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रेशम के लच्छे जैसी स्वर लहरियाँ | नामवर पर विश्वनाथ - 1



रेशम के लच्छे जैसी स्वर लहरियाँ | नामवर पर विश्वनाथ - 1

नामवरजी ने आलोचक के रूप में जितनी ख्याति पाई उतनी ख्याति वह कवि रूप में भी पा लेते — विश्वनाथ त्रिपाठी

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी, भोपाल की हिंदी मासिक (अरसे से बंद) 'साक्षात्कार' का एक बार फिर जीवित होना — जैसा मुझे हर उस ख़बर से महसूस होता है जो हिंदी की — जीत है. ख़ूब जीते हमारी हिंदी. प्रो. नामवर सिंह पर आधारित 'साक्षात्कार' के अप्रैल अंक का संपादन नवल शुक्ल ने अथितिरूप में किया है और अगला विष्णु खरे को समर्पित, अंक भी शुक्लजी के सम्पादन में जल्दी आने वाला है.

नामवरजी से मेरा प्रेम हो या आपका प्रेम, वह हमें वहाँ पहुंचा देता है जहाँ उनसे सम्बंधित कुछ मिले मसलन "निराला के हाथों नामवरजी ने कविता का 100 रुपये का पुरस्कार भी प्राप्त किया था। " मुझे कतई इल्म न था जैसी जानकारी हो तो. शुक्रिया और बधाई राजीव रंजन गिरी और अटल तिवारी को जो उन्होंने यह अव्वल दर्ज़े का काम : नामवरजी के विषय में नामवरजी के बहुत अपने विश्वनाथ त्रिपाठी जी का साक्षात्कार किया

हिंदी साहित्य और उसके छात्र को मजबूत बनाने की दृष्टि से यह एक ज़रूरी पाठ है. यहाँ शब्दांकन पर इसे तीन हिस्सों में बाँट रहा हूँ ताकि पढ़ने में सुलभ हो. आभार, मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी.

भरत एस तिवारी

प्रति सहेजना चाहें तो :
  साहित्य अकादमी
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पहला वचन था कि आपका मेरे घर आना अबाधित है। दूसरा—कोई चीज मुझसे माँगेंगे और वह मेरे पास होगी तो मैं मना नहीं करूंगा और तीसरा — पढ़ने-लिखने में मदद करूंगा। यह मेरी नामवरजी से पहली मुलाकात थी। — विश्वनाथ त्रिपाठी

नामवर के निमित्त

वह निस्फ सदी का किस्सा है... डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी से राजीव रंयन गिरि एवम् अटल तिवारी की बातचीत


आपने बनारस आने से पहले क्या नामवरजी का नाम सुना था?

हाँ, मैंने सुना था। एक बात ध्यान रखिए कि नामवरजी और मेरी उम्र में चार साल का ही अन्तर है। यद्यपि विद्या, बुद्धि, अनुभव और विलक्षणता में चाहे जितना अन्तर हो। कानपुर में विक्रमाजीत सनातन धर्म महाविद्यालय था, वहाँ संस्कृत के अध्यापक थे पण्डित राम सुरेश त्रिपाठी। काशी से आये थे। अर्थ मीमांसा के बड़े विद्वान थे। वह द्विवेदीजी का नाम लेते थे। कभी-कभार नामवर सिंह का भी नाम लेते थे। मैंने नामवर सिंह का नाम सबसे पहले उन्हीं के मुँह से सुना था। पण्डित राम सुरेश त्रिपाठी ने मेरी बड़ी सहायता की। उन्होंने सबसे बड़ी सहायता यह की कि हमें द्विवेदीजी के यहाँ लेकर गये। इसलिए मेरी जो किताब ‘व्योमकेश दरवेश’, वह मैंने उन्हीं को समर्पित की है। त्रिपाठीजी ने मुझसे का कि तुम यहाँ काशी में रहो । मन लगाकर पढ़ो-लिखो और नामवर से कभी-कभार मिलते रहना।

नामवर टूँगा बहुत उतारता है। भोजपुरी में शायद इसे नकल करना व मजाक उड़ाना कहा जाता है। साथ ही कहते थे कि नामवर कमुन्नों के साथ बहुत घूमता है। कमुन्नो का मतलब कुछ लोगों ने कम्युनिस्ट निकाला था, पर पण्डितजी का यह मतलब नहीं था। 



त्रिपाठीजी भी आपके शिक्षक में?
यह बात 1951 की है। त्रिपाठीजी बलिया के थे। अविवाहित थे। बहरे यानी ऊँचा सुनते थे। बहुत जल्दी रुष्ट हो जाते थे और बहुत जल्दी तुष्ट हो जाते थे। वह संस्कृत पढ़ते थे। उस समय वासुदेव शरण अग्रवाल ने उनको एक चिट्ठी लिखी थी। वह चिट्ठी मैंने पढ़ ली। उसमें लिखा था कि व्याकरण का अमरत्व तो आपको ही प्राप्त है। चिट्ठी वहीँ रखी थी, जिसे मैंने चुरा ली। अपने सहयोगियों और सहपाठियों को दिखायी।

उस समय आप किस क्लास में थे और आपके विषय क्या थे?
मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में था। विषय थे —हिन्दी, संस्कृत, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र और अंग्रेजी। मैं तो अंग्रेजी में एम.ए, करने जा रहा था, पर त्रिपाठीजी ने द्विवेदीजी का नाम ले लिया तो मैंने अपने सहपाठियों को वह चिट्ठी दिखायी कि देखो-त्रिपाठीजी कितने बड़े विद्वान् हैं। उन्हें वासुदेव शरण अग्रवाल ने चिट्ठी लिखी है। तीन दिन बाद जब मैं त्रिपाठीजी के घर गया तो उन्होंने कहा कि चिट्ठी वापस कर दो। उनकी जगह कोई दूसरा होता तो नाराज होता। वह आदमी थे। संस्कृत में व्याकरण पढ़ाते थे। उसमें भी सम्बन्ध वाचक सर्वनाम। पढ़ाते- पढ़ाते अपने आप मैं मगन हो जाते थे। आँख मूंदकर दो-तीन बार बोले—सम्बन्ध (त्रिपाठीजी खुद सिर हिलाकर बताते हैं)। फिर बोले - सम्बन्ध के बारे में तुमको क्या बताएं । सम्बन्धता में तो पूर्वी व पाश्चात्य दर्शन की टांग तोड़ दी आइंस्टीन ने। इस तरह आइंस्टीन का नाम भी पहले उन्हीं के मुंह से सुना था।

कविता में वाक्य विधान का ध्यान रखना हिन्दी में सबसे ज्यादा त्रिलोचन शास्त्री के यहाँ है, लेकिन भाव प्रवणता जितनी नामवरजी की कविताओं में है, उतनी अन्यत्र कम है। इस तरह नामवरजी ने आलोचक के रूप में जितनी ख्याति पाई उतनी ख्याति वह कवि रूप में भी पा लेते.

उस समय त्रिपाठीजी की उम्र कितनी थी?
बहुत छोटे थे। विवाहित नहीं हुए थे। हालाँकि विवाहित इसलिए नहीं हुए थे, क्योंकि उस समय तक उनको स्थायी नौकरी नहीं मिली थी। बाद में वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक हो गये थे और वहीं से विभागाध्यक्ष होकर रिटायर हुए। उनकी विद्वता को देखकर उनको सभी मुस्लिम प्रोफेसर बहुत मानते थे। इस तरह मैंने नामवरजी का नाम सबसे पहले त्रिपाठीजी से इस रूप में सुना कि वह बहुत प्रतिभाशाली हैं। हमें वही सबसे पहले पण्डितजी (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) के पास ले गये थे। शायद पण्डितजी वैसे भी मुझे मानते, स्नेह करते, लेकिन त्रिपाठीजी ने मेरे बारे में उन्हें बताया होगा, इस बात का असर भी रहा होगा।

त्रिपाठीजी से आपने सुना कि नामवरजी प्रतिभाशाली हैं और उनसे मिलना चाहिए। फिर जब आप बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आये तो दूसरे लोगों से नामवरजी के बारे में क्या सुना?
त्रिपाठीजी ने कहा था कि नामवर सिंह से मिला करो। मिलने से फायदा होगा। पढ़ना-लिखना आयेगा। फिर मैंने हिन्दी विभाग में पहली बार नामवरजी को देखा। नामवरजी से मेरे सम्बन्ध 1953 से लेकर 2019 तक रहे। करीब 66 साल। मैं यह तो नहीं कह सकता कि सबसे अधिक मेरी आत्मीयता रही, लेकिन कुछ लोग होंगे जिनसे उनकी अन्त तक आत्मीयता बनी रही, उसमें एक मैं भी हूँ। नामवरजी का नाम लेते ही उनकी प्रतिभा और विद्वता की बातें तो ध्यान में आती हैं, लेकिन बहुत सारी छोटी-छोटी बातें भी ध्यान में आती हैं। वह विभाग में नये-नये अध्यापक थे। द्विवेदीजी ने उनसे पढ़ाने के लिए कह दिया था। उस समय वह हिन्दी विभाग में शोध छात्र थे। वहीं पढ़ाने का काम मिल गया तो अध्यापकी वेश में आना चाहिए। लगता था कि नया-नया कुर्ता सिलवाया है। नयी-नयी फड़फड़ाती हुई धोती। वह शुरूआत में कड़ी होती है (त्रिपाठीजी हँसते हैं)। कुर्ते की बाँह की भौंह, जो पहले मोड़ी होती थी। गाँव से जब कोई आदमी शहर आता है तो नया-नया कपड़ा पहन कर आता है। उसी तरह से नामवरजी लग रहे थे। विभाग में उनके मुँह से पहला वाक्य मैंने यह सुना, जो वह विभाग के अध्यापक डॉ. जगन्नाथ शर्मा से मजाक कर रहे थे कि चाय की कितनी प्रतियाँ बनी हैं? यहीं पर मैंने उनसे कहा कि मैं आपसे घर पर मिलना चाहता हूँ।

नामवरजी ने पीएच.डी. की पृथ्वीराज रासो की भाषा पर, लेकिन जिस तरह की कविताएँ उन्होंने लिखीं, उसका खासा महत्व है। 


आपके इस आग्रह पर नामवरजी की क्या प्रतिक्रिया थी? 
उन्होंने कहा कि कल सुबह 9 बजे आ जाओ।

वह पहले से आपके बारे में जानते थे?
न, मैं अगले दिन तय समय पर उनसे मिलने गया। काशीनाथ मिले। वह इंटरमीडिएट में पढ़ते थे। बोले-भैया तो नहीं हैं। बैठिये। आ रहे होंगे। फिर उन्होंने त्रिलोचन शास्त्री के बारे में बताना शुरू किया। बोले—जब शास्त्री जी आते हैं तो भैया, भाभी से कहते हैं कि आज आठ लोगों का खाना बनेगा। हमने कहा—कैसे? तो वह बोले कि एक मेरा। एक भाभी का। एक भैया का और बाकी का शास्त्री जी का। वह यह सब बड़े भक्ति भाव से बता रहे थे, न कि मजाक में। वह तो बाद में ऐसे कथाकार हुए, जिन्हें तुम लोग जानते हो। वह कह रहे थे कि शास्त्री जी बड़े विचित्र हैं। वह सपने में बहुत सारे काम कर लेते हैं। एक दिन देखा कि सबेरे उठ गये हैं। अंगोछा भीगा हुआ है। फैला है। वह सपने में ही गंगा स्नान करने चले गये थे और करके आ भी गये थे। इसी तरह की शास्त्री जी की नाना प्रकार की कथाएँ सुनाये जा रहे थे। बार-बार यह भी कहे जा रहे थे कि भैया को ऐसा नहीं करना चाहिए था। इस तरह से मैंने तीन घण्टे नामवरजी का इन्तजार किया। यानी सुबह नौ से दोपहर 12 बजे तक। फिर वापस रिक्शे से लौट रहा था। तब देखा कि नामवरजी बस से आ रहे थे। उन्हें देखकर मैं भी लौट आया। नामवरजी ने मुझसे कहा कि तीन दिन तक यमराज ने नचिकेता को प्रतीक्षा कराई थी फिर तीन वचन दिये थे तो मैं भी आपको तीन वचन देता हूँ।

वह तीन वचन क्या थे?
पहला वचन था कि आपका मेरे घर आना अबाधित है। दूसरा—कोई चीज मुझसे माँगेंगे और वह मेरे पास होगी तो मैं मना नहीं करूंगा और तीसरा — पढ़ने-लिखने में मदद करूंगा। यह मेरी नामवरजी से पहली मुलाकात थी। हाँ, आपने पूछा था कि उस समय विभाग में कौन-कौन था। विभाग में द्विवेदीजी विभागाध्यक्ष थे। आचार्य केशव प्रसाद मिश्र नहीं रह गये थे। केशवजी ने नामवरजी को पढ़ाया था। बकौल नामवरजी - आचार्य केशव प्रसाद मिश्र हिन्दी के श्रेष्ठ अध्यापक थे। वैसा अध्यापक हिन्दी में कोई दूसरा नहीं हुआ। जिसे पण्डित केशव प्रसाद मिश्र ने पढ़ाया हो, वह यह मान ही नहीं सकता कि उनसे बढ़िया भी कोई अध्यापक हो सकता है। यह नामवरजी खुलकर कहते थे। फिर डॉ. जगन्नाथ शर्मा और आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र थे। मिश्रजी विभाग के श्रेष्ठ अध्यापक माने जाते थे। पण्डित करुणापति त्रिपाठी थे। विजय शंकर मल्ल थे। डॉ. राकेश गुप्त और डॉ. श्रीकृष्ण लाल थे। ये दोनों इलाहाबाद के पढ़े थे। दोनों बुरे अध्यापक नहीं थे; चूँकि इलाहाबाद से आये थे, इसलिए विभाग में इनकी गति ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ जैसी थी। वे दोनों द्विवेदीजी के निकट थे। हमें बहुत मानते थे। खासकर श्रीकृष्ण लाल। फिर नामवरजी आ गये थे।

उस समय रामदरश जी भी वहाँ पढ़ाते थे?
रामदरश जी बी.ए. की कक्षाएँ पढ़ाते थे। जैसे नामवरजी को शोध-वृत्ति मिली थी उसी तरह रामदरश जी को भी शोध-वृत्ति मिली थी। वह बी.ए. की क्लास पढ़ाते थे और नामवरजी एम.ए. को भी पढ़ाते थे।

क्या पण्डितजी ने भी शुरुआती दिनों में नामवरजी की चर्चा की थी?
नामवरजी के बारे में पण्डितजी का एक वाक्य अक्सर मुझे याद आता है। वह कहते थे कि नामवर टूँगा बहुत उतारता है। भोजपुरी में शायद इसे नकल करना व मजाक उड़ाना कहा जाता है। साथ ही कहते थे कि नामवर कमुन्नों के साथ बहुत घूमता है। कमुन्नो का मतलब कुछ लोगों ने कम्युनिस्ट निकाला था, पर पण्डितजी का यह मतलब नहीं था। बांग्ला में एक शब्द अइचड़पाका होता है। जैसे कटहल होता है तो कई बार उसकी बतिया ही पक जाती है। मतलब बतिया फल ही पक जाता है तो बांग्ला में उसे अइचड़पाका कहा जाता है। मतलब वह पैदा ही होते हैं आचार्य । वह संसार में पढ़ने और सीखने के लिए नहीं पैदा होते हैं। वह सिर्फ सिखाने और पढ़ाने के लिए पैदा होते हैं। तो ऐसे लोगों को पण्डितजी कमुन्ना कहते थे।


आपने नामवरजी की कक्षा में पढ़ना कब शुरू किया? 
एम.ए. में ही शुरू कर दिये थे। वे हमें अपभ्रंश पढ़ाते थे।

आपने लिखा है कि अपभ्रंश के विद्वान बहुत हुए पर अपभ्रंश के आलोचक नहीं हुए, जैसे नामवरजी हुए।
द्विवेदीजी के मन में नामवरजी को विभाग में लाने की बात थी। उन दिनों वहाँ भाषा का कोई अध्यापक नहीं था। इसीलिए शायद नामवरजी ने पृथ्वीराज रासो की भाषा पर पी-एच.डी. की। उन्हें पढ़ाने का पेपर भी भाषा विज्ञान दिया गया। पर, अपने हाथ में कुछ होता नहीं है। बहुत कुछ कर्ता के हाथ में होता है। उन दिनों नामवरजी आलोचक के रूप में कम बल्कि कवि के रूप में ज्यादा चर्चित हो गये थे। हो रहे थे। उस तरह की कविताएँ किसी ने नहीं कीं। खड़ी बोली में सवैया और कवित्त करते थे। सवैया और कवित्त दोनों हिन्दी के जातीय छन्द हैं। निराला का वैभव कवित्त में है। नामवरजी ने सवैया और कवित्त को पूर्वी उत्तर प्रदेश की बोली में रवाँ कर दिया। उसे तुकान्त और लयबद्ध किया। साथ ही आधुनिक भाव बोध से लैस किया। इस तरह की साफ सुथरी खड़ी बोली में सवैया और कवित्त किसी ने नहीं लिखी। शायद यह प्रेरणा उन्हें त्रिलोचन शास्त्री से मिली हो, क्योंकि कविता में वाक्य विधान का ध्यान रखना हिन्दी में सबसे ज्यादा त्रिलोचन शास्त्री के यहाँ है, लेकिन भाव प्रवणता जितनी नामवरजी की कविताओं में है, उतनी अन्यत्र कम है। इस तरह नामवरजी ने आलोचक के रूप में जितनी ख्याति पाई उतनी ख्याति वह कवि रूप में भी पा लेते, ऐसा मुझे लगता है।

आपका कहना है कि नामवरजी जिस तरह आलोचक बनकर साहित्य जगत के केन्द्र में रहे, उसी तरह कवि बनकर भी छाप छोड़ते?
बिल्कुल। संयोगवश निराला के हाथों कविता का 100 रुपये का पुरस्कार भी प्राप्त किया था। कौन सा पुरस्कार था? पुरस्कार का नाम तो पता नहीं, पर घटना सही है।

आपने लिखा है कि वह मंच पर काव्य पाठ गाकर करते थे।
मंच पर डॉ. शम्भुनाथ सिंह उनके नेता थे और शम्भुनाथ सिंह के मुँह से जिसने काव्य पाठ सुना है, वह जानता है कि हरिवंश राय बच्चन को छोड़कर उनके सामने दूर-दूर तक कोई नहीं था। आँख मूंदकर शम्भुनाथ जब कविता पढ़ते थे तो रेशम के लच्छे जैसी स्वर लहरियाँ तैरती थीं

  समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
  किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये
  किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
  किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी
  इसी में गये बीत दिन जिन्दगी के
  गयी घुल जवानी, गयी मिट निशानी...

***

  टेर रही प्रिया तुम कहाँ
  किसके ये काँटे हैं किसके ये पात रे
  बैरी के काँटे हैं केले के पात रे
  बिहरि रहा जिया तुम कहाँ
  टेर रही प्रिया तुम कहाँ हो...

इस तरह नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र आदि सब कविता पढ़ते थे। ये सभी शम्भुनाथ सिंह के सहचर कवि थे। नामवरजी ने पीएच.डी. की पृथ्वीराज रासो की भाषा पर, लेकिन जिस तरह की कविताएँ उन्होंने लिखीं, उसका खासा महत्व है। सुनिए —

  इस शेरो सुखन की महफिल में
  जो कुछ भी हफीज का हिस्सा है।
  एक आध बरस की बात नहीं
  वह निस्फ सदी का किस्सा है...

तो आदरणीय नामवरजी उस प्रक्रिया से निकले हैं। अब रही बात कंठ की तो जिसने नहीं सुना वह क्या जाने। ऐसा कंठ कि ढला हुआ सोना। जिस तरह आग में तपकर सोना ढलता है उसी तरह से वह गाते थे कविता, सवैया आदि। बच्चन की पंक्तियों को वह मोहक स्वर में गाते थे —
  कुछ अँधेरा कुछ उजाला क्या समा है।
  जो करो इस चाँदनी में सब क्षमा है...


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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