आलोकधन्वा की कविताओं का सार, संसार
कवि को न पढ़े गए से पढ़ें! — सुधा सिंह
आलोकधन्वा सन् सत्तर के दशक के महत्वपूर्ण कवि हैं। 'ब्रूनो की बेटियाँ' , 'भागी हुई लड़कियाँ', 'गोली दागो पोस्टर', 'जनता का आदमी' आदि कविताएं कवि की प्रतिनिधि कविताएं मानी जाती हैं। आलोकधन्वा की कविताओं में एक खास तरह का भाव मिलता है जिसे हम ठीक-ठीक मस्त या फक्कड़ भाव तो नहीं कह सकते। यह आधुनिक बोहेमियन भाव के ज़्यादा क़रीब हैं। इसकी खासियत यह है कि यह दुनिया और दुनियावी संरचना को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकार करतीं, इनमें बदलने की तीव्र उत्कंठा है, यथास्थितिवाद से समझौता करने को तैयार नहीं, बराबरी और जनतंत्र के भाव का इनमें स्वीकार भी है साथ ही प्रतिरोध का भाव भी है।
अपने वर्ग की चेतना को छोड़ जन से जुड़ने का इनमें प्रयास है। छोटे सुखों को पकड़ने की इच्छा, मामूली पर नज़र लेकिन सब कुछ एक खास रुमानी अंदाज में। जन से संबद्ध होने की इच्छा है पर संबंद्धता नहीं, डिसकनेक्शन है। आलोकधन्वा की पीढ़ी जहाँ धूमिल, रघुवीर सहाय से प्रभावित है, वहीं मुक्तिबोध से भी। पर मुक्तिबोध की कविताओं में मौजूद वर्गान्तरण की तीव्र छटपटाहट और ऐसा न हो सकने का तीखा दंश इस दौर की कविताओं में ग़ायब है। जैसे इन्होंने मान लिया है कि वे ‘डि-क्लास’ हो चुके हैं! जबकि इनकी कविताओं से इनका मध्यवर्गीय मन, जीवनशैली तथा जीवनदृष्टि बराबर झांकती दिखती है! मुक्तिबोध ने सच में निम्न मध्यवर्गीय जीवन जिया और उसकी विसंगतियों से छटपटाते रहे। आमदनी के नियमित जरिए का अभाव, पक्की नौकरी का अभाव, पत्नी को शिक्षित करने और बच्चों की परवरिश करने की चिंता, पत्नी को गर्भपात के बाद के अवसाद और चिड़चिड़ेपन से बचाने की चिंता, उसकी सेहत का ख़्याल, जनतंत्र में लेखक की भूमिका से जुड़े ठोस सामाजिक सवाल- मुक्तिबोध के यहां किसी रुमानियत का हिस्सा नहीं, बल्कि जीवन के ठोस प्रश्न बनकर आए हैं। वे औरत की बात करते हैं, कविता में भी, तो वह दूर से देखी हुई या संवेदनात्मक तौर पर दूर करके देखी गई स्त्री का आकारविहीन चेहरा नहीं है। वह ठोस से इतिहास या मिथक की यात्रा है, सदियों का सफरनामा है लेकिन ऐसा नहीं कि जिसे पहचाना न जा सके।
आलोकधन्वा जहाँ व्यक्तिगत संदर्भ से स्त्री पर कविता लिखते हैं, वहाँ वे ज़्यादा सफल हुए हैं और जहाँ वे स्त्री के शरीर और भोग से संबंधित कविता लिखते हैं, वहां वे पुंसवादी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं और धूमिल के क़रीब चले जाते हैं। उनकी कुछ कविताओं में स्त्री का पहचाना चेहरा है, खासकर जब वे माँ पर लिखते हैं तो बड़े सुंदर ढंग से उस ग्राम्य स्त्री कवि को याद करते हैं जिसका गाना चौके में जाने के कारण बाधित हो जाता था और वह गाते-गाते चुप होकर अपने बच्चों से दूर रसोई में ओझल हो जाती थी। कवि कहता है कि वह अपनी माँ का वह गाना आज भी नहीं भूला।
‘रसोई’ जो घर का जरूरी हिस्सा है, वहाँ जाते ही स्त्री गुम हो जाती है। बच्चे उसे ढूँढना चाहते हैं, उसके पास रहना चाहते हैं, लेकिन रह नहीं पाते, क्योंकि औरत अब गाँव की सीमा के बाहर नहीं, जहाँ शाम ढल रही है और वह अपने बच्चों को घर जाने के लिए बुलाने आई है इसी क्रम में उन्हें मधुर कंठ से गीत सुना रही है, वह स्त्री अब ‘रसोई’ में है। इस अंश को खोलने पर सामाजिक श्रम विभाजन के अनेक परिचित, दमनकारी चेहरे सामने आ सकते हैं। वह स्त्री जो गाती थी, रसोई में गुम हो जाती है, बच्चों को अंधेरे से डर लगता है और वे रात होने पर अपनी माँ से बिल्कुल अलग नहीं रह पाते लेकिन उन्हें ऐसा ही करना पड़ता है क्योंकि माँ की घर में अन्य प्रकार की भूमिका भी है, बच्चों को उसके समय का एक अंश ही मिल सकता है।
यह 1995 की लिखी कविता है यानि तब जबकि भारत में भी स्त्रीवादी लेखन और साहित्य की धमक ठीक से सुनाई दे रही थी और जनतंत्र में, स्त्री अधिकारों को एक नागरिक के नाते सुनिश्चित किया जा चुका था। आलोकधन्वा की कविताएँ आज वैसे ही नहीं पढ़ी जाएंगी जैसे सन् सत्तर में पढ़ी गईं थीं।
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और सुधा सिंह जी की फेसबुक पोस्ट
मेरी तरफ से भी कवि को जन्मदिन की हार्दिक बधाई। लेकिन उन्हें जन्मदिन की बधाई देने के लिए मैं इन पंक्तियों का चयन नहीं करूंगी। इन पंक्तियों को मैंने दूसरों की वॉल से उधार लिया है, जन्मदिन की बधाई के अलावा एक बात कहने के लिए।
बात जो कहनी है वह यह कि आज सुबह से बहुत रोका अपने को कि लोग खुशी से इन पंक्तियों को लगा लगा रहे हैं, लगाने दो, चुप रहो। कुछ न बोलो। पर लोग हैं कि इन्हीं पंक्तियों को कॉपी पेस्ट किए जा रहे! कोई और अंश कवि की कविता का बधाई देने को जैसे मिल ही न रहा हो!
इस काव्य अंश को प्रशंसा भाव से अलग कर तटस्थ रूप में पढ़िए। सामान्य रूप में जो हासिल होगा वह अर्थ कवि की बीते हुए प्रेम की स्मृतियों और प्रेमिका को याद रखने की 'क्षमता' का है! वह अन्य पुरूषों को धिक्कार रहा, ललकार रहा कि वे बीते प्रेम को भुला देते हैं, जबकि उसी धिक्कार में एक थोथा अहंकार युक्त स्वीकार है कवि का कि मैं ऐसा नहीं करता। लेकिन इसे स्त्री पक्ष पर व्यक्त करने के लिए वह जिन शब्दों को चुनता है, वे शब्द उसके पुरुष दम्भ की मुखर चुगली कर जाते हैं! वह लिखता है -
यह जो काव्य पंक्ति का हिस्सा है- "प्यार की गई स्त्री को " , कानों में यों ठुक रहा है जैसे 'इस्तेमाल किया हुआ कप, ब्रश, बिस्तर या फिर आराम के लिए आमंत्रित करता, बुहारा हुआ घर' , आदि आदि। स्त्री न हुई किसी किराने की दूकान का सामान हो गई!!! तब कवि अपनी इस उन्नत मस्तक घोषणा के बाद भी आदिम भाव में ही दिखता है और दुखद कि उन जैसा ही दिखता है, जिनके जैसा नहीं दिखने की घोषणा कर रहा है!
कह सकते हैं ऐसा शब्द के बरतने के अभ्यासवश ही हुआ होगा या मैं ही बाल की खाल निकाल रही। लेकिन मेरे प्रिय और अपने समय के महत्त्वपूर्ण कवि की यह चूक बहुतों को बरज सकती है, और आज के संदर्भ में भाषा के सावधान प्रयोगों के लिए सजग कर सकती है, इस कारण लिखना ज़रूरी लगा।
पुनः: जन्मदिन की बधाई
अपने वर्ग की चेतना को छोड़ जन से जुड़ने का इनमें प्रयास है। छोटे सुखों को पकड़ने की इच्छा, मामूली पर नज़र लेकिन सब कुछ एक खास रुमानी अंदाज में। जन से संबद्ध होने की इच्छा है पर संबंद्धता नहीं, डिसकनेक्शन है। आलोकधन्वा की पीढ़ी जहाँ धूमिल, रघुवीर सहाय से प्रभावित है, वहीं मुक्तिबोध से भी। पर मुक्तिबोध की कविताओं में मौजूद वर्गान्तरण की तीव्र छटपटाहट और ऐसा न हो सकने का तीखा दंश इस दौर की कविताओं में ग़ायब है। जैसे इन्होंने मान लिया है कि वे ‘डि-क्लास’ हो चुके हैं! जबकि इनकी कविताओं से इनका मध्यवर्गीय मन, जीवनशैली तथा जीवनदृष्टि बराबर झांकती दिखती है! मुक्तिबोध ने सच में निम्न मध्यवर्गीय जीवन जिया और उसकी विसंगतियों से छटपटाते रहे। आमदनी के नियमित जरिए का अभाव, पक्की नौकरी का अभाव, पत्नी को शिक्षित करने और बच्चों की परवरिश करने की चिंता, पत्नी को गर्भपात के बाद के अवसाद और चिड़चिड़ेपन से बचाने की चिंता, उसकी सेहत का ख़्याल, जनतंत्र में लेखक की भूमिका से जुड़े ठोस सामाजिक सवाल- मुक्तिबोध के यहां किसी रुमानियत का हिस्सा नहीं, बल्कि जीवन के ठोस प्रश्न बनकर आए हैं। वे औरत की बात करते हैं, कविता में भी, तो वह दूर से देखी हुई या संवेदनात्मक तौर पर दूर करके देखी गई स्त्री का आकारविहीन चेहरा नहीं है। वह ठोस से इतिहास या मिथक की यात्रा है, सदियों का सफरनामा है लेकिन ऐसा नहीं कि जिसे पहचाना न जा सके।
आलोकधन्वा जहाँ व्यक्तिगत संदर्भ से स्त्री पर कविता लिखते हैं, वहाँ वे ज़्यादा सफल हुए हैं और जहाँ वे स्त्री के शरीर और भोग से संबंधित कविता लिखते हैं, वहां वे पुंसवादी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं और धूमिल के क़रीब चले जाते हैं। उनकी कुछ कविताओं में स्त्री का पहचाना चेहरा है, खासकर जब वे माँ पर लिखते हैं तो बड़े सुंदर ढंग से उस ग्राम्य स्त्री कवि को याद करते हैं जिसका गाना चौके में जाने के कारण बाधित हो जाता था और वह गाते-गाते चुप होकर अपने बच्चों से दूर रसोई में ओझल हो जाती थी। कवि कहता है कि वह अपनी माँ का वह गाना आज भी नहीं भूला।
शाम की रोशनी के सामने वह गाती
हम सब भाई-बहन उसके बदन से लगकर
चुप हो उसे सुनते
वह इतना बढ़िया गाती कि लगता
वह कोई और काम न करे
लेकिन तभी उसे जाना पड़ता रसोई में
‘रसोई’ जो घर का जरूरी हिस्सा है, वहाँ जाते ही स्त्री गुम हो जाती है। बच्चे उसे ढूँढना चाहते हैं, उसके पास रहना चाहते हैं, लेकिन रह नहीं पाते, क्योंकि औरत अब गाँव की सीमा के बाहर नहीं, जहाँ शाम ढल रही है और वह अपने बच्चों को घर जाने के लिए बुलाने आई है इसी क्रम में उन्हें मधुर कंठ से गीत सुना रही है, वह स्त्री अब ‘रसोई’ में है। इस अंश को खोलने पर सामाजिक श्रम विभाजन के अनेक परिचित, दमनकारी चेहरे सामने आ सकते हैं। वह स्त्री जो गाती थी, रसोई में गुम हो जाती है, बच्चों को अंधेरे से डर लगता है और वे रात होने पर अपनी माँ से बिल्कुल अलग नहीं रह पाते लेकिन उन्हें ऐसा ही करना पड़ता है क्योंकि माँ की घर में अन्य प्रकार की भूमिका भी है, बच्चों को उसके समय का एक अंश ही मिल सकता है।
हम उसे देखते रसोई में जाते हुएलेकिन जब आलोकधन्वा शरीर की निजता की बात करते हैं तो स्त्री के संदर्भ में इतिहास और सामाजिक बरताव से अपुष्ट, काव्य-सत्य ढूँढ लाते हैं जिसका स्त्री के जीवन-सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। निजता स्त्री की बनाई नहीं है। स्त्रियों ने अगर शरीर को निजी बनाया होता, तो सबसे पहले वे अपनी निजता रचतीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। स्त्रियों के लिए निजता, उपहार की चीज नहीं रही है, वह आज भी निजता हासिल करने के लिए संघर्षरत है।
जैसे-जैसे रात होती जाती
हम माँ से तनिक दूर नहीं रह पाते
स्त्रियों ने रचा जिसे युगों मेंकवि यहाँ स्त्रियों द्वारा रची गई किस निजता की बात कर रहा है, स्पष्ट नहीं है। स्त्रियों ने सभ्यता का निर्माण नहीं किया, उन्हें ऐसा करने नहीं दिया गया। उसने पुरुष को पैदा किया, रच न सकी, उल्टे उसीने स्त्री को स्त्री बनाया! स्त्रीकी सभ्यता में जितनी हिस्सेदारी रही, उनके निशान मिटा दिए गए, जो अब बरताव में है, वह अनुकरणकर्ता की भूमिका है। स्त्रियों को न तो पुंसवादी सभ्यता ने सिखाया है न उनसे ऐसे व्यवहार की अपेक्षा की गई है कि युग-युग से रातों में शरीर ‘निजी’ हो जाएं और वह उसे अपनी इच्छानुसार हासिल कर सके! कामसूत्र से लेकर व्यवहार ज्ञान तक स्त्री को पुरुष की इच्छा के अनुकूल ही दिन तो दिन, रात को भी बरतना सिखाया गया है। फिर कवि किस तरह की और किसकी निजता की बात कर रहा है? और आखिरी पंक्ति कि ‘आज मैं चला ढूँढ़ने अपने शरीर में’, प्रश्न उठता है कि क्या ढूँढ़ने चला कवि अपने शरीर में? स्त्रियों ने जिसे युगों में रचा, उतने युगों की रातों में शरीर ‘निजी’ कैसे हुए? किसके लिए हुए? पुरुषों के लिए हो सकते हैं कि रात उनके लिए शरीर की निजता की जन्मदात्री हो पर कम से कम स्त्री के लिए तो ऐसा कहीं से नहीं हुआ! यह अपनी संवेदना में पुंसवादी कविता है।
युगों की रातों में उतने निजी हुए शरीर
आज मैं चला ढूँढ़ने अपने शरीर में
यह 1995 की लिखी कविता है यानि तब जबकि भारत में भी स्त्रीवादी लेखन और साहित्य की धमक ठीक से सुनाई दे रही थी और जनतंत्र में, स्त्री अधिकारों को एक नागरिक के नाते सुनिश्चित किया जा चुका था। आलोकधन्वा की कविताएँ आज वैसे ही नहीं पढ़ी जाएंगी जैसे सन् सत्तर में पढ़ी गईं थीं।
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और सुधा सिंह जी की फेसबुक पोस्ट
"मैं नहीं उन लोगों मेंहमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि की ये काव्य पंक्तियां हैं और आज उनका जन्मदिन है, ऐसा फेसबुक बता रहा है। इस कवि की बहुत सी कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं और इनसे थोड़ा बहुत परिचय कलकत्ते में हुआ। मेरी नई नवेली पहली पक्की नौकरी, जिसकी मियाद छह महीने की थी, और जब मुझे कॉलेज के अनकहे नियम के अनुसार लदर फदर टखने से ऊंची साड़ी बांधने का कौशल हस्तगत हो रहा था, नये नये साहित्यिक कार्यक्रम करवाने के ज़ोम में जो पहला नाम सहज ही आया, वह इसी कवि का था।
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं "
मेरी तरफ से भी कवि को जन्मदिन की हार्दिक बधाई। लेकिन उन्हें जन्मदिन की बधाई देने के लिए मैं इन पंक्तियों का चयन नहीं करूंगी। इन पंक्तियों को मैंने दूसरों की वॉल से उधार लिया है, जन्मदिन की बधाई के अलावा एक बात कहने के लिए।
बात जो कहनी है वह यह कि आज सुबह से बहुत रोका अपने को कि लोग खुशी से इन पंक्तियों को लगा लगा रहे हैं, लगाने दो, चुप रहो। कुछ न बोलो। पर लोग हैं कि इन्हीं पंक्तियों को कॉपी पेस्ट किए जा रहे! कोई और अंश कवि की कविता का बधाई देने को जैसे मिल ही न रहा हो!
इस काव्य अंश को प्रशंसा भाव से अलग कर तटस्थ रूप में पढ़िए। सामान्य रूप में जो हासिल होगा वह अर्थ कवि की बीते हुए प्रेम की स्मृतियों और प्रेमिका को याद रखने की 'क्षमता' का है! वह अन्य पुरूषों को धिक्कार रहा, ललकार रहा कि वे बीते प्रेम को भुला देते हैं, जबकि उसी धिक्कार में एक थोथा अहंकार युक्त स्वीकार है कवि का कि मैं ऐसा नहीं करता। लेकिन इसे स्त्री पक्ष पर व्यक्त करने के लिए वह जिन शब्दों को चुनता है, वे शब्द उसके पुरुष दम्भ की मुखर चुगली कर जाते हैं! वह लिखता है -
' मैं उन लोगों में नहीं
जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को
और चैन से रहते हैं!'
यह जो काव्य पंक्ति का हिस्सा है- "प्यार की गई स्त्री को " , कानों में यों ठुक रहा है जैसे 'इस्तेमाल किया हुआ कप, ब्रश, बिस्तर या फिर आराम के लिए आमंत्रित करता, बुहारा हुआ घर' , आदि आदि। स्त्री न हुई किसी किराने की दूकान का सामान हो गई!!! तब कवि अपनी इस उन्नत मस्तक घोषणा के बाद भी आदिम भाव में ही दिखता है और दुखद कि उन जैसा ही दिखता है, जिनके जैसा नहीं दिखने की घोषणा कर रहा है!
कह सकते हैं ऐसा शब्द के बरतने के अभ्यासवश ही हुआ होगा या मैं ही बाल की खाल निकाल रही। लेकिन मेरे प्रिय और अपने समय के महत्त्वपूर्ण कवि की यह चूक बहुतों को बरज सकती है, और आज के संदर्भ में भाषा के सावधान प्रयोगों के लिए सजग कर सकती है, इस कारण लिखना ज़रूरी लगा।
पुनः: जन्मदिन की बधाई
— सुधा सिंह
संपर्क ईमेल singhsudha.singh66@gmail.com
1. ब्रूनो की बेटियाँ
वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थींउनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।
उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्होंने उनकी हत्या की !
उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थीं धूप में।
गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !
वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं और कौन कहता है ? कौन ? कौन वहशी ?
कि उन्होंने बग़ैर किसी इच्छा के जन्म दिया ?
उदासीनता नहीं था उनका गर्भ
ग़लती नहीं था उनका गर्भ
आदत नहीं था उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ
कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री ?
उनके सनम थे
उनमें झंकार थी
वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी ह्वेल के भीतर नहीं - पूरी दुनिया में
पूरी दूनिया के नौ महीने !
दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का ?
तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी ?
किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वीत की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें जिंदा जला दिया गया !
क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों को दुनिया ?
आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं
उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !
कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी।
वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों का निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफ़ेद तने पर
बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर
वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थीं यहाँ तक।
उनके दरवाज़े थे
जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तंबाकू के पत्ते-
जो धीरे-धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।
वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे
उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।
वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था
दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़िया पकड़ लेती थीं हवा में ही।
वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।
वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थी झाड़ियों को
आँगन में जाने से।
घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छानएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया गया था
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाख़ून से नहीं
कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर
वे मिट्टी की दीवारें थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे - इन्तज़ार नहीं।
पेड़ के कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।
सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया मे नक़्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे
वे इतनी सुबह काम पर आती थीं
उनके आँचल भीग जाते थे ओस से
और तुरत डूबे चाँद से
वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं ? वे कहाँ आती थीं ?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह ?
क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्याथ मेरे लिए नहीं?
क्याथ तुम्हारे लिए नहीं?
क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारों का पेट पालना था ?
कैसे देखते हो तुम इस श्रम को ?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िंदगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है ?
कैसे देखते हो तुम श्रम को !
शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा
शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए
उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !
शहर उनकी ज़िंदगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !
उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !
वह क्या था उनके होने में
जिसके चलते उन्हें जिंदा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?
वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका
जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूक़ों के घेरे में ?
बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !
मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !
वह क्या था उनके होने में
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !
पागल तलवारें नहीं थीं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अंधी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन लकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं
रानियाँ मिट गयीं
ज़ंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की
रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रही हैं।
(1989)
2. भागी हुई लड़कियाँ
एक
घर की ज़ंजीरें
कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है
क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भागती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने-भर उनकी रोशनी?
और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले !
क्या तुम यह सोचते थे कि
वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गये थे ?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी ज़िदगियों में फैल जाता था?
दो
तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं
कभी वह ख़त
जिसे भागने से पहले वह
अपनी मेज़ पर रख गयी
तुम तो छिपाओगे पूरे ज़माने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा, उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफ़ी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?
उसकी बची-खुची चीज़ों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूँज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
संतूर की तरह
केश में
तीन
उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहाँ से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहाँ से भी
मैं जानता हूँ
कुलीनता की हिंसा !
लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जायेगी
पुरानी पवन चक्कियों की तरह
वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अंतिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियाँ होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में
लड़की भागती है
जैसे फूलों में गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में
चार
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है
तुम्हारे टैंक जैसे बंद और मज़बूत
घर से बाहर
लड़कियाँ काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा
कि तुम अब
उनकी संभावना की भी तस्करी करो
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह ख़ुद शामिल होगी सब में
ग़लतियाँ भी ख़ुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी
शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जायेगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी
पाँच
लड़की भागती है
जैसे सफ़ेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आर-पार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है !
तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है
ढूँढ़ती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में !
अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में भी
जहाँ प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा !
छह
कितनी-कितनी लड़कियाँ
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे, अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है
क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?
क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं ?
क्या तुम्हें दांपत्य दे दिया गया ?
क्या तुम उसे उठा लाये
अपनी हैसियत, अपनी ताक़त से ?
तुम उठा लाये एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
जिसके निधन के बाद की भी रातें !
तुम नहीं रोये पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर
सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
तुम से नहीं कहा किसी स्त्री ने
सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी
स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाज़ों तक दौड़ती हुई आयीं वे
सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ़ आज की रात भी रहेगी।
(1988)
3. गोली दागो पोस्टर
यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमड़े का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो - इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !
जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
यहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बारकू का
इस्तेमाल होता है
आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेकमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेदमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्ते माल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्ते माल सबसे कम हो रहा है
यहाँ सिर्फ़ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-
एक मूसलाधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक
यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तो पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है
क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तहर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दावात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?
वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो जिला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ!
सरकार ने नहीं - इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया
बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दारोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दारोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं?
जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं
यह कविता नहीं हैं
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।
1972
4. जनता का आदमी
बर्फ़ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरूद्ध
जलतें हुए गाँवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता;
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास
सबसे पहले पहुँचती है मेरी कविता;
जबकिं ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नये मुहावरों का ऑक्सी जन भर रहे हैं,
लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ,
जिसकी साँस लू की तरह गर्म है
उस नौजवान खान मज़दूर के मन में
एक बिल्कुल नयी बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता।
जब कविता के वर्जित प्रदेश में
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
जो केवल अपनी सुविधाके लिए
अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में-
उस गर्भवती औरत के साथ
जिसकी नाभि में सिर्फ़ इसलिए गोली मार दी गयी
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाय।
सड़े हुए चूहों को निगलते-निगलते
जिनके कंठ में अटक गया है समय
जिनकी आँखों में अकड़ गये हैं मरी हुई याद के चकत्ते
वे सदा के लिए जंगलों में बस गये हैं -
आदमी से बचकर
क्यों कि उनकी जाँघ की सबसे पतली नस में
शब्द शुरू होकर
जाँघ की सबसे मोटी नस में शब्द समाप्त हो जाते हैं
भाषा की ताज़गी से वे अपनी नीयत को ढँक रहे हैं
बस एक बहस के तौर पर
वे श्रीकाकुलम जैसी जगहों का भी नाम ले लेते हैं,
वे अजीब तरह से सफल हुए हैं इस देश में
मरे हुए आदमियों के नाम से
वे जीवित आदमियों को बुला रहे हैं।
वे लोग पेशेवर ख़ूनी हैं
जो नंगी ख़बरों का गला घोंट देते हैं
अख़बार की सनसनीख़ेज़ सुर्खियों की आड़ में
वे बार-बार उस एक चेहरे के पालतू हैं
जिसके पेशाबघर का नक़्शा मेरे गाँव के नक़्शे से बड़ा है।
बर्फीली दरारों में पायी जाने वाली
उजली जोंकों की तरह प्रकाशन संस्थाएँ इस देश कीः
हुगली के किनारे आत्महत्या करने के पहले
क्यों चीख़ा था वह युवा कवि - ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’
-उसकी लाश तक जाना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सका
कि भाड़े पर लाया आदमी उसके लिए नहीं रो सका
क्योंकि इसे सबसे पहले
आज अपनी असली ताक़त के साथ हमलावर होना चाहिए।
हर बार कविता लिखते-लिखते
मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूँ
कि आखिर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को
मुझे कब तक ढोना चाहिए,
कि टैंक के चेन में फँसे लाखों गाँवों के भीतर
एक समूचे आदमी को कितने घंटों तक सोना चाहिए?
कलकत्ते के ज़ू में एक गैंडे ने मुझसे कहा
कि अभी स्वतंत्रता कहीं नहीं हैं, सब कहीं सुरक्षा है;
राजधानी के सबसे सुरक्षित हिस्से में
पाला जाता है एक आदिम घाव
जो पैदा करता है जंगली बिल्लियों के सहारे पाशविक अलगाव
तब से मैंने तय कर लिया है
कि गैंडे की कठिन चमड़ी का उपयोग युद्ध के लिए नहीं
बल्कि एक अपार करूणा के लिए होना चाहिए।
मैं अभी मांस पर खुदे हुए अक्षरों को पढ़ रहा हूँ-
ज़हरीली गैसों और खूंखार गुप्तचरों से लैस
इस व्यवस्था का एक अदना सा आदमी
मेरे घर में किसी भी समय ज़बर्दस्ती घुस आता है
और बिजली के कोड़ों से
मेरी माँ की जाँघ
मेरी बहन की पीठ
और मेरी बेटी की छातियों को उधेड़ देता है,
मेरी खुली आँखों के सामने
मेरे वोट से लेकर मेरी प्रजनन शक्ति तक को नष्ट कर देता है,
मेरी कमर में रस्से बाँध कर
मुझे घसीटता हुआ चल देता है,
जबकि पूरा गाँव इस नृशंस दृश्य, को
तमाशबीन की तरह देखता रह जाता है।
क्योंकि अब तक सिर्फ़ जेल जाने की कविताएँ लिखी गयीं
किसी सही आदमी के लिए
जेल उड़ा देने की कविताएँ पैदा नहीं हुईं।
एक रात
जब मैं ताज़े और गर्म शब्दों की तलाश में था-
हज़ारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे निश्चिंत सो रहे थे,
उन बच्चों की लम्बाई
मेरी कविता लिखने वाली क़लम से थोड़ी-सी बड़ी थी।
तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गये, वे खड़े थे - कोने में
भरी हुई बंदूक़ो की तरह, सायरानो की तरह, सफ़ेद चीते की तरह,
पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह।
वे अभिभावक थे,
मेरी पकड़ से बाहर- क्रूर परजीवी,
उनके लिए मैं बिलकुल निहत्था था
क्योंकि शब्दों से उनका कुछ नहीं बिगड़ता है
जब तक कि उनके पास सात सेंटीमीटर लम्बी गोलियाँ हैं
- रायफ़लों में तनी-पड़ी।
वे इन बच्चों को बिस्तरों से उठाकर
सीधे बारूदख़ाने तक ले जायेंगे।
वे हर तरह की कोशिश करेंगे
कि इन बच्चों से मेरी जान-पहचान न हो
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी।
मैं गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया।
बाहर हवा में, सड़क पर
जहाँ अचानक मुझे फ़ायर स्टेशन के ड्राइवरों ने पकड़ लिया और पूछा-
आखिर इस तरह अक्षरों का भविष्य क्या होगा ?
आखिर कब तक हम लोगों को दौड़ते हुए दमकलों के सहारे याद किया जाता रहेगा ?
उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब हम श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को
सिर्फ़ जलायेंगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जायेगें।
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
किसी अज्ञात समुद्र-यात्री की नाव टकरा जाती है
और फिर एक नये देश की खोज शुरू हो जाती है-
उस देश का नाम वियतनाम ही हो यह कोई ज़रूरी नहीं
उस देश का नाम बाढ़ मे बह गये मेरे पिता का नाम भी हो सकता है,
मेरे गाँव का नाम भी हो सकता है
मैं जिस खलिहान में अब तक
अपनी फ़सलों, अपनी पंक्तियों को नीलाम करता आया हूँ
उसके नाम पर भी यह नाम हो सकता है।
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने-
मैं एक भूमिहीन किसान हूँ,
क्या मैं कविता को छू सकता हूँ ?
अबरख़ की खान में लहू जलता है जिन युवा स्तनों और बलिष्ठ कंधों का
उन्हें अबरख़ ‘अबरख़’ की तरह
जीवन में एक बार भी याद नहीं आता है
क्यों हर बार आम ज़िंदगी के सवाल से
कविता का सवाल पीछे छूट जाता है ?
इतिहास के भीतर आदिम युग से ही
कविता के नाम पर जो जगहें ख़ाली कर ली जाती हैं-
वहाँ इन दिनों चर्बी से भरे हुए डिब्बे ही अधिक जमा हो रहे हैं,
एक गहरे नीले काँच के भीतर
सुकान्त की इक्कीस फ़ीट लंबी तड़पती हुई आँत
निकाल कर रख दी गयी है,
किसी चिर विद्रोह की रीढ़ पैदा करने के लिए नहीं;
बल्कि कविता के अज़ायबघर को
पहले से और अजूबा बनाने के लिए।
असफल, बूढ़ी प्रेमिकाओं की भीड़ इकट्ठी करने वाली
महीन तम्बाकू जैसी कविताओं के बीच
भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़रिये-जैसा चेहरा
आप लोगों को बेहद अप्रत्याशित लगा होगा,
उतना ही
जितना साहू जैन के ग्लास-टैंक में
मछलियों की जगह तैरती हुई गजानन माधव मुक्तिबोध की लाश।
बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है?
मैं क्यों नहीं लिख पाता हूँ वैसी कविता
जैसी बच्चों की नींद होती है,
खान होती है,
पके हुए जामुन का रंग होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी माँ के शरीर में नये पुआल की महक होती है,
जैसी बाँस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है,
जैसे ख़रगोश के कान होते हैं,
जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में
नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है,
जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसे हज़ारो फ़ीट की ऊँचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है ?
हाथी के पैरों के निशान जैसे गंभीर अक्षरों में
जो कविता दीवारों पर लिखी होती है
कई लाख हलों के ऊपर खुदी हुई है जो
कई लाख मज़दूरों के टिफ़िन कैरियर में
ठंढी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई है जो कविता ?
एक मरे हुए भालू से लड़ती रहीं उनकी कविताएँ
कविता को घुड़दौड़ की जगह बनाने वाले उन सट्टेबाज़ों की
बाज़ी को तोड़ सकता है वही
जिसे आप मामूली आदमी कहते है;
क्योंकि वह किसी भी देश के झंडे से बड़ा है।
इस बात को वह महसूस करने लगा है,
महसूस करने लगा है वह
अपनी पीठ पर लिखे गये सैकड़ों उपन्यासों,
अपने हाथों से खोदी गयी नहरों और सड़कों को
कविता की एक महान सम्भावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है-
अपनी टाँग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है,
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और ज़मीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है,
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
ज़ंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है -
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज़ खोलते हुए।
(1972)
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