बूशो और शेरा — अनुज की 'नयी' कहानी


खस्सी के गोश्त की जगह मुर्गे-मुर्गी बहुत राहत देते थे, लेकिन 'तास' डिश की मुश्किल यह थी कि इसकी 'रेसिपी' में मुर्गे-मुर्गी के गोश्त के लिए कोई जगह नहीं होती थी। यद्यपि ऐसा नहीं था कि इस क़स्बे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई आपसी बैर-भाव था या उनके बीच तनाव रहता था, बस्ती में तो साम्प्रदायिक सौहार्द सतत बना रहता था, लेकिन दोनों सम्प्रदायों के लोग मौन-भाव और चुपके से बहाने बनाकर गोश्त में भेद कर लिया करते थे। 
अनुज की 'नयी' कहानी

बूशो और शेरा

— अनुज

अँधेरा छँटने लगा था और नीले आसमान में सूरज की लालिमा भरने लगी थी। गौरैयों की चुन-चुन भी शुरु हो चुकी थी। कौवे आते और एकबारगी 'टांय' करके उड़ जाते। जमुना ढाबे की साफ-सफाई में लगा था। झाड़ू देता हुआ मेजों के नीचे गिरे-पड़े गोश्त के टुकड़ों और अधचबाई हुई हड्डियों को एक तरफ छाँटकर अलग कर रहा था। जमुना का यह ढाबा मोतिहारी शहर के बीचो-बीच स्थित गाँधी चौक के आसपास बिखरी पड़ी बहुत सी दुकानों के रेलों में मुहाने पर था। शाम के समय तो इन ढाबों पर 'तास' के क़दरदानों की जमघट-सी लगी रहती थी। 'तास' एक खास तरह का डिश होता था, जिसकी 'रेसिपी' का मुख्य 'इन्ग्रेडियन्ट', खस्सी अर्थात् बकरी के कमसिन बच्चे का गोश्त होता था। इस डिश को तैयार करने के लिए गोश्त को विविध मसालों के साथ मैरिनेट करके रखा जाता और फिर इसे लकड़ी की हल्की आँच पर इस क़दर भूना जाता था। गोश्त इतना ही भूना जाता कि चबाने की गुंजाइश बची रहे। शराब पीने वाले मांसाहारी लोगों के लिए तो चखने के रूप में 'तास' उनकी पहली पसंद हुआ करता था। इस डिश की तैयारी में इस बात का खास ध्यान रखा जाता कि अंतिम रूप से यह सूखा ही रहे, इसीलिए इसमें प्याज के लिए कोई जगह नहीं होती थी। इस क़स्बे में बहुत सारे परिवार ऐसे थे जो मांसाहारी तो थे, लेकिन लहसुन-प्याज से परहेज रखते थे। यही कारण था कि इस क़स्बे में शराब के साथ चखने के रूप में 'तास' को बहुत पसन्द किया जाता था।

'तास' को भूने के साथ सालन के रूप में खाने का ही प्रचलन था। लेकिन ज्यों-ज्यों बिजली पर चलने वाले बड़े-बड़े मशीनी घन्सारों का चलन बढ़ने लगा, क़स्बे में मिट्टी के छोटे-छोटे घरेलू घन्सारों का धंधा बन्द होने लगा और चावल के लजीज भूने को मुरमुरों ने विस्थापित करना शुरु कर दिया था।


पहले तो ढाबों में इस डिश को अख़बार के टुकड़ों पर ही परोसने का चलन था, लेकिन ज्यों-ज्यों चीनी-मिट्टी के प्लेटों का चलन बढ़ने लगा, इन ढाबों में भी प्लेट रखे जाने लगे थे। हालांकि कुछ लोग जातीय शुद्धता का ख़याल करके अभी भी अख़बार के टुकड़ों को ही उत्तम मानते थे।

शराब की बोतल खुली रहती और जब तक 'तास' तैयार होता, 'शेफ' भूने पर झूरी डाल जाया करता। लोग भूने को इसी 'झूरी' के साथ तबतक खाते रहते, जबतक कि तैयार 'तास' तवे से निकलकर उनकी थाली तक नहीं पहुँच जाता। 'तास' को जब तवे पर भूना जाता, गर्म तेल के साथ मिलकर गोश्त से निकले हुए छोटे-छोटे टुकड़े बुरादे जैसे बनकर करारी हो जाते और तवे से चिपक जाते थे। 'शेफ' चिपके हुए उन्हीं करारे बुरादों को अपनी कलछी से खरोंच-खरोंचकर तवे से अलग निकालता और ग्राहकों में 'कॉम्प्लीमेन्ट्री' बाँट दिया करता। जले हुए बुरादेनुमा इसी चीज को 'झूरी' के नाम से पुकारा जाता था। गोश्त के इस डिश का नशा ऐसा होता था कि एक-एक आदमी आधा-पौना किलोग्राम गोश्त अकेले ही चट कर जाता था। उन दिनों महंगाई भी तो आज की तरह नहीं थी! अब तो महंगाई का आलम यह है कि लोग-बाग़ दो-चार टुकड़ों से ही काम चला लेने पर विवश हो गए से दिखने लगे हैं! हालांकि 'तास' के पुराने शौक़ीन लोग 'डाइटिंग' आदि का हवाला देकर अपनी माली हालत छुपा लेने की अथक कोशिश कर रहे होते हैं, लेकिन बड़ा मर्ज भी कहीं छुपता है भला! गाँधी चौराहे के ये ढाबे अपने इसी डिश के कारण दूर-दराज के अन्य क़स्बों में भी अपने नाम से पहचाने जाते थे।

ढाबे दो-दो बजे रात तक खुले रहते थे, लेकिन यहाँ किसी को भी निठल्ला बैठे रहने की इजाज़त नहीं होती थी। जब तक मुँह चल रहा होता, तभी तक मेज पर टिकने की अनुमति होती। यही क़ायदा था। हर मेज पर खुली बोतल और 'तास' के करारे टुकड़ों के बीच ज़मीन-जायदाद के छोटे-मोटे झगड़ों से लेकर बड़े-बड़े अन्तर्राष्ट्रीय मसलों तक की पंचायती चलती रहती और सारे मसले एक-आध घंटे में ही निपटा दिये जाते। कुछेक यमराज बने लोग सुपारी की रक़म गिनते हुए कितने ही अभागों की ज़िन्दगियों की गिनतियों को कम कर देने की पावन-प्रतिज्ञा भी इन्हीं ढाबों की मेज पर लिया करते थे। सुपारी की रक़म के साथ वायदे किए जाते और उन वायदों पर अमल किये जाने के वायदे भी लिए जाते। ऐसे कई महती व्यावसायिक कार्यों के लिए जमुना के इस ढाबे को बहुत शुभ माना जाता था। सुपारी वाले धंधे में आए नए रंगरूट तो अपनी बोहनी के लिए जमुना के ढाबे को ही खास तौर पर चुनते थे, क्योंकि पूरे इलाके में यह धारणा आम थी कि “जमुना तास वाले के ढाबे पर ली-दी गयी सुपारी बाँव नहीं जाती है। मौके पर न तो कट्टा धोखा देता है और ना ही निशाना चूकता है। इस तरह वायदों को अमली जामा पहनाने में किसी तरह की खलल नहीं पड़ती है।“ ऐन मौके पर कट्टे का धोखा दे देना इन यमराजों के लिए सबसे बड़ी समस्या मानी जाती थी। कभी-कभी तो ऐन वक़्त पर कट्टे चलते ही नहीं थे, तो कभी-कभी उल्टी दिशा में ही चल जाते थे। कट्टे की नाल का फट जाना भी एक बड़ी समस्या होती थी। लेकिन क़स्बे में इस बात की ख़ूब चर्चा थी कि धंधे में जमुना के ढाबे का शगुन बहुत शुभ होता है। ऐसा कभी सुना भी नहीं गया था कि सुपारी जमुना के ढाबे में ली गयी हो और काम को अंजाम देने में ऐसी कोई समस्या आड़े आ गयी हो। इसलिए भी जमुना के ढाबे का रसूख़ बड़ा माना जाता था और ऐसे सभी धंधों के अधिकांश वायदे जमुना के ढाबे में ही लिए और दिए जाने को प्राथमिकता दी जाती थी।

इन्हीं वायदों और क़ायदों के बीच मोतिहारी शहर के बीचो-बीच स्थित गाँधी चौराहे के लगभग सभी ढाबे देर रात तक गुलजार बने रहते थे। चूँकि जमुना का ढाबा सबसे पुराना था और जमुना का अपना व्यक्तिगत रसूख भी क़स्बे में अच्छा था, इसलिए उसका ढाबा बहुत विश्वसनीय माना जाता था। नहीं तो, प्राय: ऐसा होता था कि लोगबाग़ ढाबों का नाम देखकर ही यह तय कर लिया करते थे कि किस ढाबे में खाना चाहिए और किसमें नहीं। उन दिनों मुसलमानों के ढाबों में हिन्दू लोग गोश्त खाने से परहेज करते थे और हिन्दुओं के ढाबों को मुसलमान भी गोश्त खाने के लिए मुनासिब नहीं समझते थे। हालांकि जब कभी भी ऐसी स्थिति सामने आ जाती थी तो खस्सी के गोश्त की जगह मुर्गे-मुर्गी बहुत राहत देते थे, लेकिन 'तास' डिश की मुश्किल यह थी कि इसकी 'रेसिपी' में मुर्गे-मुर्गी के गोश्त के लिए कोई जगह नहीं होती थी। यद्यपि ऐसा नहीं था कि इस क़स्बे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई आपसी बैर-भाव था या उनके बीच तनाव रहता था, बस्ती में तो साम्प्रदायिक सौहार्द सतत बना रहता था, लेकिन दोनों सम्प्रदायों के लोग मौन-भाव और चुपके से बहाने बनाकर गोश्त में भेद कर लिया करते थे। दोनों के पास अपने-अपने मज़हबी कारण होते थे। मुसलमानों को यह भय सताता रहता था कि कहीं कोई हिन्दू ढाबेदार उन्हें 'झटके' का गोश्त ना खिला दे! हालांकि हिन्दू 'हलाल' और 'झटके' को लेकर उस क़दर कोई भेद नहीं रखते थे, लेकिन किसी मुसलमान के ढाबे में गोश्त खाते हुए उन्हें यह आशंका सतत सताती रहती थी कि पता नहीं बकरे का गोश्त है भी या नहीं! लेकिन चौराहे के ढाबों में जमुना ने अपनी ऐसी विश्वसनीयता जमायी थी कि उसके ढाबे में हिन्दू और मुसलमान एक ही मेज पर साथ-साथ बैठकर बेख़ौफ गोश्त चबाते हुए आम दिख जाया करते थे।

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...पहले तो बूशो भी रात की महफिल में शामिल होने की ख़ूब जुगत किया करता था, लेकिन ढाबों के खड़ूस मालिकों की मौजूदगी में उसकी एक ना चलती थी। जैसे ही ढाबों के सामने आकर खड़ा होता कि 'दुर-दुर, मार-मार' का शोर शुरु हो जाता। एक जमुना ही था कि बूशो को कुछ-ना-कुछ थमा दिया करता था। लेकिन उसके भी मूड का तो कोई ठीक रहता नहीं था! कब मूड ठीक हो और दो-दो, चार-चार टुकड़े सामने डाल जाए और कब किसी ग्राहक से ठन गयी हो या किसी बात पर मूड बिगड़ गया हो, और वह लाठी लेकर दौड़ा चले! कुछ तय नहीं रहता था। ज्यादातर स्थितियों में तो लाठी मारता भी नहीं था! लाठी देखकर ही बूशो कांय-कांय करता हुआ भाग खड़ा होता था। बूशो ढाबे से दूर भागता, थोड़ी देर इधर-उधर लुकता-छिपता, फिर थोड़ी देर बाद सारे आत्मसम्मान को आले पर रख, पूँछ हिलाता हुआ वापस लौट आता। जब आग पेट के अन्दर लगी हो तो चमड़ी की जलन तक तो महसूस होती नहीं, आत्मसम्मान की चिन्ता कौन करे!

धीरे-धीरे बूशो ने अपने अनुभवों से यह सीख लिया था कि शाम की मारा-मारी से बेहतर है कि वह शाम का उपवास ही रख ले और सुबह होने की प्रतीक्षा करे। सुबह के समय राहें बहुत आसान हो जाती थीं। शायद बूशो ने यह सोचा होगा कि “यदि थोड़ा मन मारकर बसिऔरे पर भरोसा कर लिया जाए, तो बहुत सारी दूसरी मुश्किलों से निज़ात मिल सकती है। अपने देश में इन्सान भी तो ज्यादातर ऐसे ही हैं जो एक शाम फांके पर ही गुजारा करते हुए बासी भोजन से ही काम चला लेते हैं और मन मारकर ही सही, सुखी जीवन जी रहे हैं। इन्सानों में तो फांके भरी शाम के बावजूद बसिऔरे के लिए भी मारा-मारी मची रहती है, यहाँ तो स्थिति इंसानों के मुक़ाबले फिर भी ठीक-ठाक है!

हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं था कि सुबह के समय बूशो वहाँ अकेला होता था और अधचबाई हड्डियों के लिए वहाँ कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं होती थी। प्रतिस्पर्द्धा तो सुबह में भी रहती थी, लेकिन रात वाली कटरा-कुटरी वाली स्थिति नहीं होती थी। रात में तो ऐसा माहौल बनता कि बात सम्भाले नहीं सम्भलती, और जब बात बहुत बिगड़ जाती तो अंतत: जमुना को ही जैसे 'भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग' बनकर सामने आना पड़ता। जैसे ही गुर्राहटें गूँजती और युद्ध का तुमुल नाद शुरु होता, जमुना बांस की तेल पिलाई हुई मोटी लाठी लेकर बाहर निकलता। जमुना की लाठी चलनी शुरु ही होती कि लहराती लाठी देख, योद्धा भाग खड़े होते। बूशो के लिए दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि सुबह में जमुना की लाठी का कोई भय नहीं होता था। जमुना ढाबे की सफाई करते हुए गोश्त के कुछ टुकड़े और हड्डियाँ स्वयं सम्भालकर एक तरफ रख दिया करता था। इस तरह हाशिये पर जी रहे बूशो जैसे मिरमिरे लमेरुआ कुत्तों के लिए राह आसान हो जाती थी। यही कारण था कि इन लमेरुआ कुत्तों को सुबह का समय ही सबसे मुफ़ीद दिखता था। इसीलिए बूशो जैसे लमेरुआ कुत्तों ने बसिऔरे पर ही संतोष करना सीख लिया था।

बूशो हर रोज सुबह-सुबह बसिऔरे की आस में ढाबे पर आकर खड़ा हो जाता। किसी दिन कम, तो किसी दिन ज्यादा, कुछ-न-कुछ तो मिल ही जाता था। कभी गोश्त के साबुत टुकड़े मिल जाते, तो कभी अधचबाई हड्डियों से ही काम चलाना पड़ता। बूशो को हड्डियाँ चबाते हुए देखना भी एक खास तरह का अनुभव होता था। कभी-कभी तो हड्डियाँ चबाते हुए उसके दाँतों से खून भी निकल आता था, लेकिन मजाल कि हड्डियाँ मुँह से छूट जाएँ!

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हर दिन कि तरह उस दिन भी, बूशो अपनी पूँछ समेटे, जीभ लपलपाता हुआ ढाबे के सामने भक्ति-भाव से बैठा जमुना का इन्तज़ार कर रहा था। उसके कुछ और प्रतिस्पर्द्धी भी आगे-पीछे, दायें-बायें बैठे जमुना का इन्तजार कर रहे थे। जमुना ने 'च्चु-च्चु' की चुचकारी लगायी और सभी प्रतिस्पर्द्धी अपनी-अपनी स्वामिभक्ति दिखाते हुए उसके आस-पास आकर खड़े हो गए। जमुना ने सबके सामने बराबर से बसिऔरे का बँटवारा कर दिया। सभी अपने-अपने हिस्से के बसिऔरे को चट करने में लग गए। लेकिन तभी जैसे अचानक खलबली-सी बच गयी।

लालजी भाई अपने कुत्ते शेरा के साथ सामने से चले आ रहे थे। शेरा को देखते ही सारे प्रतिस्पर्द्धी रणछोड़ भागने लगे। एक बूशो ही था जो जमा रहा। हालांकि बूशो ने भी शेरा को देखकर, अपने खाने की गति तेज कर दी थी, लेकिन वह भोजन छोड़कर भागना नहीं चाहता था। बूशो हड्डियों को जल्दी-जल्दी चबाता हुआ गुर्राता भी जा रहा था। उसे भय था कि कहीं शेरा उसके हिस्से के बसिऔरे को हड़प ना ले। हालांकि उसकी शंका निर्मूल थी। बूशो को कहाँ मालूम था कि शेरा ताजे गोश्त से भरी थाली में भी बड़ी मान-मनौव्वल के बाद ही मुँह डालता था, फिर इन रात की बासी-सूखी हड्डियों में उसकी क्या दिलचस्पी हो सकती थी? और फिर बूशो और शेरा की दुनिया तो कोई इन्सानी दुनिया थी नहीं, कि अपना पेट चाहे लाख भरा हो, दूसरों के हिस्से को भी अपने कोठार में भर लेने की मारा-मारी मची हुई रहती हो! लेकिन उस समय बूशो ने शेरा को अपना प्रतिद्वंद्वी मान लिया था और आत्मरक्षार्थ गुर्राने लगा था। दूसरी ओर, शेरा मांस के बासी टुकड़ों में भले ही उसकी कोई दिलचस्पी ना रही हो लेकिन उसे बूशो की यह गुर्राहट युद्ध की ललकार से कम ना लगा। प्रतिवाद में उसने भी गुर्राते हुए अपनी लाल-लाल आखें बूशो पर गड़ा दीं। बूशो अभी लड़ने वाले हौसले में नहीं था। वह तो अपने हिस्से की हड्डियों को जल्दी-से-जल्दी समाप्त कर, खुद वहाँ से खिसक लेना चाहता था।



लालजी भाई को देख जमुना सजदे में दौड़ा, “मालिक, प्रणाम।

प्रणाम-प्रणाम! का रे जमुना, यह क्या तुम लमेरुआ कुत्ता सब का बजार लगाये रखता है? भगाओ सबको मारके यहाँ से।“ लालजी भाई ने बूशो की ओर इशारा करते हुए जमुना को झिड़की लगायी।

भगाए ही रखते हैं मालिक, लेकिन सुबह-सुबह आके थोड़ा हड्डी-वड्डी साफ कर जाता है सब, इसीलिए छोड़ देते हैं कि तनी खा ल स एकनिओ का।

नहीं, नहीं, ऐसा मत किया करो। लमेरुआ कुकुर का जात है, उसके साँस से भी बीमारी फैलता है। यह सब कोई हमारे शेरा जैसा थोड़े ना है कि सूई-ऊई दिलावाके एकदम टनाटन रखा गया हो!

ई बात तो है ही मालिक। आपके कुत्ता जइसा सुन्दर कुत्ता पूरा इलाका में कौनो दोसरा भी है का? कहाँ आपका शानदार कुत्ता और कहाँ ई सब लमेरुआ कुत्ता! कौनो तुलना ही नइखे मलिकार!

तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है का रे? मेरा शेरा तुमको कुत्ता दिखता है? खबरदार जो आगे से इसको कुत्ता कहा। यह हमारा बेटा है, बेटा“, यह बोलते हुए लालजी भाई शेरा के माथे पर हाथ रखकर उसे सहलाने लगे। प्यार पाकर शेरा भी दोगुने उत्साह से पूँछ हिलाता हुआ 'गों-गों' कर उठा। बूशो हड्डी चबाता हुआ अभी भी गुर्राता जा रहा था।

जमुना ने जैसे ही बूशो की गुर्राहट सुनी, लालजी भाई के संभावित गुस्से की आशंका से काँप गया। तत्काल दौड़ा लाठी लेकर और बूशो को मार भगाया। बूशो ने भी जमुना का मान रखते हुए पतली गली पकड़ ली। लालजी भाई अपने कुत्ता ब्रिगेड के साथ अबतक आगे बढ़ चुके थे।

एक रिक्शा वाला अपने ही रिक्शे की पैसेन्जर सीट पर अपना पूरा धड़ और चालक सीट के साथ-साथ रिक्शे के हैंडल तक पैर फैलाकर मुँह ढँककर सो रहा था। शेरा ने आव-देखा-ना-ताव, 'भौं-भौं' करता हुआ झपट पड़ा। रिक्शा वाला धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। लालजी भाई जोर-जोर से हँसने लगे। रिक्शे वाले ने अपने को सीधा किया और लालजी भाई को देख, अपने गुस्से पर काबू करते हुए उन्हें झुककर प्रणाम किया,

प्रणाम मालिक

प्रणाम-प्रणाम, क्या हाल है रे केसरिया?

हूँ..! कमाना नहीं है क्या कि लम्बी तानकर सो रहा है?“ लालजी भाई ने पूछा।

जी मालिक, कमाएँगे नहीं तो खाएँगे कहाँ से और बच्चा सब का पेट कइसे पलेगा?

तो उठो, भोर हो गयी है, उठकर मुँह-कान धो, थोड़ा टहला-बुला करो।

जी मालिक, अच्छा किया कि शेरा जी ने जगा दिया, अब सवारी लेने निकलेंगे,“ बोलते हुए केसरिया ने अपने को संभाला।

ठीक है, ठीक है, और सब घर-परिवार ठीक है ना?

जी मालिक, सब आप लोगन का आशीर्वाद बना हुआ है।

लालजी भाई की उसके जवाब में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अपने कूकर ब्रिगेड के साथ आगे बढ़ चुके थे।

केसरिया ने अपने को झाड़-पोंछ रहा था। अपने को सम्भालते हुए वह अभी भी शेरा को क्रोधित और हिकारत भरी नज़रों से घूर रहा था। लालजी भाई के कारवाँ के आगे बढ़ते ही केसरिया ने दबी ज़ुबान से भुनभुनाते हुए कुत्ते और कुत्ते के मालिक, दोनों को दबी जुबान में गालियाँ बकनी शुरु कर दी, “मुफत का खाना मिले तो कुकुर भी बाघ हो जाता है, मारे सार के चार लाठी ना, सब रईसी बाहर निकल जाए। लुटेरा बेईमान सब कहीं का…।

यह लगभग रोज़ की बात होती थी। लालजी भाई अपने सहचरों के साथ शेरा को लेकर मॉर्निंग वॉक पर निकलते और इसी बहाने मेन रोड का एक चक्कर लगा आते थे। लालजी भाई शहर के जाने-माने ठेकेदार थे। जब से देश में सत्ता पर व्यापारी वर्ग का क़ब्जा बढ़ा था, लालजी भाई भी अपने को बिजनेसमैन कहने लगे थे। शेरा उनके कुत्ते का नाम था। कुत्ता क्या था, साक्षात काल दिखता था। ऐसा लगता, मानो सामने कोई गदराया हुआ बाघ खड़ा हो गया हो। चलता तो, क़दम भी ऐसे सम्भाल-सम्भालकर रखता, मानो कुत्ता नहीं, कहीं के शहंशाह-ए-आलम निकल चल रहे हों! कोई बता रहा था कि लालजी भाई ने उसे अमेरिका से मँगवाया है। लालजी भाई का ख्याल था कि “देश चाहे लाख 'लैसेज फेयरे' हो जाये, लेकिन शुद्ध विदेशी चीज अभी भी विदेश में ही मिलेगी। शुद्ध चीज तो अपने देश में मिल ही नहीं सकती, जब भी मिलेगी, मिलावटी ही मिलेगी।“ इसीलिए उन्होंने कुत्ता भी अमेरिका से ही मँगवाया था। चर्चा तो यह भी थी कि लालजी भाई ने कुत्ता भी हाथी के मोल खरीदा है! इसीलिए बस्ती के लोग शेरा को नज़रभर देखने की हसरत रखा करते थे। नहीं तो, कुत्ते भी दुकानों में बिकते हैं, क़स्बाई समाज के लिए यह सोच से परे बात थी। गाय-बैल, हाथी-घोड़े, बकरा-बकरी, मुर्गा-मुर्गी तो बिकते सुना जाना आम बात थी, लेकिन कुत्ते भी बिकते हैं, और वो भी हाथी के मोल, मोतिहारी क़स्बे के लिए यह एक नितान्त नई बात थी। क़स्बों के लमेरुआ कहे जाने वाले बूशो जैसे कुत्ते तो बेचारे मुफ्त में भी महँगे होते थे। इनकी ओर देखता ही कौन था!

हालांकि ऐसा नहीं था कि 'ग्रेट-डेन' और 'लियन-बर्गर' कह देने-भर से या फिर कि 'रॉट-वायलर' या 'चाऊ-चाऊ' नाम रख देने-भर से उन कुत्तों के नथुनों से बास आना बंद हो जाती थी या वे दुम हिलाना भूल जाते थे या फिर 'जर्मन शेफर्ड' कह देने भर से वे गंदगी में मुँह मारना बंद कर देते थे। ऐसा कुछ भी नहीं था। लेकिन, चूँकि ऐसे कुत्ते बाज़ार में बहुत महँगे मोल बिकते थे, इसीलिए इनका 'सोशल वैल्यू' बहुत बढ़ा हुआ रहता था। ऐसे कुत्ते अपने मालिकों की सामाजिक हैसियत में इज़ाफा करते रहते थे। शायद यही कारण था कि लालजी भाई जैसे लोग अपने घरों की शोभा बढ़ाने के लिए इसी तरह के अंग्रेजी नाम वाले ब्रीड के कुत्तों को सर्वोत्तम मानते थे। जिस समाज में शेरा जैसे कुत्तों से इन्सानों की सामाजिक हैसियत बढ़ती हो, वहाँ बेचारे बूशो जैसे लमेरुआ कुत्तों के हिस्से सड़कों की खाक के अलावा और आ ही क्या सकती थी!


लमेरुआ कुत्तों को लेकर लालजी भाई के विचार बहुत साफ थे। वे बार-बार कहा करते थे कि “स्ट्रीट डॉग कमज़ोर और पिलपिले होते हैं, इसलिए किसी काम के नहीं होते हैं।“ उनका कहना भी ठीक था। लमेरुआ कुत्ते दिखने में पिलपिले होते थे और उनकी हड्डी-हड्डी निकली रहती थी। वे भौंकते भी थे तो इसतरह मानो किंकिया रहे हों। अब शरीर में दम हो तब तो भौंके भारी आवाज़ में! किंकियाते रहने की आदत भी तो पड़ गयी होती थी! एक रोटी भी खानी हो, तो कम-से-कम दो लाठी तो खानी ही पड़ती थी। कोई पत्थर भी उठाता, और भले ही ना मारे, लेकिन केवल मारने का इशारा-भर ही कर दे, तो ये 'काँय' से कर देते थे। भोजन की स्थिति ऐसी थी कि बचे-खुचे में भी मारा-मारी लगी रहती थी। फिर कहाँ से लाएँ इतनी ताक़त कि भौंकने में भी 'तिब्बटन-मैस्टिफ' और 'इंग्लिश-बुलडॉग' से प्रतिस्पर्द्धा करें? वे हमेशा हाशिए पर ही रह जाते थे।

लालजी भाई ने क़स्बे में अपनी शान बघारने के लिए ऐसा ही कोई विदेशी ब्रीड का कुत्ता मँगवाया था। ख़ूब मोटा और भारी-भरकम था। पता नहीं कितने किलो का था, लेकिन दिखता ख़ूब भारी था। जब भौंकता तो ऐसा लगता मानो पूरे क़स्बे ने किसी भूखे शेर की दहाड़़ सुन ली हो। लालजी भाई ने उसका नाम रखा था - शेरा। रोज़ सुबह-सुबह उसे लेकर 'मॉर्निंग वॉक' पर निकलते। अब इस मोतिहारी क़स्बे में कोई समन्दर तो था नहीं कि समन्दर के किनारे दौड़ लगाएँ! एक गाँधी मैदान ज़रूर था, लेकिन वह उनके घर से इतनी दूर था कि वहाँ जाना मुश्क़िल का काम था। एक मेन रोड था, जहाँ 'मॉर्निंग वॉक' किया जा सकता था। सुबह-सुबह सड़कें खाली होती थीं और दुकानें बंद रहती थीं, इसलिए लोगों को टहलने-घूमने के लिए जगह मिल जाती थी। सड़क के किनारे कुछ रिक्शे वाले अपने-अपने रिक्शों पर ऊँघते पड़े दिखते होते, जबकि स्कूली बच्चे अपनी-अपनी बंद डब्बेनुमा रिक्शों, बसों और गाड़ियों का इन्तज़ार करते हुए दिख जाते। आम लोग भी सड़क के किनारे टहलते-घूमते रहते थे। ऐसे में, मेन रोड पर कुत्ते के साथ 'मॉर्निंग वॉक' करने से सामाजिक टशन के बनने या उस टशन के दोगुने-चौगुने हो जाने की गुंजाइश हमेशा ही बनी रहती थी।

रोज़ सुबह-सबेरे लालजी भाई अपने शेरा को लेकर 'मॉर्निंग वॉक' पर निकल पड़ते। शेरा की कमर से लेकर गर्दन तक चमड़े की मोटी चिमौटियाँ बँधी होतीं और इनसे आधुनिक क़िस्म की नायलॉन वाली रस्सी बँधी होतीं। लालजी भाई इन नाइलॉन की रस्सी का दूसरा सिरा अपने दोनों हाथों में कसकर पकड़े रहते। भारी-भरकम शेरा उन्हें खींचता हुआ चलता रहता और लालजी भाई हाँफते हुए उसके पीछे-पीछे तेज़ क़दमों से भागते चलते। शेरा तो हाँफता भी तो ऐसा लगता कि फुँफकार रहा हो। उसे देखकर ही सामने से आते हुए लोग ख़ुद-ब-ख़ुद सड़क के किनारे दुबक जाते। हालांकि लालजी भाई लोगों को बोलते रहते कि “कुछ नहीं करेगा, कुछ नहीं करेगा, डरने की जरूरत नहीं है,“ लेकिन लोग शेरा की कद-काठी से ही भयभीत हो जाया करते थे। बच्चे शेरा को कौतूहल भरी आँखों से देखते, जबकि अपने बच्चों को स्कूल बसों के स्टॉप तक छोड़ने आईं उनकी माँएँ शेरा की ओर भयभीत निगाहों से देखती रहतीं। वे शेरा को देखते ही अपने-अपने बच्चों का सिर पकड़कर अपने पेट से चिपका लेतीं, जबकि रिक्शे-टमटम वाले शेरा की ओर हिक़ारत भरी दृष्टि से देखते हुए अपना मुँह बिचका लिया करते थे। शेरा जब मेन रोड पर निकलता तो सबसे बड़ी आफ़त लमेरुआ कुत्तों पर आ जाती। शेरा घर से निकलता नहीं कि उसके क़दमों की आहट भाँपकर ही लमेरुआ कुत्ते जान बचाकर पतली गली पकड़ लेते। जिसे जहाँ जगह मिलती, वहीं दुबककर खड़ा हो जाता। शेरा एकबार भौंकता कि लमेरुआ कुत्ते अपनी दोनों पिछली टाँगों के बीच अपनी-अपनी पूँछ दबाकर बेतहाशा भागने लगते, और शेरा था कि बड़ी शान से सड़क के दोनों ओर मुँह घुमा-घुमाकर जीभ लपलपाता हुआ और झूमता हुआ ऐसे चलता रहता मानो क़स्बे की वादियों में अपने होने का अहसास भर रहा हो।

अबतक लालजी भाई का कारवाँ केसरिया के रिक्शे से आगे निकल चुका था। हमेशा की तरह रास्ते में जो भी मिल रहा था, लालजी भाई को सलाम कर रहा था। लोग उन्हें सलाम करते और शेरा को विविध निगाहों से घूरते हुए आगे बढ़ जाते। लालजी भाई का कारवाँ आगे बढ़ता जा रहा था। हालांकि जमुना की लाठी के भय से बूशो ने एक गली में शरण तो ले ली थी, लेकिन यह सोचकर कि अब सबकुछ शान्त हो चुका होगा, बाकी बची हड्डियों की लालच में दूसरे रास्ते घूमकर वापस ढाबे की ओर लौट रहा था। उधर झूमता हुआ शेरा अपनी मस्ती में चला जा रहा था। अचानक शेरा और बूशो आमने-सामने आ गए।

शेरा के कानों में जैसे बूशो की गुर्राहट ललकार बनकर गूँजने लगी। शेरा उसे दबोचने को तड़प उठा। शेरा ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी। बूशो उसे देखकर सड़क के किनारे दुबक गया। लेकिन शेरा को इतने भर से संतोष न था। वह ऐसे उमड़-घुमड़ करने लगा जैसे अभी बूशो को लील ही जाएगा। लालजी भाई भी अपनी पूरी ताक़त से उसे रोकने में लगे हुए थे। शेरा की दहाड़ सुनकर बूशो के तो जैसे प्राण-पखेरु उड़ गए। बूशो ने शेरा के गुस्से को भाँप, पूँछ को दोनों टाँगों से चिपका कर, कांय-कांय करता हुआ एक पतली गली की ओर भागा। शेरा भी अपनी पिछली टाँगों पर खड़ा होकर ऐसे दहाड़ने लगा मानो आज सारा हिसाब ही चुकता कर लेगा। उसे सम्भालने में लालजी भाई के छक्के छूट गए। आख़िरकार, शेरा पर लालजी भाई की पकड़ ढीली पड़ गयी और जंजीरनुमा रस्सी उनके हाथों से छूट गयी। शेरा ने बूशो को खदेड़ना शुरु किया। प्राण बचाकर भागते हुए बूशो ने एक सूखे नाले के कोने में जाकर अपनी अंतिम शरण ली। लेकिन पीछे से शेरा भी आ धमका। अब बूशो के पास पीछे जाने के लिए कोई और जगह बची नहीं रह गयी थी। दूसरी ओर, माथे पर सवार शेरा अपने बड़े-बड़े दाँतों को निकालकर उसे दबोचने को तैयार दिख रहा था। जब इस बेचारे लमेरुआ कुत्ते बूशो ने समझ लिया कि अब बचाव का कोई और रास्ता बचा नहीं रह गया है, तो उसने भी पैंतरा बदला। उसने “अटैक इज द बेस्ट डिफेन्स“ वाले सिद्धांत पर काम करना शुरु किया। सीधे भिड़ जाना ही उसे उचित उपाय समझ में आया। वह अब सीधी लड़ायी को तैयार हो गया। अब बूशो के भी नथुने फूलने लगे और वह भी दाँत निकालकर घोंघियाने लगा। थोड़ी देर दोनों फुँफकारते हुए एक दूसरे को तौलते रहे और फिर शुरु हुआ युद्ध - एक निर्णायक युद्ध।

बूशो के लिए ऐसी लड़ायी कोई नई बात नहीं थी, रोज़ ही होती रहती थी। कभी एक रोटी के लिए, तो कभी विश्राम हेतु एक गज जमीन के लिए। लेकिन शेरा के लिए आमने-सामने की लड़ायी का यह पहला अनुभव था। सोफे पर बैठकर बिस्कुट खाने वाले शेरा को तो पता ही नहीं था कि लड़ायी लड़ी किस तरह जाती है! युद्ध शुरु हो चुका था। शेरा भौंकने और गुर्राने के सिवा कुछ कर नहीं पा रहा था। जबकि बूशो ने आत्मरक्षार्थ ही सही, अपने दाँव चलने शुरु कर दिए थे।

इसी बीच लालजी भाई और उनके सहचर भागते हुए वहाँ पहुँच गए। फिर सबने ईंट-पत्थरों आदि फेंक-फाँककर शेरा को संरक्षण देना शुरु कर दिया। मेन रोड से और भी लोग दौड़-दौड़कर इकठ्ठा होने लगे, लेकिन कोई भी बीच में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अब तक लोगबाग़ चारो तरफ से घेरकर इस लड़ायी को देखने लगे थे और सभी अपनी-अपनी तरह से इस युद्ध को रोकने की कोशिश करने लगे थे। शोर सुनकर रिक्शे वाले और ठेले वाले भी उस ओर दौड़ पड़े। उन्हें यह आशंका सताने लगी थी कि कहीं आज भारी-भरकम शेरा दुबले-पतले बूशो को मार ही ना डाले। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि भीड़ भी मानसिक रूप से दो धड़ों में बँटकर इस युद्ध में शामिल हो गयी है। एक ठेले वाला दौड़कर लाठी ले आया, लेकिन लालजी भाई की उपस्थिति में उसकी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह शेरा पर लाठी चलाए। फिर भी, उसने दोनों कुत्तों के बीच में लाठी घुसाकर इस लड़ायी को तत्काल समाप्त करा देने की जुगत शुरु कर दी। दूसरी ओर, लालजी भाई के सहचर बूशो पर ईंट-पत्थर बरसाने लगे थे। अपने ऊपर हो रहे चौतरफा हमले को देख बूशो शेरा को छोड़ नाले से बाहर आ गया, लेकिन दाँत निपोरता हुआ लगातार गुर्राता जा रहा था। हालांकि शेरा का गुस्सा अभीतक शान्त नहीं हुआ था, लेकिन बूशो की आक्रामकता से घबराकर वह पीछे की ओर हटने लगा था। अबतक लालजी भाई उसके क़रीब आ गए थे। पीछे हटते हुए शेरा ने आख़िरकार लालजी भाई की गोद में शरण ली।

युद्ध समाप्त हो चुका था, शेरा को यह युद्ध बहुत महंगा पड़ा था। इस बेमेल युद्ध में वह बुरी तरह से परास्त हो गया था। बूशो ने शेरा को काट-कूटकर लहू-लुहान कर दिया था। लालजी भाई ने शेरा की हालत का जायजा लिया फिर रोते हुए लालजी भाई शेरा को गले से लिपटाकर पुचकारने लगे। पितृ-प्रेम पाकर शेरा का भी जैसे गला भर आया था और वह भी 'कों-कों' करता हुआ लालजी भाई का मुँह चाटने लगा था।

अगले दिन, सुबह से ही, नगरपालिका के कर्मचारी सभी लमेरुआ कुत्तों की धर-पकड़ करने लगे थे।

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अनुज

एम.ए., पी.एच-डी.,
सूचना प्रौद्योगिकी एवं प्रबन्धन में एडवांस डिप्लोमा, ई-गवर्नेन्स पर विशेष दक्षता उपाधि आदि। रचनात्मक उपलब्धियाँ 'कैरियर,गर्लफ्रैंड और विद्रोह' (पहला कहानी-संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित), सम्पादित पुस्तकें : 'मार्कण्डेय की श्रेष्ठ कहानियाँ', नैशनल बुक ट्रस्ट से, 'बालसाहित्य और आलोचना', वाणी प्रकाशन से, 'मार्कण्डेय का मोनोग्राफ' साहित्य अकादमी से, आदि-आदि प्रकाशित। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के लिए पाठ-लेखन तथा विविध राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, पुस्तक समीक्षाएँ और आलोचनात्मक लेख और विचार आदि प्रकाशित।
फोटोग्राफी और रेडियो फ़ीचर निर्माण आदि में कई विशिष्ट उपलब्धियाँ।
सम्प्रति सम्पादक : 'कथानक' सम्पर्क 798, बाबा खड़ग सिंह मार्ग, नई दिल्ली-110001.
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