हिमुली हीरामणि कथा : अथ अघट घट उपसंहार उपाख्यान



मृणाल पांडे के उपन्यास का अंश

कहते हैं ऐसा लिखिए जो पहले न लिखा गया हो, जो बिलकुल नया हो...इस कहे को सुने तो सारा हिंदी-साहित्य-वर्ग है लेकिन किये कितना है, वह भूतकाल में मिलता है। मृणाल पांडे को पढ़ना हर बार उस भूत को वर्तमान में दिखा जाता है। इतनी ज़बरदस्त शैली, ऐसी भाषा कि पाठक औचक पढ़ता रहे, मुस्कुराता रहे, और सोचता रहे कि मृणालजी के शाब्दिक तीर उसके ठीक आसपास से गुजर रहे हैं और कई दफा तो उसे वह तीर ख़ुद पर भी लगता है। 

बानगी ऐसी है इस उपन्यास की कि यह सोचने को नहीं छूटता ‘हिमुली हीरामणि कथा’ वर्तमान को समझने की रोचक कुंजी होगी। 

लीजिये आनंद उठाइए...   

भरत तिवारी


हिमुली हीरामणि कथा : अथ अघट घट उपसंहार उपाख्यान
हिमुली हीरामणि कथा : अथ अघट घट उपसंहार उपाख्यान 



अथ अघट घट उपसंहार उपाख्यान :


घटना के बाद कुछ माह बीते। आशानुरूप अश्वमेधी घोड़ा जो महाराज द्वारा बड़े भव्य समारोह के साथ विजय को भेजा गया, प्रत्याशित रूप से दिग्विजय कर लौटा। लौटने पर नगर में यत्र तत्र तोरणद्वार बना कर पुष्पवर्षा से विजयी सेना का अभिनंदन किया गया। अत्रभवान् महाराज भी स्वयं सभी द्वारों पर अपने वाहन से हाथ उठा कर उन देशभक्तों का अभिनंदन करते और प्रजा का अभिनंदन स्वीकारते देखे गये जिस बीच वातावरण महाराज के अभिन्न मुख्य प्रचारक तथा राज ज्योतिषी हीरामणि शुक विरचित घोषों से गूंजता रहा :

‘हम तुम बोलें, तुम हम बोलें, बम बम लोले! बम बम लोले!’

‘लोल लोल लहरें, लोल लोल सुराज, राजाओं के राजा लोलेश्वर महाराज!’

‘लोल जी! लोल जी! लोल जी!’

‘ललो ललो लोरियाँ दूध भरी कटोरियाँ, कटोरी में बताशा, अच्छे दिन अच्छा तमाशा।’

कई स्थानों पर तो युवक युवतियाँ तो रंग उड़ाते, आविष्ट से नाचते हुए उत्साहातिरेक में वस्त्र फाड़ते तक देखे गये। काने शुक से अपनी सफलता की दिन रात भूरि भूरि प्रशंसायें तथा प्रजाजनों के बीच जा कर लाई अनेक प्रशंसापरक वार्तायें सुनते महाराज अतीव संतुष्ट हुए।

माघ शुक्ल द्वादशी के दिन धूमधाम से यज्ञ का आयोजन औपचारिक रूप से शुरू किया गया। और फाल्गुन पूर्णिमा के दिन वेदपारंगत विद्वानों ने शास्त्रीय विधि से निर्मित एक भव्य सोने तथा रत्नों से सज्जित यज्ञशाला में जिसमें बेल, खैर, पलाश, देवदारु तथा लिसोडे के 21 यूप खड़े किये गये थे, देश विदेश से भारी उपहार ले कर आये राजपरिवारों की उपस्थिति में नये राष्ट्र के जन्म के प्रतीकस्वरूप यज्ञ का प्रारंभ हुआ।

चीनांशुक से देह ढँके आपादमस्तक स्वर्णाभरणों से सज्जित आर्या हिमुली यज्ञ में महाराज की विशेष अतिथि थीं जिनका विशेष सत्कार किया गया। शुक को इस विशेष अवसर पर आर्या के अनुरोध पर ॠंखला मुक्त कर दिया गया। वह महाराज के वाम कंधे पर जा बैठा। प्रधान पुरोहित कुछ कहने को उद्यत हुए किंतु महाराज को अतीव स्नेह से भक्त शुक को सहला कर हर्ष जताते देख चुप हो गये।

भव्य कर्णमधुर मंत्रोच्चारसहित यज्ञ प्रारंभ हुआ और यथा समय समाप्त।

ठीक जिस समय पवित्र सात नदियों के जल से महाराज का महामस्तकाभिषेक प्रारंभ हुआ, कर्ण पिशाची बोली, यही समय है रे काने! चल शुरू होजा!

महाराज के श्रतीचरणों पर बैठा एक कौड़ी का कथाकार तोता अचानक उड़ा और यज्ञ वेदिका के पास जाकर उसके चक्कर काटने लगा। उसकी व्यग्रता देख सब स्तब्ध हुए। शेष लोगों में तो महाराज के अतिप्रिय शुक को कुछ कहने का साहस न था, अंतत: महाराज ने ही उच्च स्वर में उससे पूछा अहो, मुनि हीरामणि शुक! यह क्या करते हैं आप?

स्पष्ट वाणी में शुक बोला : ‘मैंने शास्त्रों में पढ़ा तथा आर्य दैत्य कुल गुरु शुक्राचार्य जी से सुना था कि अश्वमेध यज्ञ की पवित्र यज्ञ वेदिका की गर्म राख पर चलते परिक्रमा करने से हर विकलांगता मिट सकती है। मुझे लगा अत्रभवान् के यज्ञ में मेरी यह फूटी आँख भी पुन: स्वस्थ हो जायेगी! इसी लिये वेदिका के इतने चक्कर काटे, किंतु अब तक हुआ क्या? घंटा! यह यज्ञ नहीं आडंबर है मित्रो, आडंबर!

यज्ञशाला में सुई टपक सन्नाटा छा गया। महाराज को काटो तो खून नहीं।

जब तक वे सँबल पाते शुक उड़ता हुआ पहले सारी यज्ञशाला पर, फिर बाहर खड़ी प्रजा के बीच मँडरा मँडरा कर चिल्लाने लगा था :

‘रे बोलाला काना तोता बोलाला। राजा के अश्वमेध में घोटाला हीच घोटाला!’

भव्य यज्ञ का रंग तत्काल फीका पड़ गया। राजा का नि:शब्द खुला रहा मुख चुसे आम सरीखा दिखने लगा। पुराने दरबारी पैरों के नख से धरती खुरचते आँखों ही आँखों में एक दूसरे से पूछने लगे , क्यों जी? क्या सच कहता है शुक? शुक्राचार्य का वंशज क्या असत्य कहता होगा?

बाहर खड़ी प्रजा में भी खुसुर पुसुर की ध्वनि उभरने लगी।

यह सब देख सुन कर न्योते में अतिथि बन कर पिता के साथ आई मद्र देश की एक मसखरी राजकन्या पर हँसी का दौरा पड़ गया। उसे चुप कराने के असफल प्रयास देख देख कर कुछ ही क्षणों में कुरु- पांचाल, मगध- कोसल, सिंहल तथा कांबुज,सिंधु सौवीर, त्रिगर्त हर कहीं से आये राजसी पाहुने तथा राजदूत भी ठहाके लगाने लगे।

सुयोग पाकर हिमुली अदृश्य हुई।

बाहर खड़ी यज्ञ के लिये मुद्रा जुटाने से पस्त तथा जली भुनी बैठी जनता में भी बूढों को ठेंगा दिखा कर कुछ सिरफिरे युवा उन्मत्त हो नाचने लगे।

क्या झकास नारा है रे इस तोते का साला! महाराजा के यज्ञ में घोटाला हीच घोटाला!

हंगामा मच गया। कहाँ का यज्ञ कहाँ का अभिषेक?

अंतत: सुध पलटी तो गरजे लोलेश्वर, ‘अरे कैसी अव्यवस्था है यह? कोई है? अविलंब पकडो इस पापी देशद्रोही को! जाने न पाये। जीवितावस्था में लाओ इसे! मैं स्वयं इसका वध करूंगा!

कर्णपिशाची कथाकार के कान में बोली, रे हीरामन्न तेरा समय सुरू होता है अब्ब!

हीरामणि अब बाहर भीतर मँडराता चिल्लाने लगा : मेरी पकड़ी पुकड़ी होगी, मेरी पकड़ी पुकड़ी होगी!

हँसी और ऊँची हुई जिसके बीच चार विशेष गगनचारी भटों ने घात लगा कर तोते को पकड़ा और महाराज के पास ले चले।

हीरामणि चिल्लाया :

भीतर भीतर सब मिले हुए हैं जी, सबकी छुट्टी होगी , शुक की काट्टी कुट्टी होगी।

जनता का आबालवृद्ध जत्थे का जत्था यज्ञशाला के भीतर इस प्रहसन का अगला चरण देखने उमड़ पड़ा। पंडित और वेदज्ञ जान बचा कर भागे।

यज्ञशाला में खड़े रौद्ररूप धारी महाराज अपनी तलवार लहराते कहते थे, ‘चल रे पापिष्ठ, आज तुझे काट ही डालता हूँ।’ तो प्रजा हँसती तालियाँ बजाती। लोल! लोल! ललो ललो!

‘अम्मा यह कैसा लोल सम्राट है जी! काने तोते को चार चार सशस्त्र भटों से पकड़वाता है?’

कहीं एक बच्चा बोला। लोग हँसे, बच्चे के मुख में भगवान् का वास!

महाराज रुके।

अंगार सदृश्यनेत्रों से पहले बकवासी बच्चे को आँखों ही आँखों से डराया फिर बोले :

‘देख पुत्र, मेरा शौर्य! इसको मैं बिना मारे जीवित ही निगल जाता हूँ जैसे वन में अजगर बगुले को निगल जाता है।’

यह कहते हुए उन्होने तोते को उठाया और बिना चबाये निगल गये! बच्चे से फिर बोले, ‘देखा बे मेरा शौर्य!’

सुई टपक सन्नाटा! सिर्फ कभी बच्चे की सिसकियाँ सुनाई देती थीं।

तभी महाराज के उदर से तोते का स्पष्ट स्वर आया, और हँसी फिर प्रबल हुई। बच्चा खिलखिलाया।

‘पेट बना इक कालकोठरी, उसमें बैठा तोता! अगर कहीं मैं बाहर आता सोचो क्या कुछ होता

मित्रों सोचो क्या कुछ होता?’

जनता ताल दे दे कर यह तुकबंदी दोहराने लगी। अजी वाह! शुक्राचार्य का वंशज है, कोई ऐरागैरा नहीं। पेट के भीतर से भी कविताई कर रहा है! जिय्य!

महाराज गरजे, ‘ ये क्या सोचता है कि मैं इसकी बाहर लाने की चुनौती अस्वीकार कर दूंगा? कभी नहीं! बाहर निकल साले! लोलेश्वर को परास्त कर सके वह तीन भुवन चौदह समुद्र पर्यंत कोई नहीं बचा। चलो रे भटगण! मेरे अगल बगल सतर्कता से पहरा दो।

‘राजवैद्य से कोई जा कहो कि वे विरेचक चूर्ण लाकर मुझे दें। जैसे ही मैं इस दुष्ट का वमन करूं तुम दोनों को तत्काल तलवार से उसका बकवासी सर धड़ से अलग कर देना है!’

जो आज्ञा। भट एक स्वर में बोले।

कोई दौड़ा। राजवैद्य सहित विरेचक चूर्ण लाया गया, महराज द्वारा सही मात्रा में सुगंधित जल पी कर उदरस्थ किया गया।

कुछ ही पल बाद भारी बदबूदार वमन के बीच से पंख फड़फड़ाता हीरामणि शुक बाहर निकला।

तीखी तलवारें तुरत चमकीं! छपाक् छपाक्!

रक्त का फव्वारा छूट पड़ा।

पर यह क्या? बिजली की तरह लपक कर आई कर्णपिशाची के अदृश्य हाथ हीरामणि को बाहर दूर उठा ले गये थे।

लोगों ने देखा कि जो कटा पड़ा था वह शुक का सर नहीं, राजा लोलेश्वर की राजसी नाक थी।

रक्त बहा, किंतु राजा का। शुक का नहीं। राजसी नाक धुप्पल में गई, सो गई।

पुन: सुई टपक सन्नाटा।

कुछ देर बाद चूर्णसहित यज्ञशाला में आये राजवैद्य ने हतप्रभ राजा की नाक उठा कर उनके राजमुख पर चिपकाई और अंगरक्षकों के वलय में सुरक्षित अचेत महाराज बाहर ले जाये गये।

इंद्रप्रस्थ में हर दुर्घटना के लिये पूर्वनिश्चित प्रणाली है। वह तुरत सक्रिय हुई। पहले भटों ने नारा लगाया, चिरजीवी रहें महाराज!

चारणों ने पुण्याहवाचन प्रारंभ किया। फिर महामृत्युंजय जाप होने लगा।

व्यवहार कुशल महामात्य ने सामने आकर शांतिस्थापना की, तथा बिदकती स्थिति की वल्गा कुशलता से हाथ में ली।

यज्ञशाला में बचे खुचे अतिथियों राजपुरुषों तथा व्यर्थ वहाँ लटके मार रहे यज्ञ सामग्री से गुपचुप सुवर्ण या रौप्य मुद्रायें उठाते युवा जनों को बाहर खदेड़ दिये जाने का इशारा कर शेष उन्होंने सबको सूचित किया :

‘अहो! हम सबके पुण्य से हमारे प्रिय महाराजाधिराज लोलेश्वर सिद्धदास जी 1008 सचेत हैं और पवित्र राजसी नाक भी सफलतापूर्वक यथास्थान स्थापित कर दी गई है।

‘यज्ञ संपन्न हुआ। आप सब रात्रिकालीन राजकीय भोज के लिये सादर आमंत्रित हैं। अभी अपने अपने राजकीय अतिथि आवास को प्रस्थान कर विश्रामादि करें। पुन: सायंकाल की वेला में यहाँ राजमहल में पधारें। उस समय महाराज भी पुन: आपके मध्य सुशोभित होंगे।’

सुधीजन सभा शांतिमयता से विसर्जित हुई और शेष कार्यक्रम बिना व्यतिक्रम के, यथासमय यथासूचित संपन्न हुआ।

किंतु तोता लुप्त हुआ सो हुआ। नाक कटनी थी सो कटी।

उपसंहार :

जानकार बताते हैं कि इस अघट घटना के बाद महाराजा लोलेश्वर सिद्धदास का स्वभाव भी पुराकालीन राजा चंडाशोक की ही आमूलचूल बदला। समय बीतता गया। चक्रवर्ती महाराजाधिराज के धवल केश कुछ विरल हो गये। शरीर कुछ दुर्बल हुआ किंतु वाणी पहले भी सानुनासिक थी वैसी ही रही।

आयु कारण हो या कुछ और, अत्रभवान् महाराज लोलेश्वर सिद्धदास अब प्रजाजनों के बीच न पहले भाँति घूमते न ही सतत धाराप्रवाह भाषण देते थे। आवश्यकता भी न थी। प्रजा के बीच वे एक सिद्ध साधु का पद पा चुके थे। वे दिखें या नहीं, ईश्वर की ही तरह उनकी उपस्थिति सार्वभौम मानी जाती थी। इसी क्रम में महाराज के बहुचर्चित रंगारंग परिधानों की जगह काषेय वस्त्रों ने ले ली। भोजन विशुद्ध शाकाहारी हुआ। पेय जल में वे मात्र गंगाजल ग्रहण करते हैं यह कहा गया।

महाराज की वन्यजीव संरक्षण योजना के अंतर्गत लोध्र उपवन तथा महल के हर प्रकार के पालतू पशु पक्षी भी दूर किसी वन में भेज दिये गये, और बाज़ारों तथा घरों में किसी प्रकार का तोता बेचना या पालना धर्मविरुद्ध बना दिया गया। देश बर के सभी व्याध बहेलियों को अन्यान्य प्रकार के हस्तशिल्पों का नि:शुल्क प्रशिक्षण दिलवा कर उनको राज्य तथा धर्म के अनुकूल बन दिया गया।

शांतिप्रिय महाराज ने जनहित में कोलाहलमय कथावाचन पर भी रोक लगवा दी। स्वच्छता अभियान के अंतर्गत पाठशाला के वटुकों द्वारा जनमन को कुसंस्कार देने वाले ग्रंथों की होली जलवाई गई।



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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-02-2017) को "दिवस बढ़े हैं शीत घटा है" (चर्चा अंक-2882) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    महाशिवरात्रि की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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