आर्मेनियाई कवि येग़िशे छारेंत्स का पत्र पत्नी आर्फेनिक के नाम — सुमन केशरी #ArmenianGenocide



येग़िशे छारेंत्स का पत्र (पत्नी) आर्फेनिक के नाम

येग़िशे छारेंत्स (1897-1937) आर्मेनियाई कवि अपने देश के राष्ट्रपिता सरीखे हैं. 24 अप्रैल को आर्मेनिया जनसंहार दिवस (#ArmenianGenocide) के रूप में जाना जाता है. कवि सुमन केशरी आर्मेनिया पर काम करती रही हैं, आज उनकी मार्फ़त जानिये इस महान कवि  और उसके प्यार को जिसे सुमन केशरी उस चिठ्ठी से लिख रही हैं जो येग़िशे छारेंत्स ने नहीं लिखी, या फिर लिखी होती...
भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक


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“पुजारी, योग्य, सूर्य बनो, जैसे महात्मा गाँधी…”

जो केवल इस कवि की कल्पना में लिखा गया...  

— सुमन केशरी


मेरी प्यारी आर्फेनिक... मेरी आत्मा आर्फेनिक...

मैंने तुम्हें इतना चाहा कि तुम मेरी जिंदगी का कभी न खत्म होने वाला अध्याय बन गईं...

तुम कविता हो या वो सुंदर चेहरा और कोमल-गर्म हाथ जिसकी अनुकृति मेरी मेज पर रखे हुए हैं... तुम्हारा चेहरा कितना सुंदर है, जब तुम मुझे देखतीं तो लगता जीवन की नदी में तिर रहा हूँ मैं... आनंदित- आश्वस्त— जबकि वे दिन आश्वस्ति के दिन न थे— निरंतर मृत्यु और वेदना के दिन थे वे— हम जीने के लिए भागने और छिपने को विवश थे। हम लड़ रहे थे... हार रहे थे... जीत क्षितिज के जाने किस कोने में छिपी थी, कहीं लालिमा-सी बिखरती तो लगता, वहीं कहीं है जीत! पर बाद में पता चलता कि वो तो तुम्हारी मुस्कान थी, जो जीत का अहसास कराती थी... और तुम्हारा स्पर्श— आज भी थरथराहट से भर जाता हूँ— कितनी ऊष्मा... कितनी कातरता... हर पल को संजो लेने का तुम्हारा प्रयास... एक एक स्पर्श याद है मुझे... यकीन मानो... एक एक दृष्टि... एक एक स्पर्श... साथ होने का वह अद्भुत रोमांच... उसी ने तो मुझे प्रेरित किया कि तुम्हारे जाने के बाद मैं तुम्हारा सुंदर मुख गढ़वा लूँ... तुम्हारे हाथ की एक अनुकृति बनवा लूँ ओ मेरी आर्फेनिक — मेरी प्रिया... सखी... जीवन...

मेरी सदा की कामना यही रही है कि तुम मेरे पास रहो— जो रचता हूँ वह तुम ही हो— चाहे वे शब्दों में रची कविताएँ हों या मेरे देश आर्मेनिया की आजादी की कल्पना... या मासिस-सिस पर्वतों की शृखंलाओं को निहारते हुए मेरी आँखों से बह निकलने वाली अश्रुधाराएँ हों...

या फिर इजाबेला और मेरी हाड़-माँस की बेटी...

याद है न वह रात, जिसकी सुबह वो पैदा हुई थी... उस रात तुम मेरे पास आई थीं, बिल्कुल अपने खास अंदाज में... तुमने मेरे होंठ चूमे थे और मेरे सर को अपनी छातियों के बीच दबाते हुए कहा था... रोज बुलाते हो न! लो मैं आ गई... तुम्हारे पास... पहचान लेना मुझे— मेरे नए रूप में...

अगली सुबह इजाबेला की गोद में तुम हमारी बेटी बन कर आ गईं थी... हमने उसे नाम दिया— आर्फेनिक...
वह इजाबेला और मेरे जीवन की एक नई सुबह थी... नई शुरुआत थी... तुम ईजाबेला में और ईजाबेला तुममें समा गई थी... तुम प्रिया भी थी और बिटिया भी... मेरा वर्तमान भी और भविष्य भी...

और उस समय के बाद मेरी मेज मुझे और प्रिय हो गई... वहाँ मेरी प्रिया मौजूद थी मेरी आर्फेनिक... मेरी जान मेरी आत्मा... मैं रोज सुबह वहाँ आता तो रात देर तक काम करता यह जानते हुए कि मेरे पास मेरी प्रिया भी है और मेरी बेटी भी... मेरी साथिन इजाबेला भी, जो मेरे हर काम में कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ी होती... मेरे संघर्ष में भी, मेरी हताशाओं और निराशाओं में भी...


मैं बहुत हैरान होता हूँ कि कैसे एक औरत अपना प्यार यूँ बाँट सकती है! मैंने कभी ईजाबेला को तुमसे रूष्ट होते नहीं देखा, कोई शिकायत करते नहीं देखा। लगा ही नहीं कि उसे तुमसे कोई पीड़ा या दुख है। उसने तुम्हें यूँ स्वीकार कर लिया मानो मैं और तुम अविभाज्य हैं।या शायद वो और तुम... यही... यही सच है! पर उसका सहज स्वीकार मुझे असहज कर देता है। एक बात मैंने तुम्हें कभी नहीं बताई— आज कहता हूँ... तुम्हें उतनी ही हैरानी होगी जितनी मुझे हुई थी... शायद ज्यादा भी... चलो एक बात बताओ कि अगर तुम इजाबेला की जगह होतीं तो क्या तुम भी उसी की तरह विशाल हृदया होतीं ? पर यह सवाल ही गलत है। यह सवाल केवल पुरुष दिमाग में ही आ सकता है या फिर उसी सोच में बसे-पले दिमाग में।

क्योंकि अगर तुम इसी तरह संकीर्णता से सोचतीं तो तुम इजाबेला कैसे बनतीं, बिटिया बन उसकी गोद में कैसे आतीं? यह छोटी-सी बात मेरे मन में सवाल उभरने के पहले न आई, इसी से जाहिर है कि तुम्हारे प्रेम के बावजूद मैं सजग-सचेत नहीं हुआ— लो आज से ही मेरी साधना शुरु हुई। मन को स्त्री— पृथ्वी बनाने की साधना... जीवन को संभव करने की साधना!!

साधना शुरु हुई और जाना एक हिंदुस्तानी को— गांधी को... लोग उन्हें महात्मा कहते हैं... महात्मा... लोग उन्हें बापू भी कहते हैं, पर कई तो उन्हें माँ की तरह पाते हैं...

जब से गांधी को जाना तब से हिंसा की अनुपयोगिता प्रत्यक्ष होती गई। मैंने कम्यूनिज्म में आस्था जताई थी यह सोच कर कि वह पूरी मानवता के हितार्थ काम करेगा... पर देख रही हो न कैसे हर चीज पार्टी-उन्मुख हो गई है। किसी भी बहस को विरोध बता कर बहस करने वाले को दुश्मन बना दिया जा रहा है... मैं कल तक का उनका साथी, आज दुश्मन बन गया हूँ... अब तक का सारा जीवन हिंसा की आग से शोषण की आग को बुझाने के सपने देखता बीता। 1897 में जन्मा था मैं शहर कार्स में और 18 का होते न होते 1915 में पहले विश्वयुद्ध के दौरान आर्मेनियाई जनसंहार के खिलाफ़ युद्ध में शामिल हो गया था... उसके बाद लाल सेना की ओर से लड़ा और सपने देखता रहा अपने देश आर्मेनिया की सच्ची आजादी के, जिसमें कोई किसी का शोषक न होगा... सभी चेहरों पर मुस्कान होगी और हम रोज सुबह मासिस पर्वत को नमस्कार करते हुए खेतों, खलिहानों, कारखानों, स्कूलों, दफ्तरों के लिए निकल पड़ेंगे...

पर ऐसा न हो सका... आज मैं यहाँ अकेला पड़ा हूँ— अकेला और अविश्वसनीय... कल तक जो साथी थे आज मुझे संदेह की निगाह से देख रहे हैं... वे कतरा कर इधर उधर हो जाते हैं, सामने नहीं पड़ते कि मैं कुछ पूछ न लूँ... कोई उन्हें मुझसे बात करते न देख ले...


पर कुछ उस सिरफिरे, पेंटर अलेक्जेंडर बाजब्यूक मेलिक्यान की तरह भी हैं, जो मेरा चित्र बना रहे हैं... उन सभी चित्रों में दो हिंदुस्तानी प्रमुखता से दिखाई पड़ते हैं— एक तो मैंने तुम्हें बता दिया— महात्मा गांधी और दूसरे हैं हजारों साल पहले हुए महात्मा बुद्ध... इन दिनों मैं बुद्ध के बारे में पढ़ रहा हूँ और जान रहा हूँ कि जीवन में दु:ख है और उस दु:ख के कारण हम ही हैं... तुम्हें याद है न कि क्रांति की अभिलाषा में मैंने भी तो सोवियत सत्ता पर आँखें मूंद कर विश्वास किया था और उनका साथ दिया था... उस हिंसा कर्म में मेरे हाथ भी तो खून से रंगे थे... तब गांधी को मैं नहीं जानता था... जानता होता तो शायद समझ जाता कि हिंसा से हिंसा ही जन्मती है, उसी तरह जैसे आग से आग... जानता होता तो विरोध का रचनात्मक मार्ग ढूँढता, शायद कोई रास्ता नजर आता... शायद मैं आज जितना एकाकी न होता...


तो मेलिक्यान की बनाई यह जो तस्वीर देख रही हो न तुम कमरे की दीवार पर... उसमें देखो उसने मुझे बुद्ध-सा बना दिया है. और देखो लिख भी दिया है महात्मा छारेन्त्स... बहुत भावुक चित्रकार है वो... अभी से मुझे महात्मा बना रहा है, जबकि मैंने साधना का प्रथम सोपान तक पार नहीं किया है। मैं कितना भ्रमित हो जाता हूँ... कितना उद्विग्न, इसे वह नजरअंदाज कर देता है... मैं साधना रत हूँ... पर मेरा मन तब तक शांत न हुआ, जब तक कि मैंने उस चित्र पर यह लिख न दिया कि— “ तुम्हारी आत्मा अभी अनुभवरहित है, अभी तक तुम कमजोर हो छारेन्त्स। आत्मा को मजबूत करो। पुजारी, योग्य, सूर्य बनो, जैसे महात्मा गांधी— प्रतिभा संपन्न हिंदुस्तानी... ” तुमने देखा यह बात मैंने उसी चित्र पर 24 जनवरी 1936 को लिखा है...

मैं साधना रत हूँ इस कारागार में जिसे स्टालिन के लोग अस्पताल कहते हैं, क्योंकि सामान्य लोगों के लिए यह अस्पताल ही है, पर मैं जानता हूँ कि यह कारागार है... जाने इजाबेला कहाँ होगी? जाने मेरी नन्हीं बेटियाँ आर्फेनिक और अनाहित कहाँ होंगी... कौन देखता होगा उन्हें... भूखी प्यासी ठंड में बिलखती रोती होंगी... तुम ध्यान रख रही हो न उनका... तुम्हीं एक भरोसा... एक बल हो मेरी...

और मेरी कविताएँ... मेरी रचनाएँ... उनमें तो माँ आर्मेनिया के लिए मेरी चीत्कार दर्ज है साफ साफ शब्दों में... उनमें तो मेरे प्यारे देशवासियों के लिए कई कई संदेश हैं— साफ़ भी और छिपा कर भी... मैंने बता दिया है उन्हें कि जीत तभी हासिल होगी जब वे एकजुट हो जाएँ... एक दूसरे पर अविश्वास करने, उन्हें दुश्मन बना लेने से काम न चलेगा...

आर्फेनिक मेरी जान!कहाँ हैं मेरी कविताएँ?

ओह! याद आया कि ईजाबेला ने दोस्त रेगिना से उन्हें घर से ले जाने को और कहीं सुरक्षित छिपा देने को कहा था... मुझे यह बात खुद उसी ने बताई थी, यह बात मेरे अस्पताल पहुँचने से पहले की ही है... फिर मैं कैसे भूल गया सब... ईजाबेला और मैंने उन कविताओं को रद्दी की टोकरी में रख कर दिया था कि किसी को शक न हो... रेगिना ने बताया था कि उसने उन्हें टिन के एक बक्से में डालकर माँ आर्मेनिया के गर्भ में सुरक्षित रख दिया था... उसने माँ आर्मेनिया कहा था... पर मुझे तो याद आया वह दिन जब मैंने तुम्हारी कब्र को अपने आँसुओं से गीला करके अपने प्रेम का पौधा रोपा था— वह पौधा जिसकी जड़ें आकाश में हैं और जिसके फूल जमीन के भीतर खिलते हैं, बिकसते हैं सहस्रदल बन, मानवता की नभ-आत्मा में...
मैं जानता हूँ जब तक यह प्रेम जीवित है तब तक वह फूल भी जीवित रहेगा... मेरी कविताएं भी जीवित रहेंगी, क्यों कि उन्हें तुम्हारा ईजाबेला और रेगीना का प्यार मिला है...

महात्मा गांधी की आत्मा अक्सर मुझसे बात करती है, और मैं देखता हूँ एक सहस्रदल कमल को खिलते, जिसकी लाली में मुझे तुम्हारा प्रेम दिखाई पड़ता है...
प्रेम भरता है मेरे पिंजर को उजास से, क्षमा और करुणा के प्रकाश से...
ओ आर्फेनिक मेरी आत्मा... मेरी कविता... मेरे प्रेम... मेरे जीवन...

तुम्हारा,
एगीशे!


जीवन परिचय: येग़िशे छारेंत्स

(1897-1937)

सुमन केशरी


येग़िशे छारेंत्स (येग़िशे सोग़ोमोन्यान) का जन्म 13 मार्च 1897 को कार्स (अब तुर्की) में हुआ था। येग़िशे ने छारेंत्स जैसे अपने नाम के चयन के पीछे यह तर्क दिया कि ‘दुनिया में तो कई बार अच्छे चेहरे की आड़ में बुराई छिपी हुई होती है, किंतु मैंने इसके विपरीत अपनी आत्मा की पवित्रता को बनाए रखने के लिए बुरा नाम चुन लिया।’ 

येग़िशे की माता थेकगी मिर्ज़ायान और पिता आब्गार सोग़ोमोन्यान ईरान के माकू शहर से कार्स पलायन कर गए थे। उनके पिता आब्गार कालीन व्यापारी थे। कार्स में उनकी बड़ी दूकान थी। वे बहुत ही सख्त प्रकृति के, आस्तिक और नियमों पर चलने वाले इंसान थे। 

येग़िशे छारेंत्स की शिक्षा विधिवत नहीं हुई थी। सन् 1908-12 के दौरान कार्स के एक विद्यालय में उनकी पढ़ाई हुई थी,पर फ़ीस न दे पाने की वजह से उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा। स्वाध्याय और ‘जीवन के विश्वविद्यालय’ से प्राप्त अनुभवों ने उन्हें सिखाया-पढ़ाया। वे पढ़ने के शौक़ीन थे और अपना ज़्यादातर समय पढ़ने में बिताते थे। हालाँकि कार्स एक छोटा प्रांतीय शहर था लेकिन साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत जीवंत था। वहां अनेक शिक्षण संस्थाएँ, मुद्रण संस्थाएँ, पुस्तकालय और किताबों की दुकानें थीं। सन् 1912 में थबिलिसी (जॉर्जिया की राजधानी) में ‘पातानी’ नामक पत्रिका में छारेंत्स की कविता प्रकाशित हुई। उनके एक मित्र ने लिखा है कि, “उनके पिता आब्गार साहब ने येग़िशे को जूते खरीदने के लिए पैसे दिए थे और बेटे ने बेझिझक उन पैसों से किताबें खरीद ली थीं!” 

“अरे!! तुमने अपना दिमाग रोटी के साथ खा लिया है क्या? नंगे पाँव चलोगे?” — पिता ने गुस्से से कहा।

“येग़िशे ने वहाँ कोई उत्तर नहीं दिया, चुपचाप घर से बाहर निकल आए और कहा — “खाली दिमाग के साथ चलने से बेहतर है कि नंगे पाँव चलूँ!” 

सन् 1914 में किसी दिन छारेंत्स कार्स के एक छपाई खाने जा पहुँचे और वहाँ के निर्देशक आलेक्सांद्र तेर-येसान्यान से मुलाक़ात कर उनसे कहा कि वे अपनी कविताएँ वहाँ छपवाने के लिए लाए हैं। बालक के साहसी जज़्बे से प्रेरित हो उन्होंने पांडुलिपि लेकर देखा तो पहले तो लिखाई देखकर ही आश्चर्यचकित हो गए। वे प्रेम कविताएँ थीं, जो कार्स की महिला व्यायामशाला में पांचवीं कक्षा की छात्रा आस्त्गिक गोंदाख्च्यान को समर्पित थीं। यह संग्रह ‘उदास लड़की के लिए तीन गीत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। सन् 1913—15 में कार्स में रहते हुए छारेंत्स की ‘आग्नीय भूमि’ कविता संग्रह की कुछ कविताएँ, ‘मुलाकात की घड़ियाँ’, ‘नीले नयनों वाला स्वदेश’ इत्यादि संग्रह प्रकाश में आए। 

सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई, जिसका फायदा ऑटोमन साम्राज्य ने उठाया और नरसंहार के रास्ते आर्मेनियाई मुद्दे का समाधान तलाश लिया। सन् 1915 में रूसी सेना के साथ मिलकर तुर्कों का मुकाबला करने के लिए जो आर्मेनियाइयों की प्रथम स्वयंसेवक बटालियन तैयार हुई, उसमें छारेंत्स भी शामिल थे। 

1918 के जून—जुलाई में छारेंत्स ‘लाल सेना’ में भर्ती हो गए और छारित्सिन के गृहयुद्ध में भाग लिया। उससे पहले ही उनका परिवार तुर्क हमले के कारण कार्स से भाग कर माइकोप नामक शहर में पलायन कर गया था। 

दिसंबर 1919 में छारेंत्स ने बाशख्यादिक्लार के विद्यालय को छोड़ दिया और येरेवान आ गए। 1920 में उन्होंने आग्बाल्यान के निमंत्रण पर राज्य शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय में विशेष कार्य महासचिव के रूप में काम करना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ ही महीनों बाद वहाँ से काम छोड़ कर एक अमेरिकी अनाथालय के स्कूल में बीमार बच्चों को पढ़ाने लगे। आर्मेनिया के सोवियतीकरण के बाद 2 दिसंबर 1920 को छारेंत्स सरकारी जन प्रबोधन विभाग के कला अनुभाग के निदेशक बने। यहाँ रहते हुए उन्होंने दूर दूर जा बसे आर्मेनियाई लेखकों और कलाकारों को ढूँढा और सोवियत आर्मेनिया में आमंत्रित किया। उनका मानना था कि अपनी मातृभूमि में रहकर ही बुद्धिजीवी अपने लोगों की मदद कर सकते हैं. 

सन् 1921 के फरवरी—अप्रैल के महीनों में छारेंत्स ने लाल सेना के सैनिक अभियानों में फिर से भाग लिया। सन् 1921 की मई में छारेंत्स का विवाह आर्फिक (आर्फेनिक तेर—आस्त्वाज़ातर्यान) से हुआ और जून में नवविवाहित वर-वधू मास्को चले आ गए और पूर्वी श्रमिक कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय में अध्ययन करने लगे। आर्मेनियाई बोल्शेविक क्रांतिकारी और सरकारी अधिकारी आलेक्सान्द्र म्यासनिक्यान (1886-1925) की सहायता से सन् 1922 में मास्को में छारेंत्स के कहानी-संग्रह का पहला और दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ। इन खण्डों में उनकी लगभग दस वर्षों की साहित्यिक विरासत संकलित है। 

नवंबर, 1924 में छारेंत्स तुर्की, इटली, फ़्रांस और यूनान की यात्रा पर निकल गए। वे अमेरिका भी जाना चाहते थे लेकिन उन्हें इजाज़त नहीं मिली। उसी साल दिसंबर में कांस्टेंटिनोपल (इस्ताम्बुल) में छारेंत्स की कविता ‘इस्ताम्बुल’ प्रकाशित हुई। यह कविता इस्ताम्बुल में बचे-खुचे आर्मेनियाइयों के जीवन का जीवंत चित्रण है, “कितना दयनीय है आर्मेनियाइयों का जीवन, यह कल्पना करना मुश्किल है। लोग अपने विषादपूर्ण अस्तित्व को बस किसी तरह घसीट रहे हैं और सरकार, तुर्क समाज, मीडिया और अन्य उन्हें अवमानना, कानूनी आतंक और गाली-गलौज के बीच ऐसे माहौल में जीने के लिए विवश कर रहे हैं, जिसे देख कोई भी आदमी भयभीत महसूस करेगा।” 

सन् 1927 में उनकी पत्नी आर्फिक की मृत्यु हो गई। 1928 से 1935 तक छारेंत्स ने आर्मेनियाई राज्य प्रकाशन गृह का कार्यभार संभाला, सर्वप्रथम कला विभाग के कर्मचारी के रूप में, बाद में प्रकाशन गृह के निदेशक के रूप में और 1934 से आर्मेनियाई, रूसी और विदेशी क्लासिक्स के प्रकाशन के सम्पादक की भूमिका निभाई। छारेंत्स की प्रखर कलात्मक समझ और अथक उत्साह की बदौलत आर्मेनियाई प्रकाशन के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ। उनमें समकालीन मेधावी कलाकारों और लेखकों को ढूँढने और एकत्रित करने की प्रतिभा थी। 

सन् 1931 में छारेंत्स की शादी इज़ाबेला से हुई। 1932 में बड़ी बेटी आर्फेनिक का जन्म हुआ और 1935 में दूसरी बेटी आनाहित का। उल्लेखनीय है कि सन् 1930 के दशक में अनेक आर्मेनियाई साहित्यकार, छारेंत्स को आर्मेनिया छोड़ने की सलाह दे रहे थे, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि कहीं वे स्तालिनवादी दमन का शिकार न हो जाएँ। इस पर छारेंत्स ने आर्मेनिया के मशहूर साहित्यकार ख़ाछिक दाशतेंत्स (1910-1974) से कहा था कि वे आर्मेनिया छोड़ कर नहीं जाएँगे, क्योंकि वे किसी विदेशी भूमि में रहने की कल्पना भी नहीं कर सकते!

1930 के दशक में लेखकों, सांस्कृतिक और सामाजिक हस्तियों के उत्पीड़न का दौर शुरू हुआ जिससे छारेंत्स भी बच नहीं पाए। सितंबर 1936 में उन्हें घर में नज़रबन्द कर दिया गया और जल्द ही उन्हें जेल भी भेज दिया गया। उनपर आरोप था राष्ट्रवाद (क्षेत्रवाद) को बढ़ावा देना, क्रांति का विरोधी और सोवियत विरोधी होना। पुस्तकालयों और किताबघरों से छारेंत्स की किताबें जब्त कर ली गईं। 1937 के पतझड़ में उनकी पत्नी इज़ाबेला को भी गिरफ्तार कर लिया गया। 28 नवम्बर 1937 की सुबह अपनों से दूर, बेहोशी की अवस्था में कई दिनों तक जेल के अस्पताल में पड़े रहने के बाद, आर्मेनिया के इस महान कवि ने दम तोड़ दिया!

छारेंत्स की रचनाओं को तानाशाह तंत्र से छिपाने के लिए उनकी मित्र रेगिना ने उन्हें ज़मींन में गाड़ दिया। जब उनकी मृत्यु के बहुत बाद ज़मीन से निकाला गया तो अनेक रचनाएँ सीलन और दीमक के चलते नष्ट हो चुकीं थीं। 

इस महान कवि की मृत्यु कैसे हुई और उन्हें कहाँ दफनाया गया, अभी तक इतिहास इस पर मौन है….अपनी मृत्यु से कई महीने पहले 15 दिसम्बर को उन्होंने लिखा था : 

“मेरी मौत के दिन मौन गिरेगा 

शहर पर भारी-भारी ...

जैसे काले बादल या पुराना दुःख 

या जैसे आपदा की कोई खबर 

पत्रिकाओं में छपती है …”

आर्मेनिया की राजधानी येरेवान में छारेंत्स का घर अब एक प्रसिद्ध संग्रहालय बन चुका है और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। संग्रहालय में एक पेंटिंग है जो छारेंत्स के आग्रह पर आर्मेनियाई मूल के जॉर्जियाई चित्रकार आलेक्सान्द्र बाज्बेउक मेलिक्यान ने बनाई थी, इसमें छारेंत्स बुद्ध सी ध्यान मग्न मुद्रा में बैठे हैं, जिसके ऊपर उन्हीं की हस्तलिपि में लिखा हुआ है – 

“तुम्हारी आत्मा अभी तक अनुभव विहीन है, अभी तक तुम कमजोर हो, छारेंत्स! 

आत्मा को मजबूत करो। करामाती, तपस्वी, सूर्य बनो, 

जैसे महात्मा गांधी— एक प्रतिभा संपन्न हिंदुस्तानी। 25.1.1936”

प्रसिद्ध आर्मेनियाई नाट्य विशेषज्ञ रुबेन ज़ोर्यान (1909—1994) अपने संस्मरण में लिखते हैं, “तब छारेंत्स भारत के बारे में बहुत पढ़ते थे... बुद्ध, गाँधी से लेकर योग दर्शन तक पर बहुत बातें करते थे..वे अक्सर बुद्ध की मूर्ति को देर तक निहारते थे. आत्मा से गंगा के तटों तक उड़ान भरते थे और हवा से बातें करते भूल जाते थे कि कमरे में कोई और भी है. एक दिन जब उनके घर पर पहुँचा तो देखा कि दीवार पर उनकी पेटिंग टंगी हुई थी। चित्रकार आलेक्सान्द्र ने गांधी से प्रेरित इस महान कवि के चित्र का शीर्षक दिया था ‘महात्मा छारेंत्स’!

अपने जीवन के अंतिम दिनों में छारेंत्स अहिंसा के महत्त्व बखूबी समझ चुके थे!

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2 टिप्पणियाँ

  1. "और मेरी कविताएँ... मेरी रचनाएँ... उनमें तो माँ आर्मेनिया के लिए मेरी चीत्कार दर्ज है साफ साफ शब्दों में... उनमें तो मेरे प्यारे देशवासियों के लिए कई कई संदेश हैं— साफ़ भी और छिपा कर भी... मैंने बता दिया है उन्हें कि जीत तभी हासिल होगी जब वे एकजुट हो जाएँ... एक दूसरे पर अविश्वास करने, उन्हें दुश्मन बना लेने से काम न चलेगा..."

    कितनी मार्मिक और मानीखेज है यह चिट्ठी, जो छारेंत्स ने लिखी तो नहीं लेकिन लिखी होती...

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  2. आपने इस पत्र में परकाया प्रवेश को सार्थक कर दिखाया है किसी भी साहित्यकार की यह सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है आपने वह सचमुच कर दिखाया है। बहुत बहुत बधाई
    - Sudha Ranjani

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