हिंदी की लंबी कविता
'इंसान भी कपड़ों सरीखा है / समझे क्या? '
— राजिन्दर अरोड़ा
इंसान भी कपड़ों सरीखा है
समझे क्या?
हम कपड़ों जैसे ही हैं
हम में से कुछ सिले हैं, कुछ उधड़े
कुछ बुने, कुछ कोरे चादर से,
कुछ कफन जैसे शांत
कुछ मशीनी, कुछ हथकरघा
कुछ पहनावा हैं तो कुछ दिखावा।
सबकी औकात तागे की ही है, पर अकड़
कलफ़ चढ़े सूत की।
कुछ रंगरेज़ की कड़ाही से निकल
रंगीन मिज़ाज़ हो जाते हैं,
कुछ सवांर दिए जाते हैं
दर्ज़ी की मशीन से।
कुछ मिलों में छपे रंगदार धारियों से,
कुछ सुईओं से गुदे और कढ़े फूलदार।
इंसान भी
पहने और ओढ़े जाते हैं
खिड़कियों पे लटकाए जाते हैं
गठरी या पुलंदे से बांधे जाते हैं
काट-फाड़ मरोड़ दिए जाते हैं
चीथड़े से फेंक दिए जाते हैं।
कुछ किस्मत वाले तिरंगा बन
मम्टी पर लटकाए जाते हैं ।
इंसान भी
कपड़ों जैसे फट कर
तार तार हो जाते हैं, और फिर
कभी जोड़े नहीं जा सकते
ऐसे इंसान पैबंद से परहेज करते हैं
रफूगर से कतराते हैं
दरजी के दुश्मन होते हैं।
कपड़ों सरीखे इंसान भी
मैले, बिखरे से पड़े रहते हैं
कुछ धोबन के इश्क़ में धुले जाते हैं,
सूख कर सिकुड़ जाते हैं
पर इस्त्री के पास नहीं जाते।
इंसान भी कपड़ों सरीखे
सख्त, लचीले या लहेरिया होते हैं
कुछ में लचक होती है तो कुछ में
खिंचाव और तनाव
कुछ मलमल से महीन
कुछ रेशम या मखमल से चिकने
कुछ कोरे, महीन, कच्चे सूत से
तो कुछ मोटे, खुरदरे, दानेदार और बेअदब
कुछ जालीदार,अश्लील, पारदर्शी
होते है तो कुछ बन जाते हैं
शामियाने, कुछ कतरने, कुछ झालर।
    
हम भी कपड़ों सरीखा ही हैं
हम मैं से कुछ में सिलवटें होंती हैं
कुछ धुंधले और फीके, बेरंग रहते है
कुछ पर लग जाते हैं ज़िन्दगी के धब्बे
गम की सियाही के, दर्द के लहू के
कुछ चिरे, छिदे, कटे रहते हैं, जिन्हे आखिर में
बर्तन वाली भी नहीं ले जाती।
इंसान भी कपड़ों सरीखे हैं
कुछ किस्मत वाले पहुँच जाते हैं
डिज़ाइनर सलून में
कुछ सेठ की बेटी पे रेशमी दुप्पटे से
कुछ राजू वेटर के हाथ में झाड़न से
कुछ मज़दूर की घिसी धोती से
कुछ ज़ख़्मी शरीर पे पट्टियों से
और कुछ पैदाइशी बदकिस्मत
गूदे में घुल कागज़ बन जाते हैं ।
इंसान भी कपड़ों सरीखा हैं
कुछ दिल के पास रहते है
बंडी या बनियान से
कुछ सर पे चढ़े रहते हैं
पगड़ी या साफ़े से
कुछ लिपट रहते हैं
साड़ी या शाल से
कुछ गले में फंदे सा
गुलबंद या मफलर बन जाते हैं।
समझे क्या?
हम कपड़ों जैसे ही हैं
हम में से कुछ सिले हैं, कुछ उधड़े
कुछ बुने, कुछ कोरे चादर से,
कुछ कफन जैसे शांत
कुछ मशीनी, कुछ हथकरघा
कुछ पहनावा हैं तो कुछ दिखावा।
सबकी औकात तागे की ही है, पर अकड़
कलफ़ चढ़े सूत की।
कुछ रंगरेज़ की कड़ाही से निकल
रंगीन मिज़ाज़ हो जाते हैं,
कुछ सवांर दिए जाते हैं
दर्ज़ी की मशीन से।
कुछ मिलों में छपे रंगदार धारियों से,
कुछ सुईओं से गुदे और कढ़े फूलदार।
इंसान भी
पहने और ओढ़े जाते हैं
खिड़कियों पे लटकाए जाते हैं
गठरी या पुलंदे से बांधे जाते हैं
काट-फाड़ मरोड़ दिए जाते हैं
चीथड़े से फेंक दिए जाते हैं।
कुछ किस्मत वाले तिरंगा बन
मम्टी पर लटकाए जाते हैं ।
इंसान भी
कपड़ों जैसे फट कर
तार तार हो जाते हैं, और फिर
कभी जोड़े नहीं जा सकते
ऐसे इंसान पैबंद से परहेज करते हैं
रफूगर से कतराते हैं
दरजी के दुश्मन होते हैं।
कपड़ों सरीखे इंसान भी
मैले, बिखरे से पड़े रहते हैं
कुछ धोबन के इश्क़ में धुले जाते हैं,
सूख कर सिकुड़ जाते हैं
पर इस्त्री के पास नहीं जाते।
इंसान भी कपड़ों सरीखे
सख्त, लचीले या लहेरिया होते हैं
कुछ में लचक होती है तो कुछ में
खिंचाव और तनाव
कुछ मलमल से महीन
कुछ रेशम या मखमल से चिकने
कुछ कोरे, महीन, कच्चे सूत से
तो कुछ मोटे, खुरदरे, दानेदार और बेअदब
कुछ जालीदार,अश्लील, पारदर्शी
होते है तो कुछ बन जाते हैं
शामियाने, कुछ कतरने, कुछ झालर।
हम भी कपड़ों सरीखा ही हैं
हम मैं से कुछ में सिलवटें होंती हैं
कुछ धुंधले और फीके, बेरंग रहते है
कुछ पर लग जाते हैं ज़िन्दगी के धब्बे
गम की सियाही के, दर्द के लहू के
कुछ चिरे, छिदे, कटे रहते हैं, जिन्हे आखिर में
बर्तन वाली भी नहीं ले जाती।
इंसान भी कपड़ों सरीखे हैं
कुछ किस्मत वाले पहुँच जाते हैं
डिज़ाइनर सलून में
कुछ सेठ की बेटी पे रेशमी दुप्पटे से
कुछ राजू वेटर के हाथ में झाड़न से
कुछ मज़दूर की घिसी धोती से
कुछ ज़ख़्मी शरीर पे पट्टियों से
और कुछ पैदाइशी बदकिस्मत
गूदे में घुल कागज़ बन जाते हैं ।
इंसान भी कपड़ों सरीखा हैं
कुछ दिल के पास रहते है
बंडी या बनियान से
कुछ सर पे चढ़े रहते हैं
पगड़ी या साफ़े से
कुछ लिपट रहते हैं
साड़ी या शाल से
कुछ गले में फंदे सा
गुलबंद या मफलर बन जाते हैं।
राजिंदर अरोड़ा
संपर्क:
'इश्तिहार',
511, सूर्य किरण भवन, 19 कस्तूरबा गांधी मार्ग,
नई दिल्ली 110 001
ईमेल: ishtihaar@gmail.com
मोबाईल: 9810018857
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सुन्दर रचना
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