पगली कहीं की — संजय कुंदन की कहानी


बहुरूपिया, संजय कुंदन की कहानी

पगली कहीं की 

— संजय कुंदन

गरिमा की नींद एक तेज आवाज से टूटी थी। लगा जैसे बगल के कमरे में किसी ने कुछ पटका हो। तो क्या विजय जाग गया है? उसने ही कोई सामान गिराया है या विजय के साथ कोई समस्या तो नहीं हुई? अब हुई भी तो क्या किया जा सकता है? गरिमा को इससे क्या मतलब। कहीं ऐसा तो नहीं कि विजय ने जानबूझ कर आवाज की हो ताकि गरिमा और आशु की नींद टूट जाए। दोनों परेशान हों। गरिमा ने करवट बदल कर आशु को देखा। वह गहरी नींद में सोया था।



गरिमा ने सिरहाने रखे मोबाइल का बटन दबाया और समय देखा। साढ़े चार बजे थे। विजय इतनी जल्दी क्यों उठ गया? आम तौर पर वह आठ बजे से पहले उठता नहीं था। तभी बगल के कमरे से चप्पल घिसटने की आवाज आई। फिर ‘चूं’ की आवाज से आलमारी का दरवाजा खुला और ‘धम्म’ की आवाज से बंद हुआ। अगले ही क्षण बाथरूम में बाल्टी में पानी के ‘भर-भर-भर’ कर गिरने की आवाज आई। यानी विजय नहा रहा था। मतलब साफ हो गया कि उसे कहीं जाना है। पता नहीं कहॉं जाना है। कहीं जाए, गरिमा को क्या फर्क पड़ता है। कौन सा वह उसे बता कर ही जाएगा!

आज शनिवार था यानी छुट्टी का दिन। उसने सोचा था कि आज देर तक सोएगी। आशु रोज सुबह उठने में नखरे करता है। उसे तब तक नहीं उठाएगी, जब तक वह खुद न उठ जाए। पर पता नहीं वह क्या किस्मत लिखवा कर लाई है। जो सोचती है उसका उलटा ही होता है।

तभी बगल के कमरे से परफ्यूम की गंध हवा में तैरती आई। मतलब विजय तैयार हो चुका है। गरिमा ने करवट बदली और आंख जोर से बंद कर सोने की कोशिश की, पर अगले ही पल विजय के कमरे का दरवाजा खुला। विजय ने ड्राइंग रूम की लाइट जला दी। इससे गरिमा के कमरे में भी हल्का उजाला फैल गया। गरिमा उठ बैठी। उसने अपने कमरे का पर्दा थोड़ा सा हटा कर देखा।

विजय के हाथ में ब्रीकफेस था। वह थोड़ी देर के लिए ड्राइंग रूम में रुका और दीवार पर टंगे डिस्पले बोर्ड के सामने थोड़ा झुक कर खड़ा हो गया। गरिमा समझ गई, वह क्या कर रहा है। उसने पर्दा सटा दिया। तभी ड्राइंग रूम का बाहरी दरवाजा बंद करने और ताला लगाने की आवाज आई।

थोड़ी देर बाद गरिमा ड्राइंग रूम में आई। उसने देखा, बोर्ड पर लिखा था, ‘मैं बाहर जा रहा हूँ। कल आऊंगा। आज दिन में मेरा एक जरूरी कूरियर आएगा। पेमेंट दिया हुआ है। बस ले लेना है।’





गरिमा भुनभुनाई, ‘कूरियर आना था तो रहते घर में।’ उसने दिमाग पर जोर डाल कर याद किया, करीब दो साल से विजय से उसका इसी तख्ती के जरिए संवाद हो रहा था। पहले विजय को कोई बात कहनी होती थी, तो वह गरिमा के मोबाइल पर मेसेज करता था या वाट्सऐप करता था, लेकिन गरिमा कई बार मोबाइल नहीं देख पाती थी या अक्सर उसका सेलफोन चार्ज ही नहीं रहता था। फिर विजय आशु के जरिए अपनी बात कहवाने लगा। पर तीन साल का नन्हा आशु भला हर बात कैसे याद रख पाता। कई बार वह संदेश को उलट- पुलट देता। एक बार कोई बात ठीक से न कह पाने के कारण विजय ने आशु को डांट दिया था। उस दिन गरिमा को बेहद दुख पहुंचा था। तब वह बाजार से डिसप्ले बोर्ड खरीद लाई। साथ में मार्कर और डस्टर भी था। इस पर मार्कर से लिखा जाता था और फिर डस्टर से मिटा दिया जाता था। गरिमा ने विजय से कहा, ‘जो कहना है इस पर लिख दिया करो।’ विजय ने उस समय तो मुंह बिचकाया लेकिन अगले ही दिन से वह इस पर अपनी बातें लिखने लगा। विजय इसी के जरिए अपने बारे में सूचनाएँ देता था। जैसे कभी बाहर जा रहा हो, तो बताता था। यह भी बताता था कि वह देर से लौटेगा। किसी को घर से आना होता था, तो वह जानकारी दे देता था।

गरिमा को पैसे की जरूरत पड़ती तो वह उस पर लिख देती : ‘पांच सौ रुपए चाहिए आशु की फीस देनी है या कुछ सामान लेने हैं।’ विजय दूसरे दिन पैसे पकड़ा जाता या उसी बोर्ड के नीचे एक डायरी से दबा कर रख देता। कुछ मंगाना होता तो भी वह लिख देती कि फलां चीज की जरूरत है। घर का नल खराब हो गया है या सोसाइटी में पैसा जमा करना है, इस तरह की सूचनाएँ भी वह लिख कर दिया करती थी।

कोई तीसरा आदमी आकर यह सब देखे तो उसे यकीन नहीं होगा कि विजय और गरिमा पति-पत्नी हैं। विजय के जाने के बाद गरिमा ने सोने की बहुत कोशिश की, पर नींद नहीं आई। वह उठ कर बाथरूम गई, फिर मुंह-हाथ धोकर ड्राइंग रूम में बैठ कर अखबार पलटने लगी। आशु अब भी सोया हुआ था। उसे उठाने की हिम्मत गरिमा नहीं कर पा रही थी।

कुछ दिन पहले तक आशु की एक विचित्र आदत थी। वह उठ कर बगल के कमरे में जाता था और देखता था कि विजय कमरे में है या नहीं, या क्या कर रहा है। लेकिन धीरे-धीरे उसने ऐसा करना छोड़ दिया था। शायद वह भी स्थितियों को समझ गया था। कई बार विजय उसके लिए कोई चीज लेकर आता और आवाज देकर उसे बुलाता। आशु चुपचाप जाता और थैंक्यू बोल कर वापस आ जाता। उसने भी विजय से बात करना छोड़ दिया था।

गरिमा ने अखबार खत्म करने के बाद टीवी चलाया, हालांकि उसने वॉल्यूम कम रखा, ताकि आशु न उठ जाए। फिर वह उठ कर रसोई में आ गई। उसने चाय चढ़ाई और फ्रिज में देखने लगी कि रात का कुछ बचा हुआ है या नहीं। विजय जब घर में रहता था तब वह नाश्ता बनाती और डाइनिंग टेबल पर ढंक कर रख देती। विजय को जब मौका मिलता आकर खा लेता। वह खुद अपना नाश्ता लेकर अपने रूम में चली जाती। लेकिन जब विजय नहीं रहता तो वह अपने लिए अलग से नाश्ता नहीं बनाती थी।

उसने फ्रिज से कुछ दिन पहले के बने छोले निकाले और बीती रात की रोटियॉं निकाली। उन्हें गर्म किया और एक प्लेट में निकाल कर खाने लगी। नाश्ता खत्म करने के बाद वह चाय लेकर बालकनी में खड़ी हो गई। एक के बाद एक गाड़ियॉं सोसाइटी के गेट से निकल रही थीं। सब हड़बड़ाए हुए निकल रहे थे। तभी पीछे से आशु की आवाज आई, ‘अरे तुम यहाँ हो।’

गरिमा ने उसका माथा सहलाते हुए कहा, ‘तुम्हें क्या लगा कि मम्मी तुम्हें छोड़ कर भाग गई? जाओम बेटा, जल्दी से फ्रेश हो जाओ। चलो, चलो।’ गरिमा उसका हाथ पकड़ कर अंदर ले आई। उसने आशु को उसका टूथब्रश पकड़ाया। आशु बाथरूम में घुस गया। गरिमा ने  फ्रिज से दूध की पतीली निकाली और उसे गैस पर चढ़ा दिया। दूध गर्म होने तक वह वहीं खड़ी रही। फिर उसने एक कटोरे में दूध निकाला और उसमें कॉर्नफ्लेक्स डाल कर डाइनिंग टेबल पर रख दिया। आशु तब तक बाथरूम से निकल चुका था।

गरिमा ने कहा, ‘जल्दी से नाश्ता करो बेटा।’ तभी किसी ने कॉलबेल बजाई। गरिमा ने दरवाजा खोला तो देखा पड़ोस के दो बच्चे थे। वे बिना कुछ बोले धड़ाधड़ अंदर घुस आए। उनमें से एक ने आशु से कहा, ‘तू अभी तक खा ही रहा है। चल जल्दी।’

आशु ने गरिमा से कहा, ‘मम्मी मैं खेलने जा रहा हूँ।’

गरिमा ने पूछा, ‘तुम लोग कहाँ खेलते हो?’ आशु के एक दोस्त ने जवाब दिया, ‘हमलोग सोसाइटी के पार्क में खेलते हैं।’

आशु थोड़ा-बहुत खाकर उठने लगा तो गरिमा ने टोका, ‘पहले पूरा फिनिश करो, तब जाना।’ आशु ने जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म किया और गरिमा को बाय कर दोस्तों के साथ चला गया। गरिमा दरवाजा बंद कर फिर बालकनी में चली आई। गरिमा का बहुत सारा वक्त यहीं बीतता था। यहाँ बैठ कर वह देर तक सड़क को देखती रहती, कभी आसमान को निहारती तो कभी अतीत में झांकने लगती। प्राय: रोज ही वह अपने अतीत के पन्ने उलटाती थी।





बस चंद दिनों के लिए उसकी जिंदगी में सुखद बयार बही थी। लगा जैसे एक खुशनुमा मौसम आया और चला गया। बारिश की फुहार हुई और फिर जानलेवा सूखे की शुरुआत हो गई। आज से करीब चार साल पहले जब उसके लिए विजय के घर वालों की तरफ से शादी का प्रस्ताव आया, तो उसे ही नहीं पूरे घर को आश्चर्य हुआ। जिस लड़की को सांवली और ठिगनी होने के कारण बार-बार ठुकराया जा रहा था उसके लिए दिल्ली में रहने वाले एक परिवार से रिश्ता आना वाकई चौंकाने वाला था। और लड़का भी मामूली नहीं... आईआईटी से इंजीनियरिंग करके एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रहा था। ‘मना कर दीजिए’, गरिमा ने कहा था। ‘पागल हो गई है क्या?’ सुशीला बुआ ने डांटा। वही रिश्ता लेकर आई थीं। विजय के परिवार वालों से उनकी जान-पहचान थी।

माँ ने सकुचाते हुए कहा, ‘नहीं, असल में इसी शहर के कई लड़के इसे छांट चुके हैं।’ ‘किसकी किस्मत में क्या लिखा है कौन जाने। हो सकता है इसकी तकदीर काफी बुलंद हो, इसलिए चिरकुट टाइप लड़के पहले ही हट गए।’ एक छोटे शहर की लड़की के लिए दिल्ली में रहना सपने से कम न था। लेकिन लड़के वालों की हड़बड़ाहट से शक होता था। यहॉं तक कि लड़के वालों ने शादी की तारीख भी तय की और कहा कि वे किसी भी हाल में उसी दिन शादी करेंगे। यह बात थोड़ी अटपटी जरूर लगती थी, पर गरिमा के परिवार के लोग इसके पीछे खुद ही कोई न कोई तर्क ढूंढ लेते थे। अब यह बात लड़के वाले से कोई कैसे पूछे कि आप जल्दी विवाह क्यों करना चाहते हैं। एक छोटे शहर के बाबू परिवार की एक साधारण नैन-नक्श वाली लड़की के लिए अच्छे परिवार का रिश्ता आ जाए, यही बहुत बड़ी बात थी। फिर भी सुधीर भइया को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह लड़के को देख कर आश्वस्त हों कि उसमें कोई ऐब तो नहीं है। सुधीर भइया लड़के से मिल कर आए तो बहुत खुश थे। उन्होंने कहा कि वाकई गरिमा की किस्मत चमकदार है। लड़का तो हीरा है हीरा।

पिता जी डबल जोश में आ गए। उन्होंने कहा कि गरिमा की शादी इस शहर के इतिहास में दर्ज होगी। सुधीर भइया बार-बार रोक रहे थे कि ज्यादा खर्च करने से क्या होगा। वैसे भी लड़के वाले तो कुछ मांग ही नहीं रहे हैं। पिता जी ने कहा, ‘तब तो हम उन्हें और देंगे।’

पिता जी ने तब रहस्योद्घटन किया कि उन्होंने शहर में एक प्लॉट खरीद रखा है। वह उन्हें उन्हीं के विभाग के एक व्यक्ति ने औने-पौने दाम में बेचा था, क्योंकि उन्हें विदेश में सेटल होना था। पिता जी उसे बेच कर गरिमा की शादी करना चाहते थे। यह सुन कर सुधीर भइया और ओमप्रकाश भइया का मुंह खुला का खुला रह गया। ओमप्रकाश भइया का कहना था कि उन्हें अपने बेरोजगार बेटे की परवाह करनी चाहिए। उस जमीन से कोई दुकान खोली जा सकती है। गरिमा ने भी उनका समर्थन किया और कहा कि शादी में तड़क-भड़क में पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है। ओम भइया की नौकरी नहीं है। वह प्लॉट उनके काम आ सकती है। लेकिन पिता जी और माँ ने कहा कि अपनी बेटी की शादी को लेकर उनके कई अरमान हैं। वे कोई समझौता नहीं करेंगे।

पिता जी ने प्लॉट बेच दिया और गरिमा की शादी इतने धूमधाम से हुई कि सारे रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों ने दांतों तले उंगली दबा ली। विवाह कार्यक्रम शहर के सबसे महंगे बैंक्विट हॉल में संपन्न हुआ, जहॉं सारा इंतजाम दिल्ली की तर्ज पर हुआ था। दस लाख तो सिर्फ़ फूलों की सजावट पर खर्च हुए थे। खाने के अनगिनत स्टॉल लगे हुए थे। मुंबई से कोरियोग्रारफर बुलाया गया था जिसने लेडीज संगीत के लिए घर की महिलाओं को प्रशिक्षित किया था। इसके साथ ही शहर का सबसे मशहूर ऑर्केस्ट्रा आया था। म्यूजिकल प्रोग्राम में शहर का एक रेडियो जॉकी भी मौजूद था। उसने चुटकुले सुना-सुना कर लोगों को खूब हँसाया। सुधीर और ओम भइया के दोस्त बड़ी देर तक नाचते रहे थे। घर की लड़कियाँ भी खूब नाचीं। यहाँ तक कि पिता जी ने भी कमर हिलाए। शहर भर में यह चर्चा रही कि गरिमा के पिता जी ने खूब ब्लैक मनी दबा रखी थी, जो शादी के मौके पर बाहर निकल आई।

गरिमा के लिए वह सब एक स्वप्न की तरह था। अब भी जब वह अपनी शादी को याद करती तो एक अजीब झनझनाहट-सी होने लगती थी उसके भीतर। ऐसा लगता था जैसे एक सुखद सपने के बीच से अचानक उसे जगा दिया गया हो। क्या मिला इतने रुपये फूंक कर? क्या मिला इतना हँस-गाकर। वह सारा तामझाम पानी में चला गया।





करीब छह महीने तक विजय एकदम ठीक रहा था। लग रहा था जैसे उसे गरिमा की ही तलाश हो। वह उसी के लिए जीता आया हो अब तक। लेकिन छह महीने बीतते-बीतते लगा जैसे उसके भीतर कोई और आदमी आ गया हो। वह हर समय खीझा हुआ और चिड़चिड़ा रहने लगा। आशु के आने की खबर से भी उसे कोई खास खुशी नहीं हुई। वह अपने-आप में रहने लगा। उसने बोलना और हँसी-मजाक करना बंद कर दिया। बात करता भी तो गरिमा के हर काम में नुक्स निकालता। कभी उसके खाने में कोई कमी निकालता तो कभी उसके पहनने-ओढ़ने में। अक्सर उसे फूहड़ और देहाती कहता। उसने गरिमा के साथ बाहर घूमना-फिरना भी बंद कर दिया। एकाध बार गरिमा ने पूछा तो उसने कहा, ‘मेरे सारे दोस्तों की पत्नियाँ कॉन्वेंट में पढ़ी हैं, अंग्रेजी बोलती हैं। उनके बीच तुम नमूना लगती हो।’

गरिमा को लगा कि शायद वह अपने काम से परेशान रहने लगा है। उसने विजय के एक-दो दोस्तों से भी पता करने की कोशिश की, लेकिन पता चला कि दफ्तर में कोई खास तनाव नहीं है और वहाँ किसी से उसका कोई चक्कर भी नहीं है। वह तो चुपचाप आता है और काम करके चला जाता है।

गरिमा के परिवार वाले चाहते थे कि बच्चे का जन्म मायके में ही हो। गरिमा मायके चली आई। वहाँ आने के बाद विजय ने एक बार भी फोन नहीं किया। आशु के जन्म के बाद बस दो दिनों के लिए आया और चला गया। उसने इस बात की कोई चर्चा तक नहीं की कि गरिमा को कब ले जाएगा। जब कई महीने बीत गए तो गरिमा के मॉं-पिता जी को शक हुआ। मॉं ने पूछा तो गरिमा टाल गई। लेकिन मॉं तो आखिर मॉं थी। वह सब कुछ समझ गई। उसने बार-बार पूछा तो गरिमा ने सब कुछ बता दिया। सब भौचक रह गए। विजय जैसे लड़के से किसी को यह उम्मीद ही नहीं थी।

बात जब सुधीर भइया तक पहुंची तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘गया चालीस लाख। जमीन भी गई।’ उन्होंने पिता जी को लताड़ना शुरू किया, ‘आपसे कहा था कि इतना खर्च मत कीजिए। हो गया न। क्या मिला उससे। गरिमा की जिंदगी भी बर्बाद गई और आपके पैसे भी।’

तुरंत सुशीला बुआ को कॉल किया गया। वह तो मानने को तैयार ही नहीं थीं कि विजय जैसा सुशील और संस्कारी लड़का ऐसा करेगा। उन्होंने कहा कि वह विजय की दीदी और जीजा जी से बात करके सब कुछ बताएंगी।

करीब एक हफ्ता बाद वह खुद ही पहुंच गई। बुआ ने बताया कि उन्होंने अपने सूत्रों से कुछ पता लगाया है। असल में विजय की दीदी की एक सहेली थी जिनकी बेटी भी इंजीनियर थी। विजय मन ही मन उसे चाहता था। यह बात विजय ने अपनी दीदी को बताई तो उसकी दीदी विजय का रिश्ता लेकर अपनी सहेली के पास पहुंचीं। सहेली अपनी बेटी की शादी विजय से करने के लिए तैयार हो गई। सगाई भी हो गई। लेकिन लड़की को विजय बिल्कुल पसंद नहीं आया। उसने माँ के दबाव और इमोशनल ब्लैकमेलिंग में सगाई तो कर ली, लेकिन बाद में सगाई की अंगूठी लौटा दी। विजय की दीदी और जीजा जी ने इसे अपनी बेइज्जती के रूप में देखा। संयोग से उस लड़की की शादी जल्दी ही तय हो गई। अपनी इज्जत बचाने के लिए विजय की दीदी ने उसी दिन विजय की शादी करने का फैसला किया। बहुत से लोगों को यह पता नहीं चला कि विजय की सगाई किसी और से हुई और शादी किसी और से। सब समझ रहे थे कि उसी लड़की से शादी हुई है।

यह सब सुन कर पिता जी बुआ पर बरसे, ‘अपने सूत्रों से यह सब तुने पहले ही क्यों नहीं पता कर लिया? कम से कम गरिमा की जिंदगी तो बर्बाद नहीं हुई होती।’

बुआ ने कहा कि अब जो हुआ सो हुआ, लेकिन वह गरिमा की जिंदगी बर्बाद नहीं होने देंगी। वह विजय की बहन से बात करके सब कुछ ठीक करने की कोशिश करेंगी। लेकिन सुधीर और ओम भइया का कहना था कि अब कुछ भी ठीक नहीं होने वाला है। विजय और उसके परिवार पर दहेज प्रताड़ना का केस ठोंक कर चालीस लाख रुपए वापस लिए जाएँ। ओम भइया तो इतना भी इंतजार करने के लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि अपने दोस्तों के साथ जाकर विजय के जीजा जी को डरा-धमका कर पैसे वसूले जाएँ। लेकिन पिता जी ने इसके लिए मना कर दिया। कुल मिला कर एक दुविधा की स्थिति पैदा हो गई। यह तय नहीं हो पा रहा था कि गरिमा के साथ क्या हो?





पता नहीं यह पैसे की बर्बादी का झटका था कि गरिमा की फ़िक्र, पिता जी को दिल का दौरा पड़ गया। एक सप्ताह अस्पताल में रह कर लौटे। घर में सब परेशान थे। इसके लिए गरिमा खुद को दोषी मान रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि अब वह क्या करे। उसे खुद से ज्यादा अपने बच्चे के भविष्य की चिंता सता रही थी। हालांकि नन्हा आशु घर को अचानक लगे झटके में राहत की तरह था। खास कर गरिमा के पिता जी के लिए। वे दिन-रात उसके साथ खेलते हुए अपनी बीमारी भूल जाते। करीब छह महीने बाद माँ ने घुमाफिरा कर कहा कि अब मोहल्ले में लोग पूछने लगे हैं कि गरिमा कब तक यहाँ रहेगी? उसका पति या उसके ससुराल वाले बच्चे को देखने क्यों नहीं आते? माँ की बात से स्पष्ट था कि मोहल्ले में उन लोगों की बदनामी हो रही है। लेकिन पिता जी ने कहा कि गरिमा जो चाहेगी वही होगा। अगर वह विजय के पास न जाना चाहे तो न जाए। उसके लिए दूसरा लड़का ढूंढेंगे।

गरिमा ने मन ही मन सोचा कि पहली शादी में तो पिता जी का हार्ट अटैक हो गया, दूसरी शादी में न जाने क्या होगा। उसे यह सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा था। शादी के एक दिन पहले तक वह इस घर की दुलारी बिटिया थी। उसे विदा करते समय ऐसा लग रहा था कि मॉं बेहोश हो जाएगी। पर अब वही माँ मोहल्ले के लोगों के कारण गरिमा को बाहर निकालने पर आमादा थी। खैर, अगले ही दिन सुधीर भइया आ गए। उन्होंने कहा कि वह अपने साथ गरिमा को रांची ले जाएंगे। वह वहीं रहेगी और पोस्ट ग्रेजुएशन या कोई प्रोफेशनल कोर्स करेगी। गरिमा को उम्मीद की एक किरण दिखी। उसने सोचा, उसे शायद टेढ़े-मेढ़े रास्ते से ही आगे बढ़ना है। वह सुधीर भइया के यहाँ चली गई। भइया उसे पढ़ाने की बात कह कर लाए थे, लेकिन रांची पहुंचते ही अपना वादा भूल गए।

गरिमा ने एकाध बार याद भी दिलाया तो उन्होंने टाल दिया। भाभी ने शुरू में बहुत अच्छा व्यवहार किया। गरिमा को लगा जैसे उसे एक सहेली मिल गई है, जिससे वह अपना सुख-दुख बांट सकती है। लेकिन बाद में भाभी का रवैया भी बदल गया। हर छोटी बात के लिए वह गरिमा को ही डांटने लगी। अगर गरिमा बाथरूम में थोड़ा ज्यादा देर लगाती तो वह नाराज होती। दूध जल गया तो भी उसके लिए भुनभुनाती। अगर रात में बच्चा रोता तो वह नींद में खलल पड़ने की बात कह कर गरिमा को भला-बुरा कहती। फिर भइया-भाभी में झगड़ा होना शुरू हुआ। गरिमा समझ गई कि इसके लिए वही जिम्मेदार है। शायद भाभी को लग रहा था कि वह अपनी ननद की वजह से पति के साथ ज्यादा आत्मीय क्षण नहीं बिता पा रही है, क्योंकि सुधीर भइया भी दफ्तर से लौट कर गरिमा से बात करते रहते थे या अपनी बेटी की बजाय अपने भांजे के साथ खेलते थे। एक दिन भाभी भइया से कह रही थी, ‘आपने जो एक तोता पाल लिया है...।’

गरिमा ने समझ लिया कि तोता वही है, जिसे यहाँ से तुरंत उड़ जाना चाहिए। उसने सोच लिया कि वह माँ-पिता जी के पास चली जाएगी। उन्हें तो अपनी बेटी को रखना ही पड़ेगा, चाहे रोकर रखें या हँस कर। वह अपमान सह कर भइया- भाभी के यहाँ नहीं रहेगी। संयोग से अगले ही दिन माँ का फोन आ गया। मॉं ने बताया कि विजय के दीदी-जीजा जी उन लोगों से मिलने आए थे। उन्होंने कहा कि वे विजय को अच्छी तरह समझा चुके हैं। विजय को गलती का अहसास हो चुका है। वह खुद गरिमा को लेने रांची आएगा।

सुधीर भइया ने कहा कि हर आदमी को एक मौका दिया ही जाना चाहिए। शुरू में एडजस्टमेंट में समस्या आती है, फिर सब ठीक हो जाता है। दो दिन बाद विजय सुबह की फ्लाइट से पहुंचा। उसने कहा कि उसे एक ही दिन की छुट्टी मिली है, इसलिए शाम की फ्लाइट से गरिमा और आशु को चलना है।

दिल्ली लौट कर विजय कुछ दिन तो ठीक रहा। उसने वैसा ही व्यवहार किया जैसे शादी के शुरुआती दिनों में करता था, लेकिन धीरे-धीरे फिर पुराने ढर्रे पर आ गया। वह फिर उसी तरह गरिमा को कभी खाना खराब बनाने के लिए, तो कपड़ा ठीक से न पहनने और देहाती टाइप हिंदी बोलने के लिए टोकने लगा। इससे दुखी होकर गरिमा ने बातचीत बंद कर दी।

फिर शुरू हो गया संवादहीनता का दौर। गरिमा या आशु की तबियत खराब होती तो वह अपने एक डॉक्टर दोस्त को घर पर बुला लेता। लेकिन एक पल भी गरिमा या आशु के पास नहीं बैठता। वह हमेशा व्यस्त रहता या उसका दिखावा करता। उसने घर में खाना लगभग छोड़ ही दिया था। कई बार जब गरिमा खाना बना रही होती तो वह भी किचन में आ जाता और अपने लिए अलग से सब्जी बनाने लगता। या गरिमा की बनाई दाल में अपने तरीके से तड़का लगाता और खाना लेकर अपने कमरे में चला जाता।

लेकिन ये बातें गरिमा ने परिवार में किसी को नहीं बताई। मॉं पूछती तो यही कहती कि सब कुछ ठीक चल रहा है। असलियत बता के भी क्या होना था। वे लोग और परेशान हो जाते। पिता जी को एक बार अटैक पड़ चुका था, अब हालत और बिगड़ सकती थी। भाइयों का रवैया वह देख ही चुकी थी। उसने स्वीकार कर लिया था कि उसकी जिंदगी ऐसे ही चलनी है। विजय को किसी भी तरह सुधारा नहीं जा सकता था। गरिमा यही सोच कर संतोष कर लेती थी कि उसे पति या ससुराल वालों की प्रताड़ना तो नहीं झेलनी पड़ती। विजय उससे दूरी बना कर जरूर रहता था, लेकिन कभी झगड़ा नहीं करता था। दोनों मियॉं-बीवी की तरह नहीं, दो रूम पार्टनर की तरह रहते थे। संयोग से फ्लैट की बनावट भी ऐसी थी कि दोनों एक-दूसरे को जरा भी बाधा पहुंचाए आराम से रह सकते थे। फ्लैट में दो दरवाजे समानांतर रूप से बाहर खुलते थे। एक ड्राइंगरूम से लगा था, और दूसरा दो बेड रूमों में से एक से। विजय ड्राइंग रूम वाले दरवाजे से आता-जाता और गरिमा पीछे वाले से। बाहर से आने वाले लोगों को यह भ्रम हो सकता था कि ये दो अलग-अलग फ्लैट के दरवाजे हैं।

गरिमा की सबसे करीबी दोस्त सुनीता को यह सब पता था। हालांकि वह काफी दूर मुंबई में रहती थी, मगर गरिमा उसे फोन पर या चैट पर सब कुछ बताती रहती थी। सुनीता यह सब जान कर तनाव में आ जाती और गरिमा पर ही बरस पड़ती।





एक दिन अचानक सुनीता दिल्ली आ पहुंची। उसके पति की कोई मीटिंग थी। इसी बहाने वह भी चली आई थी गरिमा से मिलने। वह दिन भर वकील की तरह गरिमा के साथ जिरह करती रही। उसने आते ही पहला सवाल दागा, ‘तू क्यों इस तरह रह रही है? विजय को तलाक क्यों नहीं दे देती?’ ‘क्यों तलाक दे दूं?’ गरिमा ने हँस कर कहा। ‘इसलिए कि वह तुझे टॉर्चर कर रहा है।’ ‘नहीं। आज तक उसने मुझे मारा-पीटा नहीं। वह तो मुझसे तेज आवाज में बात तक नहीं करता।’ ‘लेकिन उसने तुम्हें पत्नी का अधिकार तो नहीं दिया न। तुम लोग एक छत के नीचे अलगअलग रहते हो। यह भी टॉर्चर है।’

इस बात पर गरिमा कुछ देर खामोश रही फिर उसने कहा, ‘मैं कम से कम सेफ तो हॅूं न। विजय से अलग होकर मैं कहॉं जाऊँ। मॉं-बाप और भाई के लिए मैं एक बोझ हूँ। और अकेले रहना कितना कठिन है। वो अपने मोहल्ले की मिसेज अरोड़ा याद हैं न तुम्हें? लोग उन्हें वेश्या समझते थे। मोहल्ले ने उनका बायकॉट कर रखा था। सिर्फ़ इसलिए कि वह अकेले रहती थीं। आज भी कुछ खास बदला नहीं है। अकेली औरत को बहुत कुछ सहना पड़ता है। कदम दर कदम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मोहल्ला, रास्ता, बाजार, ऑफिस, हर जगह वह मर्दों का निशाना होती है। मेरी एक विधवा मौसी हैं। वह बताती हैं कि उनके दफ्तर के कुछ लोग इतनी हमदर्दी जताते हैं और मदद करने के लिए जिस तरह आमादा रहते हैं उससे उनका जीना हराम हो गया है। मैं यहॉं आराम से तो हूँ। सब समझते हैं कि हमलोग हैपी कपल हैं। सचाई किसी को मालूम नहीं।’

‘तो क्या सारी जिंदगी यूँ ही काट देगी, अभी तेरे सामने लंबा जीवन पड़ा है। एक बेटा हो गया तो क्या हुआ। एक औरत की सारी खुशियाँ तुझे भी चाहिए। एक पुरुष गलत मिल गया तो क्या हुआ। तुझे और भी मिल सकते हैं। सुन। अब तो कई ऐसी डेटिंग वेबसाइट आ गई है, जिस पर लोग मिलते हैं। बैचलर भी, शादीशुदा भी। उस पर अपनी पसंद का कोई मर्द देख और चक्कर चला। बात आगे बढ़ गई तो शादी कर ले। बहुत लोग मिलेंगे, जो तुझे तेरे बच्चे के साथ अपनाएंगे।’

‘ना बाबा ना।’ गरिमा ने तपाक से कहा, ‘तुम अखबार में पढ़ती नहीं हो कि फेसबुक से दोस्ती हुई और फिर बुला कर रेप कर दिया और चंपत हो गया। मुझे वो सब बड़ा अटपटा लगता है। ये एक तरह से इश्क की दुकान हुई कि शोकेस में मर्द सजाए रखे हैं, अपनी मर्जी का उठा लो। ऐसे कहीं प्रेम होता है। वो होना होता है तो अपने आप हो जाता है।’

‘पगली कहीं की। प्रेम तो तभी होगा न जब घर से निकलेगी। बाहर निकल, नौकरी-चाकरी खोज।’ ‘मुझे कौन नौकरी देगा? मैं तेरी तरह सुंदर और स्मार्ट नहीं। अंग्रेजी आती नहीं। जो पढ़ाई-लिखाई की, वो सब भूल गई।’

‘ऐसा कुछ नहीं है। कोशिश करेगी तब न। हार मत मान।’
‘नौकरी करके भी क्या होगा...?’
‘तू पता नहीं अब तक किस जमाने में जी रही है। सुन, कल विजय किसी के चक्कर में पड़ गया तो वह तुझे निकाल फेंक सकता है। कब तक उसकी बहन और जीजा जी बैठे रहेंगे उस पर प्रेशर बनाने के लिए।’

इस बात पर गरिमा निरुत्तर हो गई। सुनीता कहती रही, ‘अपने पैर पर खड़ी हो। अभी तुम विजय के रहमोकरम पर हो। जब तुम अपने पैरों पर खड़ी हो जाओगी तो निश्चिंत रहोगी। विजय तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। जब चाहोगी, तब छोड़ कर चल दोगी।’

सुनीता के जाने के बाद गरिमा उसकी बातों पर सोचती रही। बार-बार उसके शब्द गरिमा के कानों में गूंज रहे थे। गरिमा सोच रही थी क्या सचमुच उसकी सोच पिछड़ी हुई है? क्या वह पुराने जमाने में अटकी हुई है? वह और लड़कियों की तरह नहीं बदल पाई? इसी उधेड़बुन में उसे नींद आ गई। सुबह उठते हुए उसने एक अहम फैसला किया और आशु के प्ले स्कूल की संचालिका से मिलने पहुंच गई। उसने काफी सकुचाते हुए पूछा कि क्या उन्हें बच्चों को पढ़ाने और उनकी देखभाल के लिए एक स्टाफ की जरूरत है?

पहले तो संचालिका को लगा कि गरिमा मजाक कर रही है, फिर वह सब कुछ समझ गई। उसे एक स्टाफ की वाकई जरूरत थी। उसने पांच हजार रुपये पर गरिमा को रख लिया और आशु की पढ़ाई फ्री कर दी। गरिमा को लगा कि दुर्भाग्य के लंबे सिलसिले पर पहली बार कुछ हद तक विराम लगा है।

जब एक महीना काम करने के बाद उसे पहली तनख्वाह मिली तो उसने सुनीता को मेसेज किया, ‘तुम ठीक कहती थी। जब तक मुझे काम नहीं मिला था, मैं डरी-डरी सी रहती थी। अब मुझे डर नहीं लग रहा। अच्छा लग रहा है।’

उसी दिन बोर्ड के पास विजय ने एक लिफाफा रख दिया था और लिखा था- ‘आशु की फीस और तुम्हारे खर्च के लिए।’

गरिमा ने उसे मिटा कर लिखा-‘आशु और मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है। उसका और अपना खर्च मैं खुद उठाऊंगी।’

गरिमा ने लिफाफा छुआ तक नहीं। उसने सोचा वह दिन जल्दी ही आएगा जब वह मकान का किराया विजय के मुंह पर मारेगी।

कोई जोर-जोर से कॉलबेल बजा रहा था। गरिमा की तंद्रा टूटी। वह तेजी से भीतर की ओर भागी। उसे लगा आशु खेल कर लौट आया है।

उसने देखा, ड्राइंग रूम वाले दरवाजे के पास एक लड़का एक बैग लिए खड़ा है।

उसने गरिमा को देखते ही पूछा, ‘विजय कुमार जी इसी में रहते हैं?

‘ हाँ।’ गरिमा ने कहा।

‘उनका कोरियर है। आप उन्हें दे देंगी?’

‘लाइए।’ गरिमा ने हाथ बढ़ाया। लड़के ने बैग से लिफाफा निकालते हुए पूछा, ‘आप उनकी...?’

‘मैं उनकी किरायेदार हूँ!’ यह कह कर गरिमा ने लिफाफा पकड़ा और दरवाजा बंद कर लिया।


संजय कुंदन
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