन मजाल क्या है कि 6 से 9 बजे के बीच मूतने का मौका निकल पाए। उसके बाद काम खत्म होने पर पेशाब करने जाना होता है। उस समय पेशाब करने की दिव्य अनुभूति होती है। ऐसा लगता है कि कितने बोझ के नीचे दबे थे। सारा तनाव आराम से रिलीज किया जाता है। गजब की राहत मिलती है। ऑफिस में ऐसे अनुभव से गुजरने के बाद विपश्यना में शाम 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए बिल्कुल बोझिल नहीं होता था। उसमें एक अच्छाई और जुड़ गई थी कि शुरुआत में एक घंटे ध्यान के बाद भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। फिर गोयनका जी का डेढ़ घंटे का भाषण चलता था, जो खासा मनोरंजन कराने वाला, ज्ञानवर्धक और राहत देने वाला होता था। उसके बाद महज आधे घंटे के ध्यान के बाद एक बार फिर भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। हम लोग साधु साधु कहते थे और उसके बाद कराहती, लरजती आवाज आती थी। विश्राम करें, टेक रेस्ट। भवतु सब्ब मंगलं का किस्सा भी गोयनका जी ने साफ किया। उन्होंने बताया कि भवतु सब्ब मंगलं का अर्थ होता है कि मेरे इस कार्य से सबका कल्याण हो। फिर शिष्य गण साधु साधु साधु कहते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि ऐसी ही मेरी कामना है।

पढ़ें भाग 5


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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