जिसे सब पढ़ते हैं उसे कौन पढ़ाता है ? — विनीत कुमार


कभी पता तो करो कि सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश में तुम्हारी किताबों की पांच सौ प्रति छापकर वो जो जगत कल्याण कर रहा है, उसमें उसका काम कैसे चल जाता है ?

देखो तो सही सब धंधा है

— विनीत कुमार

ऐसा शौक भी क्या पाल लेना कि हर बारी लेखक की ही कटे

प्रिय लेखक !
आप की पांडुलिपि को किताब की शक्ल में छापने से लेकर पाठक तक पहुंचने की पूरी प्रक्रिया बाजार की गतिविधि है, धंधा है. प्रकाशक खुद इसे प्रोफेशनलिज्म के नाम पर कारोबार की शक्ल देने और उसी अनुसार मुनाफा कमाने की कोशिश में लगे रहते हैं. जाहिर है इसमें लेखक की भी हिस्सेदारी है, उसके भी आर्थिक पक्ष शामिल हैं. लेकिन


हिन्दी में हजारों नामचीन, स्थापित, युवा, संघर्षशील लेखक होंगे, ऐसा किसी ने आज दिन तक नहीं कहा कि उनका जीवन लिखने से चल जाता है, वो लिखने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं करते. आर्थिक रूप से एक सम्मानित जीवन जीने के लिए उन्हें कई दूसरे-तीसरे काम करने पड़ते हैं.
किताबों पर आयात शुल्क को लेकर जितनी अपडेट कर रहे हो, एकाध बारी फोकट में सामाजिक सरोकार और हिन्दी सेवा के नाम पर शोधपरक लेख और पुस्तक लिखवाए जाने पर भी लिख दिया करो.
दूसरी तरफ दर्जनभर से भी ज्यादा ऐसे हिन्दी प्रकाशक हैं जो प्रकाशन के अलावा दूसरे किसी धंधे में नहीं हैं और उनका न केवल जीवन चल जा रहा है बल्कि उनके कारोबार में लगातार इजाफा हो रहा है. उनकी सम्पत्ति में बढ़ोतरी हो रही है.

तुम क्यों न फूलो लेखक

आखिर ऐसा क्यों है कि जिस कारोबार का संबंध लेखक और प्रकाशक दोनों से है वहां लेखक लिखकर महीनेभर का खर्चा तक नहीं जुटा सकता और उसी कारोबार में प्रकाशक ऐसा फल-फूल रहा है कि आए दिन नए वेन्चर में पैसे लगाने के लिए तैयार है.


इसका क्या मतलब है ? इसके दो मायने हैं. एक तो ये कि किताबों की छपाई और बिक्री से जो आमदनी हो रही है, वो लेखकों तक रॉयल्टी या पारिश्रमिक की शक्ल में नहीं पहुंच रहा और दूसरा कि सरकार की तरफ से प्रकाशन के नाम पर जो रिआयत दी जा रही है उसका लाभ पाठकों को नहीं मिल रहा. यानी प्रकाशक पाठकों के हाथ किताब उसी नफा-नुकसान के फॉर्मूल से बेच रहा है जैसे मोमबत्ती या बर्गर जैसे सैकड़ों उत्पाद.

झोल साफ है. प्रकाशक ने मुनाफे के लिए जो तंत्र खड़ा किया है वो कारोबारी तंत्र है जिसमें सबकुछ बाकी के धंधे की ही तरह तय हैं. लेकिन

फ़ोटो (c) भरत एस तिवारी

लेखक करे हिंदी सेवा करे और मेवा खाए ...

बात जब लेखक के साथ हिस्सेदारी साझा करने की हो तो वो सामाजिक विकास और हिन्दी सेवा हो जाती है. सरकार जब उन पर व्यावसायिक शर्तें लागू करने की कोशिश करे तो वो उनके सामाजिक बदलाव के मिशन की अड़चन हो जाती है.

ऐसे में लेखक जब भी किसी सरकारी फैसले का विरोध करता है तो वह प्रकाशक के फायदे और खुद लेखक के लिए नुकसान के खाते में चला जाता है. पारिश्रमिक लाभ की लड़ाई लेखक ने संगठित होकर प्रकाशको से लड़ी ही नहीं. यदि वो ये लड़ाई लड़ रहे होते और तब सरकार की प्रकाशन के कारोबार संबंधी नीतियों का विरोध करते तो इससे पाठको को भी बतौर ग्राहक लाभ मिल पाता और लेखक इस स्थिति तक होते कि सब नहीं भी तो जो स्थापित और बेस्टसेलर माने जाते हैं, सिर्फ और सिर्फ लिखकर जीवन चला रहे होते. तब सरकार पर भी दबाव बन पाता और लेखक का विरोध प्रकाशक के समर्थन का स्वर नहीं हो जाता.

किताबों पर आयात शुल्क को लेकर जितनी अपडेट कर रहे हो, एकाध बारी फोकट में सामाजिक सरोकार और हिन्दी सेवा के नाम पर शोधपरक लेख और पुस्तक लिखवाए जाने पर भी लिख दिया करो.


सरकार को विलेन बनाने से प्रकाशक हीरो का दर्जा पा लेगा?

दुनिया को शोषण मुक्त बनाने के लिए कीबोर्ड तान देते हो लेकिन अपना शोषण किए जाने को हॉबी की कैटेगरी में क्यों रखते हो ? ऐसा शौक भी क्या पाल लेना कि हर बारी लेखक की ही कटे. किताबों को लेकर दुनियाभर की बात करोगे लेकिन इसके धंधे में लेखक की क्या स्थिति है, इस पर चुप मार जाओगे, ऐसे तो शोषण मुक्त समाज नहीं बनेगा न ? थोड़ी क्रांति घरेलू स्तर पर भी होती रहे तो तुम्हारी लड़ाई थोड़ी ज्यादा जेनुइन लगेगी. नहीं तो आप बस प्रकाशक के सुर में सुर मिलाते जान पड़ोगे.

आपके लिए किताबें ज्ञान की मशाल है, प्रकाशक तो उससे उत्पादन, खरीद-बिक्री की शर्तों के साथ जुड़ा है. कभी पता तो करो कि सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश में तुम्हारी किताबों की पांच सौ प्रति छापकर वो जो जगत कल्याण कर रहा है, उसमें उसका काम कैसे चल जाता है ?

सरकार को कोसते रहो लेकिन कभी प्रकाशक से अपनी किताब का भी तो हिसाब मांग लिया करो. ऐसा तो नहीं होगा न कि सरकार को विलेन बनाने से प्रकाशक हीरो का दर्जा पा लेगा.



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००







एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

बारहमासा | लोक जीवन और ऋतु गीतों की कविताएं – डॉ. सोनी पाण्डेय
काली-पीली सरसों | ज्योति श्रीवास्तव की हिंदी कहानी | Shabdankan
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
चतुर्भुज स्थान की सबसे सुंदर और महंगी बाई आई है