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कि मैं और मेरा कुछ नहीं है — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


photo: dnaindia.com

तीसरा छोटी घंटी होती है, जिसका इस्तेमाल साधकों को हांकने के लिए धम्म सेवक लोग करते थे...

सम्यक दर्शन वह है, जो सच्चाई अपनी अनुभूति पर उतरे। सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई, तर्क वितर्क करके मानी गई बात सम्यक दर्शन नहीं है। खुद अनुभूति करने वाला सत्य, सम्यक दर्शन है। — सत्येंद्र प्रताप सिंह 

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 5

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1




विपश्यना की इस अवधि के दौरान सुबह 4 बजे उठकर फ्रेश होना व ब्रश करके धम्म हॉल में साढ़े चार बजे पहुंचना सबसे कड़ी सजा और एक साथ कराहती हुई तीन बार सुनाई देने वाली भवतु सब्ब मंगलं की आवाज कैद से रिहाई लगने लगी। अलार्म घड़ी की जरूरत पड़नी ही बंद हो गई। धम्म सेवक की धमक और उनकी घंटी की टुनटुनाहट का एक नैतिक दबाव होता था, जिसमें सुबह सबेरे उठ जाना पड़ता था। तीसरे रोज मे लगने लगा कि घंटी बाबा घंटी बजाकर दफा हो जाएं, आज तो मैं नहीं जाने वाला। घंटी बाबा ने उस रोज दरवाजा भी पीट दिया। हालांकि गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन मैंने दरवाजा खोलकर चींखने चिल्लाने और घंटी बाबा को खदेड़ देने के बजाय उठकर मेडीटेशन हॉल में जाने में ही भलाई समझी। जल्दी जल्दी फ्रेश होने के बाद करीब साढ़े 5 बजे हॉल में पहुंचा। उस वक्त तक असिस्टेंट टीचर लोग आकर बैठ चुके थे।




करीब एक घंटे तक ही ध्यान करना पड़ा, उसके बाद भवतु सब्ब मंगलं और साधु साधु हो गया। ध्यान कोई खास बोझिल नहीं लगा। साढ़े छह बजे नाश्ता करने के बाद कपड़े लेकर कमरे पर आया और नहाने के बाद सोया भी। मन में यह चल रहा था कि सीरियस होकर ध्यान लगाना चाहिए। इतने दिन तक घर छोड़कर यहां रह रहे हैं तो संभव है कि ध्यान लगाने से कुछ सकारात्मक हासिल हो जाए।

यह सब सोचते हॉल में पहुंच गया। लेकिन सब दर्शन धरा का धरा रह गया, जब पालथी मारकर बैठने की बारी आई। हालांकि मैं अकेला नहीं था, तकलीफ ज्यादातर लोगों को हो रही थी। तीन घंटे बैठने के दौरान एक एक घंटे के अंतराल पर 5 मिनट की दो छुट्टियां होती थीं। इस दौरान बेचैनी ने लोगों को शायद कुछ नया ईजाद करने को मजबूर किया, जिससे ध्यान केंद्रित हो सके। मैंने पाया कि कुछ लोग जब सीधे बैठते थे तो अंगूठा और पहली उंगली मिलाकर गोल आकृति बनाते थे, जैसा कि बुद्ध के फोटो में मिलता था। उस ध्यान की तकलीफ में बुद्ध बनने की दिशा में यह अच्छा प्रयत्न लगा। कुछ लोग ऐसे भी दिखे, जो एक हाथ के ऊपर दूसरा हाथ रखकर बैठते थे। यह भी बुद्ध की एक मुद्रा है, शायद इससे वह लोग बुद्ध हो जाने और दुखों से मुक्ति पा जाने की फीलिंग लेते थे।

ऐसा नहीं कि सभी लोग बेचैन ही रहते थे। अगली दो पंक्तियों में जो बैठे थे, वे ज्यादातर सीरियस रहते थे। उन्हें किसी कुर्सी की जरूरत भी नहीं हुई। एक अधेड़ से व्यक्ति तो बिल्कुल 90 अंश पीठ सीधी करके बैठे रहते। इतना ही नहीं, वह बाकायदा पैंट शर्ट पहनकर बैठते। बाल तो उनका बेहद करीने से सजा रहता। पूरी खोपड़ी के ऊपरी हिस्से का बाल उड़ चुका था। बाईं ओर कान के पास बचे बालों के अवशेष को वह कुछ ज्यादा बढ़ाए हुए थे। इतना बड़ा कि उस अवशेष बाल की लड़ियों से अपने गंजे सर को ढंकते हुए दाहिने कान की ओर ले जाते थे। वह भी बड़े सलीके से चिपके हुए। ऐसा लगता था कि कोई क्रीम लगाकर उसे गंजी खोपड़ी पर फिक्स कर लिया गया हो। कहने का मतलब यह कि अगली पंक्ति में बैठे उस अधेड़ साधक के ऊपर रूटीन बदल जाने का कोई असर नही था और वह बड़ी गंभीरता से साधना करते थे। उनकी मुद्रा में कोई बदलाव कभी नहीं आया।
हां, मैं जरूर पीड़ा में था। जब पीड़ा ज्यादा होती तो मैं अगली पंक्ति का निरीक्षण करता। राहत मिलती थी। यह फीलिंग आती कि मैं तो पहली बार आया हूं... मेरे आगे बैठे लोग तो दूसरी, तीसरी बार फंसे हैं। यह सोचकर सुकून मिलता। अगली पंक्ति में बेचैन लोगों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम थी। पहली बार आए साधकों की हालत ज्यादा खराब थी। यह सब मुझे बहुत फनी लगा। 3 घंटे बीत गए।




इस रोज मैंने पहले जाकर थोड़ा आराम किया, फिर खाने पहुंचा। मकसद यह था कि लंबी लाइन से बचा जा सके। लाइन से बच भी गया। लेकिन मुझे खाना खाने में ज्यादा ही वक्त लगता है। खासकर खाना अगर मुंह के अनुकूल न हो तो समय लग जाता है। खाने में मुझे करीब 45 मिनट लग गए। सब्जी-रोटी निगलने में दिक्कत होने की वजह से। सवा बारह बजते ही एक धम्म सेवक धमक पड़े। उन्होंने बड़े प्यार से नाम पता पूछा। पता से आशय गृह जनपद या जन्म स्थान से या आधार कार्ड पर लिखे पते से नहीं था। उन्होंने इतना जानना चाहा कि विपश्यना केंद्र में रहने के लिए मुझे कौन सा आवास आवंटित हुआ है। उन्होंने एक पर्ची काट दी और मुझे थमा दी। उन्होंने कहा कि 12 बजे धम्म हॉल में गुरु जी को दे दीजिएगा।

मैं 12 बजे जाने के मूड में नहीं था, लेकिन एक पर्ची धम्म सेवक ने थमाई थी, एक पर्ची पहले से ही मेरे आवास के बाहर लगी थी कि धम्म हॉल में पहुंचें। मतलब गुरु जी का बुलौवा पहले से चिपका था। आखिरकार मुझे गुरु जी के पास जाने का फैसला करना पड़ा। उसी ध्यान कक्ष में। उसी मुद्रा में गुरु जी के सामने बैठ गया, जैसे इसके पहले बैठा था। उन्होंने ध्यान के बारे में पूछा। मैंने कहा कि यह बहुत बोझिल काम है। इसमें कैसे मन लग सकता है, कैसे ध्यान केंद्रित हो सकता है। गुरु जी ने कहा कि पहले की तुलना में तो आप अब ज्यादा सीरियस बैठते हैं। आंख भी बंद रखते हैं। पहले तो आप दूसरों का मुंह ही देखते रहते थे। इतना बदलाव तो दिख रहा है। मैंने भी हामी भरी कि अब थोड़ा सीरियसली बैठने की कवायद कर रहा हूं।

मैंने गुरु जी को अपनी समस्या से भी अवगत कराया। तीसरे दिन मुझे पता चल गया कि यह सड़ी सी मोजे की बदबू कहां से आती है। रोजाना तेज बारिश की वजह से लोगों के पैरों की नमी हॉल में आती थी और उससे आसन में सिलन लग गई थी, जिससे हल्की बदबू महसूस होती थी। तीन रोज तक तो मैं यह ही सूंघता रह गया था कि मेरे आस पास बैठा वह कौन आदमी है, जिसका मोजा बास मारता है। इस समस्या का समाधान तो गुरु जी भी नहीं कर सकते थे। मैंने यह समस्या कही भी नहीं। दूसरी समस्या यह थी कि खूबसूरत और हवादार बने धम्म हॉल की सभी खिड़कियां धम्म सेवक लोग बंद कर दिया करते थे। इसकी वजह से हॉल में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ जाता था और बड़ी जोर की नींद आती थी। ऐसा अनुभव कभी कभी ऑफिस में भी हुआ है। छुट्टियों में टेक्निकल स्टॉफ देर से आते हैं और ऑफिस का एसी ऑन नहीं होता है तो बेचैनी, नींद जैसी समस्या मैंने फील की है। धम्म हॉल में होने वाली यह समस्या मैंने गुरु जी को बताई। उन्होंने कहा कि कुछ लोग ठंड लगने की शिकायत करते हैं, जिसकी वजह से धम्म सेवक खिड़कियां बंद कर देते हैं। मैं उनसे कह दूंगा कि कुछ खिड़कियां खुली रखें। साथ ही जब लोग बाहर निकलते हैं तो पंखे चलाकर कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकाल दें। उन्हें मेरी यह समस्या जेन्यून लगी।

गुरु जी ने कहा कि घर परिवार छोड़कर आए हैं तो प्रयास करें कि कुछ लेकर जाएं। वही इमोशनल ब्लैकमेलिंग, जो मेरे दिमाग में पहले चल चुका था कि आए हैं तो सीरियस होकर कुछ ध्यान ही कर लें। हो सकता है कि फायदा हो जाए। मैंने भी हां में हां मिला दी कि अब कोशिश कर रहा हूं कि कुछ ध्यान वगैरा केंद्रित हो जाए। गुरु जी ने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप सबसे बेहतर अनुभव लेकर जाएं। हालांकि उनके यह कहने का मेरे ऊपर कोई क्रांतिकारी असर नहीं पड़ा।

उन्होंने पूछा, “कुछ सोचकर आए होंगे, कुछ समस्या होगी, जिसका समाधान होगा।“

मैंने कहा, “बिल्कुल नहीं। मुझे कोई समस्या है ही नहीं। और ऐसी कोई समस्या तो बिल्कुल नहीं है, जिसका समाधान यहां आने पर हो जाए। न तो मैं कोई समस्या लेकर आया हूं और न समाधान सोचकर।“






उन्होंने कहा कि कुछ सोचकर तो आए होंगे। मैंने कहा कि खूबसूरत पहाड़ियों और बुद्ध के दर्शन ने मुझे आकर्षित किया। मैंने उन्हें धम्म सेवक द्वारा दी गई दूसरी पर्ची पकड़ा दी। वह मुस्कराए और कहा कि आप आराम करने चले गए होंगे, खाना खाने देर से पहुंचे। मैंने कहा, ऐसा कुछ नहीं है। मुंह का ऑपरेशन होने से खाने में देरी लगती है और कोई ऐसी सब्जी वगैरा हो, जिसे निगलने में दिक्कत हो तो ज्यादा वक्त लग जाता है। गुरु जी ने कहा कोई बात नहीं, मैं बोल दूंगा। आप अपनी सुविधा मुताबिक वहां बैठकर खाना खा सकते हैं। यही सब खुसुर-फुसुर वार्ता हुई। फिर मैं कमरे सोने पर चला आया।

इसके बाद तपस्या से जूझना था। सामूहिक ध्यान ढाई से साढ़े तीन बजे तक हुआ। फिर हमारे बैच को गुरु जी ने बुलाया। इस बार मैंने उचककर देखा तो जिन छह लोगों को मेरे साथ बुलाया जाता था उनमें से एक एमबीबीएस, दो एमबीए, दो बीई डिग्रीधारक थे। मैं ही वहां सबसे कमजोर डिग्री वाला था। मतलब पीजी तो मैं भी हूं। लेकिन सामान्यतया माना जाता है कि जो गदहा बच्चे होते हैं, वही बीए, एमए, बीएड वगैरा करते हैं। ऊपर से मास्टर इन जर्नलिज्म। मतलब कि आदमी किसी काम का न हो तो चलो यह भी कर लें, टाइप की एक और डिग्री। संदेह तो मुझे पहले से ही था कि हॉल में बैठे ज्यादातर लोग इलीट हैं, लेकिन जब यह सूची देखी तो मेरा संदेह और पुख्ता लगने लगा।

उस रोज मुझे पगोड़ा के शून्यागार का आवंटन हो गया। मतलब तीसरे, चौथे दिन और पांचवें दिन की सुबह मैं शून्यागार में ध्यान कर सकता था। मुझे थोड़ी खुशी हुई कि शून्यागार में क्या होता है, शून्यागार कैसा होता है, यह देखने का मौका मिलेगा। वहां ध्यान लगाने पर हो सकता है कि ध्यान का कुछ केंद्रण हो।

मैं उसी रोज शून्यागार देखने चला गया। वहां खड़े धम्म सेवक ने मेरा नाम शून्यागार में लगी सूची से मिलाया और शून्यागार संख्या बता दी। नया नया साधक सबसे नीचे वाले शून्यागार में साधना करने को पाता है। मैंने कमरे का निरीक्षण किया, कुछ देर ध्यान में बैठा। फिर वापस चला गया कमरे में सोने।

विपश्यना केंद्र पर घंटा बजने में कोई सिमिट्री नहीं होती थी। अगर शाम के 5 बजे हैं तब भी करीब 8 बार टन, टन की आवाज आती थी। सुबह सबेरे 4 बजे भी आठ बार ही घंटा बजता था। मेरे पास कलाई घड़ी नहीं थी। मोबाइल ने ऐसी आदत डाली है कि कलाई घड़ी खत्म ही हो गई है। मोबाइल आने के बाद से उसी में समय देखने की आदत सी हो गई है। विपश्यना केंद्र में मोबाइल जमा करा लिया गया था, जिसकी वजह से टाइमिंग की दिक्कत होती थी। घंटी उस तरह से नहीं बजती, जैसा हम लोगों के स्कूलों में बजती थी। स्कूल में अगर पहला पीरियड खत्म होता तो एक बार, पांचवां पीरियड खत्म होने पर 5 बार और छुट्टी होने पर लगातार टन..टन.. टन.. टन.. घंटी बजती थी।

विपश्यना केंद्र पर स्कूल की घंटी से इतर व्यवस्था है। घंटी भी तीन तरह की। एक बड़ा वाला घंटा, जो कहीं दूर बजता था, तेज आवाज में। दूसरा तवे के आकार की घंटी थी, जैसा कि स्कूलों में होती है। यह धम्म हॉल के बाहर लगी होती है। तीसरा छोटी घंटी होती है, जिसका इस्तेमाल साधकों को हांकने के लिए धम्म सेवक लोग करते थे। इसे वो हाथ में लिए रहते थे और समय पूरा होने पर टुनटुनाने लगते थे।

यह घंटी और घंटे मेरे लिए व्यवस्था का प्रश्न बन गए कि आखिर इसके बजने में कोई सिमिट्री है भी या ऐसे ही जब मन होता है और जैसे मन होता है, बजाते रहते हैं। व्यवस्था संबंधी प्रश्न धम्म सेवकों से पूछने का निर्देश था। मैंने अपने मेडीटेशन हॉल के सामने एक धम्म सेवक को पकड़ा, जो घंटी बजाते थे। उन्हें मझले और छोटे आकार की घंटी बजाते हुए देखता था। छोटी घंटी का मतलब तो मैं समझ गया था। जब साधकों को हांककर धम्म हॉल में ले जाना होता था, तब उसका इस्तेमाल किया जाता था। मझले और बड़े घंटे के बजने का क्रम और वजह साफ नहीं हो रहा था। मैंने उनसे कहा कि व्यवस्था संबंधी एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूं। यह घंटी आपने तीन बार क्यों बजाई। उन्होंने कहा कि ऐसे ही शुरू से ही हम लोग बजाते और सुनते आए हैं, इसलिए। फिर मैंने उनसे पूछा कि छुट्टी के वक्त भी आप तीन बार ही घंटी बजाते हैं, उस समय तो टन..टन.. टन.. टन... करके लगातार घंटी बजाना चाहिए। हमारे स्कूल में ऐसा ही होता था और हम समझ जाते थे कि छुट्टी हुई। लेकिन आप लोग तीन बार ही घंटी बजाते हैं। धम्म सेवक हंसने लगे। कहा कि यह तो मुझे नहीं पता, मैंने सोचा भी नहीं कि ऐसा क्यों किया जाता है। बहरहाल, पहली बार मैंने वहां किसी को हंसते देखा। वर्ना पहले ही तमाम जगहों पर निर्देश लिखे थे कि सर नीचे करके चलें, जिससे किसी साधक की नजर से नजर न मिले। किसी दूसरे की साधना आपकी वजह से भंग न हो। मैं नजरें नीची करके नहीं चलता था, सबको देखते-ताकते ही चलता था, लेकिन अन्य लोग भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते और मैं भी नहीं देता था। कुछ लोग सर नीचे करके भी चलते थे। ऐसे में तीसरे दिन धम्म सेवक की हंसी थोड़ा अलग लगी, उसके पहले किसी को मुस्कुराते देखा भी नहीं हुआ। हालांकि घंटी समस्या अनुत्तरित ही रह गई कि इसको बजाने में कोई सिमिट्री है या यूं ही बजाया जाता है।

शाम पांच बजे नाश्ते के बाद धम्म हॉल में पहुंचा। शाम 6 से 9 का समय सामूहिक ध्यान और प्रवचन का होता है, उस वक्त पगोडा में नहीं ध्यान करना होता है। एक घंटे तक ध्यान के बाद गोयनका जी की मधुर आवाज में प्रवचन चला। उन्होंने बताया कि कल प्रज्ञा के क्षेत्र में अपना कदम रखेंगे। अब तक शील के आधार पर समाधि का अभ्यास करते रहे। आनापान की साधना से मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते रहे। शील का पालन कल्याणकारी है, इससे व्यक्ति तमाम दुखों से छुटकारा पाता है। व्यक्ति खुद को दुखी नहीं करता, दूसरे को दुख नहीं पहुंचाता। केवल शील पालन से सभी दुख से मुक्ति नहीं मिलती। उसके लिए समाधि जरूरी है। हमें सम्यक समाधि की ओर जाना है। सम्यक समाधि के लिए शील करना है। केवल समाधि से मुक्ति नहीं मिल सकती। जितनी बार विकार जागे और उसे समाधि से दबाया जाए तो विकार भीतर दब जाएगा। लेकिन वह विकार कभी भी फूट सकते हैं। जब तक अंतरमन की गहराइयों में दबे विकारों से छुटकारा न पा लें, तब तक सही मायने में छुटकारा नहीं मिलता। परिपूर्ण रूप से चित्त के शोधन का काम प्रज्ञा से होता है। शील, समाधि के लिए और समाधि, प्रज्ञा के लिए। प्रज्ञा, विमुक्ति के लिए। यह प्रक्रिया है।






प्रज्ञा क्या है? धम्म के 3 अंग शील में हैं, 3 अंग समाधि में। आठ अंग वाले धम्म में शेष 2 अंग प्रज्ञा में हैं। प्रज्ञा में सम्यक संकल्प, सम्यक दृष्टि। हमारे संकल्प विकल्प चलते हैं, लेकिन इसमें बदलाव आना चाहिए। नया साधक जब आता है तो जिन विकारों का असर है, उसका विचार आता है। जैसे ही सांस का काम, मन का ऑपरेशन शुरू करते हैं तो किसी के प्रति क्रोध, काम वासना, प्रेम आदि के विचार आते हैं। लेकिन कुछ चिंतन के बाद दूषित विचार खत्म होने लगते हैं। लेकिन कुछ विकार रहते ही हैं, लेकिन उसके रहते भी सम्यक दर्शन भी शुरू हो जाता हैं। दर्शन के तमाम अर्थ हैं और उसके उसके अर्थ बदलते हैं। बाहरी चीजें देखने और ध्यान करने के अर्थ में बुद्ध के काल में दर्शन शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था। हर संप्रदाय के लोग अपनी अपनी दार्शनिक मान्यता को दर्शन कह देते हैं, लेकिन यह भी सम्यक दर्शन नहीं है।

सम्यक दर्शन वह है, जो सच्चाई अपनी अनुभूति पर उतरे। सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई, तर्क वितर्क करके मानी गई बात सम्यक दर्शन नहीं है। खुद अनुभूति करने वाला सत्य, सम्यक दर्शन है। अपनी अनुभूति का विश्लेषण व विघटन करने को सम्यक दर्शन कहा जाता है। उसका विभाजन करते करते अंतिम सत्य को अपनी अनुभूति से जानने को सम्यक दर्शन कहा जाता है। सिद्धार्थ को जो प्रज्ञा, जो बोधि जागी, उसने सिद्धार्थ को मुक्ति दी उससे और किसी को मुक्ति नहीं मिली। अपनी अनुभूति के ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। श्रुति ज्ञान या सुनकर जाने ज्ञान से अंध श्रद्धा हो सकती है। दूसरा स्तर यह होता है कि सुनी बात को तर्क की कसौटी पर चिंतन करके कसा जाता है। जो विभिन्न संप्रदाय हैं, उसे अंध श्रद्धा या भय के नाते या प्रलोभन के कारण लोग उसे मानने लगते हैं। संप्रदाय मरने के बाद का भय दिखाते हैं जैसे पाप लगेगा, नर्क जाओगे, इसके आधार पर लोग इसे मानने लगते हैं। संप्रदाय मरने के बाद का लाभ भी दिखाते हैं, जैसे कि मरने के बाद अप्सराएं मिलेंगी, हूरें मिलेंगी, बहुत बढ़िया सोम रस मिलेगा आदि आदि। इन प्रलोभनों से सांप्रदायिक मान्यता में लुभाया जाता है। उसके अलावा तर्क वितर्क करके साम्प्रदायिक मान्यताओं की ओर आकर्षित किया जाता है। हालांकि तर्क की अपनी सीमा है। इस तरह से तर्क या बुद्धि से देखना भी अपना नहीं है, वह अपनी अनुभूति नहीं है। इसके बाद की स्थिति होती है कि अनुभूति से जानना। जब अनुभूति से जानकारी मिलती है तो उसे भावनामयी प्रज्ञा कहा जाता है। अनुभूति के माध्यम से सत्य का दर्शन कराने वाली प्रज्ञा यानी भावनामयी प्रज्ञा हमारा कल्याण कर सकती है। 


फिर साफ होने लगेगा कि मैं और मेरा कुछ नहीं है...

श्रुत प्रज्ञा तभी कल्याणकारी है, जब वह तर्क प्रज्ञा की ओर ले जाए। तर्क वाली प्रज्ञा तभी फायदेमंद है, जब वह भावनामयी प्रज्ञा की ओर ले जाए। किसी भी सुख के समय खुशी होती है, उसके बाद जैसे ही वह सुख खत्म होता है, व्यक्ति दुखी होता है। यही अनुभूति करनी है कि यह सुख अनित्य है। उसके जाने पर क्या रोना, उसी तरह से दुःख भी अनित्य है। वह भी एक तरंग है, जिसे अनुभूति से समझा जा सकता है। शरीर की अनुभूतियों से इन तरंगों को महसूस किया जा सकता है कि कैसे यह सुख उत्पन्न होता है और कैसे दुख उत्पन्न होता है और वह तरंग गुजरने के साथ दुख या सुख खत्म हो जाता है। यह सब कुछ अनित्य है। अनात्म भाव जागने पर इसकी अनुभूति होने लगेगा। फिर साफ होने लगेगा कि मैं और मेरा कुछ नहीं है।

इसके साथ ही व्यक्ति को सांसारिक जीवन में मैं और मेरा ही कहना होगा। अगर अतिवाद करेंगे कि मैं कुछ नहीं, मेरा कुछ नहीं तो मुश्किल हो जाएगी। आसक्ति, राग और द्वेश को लेकर मध्य मार्ग अपनाना है। अंदर की प्रज्ञा पुष्ट होने के साथ बाहर की चीजों से आसक्ति कम होती जाती है।

बुद्ध के संदेशों, सांसारिक कष्टों और कुछ व्यावहारिक अनुभवों के बारे में गोयनका जी ने बताया। साथ ही उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तीसरा और पांचवां रोज सबसे कठिन लगता है साधकों को। शायद विपश्यना केंद्र ने 10 दिन के मानव व्यवहार पर अध्ययन किया होगा, जिससे यह तथ्य सामने आया होगा। निश्चित रूप से तीसरे दिन बेचैनी ज्यादा थी। प्रवचन सुनने के बाद 20 मिनट तक का सामूहिक ध्यान हुआ।

बहरहाल... भवतु सब्ब मंगलं के साथ तीसरा रोज भी बीत गया और साधु साधु कहते मैंने दिन बिता लिया।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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2 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-10-2017) को "ब्लॉग की खातिर" (चर्चा अंक 2746) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति - वंदना बाजपेयी

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