आज गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर, उन्हें और उनके चाहने वालों को ढेरों मुबारकबाद के साथ...
गुलज़ार की 10 शानदार कविताएं! #Gulzar's 10 Marvellous Poemsनज़्म छनकती है
— भरत एस तिवारी
अभी कोई दस पंद्रह मिनट हुए होंगे, एसएम्एस भेजे, कि मोबाइल पर ‘गुलज़ार बाबा कॉलिंग’ की घंटी बजती है।
— ‘तुम मुझसे पूछ कर क्यों लिखोगे मेरे बारे में...तुम, अच्छा तो लिख लेते हो...रिव्यु भी किये और नज़्में भी कह लेते हो...मुझसे पूछकर लिखोगे...तो अपना कैसे लिखोगे!’
— ‘जी बाबा।‘
(क्योंकि गुलज़ार साहब से मेरे नाते की शुरुआत सलीम आरिफ़ भाई और लुबना सलीम आपा से होती है, और लुबना उन्हें 'बाबा' पुकारती रही हैं, इसतरह मैं भी उन्हें 'बाबा!' सोचता-समझता-बोलता हूँ.)
हज़रात जब आप किसी को, उसके काम से पैदा हुई मुहब्बत से उपजी इज्ज़त देते हैं तो अमूमन नज़रें यों झुक जाती हैं कि इज्ज़त की ऊँचाई आसमानी हो जाये और तब उसके बारे में बहुत-कुछ कह पाना और लिख पाना ज़रा अधिक मुश्किल हो जाता है, हाँ आप सोच ख़ूब पाते हैं। और वैसे भी गुलज़ार साहब के विषय में मेरा कुछ-भी कहना ठीक नहीं ठहरता, इसलिए बेहतर होगा कि उनसे जुड़ी बातों को आपसे साया किया जाए, यानि बतियाया जाये।
आप हज़रात जानते ही हैं कि गुलज़ार साहब हर्फ़ों को कितना सम्हाल कर और कितने करीने से खर्चते हैं, वर्ना हमें कहाँ पता होता आँखों की महकती ख़ुशबू का..., और उनके SMS जवाब भी ‘यस’, ‘मिल गया’—सा ही होता हैं वैसे अगर ज्यादा शब्द होने हों, वो कुछ समझाना चाहते हों, तो वह फ़ोन मिला देते हैं। कहने का अर्थ यह है कि अगर वो चाहते तो मैं उनसे सवाल करता, वो जवाब देते और मैं वो सवाल-जवाब यहाँ आपके लिए परोस देता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं चाहा, सवाल उठता है कि फिर उन्होंने चाहा क्या होगा... ऐसा कुछ: कि ‘अपने बारे में मैं तो कहता ही रहता हूँ, ज़रा यह देखूं कि तुम क्या लिखते हो?’ क्योंकि वह अपने एक छोटे-से जवाब से, यह सब जो अभी लिखा जा रहा है, लिखा जाने कि नौबत ही नहीं आने देते, है कि नहीं?
एक-दो रोज़ के लिए बम्बई जाना हुआ। अब मेरे जैसा, जिसका वहाँ जाना कम ही होता हो, वह पहुँचने के बाद, गुलज़ार साहब को जानकारी तो देगा न, सो मैंने मैसेज किया। पलट कर उनका फोन आ गया। दो मिनट बात की और फिर फ़ोन रखते हुए बोले, “एक बजे घर आ जाओ, नरगिस दत्त रोड, पाली हिल” । अब हज़रात हम ऐसे जैसे कि कोई चौंका हुआ प्राणी। खैर मैं पहुँचा तो कोई सवा-एक बज गए थे, यानी पंद्रह मिनट लेट।
दरवाजे से अन्दर आने पर दाहिनी तरफ को फैलाव लेती बैठक है, इशारा मुझे सीधे चलने का मिला, और ३-४ कदम के बाद उलटे हाथ वाले दीवार ख़त्म होती है और वहाँ बैठक बांयी तरफ एक स्टडी में फैलती है, स्टडी में गुलज़ार साब बैठे हैं, टेबल लैंप की रौशनी टेबल से टकराती है और कहीं उनके सफ़ेद कुर्ते और कहीं नुरानी चेहरे पर जा बैठती है। मुस्कान... गुलज़ार साहब की मुस्कान पर एक और वाकया याद आ रहा है, सुनिए और अंदाज़ लगाइए, क्या हैं गुलज़ार साहब...
भाई सलीम आरिफ़ गुलज़ार साहब के लिखे पर कमानी में नाटक कर रहे थे। रिहर्सल, तैयारियों के बीच सब लोग पीछे ग्रीनरूम में थे। लोग उनके साथ और वहाँ मौजूद लुबना सलीम (आपा) और सलीम भाई आदि के साथ तस्वीरें उतार रहे थे। अब, मित्र फोटोग्राफर मोनिका भी वहाँ गुलज़ार साहब की तस्वीरें खींच रही हैं।
मसला ये हज़रात कि गुलज़ार साहब के साथ मेरी कोई तस्वीर नहीं है, सेल्फी हैं इक-आधा। थोड़ा सोचा फिर मोनिका से रिक्वेस्ट की कि यार एक तस्वीर मेरी बाबा के साथ। अब मैं हाथ आगे को बांधे गुलज़ार साहब के साथ खड़ा हूँ, और मोनिका मुसकुराने को कह रही हैं! मुस्कान आये ही न... वजह कोई डर-जैसी कुछ भी नहीं, वजह जैसा शुरू में बताया है, उनकी इज्ज़त में शायद पूरा सिस्टम बिजी होता है।
‘मेरी तरफ देखो’, प्यार भरी आवाज़ में गुलज़ार साहब मेरी आँखों में झाँकते हैं और कहते हैं।
‘मुसकुराओ’ उन्होंने बिना नज़रें हटाये कहा। ‘अरे थोड़ा सा और...’ ‘और थोड़ा सा’, अब, जब मुस्कान आ जाती है, वो उसकी नेचुरेलिटि से आश्वस्त होते हैं, तब तस्वीर खिंचने पाती है। हज़रात, आप ही बताइए, यह सब करने की उन्हें कौन ज़रूरत आन पड़ी थी? यही तो बात है, कि जो बात है। अभी वापस, वहाँ उनके बँगले, उनकी स्टडी में
रौशनी को चेहरे से फिसलाते हुए उन्होंने प्यार से देखा।
‘आओ’...
वो कुछ लिख रहे हैं। मैं बैठा हूँ। कुर्सी से दायें झुकते हुए, मैं चुपचाप से कैमरे को बैग से निकाल रहा हूँ।
‘कितनी तस्वीरें खींचोगे, रहने दो। बहुत खींची हुई हैं तुमने...‘
इल्तज़ा-भरी नज़रों से देखते हुए हम बोले, ‘बस सर.... एक-आध’!
स्टडी के दिव्य माहौल को बिना छेड़े, कुछ तस्वीरें उतार रहा था कि बाबा ने प्यार से कहा
— ‘दिखाओ तो ज़रा’
तस्वीरें उन्हें पसंद आयीं।
— ‘भेजना भी इन्हें, जो खींच रहे हो’
उन्होंने आँखों में स्नेह भरी मुस्कान के साथ कहा। फिर उन्होंने माहौल को जिस जादुई तरीके से इतना फोटोग्राफर-मन माफ़िक बना दिया, वो बयान तो नहीं कर सकता, लेकिन दिमाग पर जोर डाल इतना कह सकता हूँ कि तब मेरे भीतर का कलाकार-मन पूरी तरह उन्मुक्त रहा होगा, क्योंकि तब की तस्वीरों को देखते समय याद आता है कि ये साब छहों दिशा में विचरण किये थे।
दूसरी चाय पीते समय उन्हें बताया गया ‘दो बजने को हैं’ (बाद में पता चलता है कि दो बजे का वक़्त किसी को दिया गया था)। बाबा मेरी तरफ देख रहे थे और उठते हुए बोले ‘तुम देर से भी तो आये हो’।
‘यहीं बैठो...’
और वह स्टडी से बाहर निकल और सीधे हाँथ को पड़ने वाले मेनडोर (जो स्टडी से नज़र नहीं आता) की तरफ चले गए; कोई आया था, और बातचीत हो रही है ऐसा पता चल रहा था। चुपके से उठ मैंने उधर झाँका भी था। बाबा ने वहीँ खड़े-खड़े कोई 4-5 मिनट बातें कीं, उन्हें विदा किया। अब बाबा वापस स्टडी में थे। हज़रात, गुलज़ार साहब ने मुझे किसी और के वक़्त पर कब्ज़ा बनाने दिया था! हम बातों और तस्वीरों में ही रहे, कि आधा घंटा और बीत गया, उन्हें कहीं निकलना है। जब वो बाहर की तरफ़ चलते हैं तब अपने ऑफिस में ले जाते हैं और वहां अविनाशजी जो बड़े प्यार से उनके कामों को सहेजते हैं, से मिलवाते हैं। मैं उनसे तस्वीरें भेजूंगा का वादा करता हूँ और हमसब बाहर की तरफ चलते हैं... और पीछे से नज़्म छनकती है:
गैलरी में रखी उनकी सुनहरी जूती उनके पाँव चूमती है।
और पोर्टिको में गाड़ी इंतज़ार करती है।
घर के बाहर।
गेट के बाहर।
घर की तस्वीर मेरे मोबाईल में उतरती है —
घर अपना नाम बताता है ‘बोस्कियाना’।
और गाड़ी का शीशा नीचे उतर जाता है
साहब-गुलज़ार कह रहे हैं —
‘चलो, मिलते हैं फिर...’
भरत एस तिवारी
नयी दिल्ली – 110 017
ईमेल: bharat@bharattiwari.com
0 टिप्पणियाँ