जेनयु हिंसा: नए दुश्मन तलाशती सर्वनाशी राजनीति — प्रताप भानु मेहता


जेनयु  हिंसा: नए दुश्मन तलाशती सर्वनाशी राजनीति

— प्रताप भानु मेहता

प्रताप भानु मेहता

यह तिहरे अर्थ में सर्वनाशी है. मीडिया के सहयोग से गृह मंत्री के बढ़ावे से “टुकड़े टुकड़े गैंग” मुहावरे का सामान्यिकरण किये जाने ने, बहसों में इस तरह की हिंसा की ज़मीन तैयार की. 

प्रताप भानु मेहता के वैज्ञानिक राजनीतिक विश्लेष्ण तथ्यपरक होते हैं. आज के इंडियन एक्सस्प्रेस का उनका लेख "JNU violence reflects an apocalyptic politics driven by a constant need to find new enemies" पढ़ने के बाद लगा कि यदि यह हिंदी में भी हो तो बेहतर होगा, यदि अनुवाद में त्रुटी हो तो अवश्य बताएं .

भरत एस तिवारी

(अनुवादक)




भारत ऐसी सत्ता द्वारा शासित है जिसके होने का एकमात्र कारण विरोध का ज़रिया ढूंढना और उसे क्रूरता से कुचलना है

जेनयु में हुई विस्मयकारी हिंसा से आपको यह आसान बात  अवश्य समझा आनी चाहिए: भारत ऐसी सत्ता द्वारा शासित है जिसके होने का एकमात्र कारण विरोध का ज़रिया ढूंढना और उसे क्रूरता से कुचलना है. कायर ठगों का भारत के सबसे प्रमुख विश्विद्यालयों में से एक में इस तरह घूमना शिक्षकों और विधार्थियों को सर फोड़ने वाली चोटें पहुँचाना, जेएनयु प्रशासन द्वारा मामूली हाथापाई बताकर दरकिनार की गयी जैसी छोटी घटना नहीं है. यह समझने के लिए कि दाँव पर क्या है, हमारे माननीय “वह जिनका नाम कतई नहीं लेना चाहिए” गृह मंत्री के भाषणों की पूरी श्रृंखला का सुना जाना आवश्यक है. एक चीज़ साफ़ हो जाएगी. नए दुश्मन की तलाश के बिना वर्तमान सत्ता अस्तित्व में नहीं रह सकती. यह अब अपने होने को अच्छे कामों से नहीं बल्कि दुश्मन को ज़रिया बनाकर सिद्ध करती है. दुश्मनों —  अल्पसंख्यक, लिबरल, सेक्युलर, वामपंथी, अर्बननक्सल,  बुद्धिजीवी, साधारण प्रदर्शनकारी —  की निशानदेही साधारण राजनीतिक समीकरण से नहीं उपज रही. शुद्ध और सरल, सीधी इच्छा, विचारधारा और नफरत से उपज रही है. जब आप अपने होने को पूरी तरह दुश्मनों की खोज द्वारा सिद्ध करते हैं, सच अर्थहीन हो जाता है, इंसानियत के साधारण नियम और अदब अर्थहीन हो जाते हैं, सामान्य राजनीति के नियंत्रण और संतुलन (checks and balances) अर्थहीन हो जाते हैं. सिर्फ़ अर्थपूर्ण रह जाता है वास्तविक और काल्पनिक दुश्मन को हर हाल में कुचलना.

मीडिया के सहयोग से गृह मंत्री के बढ़ावे से “टुकड़े टुकड़े गैंग” मुहावरे का सामान्यिकरण किये जाने ने, बहसों में इस तरह की हिंसा की ज़मीन तैयार की.

जेएनयु की घटनाएँ इस सरकार द्वारा खेली जा रही सर्वनाशी राजनीति का एक और चिन्ह है. यह तिहरे अर्थ में सर्वनाशी है. मीडिया के सहयोग से गृह मंत्री के बढ़ावे से “टुकड़े टुकड़े गैंग” मुहावरे का सामान्यिकरण किये जाने ने, बहसों में इस तरह की हिंसा की ज़मीन तैयार की.

इसमें कोई शक-सुबह नहीं कि निहत्थे प्रोफ़ेसरों और छात्रों का सर फोड़ने वाला कायर हमलावर ख़ुद को किसी तरह का राष्ट्रवादी योद्धा समझता है: राष्ट्रीय सम्मान का बदला विश्विद्यालय पर हिंसात्मक हमला. लेकिन यह तथ्य कि वह ऐसा समझता है को विचारधारा के व्यापक माहौल द्वारा सक्षम किया गया है, ऐसा कुछ जिसे दिमाग में बैठाने में सरकारी अधिकारियों ने साथ दिया.

राज्य हर उस इन्सान पर सीधा या प्रॉक्सी द्वारा हमला किये जाने को उकसायेगा देगी जो उसके सुर में नहीं है.

इस तथ्य को झूठा साबित करने वाला कुछ नहीं हैं कि अपने ही नागरिकों का एंटी-नेशनल कहते हुए शिकार करना अब इस सरकार की विचारधारा निर्माण का हिस्सा है, जैसाकि गृह मंत्री के भाषणों से पता चलता है. इस तथ्य को झूठा साबित करने वाला कुछ नहीं हैं कि उत्तरप्रदेश में अल्पसंख्यकों पर राज्य की प्रतिक्रिया, पहले हुई लिंचिग की घटनाओं पर हुई मामूली कार्यवाही को देखते हुए, हमारे समाज के सबसे घातक हिस्से को योद्धा बनने के लिए प्रोत्साहन देती है. राज्य हर उस इन्सान पर सीधा या प्रॉक्सी द्वारा हमला किये जाने को उकसायेगा देगी जो उसके सुर में नहीं है.

हिंसा इस प्रकार भी सर्वनाशी है: इसका उद्देश्य और अधिक हिंसा को उकसाना है: ताकि दुश्मनों की निशानदेही ख़ुद पूर्ण होने वाली प्रक्रिया बन पाए. तर्क है: बल प्रयोग करो और धमकाओ. अगर यह सफल रहा, तो सब ठीक. अगर यह सफल नहीं रहा तब दो तरह से जवाब दो. पहला, वैचारिक रूप से विपक्ष को और भी अधिक बदनाम करो. यह क्रम निराशाजनक रूप से परिचित है. जेएनयु पर हुए हमले को किसी “लेफ्ट-लिबरल” साज़िश के रूप में दिखाया जायेगा. वो रटेंगे, जैसा कि सोशल मीडिया पर बहुतों द्वारा किया जा रहा है, “ये लेफ्ट लिबरल इतने कट्टर हैं कि सरकार को शर्मिंदा करने के लिए अपना ही सर फोड़ लेंगे.”  दूसरा, नियंत्रण और हिंसा रोकने के नाम पर और हिंसा. “इन एंटी-नेशनल को देखो ये हिंसा से भी नहीं कुचले जा रहे. इसलिए हमें और हिंसा चाहिए.” यही रणनीति कश्मीर में है, यही रणनीति यूपी में है और अब यह आ रही राजधानी के दिल में है. एक भीषण दुष्प्रचार कैंपेन चलेगा. याद रहे, सरकार शक और सच के बीच की विषमता का फायदा उठाती है. संदर्भहीन बातों को कहीं से भी उठाकर यह पुख्ता करने के लिए कि सब एक साज़िश है. सबसे स्पष्ट सवाल, इस सबके बीच, जवाब नहीं पाएंगे.




भारत का सबसे बुरा संकेत यह है कि सरकार सोचती है उसकी इस सर्वनाशी दृष्टि में जनता उसके साथ है.

चलिए एक पल के लिए मान लें कि रजिस्टर करना चाहने और रजिस्टर करने से रोकने वाले छात्रों के बीच आपसी हाथापाई हुई थी. यह इस तथ्य को नहीं समझा सकता कि कैम्पस के बाहर से आये हथियारों से लैस गुण्डों को वहाँ टहलने दिया गया; यह तथ्य को नहीं समझा पाता कि पुलिस, जिसे जामिया में घुसने का कोई पछतावा नहीं है, मूक दर्शक बनी रही और यहाँ तक कि ठगों को सम्मानपूर्वक ले जाती हुई जैसी दिखी. यह नहीं समझा सकता क्यों निहत्थे प्रोफेसरों और छात्रों के सर पर प्रहार किया जायेगा. सरकार इस तथ्य पर भरोसा कर रही है कि उसे लगता है कि हम इसका समर्थन करने के बहाने ढूंढ रहे हैं। वह सोचती है कि अव्यवस्था की तस्वीरें —  कि कल  दंगा करते अल्पसंख्यक या वामपंथी आयेंगे —  अधिनायकवाद का समर्थन बढ़ाएंगी. भारत का सबसे बुरा संकेत यह है कि सरकार सोचती है उसकी इस सर्वनाशी दृष्टि में जनता उसके साथ है.

काली रात का सबसे निकृष्ट क्षण

सभी संस्थाओं का शाब्दिक रूप से पूर्ण विनाश इस सर्वनाशी दृष्टि का तीसरा तत्व है. काली रात का सबसे निकृष्ट क्षण दो “जिनके नाम लिए जाने लायक नहीं है” मंत्री – वित्त मंत्री और विदेश मंत्री का सामान्य, घिसीपिटी हिंसा की निंदा वाली ट्वीट-तक सिमट जाना है.  वे सुरक्षा पर कैबिनेट समिति के सदस्य हैं. अपने सहयोगियों के माध्यम से वे दिल्ली पुलिस को कार्यवाही के लिए कह सकते थे. यदि विशेषाधिकारों वाले वे ऐसी बेबस दयनीयता दिखाते हैं, जेएनयु के साधारण विद्यार्थी या यूपी या कश्मीर के नागरिक की सोचिये. उनके बारे में सोचिये जो हिंसात्मक रक्षा दलों के शिकार होते हैं और जिनकी न्याय तक कोई पहुँच नहीं होती; उनके बारे में सोचिये जिनके घरों पर यूपी पुलिस ने हमला किया था; उनके बारे में सोचिये जो कश्मीर में लापता हो गए. सरकार का उद्देश्य अपने नागरिकों का शाब्दिक अर्थ में विनाश हो भी सकता है और नहीं भी। लेकिन उसका उद्देश्य हमारी इच्छा, हमारे तर्क, हमारी आत्मा के सर्वनाश का अवश्य है, ताकि हम सब उसकी विचारधारा योजना के इच्छुक समर्थक बन जाएँ.

उम्मीद की किरण यह है, जैसा कि हाल की घटनाएँ दिखाती हैं, पर्याप्त भारतीय हंकाए जाने से इंकार कर रहे हैं. यह बात सरकार और उसके समर्थकों को और शर्मसार और झकझोर रही है. अल्पावधि में हमें तीन चीज़ों की ज़रुरत है. घरेलू राजनीति के सैन्यीकरण का लाइसेंस —  “टुकड़े टुकड़े गैंग” की बातों का सामान्यीकरण करने वाले किसी भी शख्स को संरक्षण से पूर्ण इंकार. जेएनयु वीसी से लेकर गृह मंत्री तक: संस्थानिक ज़िम्मेदारी आवश्यक है. लेकिन, इस सब के साथ पिछले दिनों से चल रहे विरोध की ताक़तों के शांतिपूर्ण और गरिमामयी प्रदर्शन का और दीखना भी आवश्यक होगा. सरकार की रणनीति पुराने मुद्दों को हल नहीं करने की है; वह ध्यान बाँटने के लिए नई विप्पतियों को इस उम्मीद के साथ कि हम बंटे रहेंगे लाने की है. लेकिन अब सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन को इसी तथ्य को फायदे में बदलना है. वह चीज़ जो जेएनयु और आमतौर पर दिल्ली में हुई हिंसा, से हम तक ज़रूर पहुंचनी चाहिए वह यह सीधा सच है: सरकार की नज़र में, कोई भी मासूम नहीं है. हममें से किसी के पास दिखावे भर का भी कोई अन्य विकल्प नहीं है.



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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