प्रो. नामवर सिंह की चूक थी कि निर्मल वर्मा को ... | नामवर पर विश्वनाथ - 2



कविता में प्रत्येक शब्द और पंक्ति पर विचार करते हैं लेकिन कहानी में नहीं। कहानी की भी उसी तरह से व्याख्या होनी चाहिए | नामवर पर विश्वनाथ - 2

साभार, मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी. प्रति सहेजना चाहें तो : साहित्य अकादमी, संस्कृति भवन, वाणगंगा चौराहा, भोपाल (म.प्र.) -462003, दूरभाष: 0755-2557942,  email : sahityaacademy.bhopal@gmail.com

रेशम के लच्छे जैसी स्वर लहरियाँ | नामवर पर विश्वनाथ - भाग 1 

उनसे चूक कहाँ हुई तो मेरी समझ से निर्मल वर्मा को ...

— डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी से राजीव रंयन गिरि एवम् अटल तिवारी की बातचीत


निर्मल वर्मा में एक अजीब तत्व है। वह तत्व उनमें इतना अधिक था कि इसी कारण उनकी कहानियों का लोकेल इलीटिस्ट है, उसकी कोई चर्चा नहीं होती। 


नामवरजी आपको अपभ्रंश पढ़ाते थे? 

विभाग में सबसे बड़े विद्वान पण्डित केशव प्रसाद मिश्र थे। वह लिखते बहुत कम थे। अपनी विद्वता को देखकर उन्होंने बहुत कम लिखा। इस तरह से बहुत बड़ी क्षति हुई। लेकिन ‘इंडियन एंटीक्वेरी’ में छपना मजाक बात नहीं थी। एक लेख अगर किसी का ‘इंडियन एंटीक्वेरी’ में छप गया तो वह महान बन जाता था। उसमें केशवजी ने विश्व प्रसिद्ध इंडोलॉजिस्ट ए.बी. कीथ के अपभ्रंश सम्बन्धी विचारों की आलोचना की थी और अपनी टिप्पणी की थी- कीथ ऑन अपभ्रंश। केशवजी ने यह स्थापना दी थी कि वह बोली, बनावटी भाषा नहीं है। वह वास्तविक बोली है। साथ ही जो अपभ्रंश काव्य भाषा है वह नाना प्रकार के अपभ्रंशों पर आधारित है। इस प्रसंग को यहीं छोड़ना होगा, अन्यथा यह बातचीत भाषा विज्ञान पर केन्द्रित हो जाएगी। कृष्ण और सुदामा के गुरु का नाम सन्दीपन था। गुरु का काम किसी को प्रतिभा देना नहीं है। जो प्रतिभा होती है वह उसको उदीप्त कर देता है। काशी में शब्दों की इतनी चिन्दी की जाती थी कि पूछिए मत। शब्दार्थ बहुत होता था। द्विवेदीजी का तो कहना ही क्या! आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र कहते थे गिरिश नहीं गिरीश । गिरिश तो आयेगा हिमालय से, क्योंकि गिरियों का ईश तो हिमालय हुआ। शंकर के लिए शब्द आयेगा गिरीश। गिरौ शयते इति गिरिशः। यह सब लोग करते थे। द्विवेदीजी में साहित्य का जो रस था, वह खास था। साहित्य का जो अमृत होता है, वह रस होता है। खेती में लगातार काम करते रहो, पर अन्न का स्वाद न पाओ तो इसका मतलब क्या हुआ। इस तरह आचार्य द्विवेदी के आने से विभाग में बहुत दिनों के बाद संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और साहित्य का रसास्वाद मिलने लगा था। वहीं पर नामवरजी को भाव बोध और उनकी आलोचकीय क्षमता और वक्तृत्व क्षमता मिली। हिन्दी अपने आप में बड़ी भाषा है। लेकिन वह भारत की सारी भाषाओं के बीच एक भाषा है। द्विवेदीजी कहते थे कि भारतीय संस्कृति में देश की सभी भाषाओं की उपेक्षा करके कोई एक भाषा नहीं पढ़ सकते। अगर आप हिन्दी साहित्य पढ़ना शुरू करेंगे तो उसमें साहित्य का जो कलेवर है, उसमें से एक टाँका आपको भागलपुर में मिल जाए। एक टाँका चेन्नई में मिल जाए और दूसरा अहमदाबाद में मिल जाए, कहा नहीं जा सकता। यह अखिल भारतीय मानवीय रूप है, हिन्दी का। वह काशी विश्वविद्यालय में द्विवेदीजी के आने के बाद आया। उसका सबसे बड़ा कारण या सम्बन्ध शान्ति निकेतन की संस्कृति से है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ से है।

नामवरजी में तीक्ष्णता बहुत थी। बुद्धि शेर में भी होती है। बुद्धि लोमड़ी में भी होती है। सरवाइवल करने भर की बुद्धि मनुष्य में भी होती है, लेकिन एक बुद्धि चीते में होती है। अपनी सामग्री कहाँ से ले लेनी है लपक कर, यह नामवरजी को बखूबी आता था। 

आम तौर पर लोग समझते हैं कि अपभ्रंश पढ़ना उबाऊ है। पढ़ाना भी उबाऊ है। जैसे आधुनिक साहित्य में या मध्यकालीन साहित्य के बाद से रस की प्रमुखता है। ऐसे में नामवर सिंह जब पढ़ाते थे तो उसमें कैसे दिलचस्पी दिलाते थे?
नामवरजी अध्यापक बड़े अच्छे थे। अपभ्रंश पढ़ाते थे। ज्ञान था। विषय पर कमांड था। विभाग के आचार्य उन्हें विद्यार्थी के रूप में जानते थे। इसलिए अध्यापक मण्डल में तो वह जूनियर थे। पर विद्यार्थी उन्हें बहुत मानते थे। उनकी क्लास में बड़ी भीड़ रहती थी। जो उनका ज्ञान है, जो उनका व्यक्तित्व निखरता है, जो उनका विट है, वह उन्हें एक सफल अध्यापक बनाता था।

मैं प्रेमचन्द के बाद अमरकान्त को सबसे बड़ा कहानीकार मानता हूँ। 

पढ़ाने में क्या नोट्स लेकर आते थे?
नहीं। असल में नामवरजी ने मुझे दो साल पढ़ाया है, लेकिन उनका विकसित और वैभवशाली अध्यापक का रूप मैंने नहीं देखा है, क्योंकि वह तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में आकर बना है। तो उन जेएनयू वाले नामवरजी की कक्षा में मैंने पढ़ाई नहीं की है। मेरे साथ एक दिक्कत और है, वह यह कि मैं बी.एच.यू. में केवल नामवरजी से ही नहीं पढ़ता था। द्विवेदीजी से पढ़ता था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र से पढ़ता था। डॉ. जगन्नाथ शर्मा जैसे शिक्षकों से पढ़ता था। वह लोग आइकन्स थे। इस तरह अध्यापक के रूप में मेरे मन में विश्वनाथ प्रसाद मिश्र और द्विवेदीजी की छवि है। द्विवेदीजी स्पीच और क्लास एक तरह से करते थे। हम, केदारनाथ सिंह, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव आदि सहपाठी थे। आपस में बात करते थे कि अध्यापन याद रहेगा तो आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का याद रहेगा। कभी-कभी इन लोगों में नोक-झोंक भी होती थी। जैसे विश्वनाथजी से कोई नामवरजी की बात कहता था तो वह मुखर हो जाते थे। कहते थे कि अभी नामवर से कहो कि वह कुछ दिन और मेरी कक्षा में बैठे। वैसे ये सभी अध्यापक नामवरजी को बहुत मानते थे, जबकि सभी जानते थे कि वह पण्डितजी के निकट हैं। यह काशी में बड़ी अच्छी परम्परा थी। उसमें कोई नामवरजी को क्षति अथवा नुकसान पहुँचाना नहीं चाहता था।



अवधी मा कहा गवा है कि, ‘पट्टीदार और अरहर की दाल।’ इस तरह नामवरजी के जो अधिकांश बड़े-बड़े संगी-साथी हैं, वह उनके पट्टीदार हैं। यह उनके साथ जीवन भर होता रहा। जितने भी लघु आलोचक हैं, वे सोचते हैं, कि नामवरजी न होते तो वही महान आलोचक होते। 

अपभ्रंश के अलावा कहानी आदि भी नामवरजी पढ़ाते थे?
कहानी बी.ए. में पढ़ाते होंगे।

अपभ्रंश को लेकर कुछ लोग कहते हैं कि शिवप्रसादजी ने भी उसी तरह का शोध किया था, क्या मामला था?
जो कुछ उचित और अनुचित कहा जाता है, वह सब सच है। कवि शम्भुनाथ सिंह जब 50 साल के हुए तो उन्होंने एक लम्बी कविता लिखी, जिसमें नामवरजी को शश कहा है। शशः माने खरगोश। नामवरजी के जो आलोचक थे, वह अक्सर उनकी गति से विक्षुब्ध रहते थे। मैं किसी को दोष नहीं देना चाहता। यह बड़ा मुश्किल काम होता है। आप जा रहे हैं, अपने मित्र के साथ घूम रहे हैं, एकाएक देखते हैं कि दोतीन लोग आ रहे हैं और आपकी प्रशंसा कर रहे हैं। यह मित्रों को नागवार गुजरता है। हम तो इसके अभ्यस्त हो गये थे, इसलिए कि हम गुरुदेव द्विवेदीजी के साथ जाते थे। हमें मालूम था कि जो सम्मान द्विवेदीजी को मिलेगा वह हमें नहीं मिलेगा। जब हम नामवरजी के साथ जाते थे तो वहाँ भी कमोबेश यही बात होती थी। लेकिन द्विवेदीजी के शिष्यों का एक अजीब चक्कर था। खैर, द्विवेदीजी के स्पर्श मात्र से हम जैसे शिष्यों को गौरव मिलता था। उन्होंने अपने निर्देशन में जो काम कराये, उसमें उनके साथ नामवरजी की किताब है ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो।’ शिवप्रसाद सिंह की किताब आयी ‘कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा।’ मेरी किताब आयी ‘सन्देश रासक।’ जितेन्द्र पाठक की एक किताब आयी, ‘अपभ्रंश मुक्तक’। जितेन्द्र पाठक की गति मैं नहीं जानता। बाकी के तीन लोगों को द्विवेदीजी ने अपने निर्देशन में अपभ्रंश पर काम कराया। उनके साथ हमारी किताबें भी आयीं। नामवरजी विद्वान थे। शिवप्रसाद सिंह विद्वान थे। तो हम भी विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हो गये।

आलोचक का काम क्या होता है? वह क्या करता है? वह साहित्य का अपना नया पाठ प्रस्तुत करता है। वह साहित्य को नये ढंग से पढ़ने की विधि प्रस्तुत करता है। उसका यही काम है। जैसे नया रास्ता बनाना पड़ता है तो कई दुकानें ढहानी पड़ती हैं, नयी दुकानें बनानी पड़ती हैं। आलोचक भी नया रास्ता बनाता है। 


जब द्विवेदीजी के साथ किताब आयी तो उस समय आपकी उम्र क्या थी?
उसकी कहानी बड़ी दिलचस्प है। मैं तो नहीं जानता, लेकिन द्विवेदीजी से इतना ज्यादा परिचय हो गया था कि मुझे कुछ ज्यादा लगा नहीं। इसके बावजूद जिस तरह लोग अपने प्रेम पत्र को देखते हैं उसी तरह से हम कितबिया के पन्ने पलट कर देखा करते थे। मुझे यकीन नहीं होता था। उसकी कथा लम्बी-चौड़ी है। उसे मैंने ‘व्योमकेश दरवेश’ में दी है, जिसके लिए द्विवेदीजी ने डाँटा था। नामवरजी ने बेमतलब का फंसा दिया था। प्रकरण यह था कि एम.ए. उत्तरार्ध में लघु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करने का विकल्प था। हम विकल्प के लिए विषय तलाश रहे थे। पण्डितजी ने कहा-तुम सन्देश रासक पर काम करो। उस समय पण्डितजी के बाद नामवरजी हमारे हीरो होते थे। उन्होंने सन्देश रासक को साधारण विषय बताते हुए प्राकृत पैंगलम् की ऐतिहासिकता पर काम करने को कहा। मुझे विश्वास था कि पण्डितजी, नामवरजी को इतना मानते हैं कि उनकी किसी बात पर नाराज नहीं होंगे। इसी विश्वास के साथ पण्डितजी ने दो-तीन बार विषय के बारे में पूछा तो हमने कहा कि सन्देश रासक साधारण विषय है। विषय तय करने के लिए अन्तिम बार पण्डितजी ने घर बुलाया और पूछा कि तुमने सन्देश रासक पूरा पढ़ तो लिया है न? मैंने फिर कहा कि सन्देश रासक बहुत साधारण है। प्राकृत पैंगलम् पर काम करना चाहता हूँ। पण्डितजी चुप! घाव घुप्प। जैसे मुँह के अन्दर-ही-अन्दर कोई चीज घूम रही हो। ठुड्डी ढीली कुछ नीचे लटक गयी। बोले-ठीक है प्राकृत पैंगलम् पर काम करना चाहते हो? करो, लेकिन यह बताओ हिन्दी विभाग का अध्यक्ष कौन है? हमने कहा-पण्डितजी आप और कौन? वह बोले-तो मैं इस विषय पर काम करने की अनुमति नहीं दूंगा। पण्डितजी का स्वर सामान्य था, किन्तु चेहरा ऐसा हो गया था जैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। तुलसीदास की पंक्ति के सहारे कहूँ तो ‘रुख बदन कर मृदु वचन बोले श्री भगवान्’ जैसा कुछ-कुछ। मैं अवाक हो गया। वह बोले-’तुम समझते हो कि मैं तुम्हें चक्कर में डाल रहा हूँ? सन्देश रासक मेरे बाप ने लिखा है? मेरा कोई स्वार्थ है तुमसे सन्देश रासक पर काम कराने में? तुम्हें किसने कहा कि सन्देश रासक सामान्य विषय है? प्राकृत पैंगलम् पर काम करने के लिए किसने तुमसे कहा?’ पण्डितजी गरज रहे थे। मैं सूली पर लटका था। मैं छिपा न पाया। बोला-’नामवरजी ने।’ पण्डितजी ने कहा नामवर ने, यह तो बुरी बात है। कुछ अपभ्रंश जानता भी है वह। सन्देश रासक पढ़ा है उसने? कुछ आताजाता है नहीं। विद्वान समझता है अपने आपको। मैंने धीमे स्वर में सन्देश रासक पर काम करने को कहा तो वह बोले कि नहीं, तुमको सन्देश रासक पर काम नहीं करना है। तुम जाओ ठीक से अपनी इच्छा का विषय सोचकर आओ। और विद्यार्थियों ने कई अध्याय लिख लिए हैं। तुम अभी विषय ही नहीं तय कर पाये। मेरे धैर्य का बाँध टूट गया था। मैं हिचकियाँ ले रहा था। पण्डितजी यह कहकर उठ रहे थे कि आज तो तुम चले ही जाओ। फिर किसी दिन आना तब बात करेंगे। इसी समय माताजी आ गयीं । बोलीं-’रउवा का सबेरे-सबेरे बीदारथी का डाँटत बाड़ी।’ मेरे पास आकर मेरे सिर पर हाथ रखा। चुमकारा। आँसू पोंछे। अन्दर ले गयीं। कुछ खाने को दिया। यह देखकर गुरु मुस्कराए। बोले-मूर्ख है। प्राकृत पैंगलम् पर काम करना कठिन है। मैं इसे इतना अच्छा विषय दे रहा हूँ यह समझता नहीं। मैं इसका शुभचिन्तक हूँ कि शत्रु। इस तरह पण्डितजी जैसा आदमी जब किसी को डाँटता था तो समझिए वरदान मिल गया। जीवन में पण्डितजी ने बहुत डाँटा, लेकिन ऐसे ही हम सबको लाभ मिला। मेरी जब किताब छपी थी तब मैं पच्चीस-छब्बीस साल का रहा होऊँगा। मेरे पास बड़े-बड़े संस्थानों से पत्र आते थे। आचार्य त्रिपाठीजी, आप जैसे विद्वान की हमें बड़ी आवश्यकता है। आप यहाँ चले आइये । ग्रन्थमाला का सम्पादन कर दीजिए और मुझे कुछ आता-जाता था नहीं।



डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है कि भाव एक चीज होता है और बोध एक चीज। इसीलिए बोध के मामले में पार्टी संगठन कहता है कि मजदूर का नेतृत्व हमेशा मध्य वर्ग ही करेगा, लेकिन भाव उसमें पैदा नहीं हो सकता। भाव पैदा होगा मजदूर में, गरीब में; बशर्ते कि बोध उसको हो जाए। जब यह भाव मध्य वर्ग में आयेगा तब वह सर्वहारा हो जायेगा, सचेतन हो जायेगा। यह बात साहित्य में भी होती है। कहानी में भी हो सकती है। 

नामवरजी और शिवप्रसादजी वाली बात बताइए।
नामवरजी में तीक्ष्णता बहुत थी। बुद्धि शेर में भी होती है। बुद्धि लोमड़ी में भी होती है। सरवाइवल करने भर की बुद्धि मनुष्य में भी होती है, लेकिन एक बुद्धि चीते में होती है। अपनी सामग्री कहाँ से ले लेनी है लपक कर, यह नामवरजी को बखूबी आता था। यह कहना कि वह चतुर नहीं थे, अत्यधिक चतुर थे। जिस चीज को अपनी प्राप्य समझते थे, वह चाहे जैसे मिले उसे लेने की क्षमता उनमें थी। वह कौशल और दाँव-पेच उन्हें आता था। जूलियस सीजर जब जीत कर आता है तो कैसियस बताता है कि यह जूलियस सीजर है। नदी में तैरता था तो रोने लगता था। यानी आपका जो सबसे निकटस्थ होता है वह उतना ही जलन करता है। अवधी मा कहा गवा है कि, ‘पट्टीदार और अरहर की दाल।’ इस तरह नामवरजी के जो अधिकांश बड़े-बड़े संगी-साथी हैं, वह उनके पट्टीदार हैं। यह उनके साथ जीवन भर होता रहा। जितने भी लघु आलोचक हैं, वे सोचते हैं, कि नामवरजी न होते तो वही महान आलोचक होते। रामविलास शर्मा के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता।

कुछ लोगों ने सूची भी बनवायी है, जिसमें नामवरजी का नाम हटवा कर रामविलासजी के बाद अपना नाम रखा है।
बनवाए रहयं। आपने शिवप्रसादजी के बारे में पूछा था। पहले वह जानिए। शिवप्रसादजी सीधे थे। सरल थे। योग्य थे। प्रतिभाशाली थे, महत्वाकांक्षी थे। थोड़ा बड़बोलापन भी था उनमें। वे बड़े सुन्दर थे। आँखें बड़ी अच्छी थीं। हमारे अच्छे सम्बन्ध थे। लेकिन नामवरजी से जूनियर थे। हमेशा नामवर भाई, नामवर भाई कहा करते थे। लेकिन अन्दर से दोनों में थोड़ा चलता था। पण्डितजी यह बात जानते थे। वैसे नामवरजी ने किसी का चुराया-वुराया नहीं, लेकिन सार ग्रहण कर लिया है। नामवरजी जानते हैं कि कैसे ग्रहण किया जाता है। आपसे बात करें, एक घण्टे बाद किसी गोष्ठी में बोलना हो तो आपकी ही बात बोल देंगे। पर इस ढंग से बोलेंगे और इतने बड़े परिप्रेक्ष्य में बोलेंगे कि वही मौलिक हैं और उनकी बात चुराकर आप कह रहे हैं। नामवरजी को यह कला आती थी।



आपने कहा कि हिन्दी विभाग में सभी नामवरजी को मानते थे। कोई क्षति नहीं चाहता था, पर नियुक्ति कौन नहीं चाहता था?
नामवरजी व्यवहार कुशल थे। झगड़ा-वगड़ा नहीं करते थे। जिन लोगों ने द्विवेदीजी को निकलवाया उनमें डॉ. जगन्नाथ शर्मा और विश्वनाथ प्रसाद मिश्र शामिल थे। वह दोनों नामवरजी को मानते थे। जगन्नाथ जी आते थे तो मगही पान नामवरजी ही लेकर देते थे। विश्वनाथ जी उज्जैन में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने तो नामवरजी को बुलाया। यह कोई नहीं चाहता था कि नामवरजी विभाग में न आवें । पते की बात यह कि पण्डितजी के साथ थे तो पण्डितजी के जितने विरोधी थे वे सभी अपने आप नामवरजी के विरोधी थे। दूसरी बात भोला शंकर व्यास और बच्चन सिंह आदि नामवरजी से बहुत सीनियर थे। काशी में थोड़ा बहुत बाभन और ठाकुर का भी चलता था। सुधाकर पाण्डे कहते थे कि भैया यह सब ग्राम सिंह हैं। संस्कृत में ग्राम सिंह कुकुर को कहा जाता है। इस तरह यह सब वहाँ पिट जाते थे पण्डितजी से। हालाँकि पण्डितजी भी ब्राह्मण थे, लेकिन वह ब्राह्मण विरोधी माने जाते थे। सबसे बड़ा कारण यह था कि नामवरजी जाते-वाते कहीं नहीं थे। वह द्विवेदीजी को छोड़कर किसी के घर-वर नहीं जाते थे। वह पार्टी में थे। पार्टी में होना ही उनके विरोधियों को संगठित कर देता था। इसके अलावा उनकी लोकप्रियता थी। लोकप्रियता का यह कि कुछ लोग चठिया में जमे हैं। पण्डितजी कमुन्नो से घिरा हुआ इसीलिए कहते थे । वहाँ कोई विश्वनाथ जी का मजाक उड़ा रहा है। कोई जगन्नाथ जी का मजाक उड़ा रहा है। उसमें नामवरजी पुलकित होते थे। यह सब बातें पहुँचती थीं। फिर नामवरजी चुनाव में खड़े हो गये। जमानत जब्त । समाजवादी राज नारायण उनके खिलाफ घूम-घूमकर भाषण देते थे-यी द्याखउ पीएसपी के खिलाफ नामवर खड़ा होइहयं...ई खड़ा होइहंय हो। कहते थे कि बड़ी-बड़ी रनिया बेनिया डोलावयं... इस तरह के वह भाषण देते थे।

केदार की दुकान पर चाय पीने और पैसे देने वाली क्या घटना है?
15 नवम्बर 1958 को नैनीताल में मुझे नौकरी मिली। वहाँ दिसम्बर में शीतकालीन छुट्टियाँ हो जाती थीं। इसलिए मैं वापस बनारस आ गया। नामवरजी के यहाँ रुका था। नामवरजी उस समय बेरोजगार थे। अज्ञानतावश मैं उनकी खराब स्थिति का अनुमान नहीं लगा सका। वह चुनाव हार चुके थे पण्डितजी पर इनक्वायरी कमीशन बैठ गया था, जिसके बाद वह निकाले जाने वाले थे। हर बार की तरह नामवरजी हमें केदार के यहाँ चाय पिलाने ले गये। केदारनाथ सिंह छोटी-मोटी नौकरी में आ गये थे। लेकिन अघोषित नियम के अनुसार चाय का पैसा नामवरजी ही देते थे। उस दिन उन्होंने कहा कि विश्वनाथजी चाय के पैसे आप दे दीजिए। हम दोनों ने चाय पी। मूंग की दाल वाली नमकीन उनको बहुत पसन्द थी। वह भी ली। दोनों का एक रुपया हुआ, जो मैंने दे दिया। दूसरे दिन मैं चलने लगा तो वह घर से लोलार्क कुंड वाली गली तक छोड़ने आये। जाते हुए उन्होंने चुपचाप एक रुपये का नोट पकड़ा दिया। मैंने यह सोचकर वह नोट ले लिया कि नामवरजी हमेशा चाय पिलाते थे। इसीलिए कल वाला चाय का पैसा दे रहे हैं। लेकिन बाद में देखने पर पता चला कि वह नोट उनका नहीं था। वह काफी मुड़ा-तुड़ा था। ऐसा नोट नामवरजी का हो नहीं सकता था। जाहिर सी बात है कि वह पत्नी या किसी से माँगकर लाये थे। इस तरह का स्वाभिमान उनके अन्दर था।



नामवरजी ने आपको 60 रुपये फीस के दिये थे, वह क्या घटना है?
मैंने एम.ए. की परीक्षा छोड़ दी थी। मैं घबरा गया था। अब क्या करूं। इसलिए झूठ प्रचार किया कि मेरी माँ जल गयी हैं। गाँव जा रहा हूँ। इस पर पण्डितजी और नामवरजी ने अपने-अपने हिसाब से प्रतिक्रिया की। नामवरजी ने कहा कि आप जो हाराकीरी कर रहे हैं, वह ठीक नहीं है। आप हॉस्टल में रहिए। मैंने कहा कि पैसे कहाँ से आयेंगे। वह बोले पैसे का प्रबन्ध हो जायेगा। नहीं होगा तो हम दे देंगे। मैं रहने लगा। वहाँ पैसे चाहिए थे। एक दिन मैं सुबह-सुबह नामवरजी से माँगने पहुँच गया। वह सो रहे थे। नींद में उठे। बक्सा खोला। पैसे निकाल कर दिये और फिर सो गये।

उस समय तनख्वाह क्या थी?
पैसे नहीं होते थे। 150 रुपये महीना शायद तनख्वाह थी। पहली या दूसरी तारीख रही होगी। इसलिए चाहे कहीं से पैसा आया हो या उन्हें पढ़ाने का मिला हो तो दिया था। इस तरह से नामवरजी ने मेरी बड़ी सहायता की।

नामवरजी ने बनारस से चुनाव लड़ा, यह उनकी इच्छा थी, कम्युनिस्ट पार्टी की थी या दोनों की?
जाहिर सी बात है-दोनों की थी। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रुस्तम जी थे। वह बहुत पढ़े-लिखे थे। स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन से उनका परिवार जुड़ा रहा था। उन्होंने कहा होगा चुनाव लड़ने के लिए। उस समय पण्डितजी की विभाग में स्थिति डाँवाडोल थी। नामवरजी का भविष्य भी सुनिश्चित नहीं था। नयी-नयी पार्टी ज्वाइन की थी। इसीलिए लड़ने चले गये होंगे।

उस समय नामवरजी अपनी दिक्कत किसी से शेयर नहीं करते थे?
किसी से भी नहीं। नामवरजी में बड़बोलापन कभी नहीं रहा। विभाग की परम्परा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र थे। नामवर सिंह थे। ये लोग अपनी तरफ से अपने साहित्य, अपनी किताब अथवा अपने भाषण के बारे में कभी बात नहीं करते थे। उस संस्कार में पले-बढ़े लोग भी नहीं करते। हालाँकि काशी में कुछ ऐसे लोग भी थे जो अपने बारे में खूब बातें करते थे। इसमें शिवप्रसादजी, विनोद शंकर व्यास आदि थे। रामविलास शर्मा कभी नहीं करते थे। वैसे कभी-कभार लेखक तंग हो जाता है कि जब कोई नहीं करता है तो वह स्वयं करने लगता है। जैसा सुमित्रानन्दन पन्त के बारे में डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा था कि पन्त जी क्या करें।

कहा जाता है कि नामवरजी ने साहित्य में उठाना-गिराना उसी समय शुरू कर दिया था।


नामवरजी ने जो लिखा उसके कारण आलोचक बने। उनका सर्वोत्कृष्ट कहानी का आलोचक रूप है। आलोचक का काम क्या होता है? वह क्या करता है? वह साहित्य का अपना नया पाठ प्रस्तुत करता है। वह साहित्य को नये ढंग से पढ़ने की विधि प्रस्तुत करता है। उसका यही काम है। जैसे नया रास्ता बनाना पड़ता है तो कई दुकानें ढहानी पड़ती हैं, नयी दुकानें बनानी पड़ती हैं। आलोचक भी नया रास्ता बनाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसीदास को पढ़ने का रास्ता बताया। जायसी तो कहीं थे ही नहीं। नामवरजी ने जब कहानी की आलोचना लिखना शुरू किया उस समय विष्णु प्रभाकर और चन्द्रगुप्त विद्यालंकार थे। नामवरजी इनकी कहानियों से नये लोगों की कहानियों की तुलना करने लगे। नये कहानीकारों में कौन सी बातें हैं जो पुराने लोगों में नहीं हैं। वह प्रचलित या मान्य भाव से अभी तक चिपटे हुए हैं। जैसे कौन जानता था उषा प्रियंवदा को, जिन्होंने ‘वापसी’ जैसी कहानी लिखी। वापसी कहानी में जो बाप है वह नौकरी से लौट कर आता है। और जब वह आ जाता है तो मकान में उसकी खाट के लिए जगह नहीं है। अब नामवरजी का इसमें कहना है कि यह विसंगति कहाँ पैदा हो गयी। पत्नी के मन में भाव तो है लेकिन हमें वह करना नहीं पड़ रहा है। बीच में इतिहास आ गया कि संयुक्त परिवार अब एक मकान में नहीं रह सकता। आप चाहे जितना हल्ला मचाएँ, संयुक्त परिवार टूट जायेगा। द्विवेदीजी का कहना है कि इतिहास विधाता क्रूर होता है। इस तरह नामवर सिंह ने संवेदना को समझ से जोड़ा, उसमें कई लोग गिर गये।

आपने जो सवाल किया था वह अपनी जगह ठीक है। सब पर असर पड़ता है सो नामवरजी पर भी पड़ा। उनसे चूक कहाँ हुई तो मेरी समझ से निर्मल वर्मा को बहुत महत्व दिया। निर्मल वर्मा उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे, जब परिन्दे लिखी थी। उसी कहानी अथवा किसी दूसरी कहानी के एक टुकड़े की नामवरजी ने बड़ी तारीफ की है। उसका विषय है कि हम कहाँ जा रहे हैं, कहाँ उड़ रहे हैं, उसका उद्देश्य क्या है आदि-आदि। पहले की कहानियों में एकाएक हृदय परिवर्तन होता था। कहानियों की समीक्षा पाँच पारम्परिक विभाजन (कथानक, चरित्र चित्रण, वातावरण, सन्देश, देशकाल) अलग-अलग नहीं सब एक में ही संशलिष्ट होता है। उसमें प्रभावान्विति होती है। कहानी के प्रत्येक रेशे में ये पाँच तत्व संश्लिष्ट होते हैं। उसकी अलग-अलग व्याख्या करना दुष्कर है। कथा-कहानी की व्याख्या उतनी ही गम्भीरता से होनी चाहिए जितनी कविता की होती है। कविता में प्रत्येक शब्द और पंक्ति पर विचार करते हैं लेकिन कहानी में नहीं। कहानी की भी उसी तरह से व्याख्या होनी चाहिए।

अपने विचार के करीब वाले अथवा पार्टी से जुड़े लेखकों को उठाने में क्या वह यकीन करते थे?
कम्युनिस्ट आलोचक जो हैं वह इस बात के लिए कम्युनिस्टों के बीच में ज्यादा बदनाम हैं। वह कम्युनिस्ट लेखकों की ढंग से खबर लेते हैं। रामविलास शर्मा इसके उदाहरण हैं। नामवरजी भी हैं। भैरव प्रसाद गुप्त तो नामवरजी से बड़े कम्युनिस्ट थे। शेखर जोशी, अमरकान्त, उषा प्रियंवदा कौन कम्युनिस्ट थीं। शेखर जोशी, अमरकान्त व कमलेश्वर ये सब पार्टी के निकट थे, पर मेम्बर नहीं थे। नामवर ने इनका उल्लेख किया पर लिखा नहीं विस्तार से। नामवरजी ने दो किताबें लिखीं- ‘कहानी-नयी कहानी’ और ‘कविता के नये प्रतिमान।’ नयी कहानी वाली किताब में ‘परिन्दे’ को केन्द्र में रखा तो ‘कविता के नये प्रतिमान’ में उन्होंने ‘अँधेरे में कविता’ को प्रतिमान बनाया। इस तरह से उन्होंने अपना स्टोरी राइटर और मॉडल बनाया। नामवरजी ने एक और किताब ‘छायावाद’ लिखी, जो बड़ी मशहूर किताब है। ‘छायावाद में कई प्रवृत्तियाँ हैं, यह नामवरजी ने बताया। उसमें देश भक्ति है। नवजागरण है। प्रकृति है। इस तरह का विश्लेषण उन्होंने न ‘कहानी-नयी कहानी’ में किया न ‘कविता के नये प्रतिमान’ में किया। नामवरजी यह बात मानते भी थे। नयी कहानी में कई प्रवृत्तियाँ काम कर रही थीं। एक प्रवृत्ति निर्मल वर्मा वाली थी। हिन्दी में एक शब्द है भाव बोध। अंग्रेजी में अनुवाद करते हैं सेंसिबिलिटी। डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है कि भाव एक चीज होता है और बोध एक चीज। इसीलिए बोध के मामले में पार्टी संगठन कहता है कि मजदूर का नेतृत्व हमेशा मध्य वर्ग ही करेगा, लेकिन भाव उसमें पैदा नहीं हो सकता। भाव पैदा होगा मजदूर में, गरीब में; बशर्ते कि बोध उसको हो जाए। जब यह भाव मध्य वर्ग में आयेगा तब वह सर्वहारा हो जायेगा, सचेतन हो जायेगा। यह बात साहित्य में भी होती है। कहानी में भी हो सकती है। निर्मल वर्मा मध्य वर्ग और इंटेलेक्चुअली ताने-बाने में रचे पगे हैं। उनकी कहानी ‘लन्दन की एक रात’ ले लीजिए। दोनों में तुलना कीजिए। यह नामवरजी ने नहीं किया। ‘लन्दन की एक रात’ में बेरोजगारी का बेहतरीन चित्रण है। मेरे हिसाब से वह महान कहानी है। लेकिन निर्मल वर्मा में एक अजीब तत्व है। वह तत्व उनमें इतना अधिक था कि इसी कारण उनकी कहानियों का लोकेल इलीटिस्ट है, उसकी कोई चर्चा नहीं होती। सेंट स्टीफेंस का पढ़ा लड़का है। उनका कहानियों का लोकेल अपने देश का लगता ही नहीं। मैंने लिखा है कि असल में गँवई गाँव का आदमी (नामवरजी) निर्मल वर्मा के आभा मण्डल में चकचौंधिया गये। यह गजब हुआ। इसमें अमरकान्त और शेखर जोशी रह गये। मैं प्रेमचन्द के बाद अमरकान्त को सबसे बड़ा कहानीकार मानता हूँ। प्रेमचन्द के बाद इतनी अच्छी कहानियाँ किसी के पास नहीं हैं। नामवरजी ने इन सबका उल्लेख किया, लेकिन विश्लेषण करते हुए यह ध्यान नहीं दिया कि नयी कहानी आन्दोलन का पहला लेखक कौन है? यहाँ शेखर जोशी और अमरकान्त को बैठाकर वार्तालाप कराते तब देखते क्या मजा आता। अमरकान्त ने कहा है कि शेखर जोशी की कहानी में असामान्य कुछ होता ही नहीं। टिपिकल प्रेमचन्दी। छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। इसलिए मेरा कहना है कि कहानियाँ बड़ी अमरकान्त की हैं, लेकिन कहानीकार बड़े हैं, शेखर जोशी । नामवरजी के यहाँ हरिशंकर परसाई और फणीश्वर नाथ रेणु भी रह गये।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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