Book Review: योगिता यादव का उपन्यास — 'ख्वाहिशों के खांडववन' | उर्मिला शुक्ल




योगिता यादव के सामयिक प्रकाशन से छपे उपन्यास 'ख्वाहिशों के खांडववन' की समीक्षा करते हुए उर्मिला शुक्ल लिखती हैं:
योगिता यादव की कहानियाँ स्त्री प्रधान होते हुए भी उस तरह की कहानियाँ नहीं हैं, जो स्त्री की वकालत करते–करते उसे देह में तब्दील कर देती है। योगिता यादव की स्त्रियाँ देह विमर्श करने वाली स्त्रियाँ नहीं हैं। वे आम स्त्रियाँ हैं, जो विमर्श से परे अपने जीवन की जद्दोजहद से उबरने में संलग्न हैं। 

आगे पढ़िए पूरी समीक्षा और फिर उपन्यास! ... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक



Book Review

खाण्डववन को इंद्रप्रस्थ में बदलने की जद्दोजहद 

— उर्मिला शुक्ल

दिल्ली जहाँ गगनचुंबी इमारते हैं। चमचमाती गाड़ियाँ हैं और हैं चौड़ी–चौड़ी सड़कें। इस दिल्ली को लेकर तो बहुत कुछ लिखा गया है। दिल्ली के उजड़ने और बसने की कथा, दिल्ली के बेदिल होने की कथा और दिल्ली आने वाले लोगों के स्वप्न ध्वंस की कथा। मगर इसी दिल्ली के भीतर एक और दिल्ली भी है यह दिल्ली है गाँवों की दिल्ली, जहाँ गगनचुंबी अट्टालिकाएं भले ही नहीं थीं, मगर गाँव खुशहाल थे। उन गाँवों में खेत–खलिहान थे, दुधारू पशु थे और थे छोटे–छोटे कुटीर उद्योग और था एक ग्रामीण परिवेश, जिसकी अपनी संस्कृति थी। दिल्ली की उस चमक–दमक के आगे ये गाँव खांडववन ही थे; मगर अपने इसी खांडववन को इन्द्रप्रस्थ में बदल डालने का स्वप्न देखती है सुनीता और उसके इस सपने में शामिल होता है विकास शौकीन। फिर विजेता, सरिता और राजू जैसे तमाम युवा स्वत: जुड़ते चले जाते हैं। कारण ये सभी एक ही नाव के सवार हैं। सुनीता की तरह ही इनकी भी ख्वाहिशें हैं, जिसे ये सब मिलकर पूरा करना चाहते हैं। यह कहानी है योगिता यादव के उपन्यास ‘ख्वाहिशों के खांडववन’ की।


योगिता यादव एक समर्थ कहानीकार हैं। उनकी कहानियाँ स्त्री प्रधान होते हुए भी उस तरह की कहानियाँ नहीं हैं, जो स्त्री की वकालत करते–करते उसे देह में तब्दील कर देती है। योगिता यादव की स्त्रियाँ देह विमर्श करने वाली स्त्रियाँ नहीं हैं। वे आम स्त्रियाँ हैं,  जो विमर्श से परे अपने जीवन की जद्दोजहद से उबरने में संलग्न हैं। 

इस उपन्यास की नायिका सुनीता, उसकी छोटी बहन सोनू और उसकी सहपाठी विजेता इन सबकी अपनी–अपनी ख्वाहिशें हैं और है उन्हें यथार्थ में ढालने की अथक कोशिश। सुनीता के सपनों का आकाश कुछ ज्यादा बड़ा है। सो उसका संघर्ष भी बहु-आयामी हो उठता है। गाँव के उस संकुचित दायरे से कुछ आगे निकल कर वह शहर की उच्च शिक्षा की ओर अपने कदम बढाने की इच्छा रखती है; मगर उसकी इस राह में पहला अवरोध है उसका अपना घर। जिसे वह किसी तरह पार करके अपने सपनों की राह में एक कदम आगे बढ़ जाती है। फिर उसके सामने एक नई दुनिया आती है, जो उसकी गाँव की दुनिया से एकदम ही अलग है और वह उस दुनिया के बरअक्‍स अपनी एक दुनिया रचने का फैसला करती है, जिसमें शामिल होता है विकास शौकीन। शौकीन कालेज राजनीति का एक अक्स है, जिसकी ख्वाहिश भविष्य में देश की राजनीति का चेहरा बनना है। 

सुनीता को कहाँ मालूम था कि सपने तो सपने ही होते हैं, उन्हें मनचाहे रंगों में तो नहीं ढाला जा सकता। सो जगदीश के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकारना उसके जीवन के सब्ज रंगों को धूसर बना देता है और उसके जीवन का चाक विपरीत दिशा में घूमने लगता है। फिर तो सब कुछ उलट–पलट। सुनीता की जगह जगदीश से श्वेता का बेमेल विवाह, श्वेता की दुःख भरी जिन्दगी और पिता का देहावसान सुनीता के सपनों को छिन्न-भिन्न करके उसे, उस अनचाही गृहस्थी में झोंक देता है, जिसमें उसकी माँ है, श्वेता की बेटी गुड़िया है और हैं वे सारे दायित्व जो पिता छोड़ गये हैं। इन स्थितियों में जीते हुए भी वह अपने और अपनी नस्ल के जीवन को कुछ बेहतर बनाने की कोशिश में पंचायत के फैसले का विरोध करती है। परिणाम दादा जी पुरुषों से अलग महिला पंचायत की नींव रखने का भार उसके काँधे पर डाल देते हैं, जिसे वह एक मुकाम तक ले जाती है। अब उसकी ख्वाहिश में गाँव की महिला सरपंची है; मगर यह भी सपना ही ठहरता है और उसके भीतर बहुत कुछ दरकता जाता है। फिर भी वह टूटती नहीं। 

जीवन की इसी जद्दोजहद के बीच शौकीन उसके जीवन में फिर दाखिल होता है, तो उसे कुछ आस-सी बंधती है, मगर वह जल्दी ही जान जाती है कि अब उसके जीवन में उसका वह स्वप्न साकार नहीं हो पायेगा, कारण जाति की वही दीवार है, जिसे ढहाने की कोशिश में विजेता को आधा अधूरा घर ही मिल पता है। सो सुनीता को शौकीन को एक मित्र की तरह स्वीकारना ही उचित लगता है। 

सुनीता महसूसती है कि जीवन की आँधी में सिर्फ उसके अपने सपने ही धराशायी नहीं हुए हैं, उसकी पुरानी मंडली के साथी राजू, विजेता और शौकीन इन सबके भी छिन्न भिन्न हो गये हैं। ये सभी जातिवादिता, राजनैतिक समीकरण और बेरोजगारी की चोट से चोटिल हैं। फिर भी खुश दिखने की कोशिश कर रहे हैं। 

दूसरी ओर दिल्ली, विकास के नाम पर इन गाँवों को निगल जाने की कोशिश में इन्हें अपने नक्शे से बाहर कर देती है। परिणाम आने वाले आम चुनाव में बड़ी पार्टियाँ इन्हें अपने एजेंडे से बाहर कर देती है। यहाँ राजनीति अपने समीकरण के तहत इसे शेड्यूलकास्ट के लिए रिजर्व कर देती है। अब अस्तित्व के इस संकट में गाँव की राजनीति को, सुनीता में अपना उद्धारक नजर आता है; मगर सुनीता दोबारा धोखा खाने को तैयार नहीं। दादी के प्रस्ताव को ठुकराकर वह अपने सामान्य से जीवन में रमी रहना चाहती है; मगर उसके साथियों को उसके राजनीति प्रवेश में उसका, अपना और गाँव का भविष्य नजर आता है और सुनीता उनके सहयोग से अपना कदम उस ओर बढ़ाती है, जिधर उनके ख्वाहिशों के खांडववन के इंद्रप्रस्थ में बदल जाने की सम्भवना है। इस तरह यह उपन्यास युवा वर्ग की अधूरी आकांक्षाओं और सपनों को पूरने की जद्दोजहद के साथ समाप्त हो जाता है। 

इस छोटे से उपन्यास के भीतर बड़े–बड़े मुद्दे सिमटे हुए हैं, यहाँ गाँव और शहरी समाज के बहाने वर्ग और जातिभेद को खंगालने की कोशिश है, राजनीति के बनते बिगड़ते समीकरण भी हैं और अंधे विकास के दुष्परिणाम भी। लेखिका इन सभी समस्याओं का हल युवा वर्ग में देखती है और इसका भार इन्हें सौंप देती है। 

अब सवाल यह कि इसे उपन्यास कहा जाए या उपन्यासिका यह एक शिल्पगत विषय है। इस शिल्पगत उलझाव में कृष्णा सोबती की ‘ऐ लड़की’ से लेकर किरण सिंह के ‘शिलवाहा’ तक बहुत कुछ उलझा हुआ है। दरअसल समीक्षा के औजार तो उपन्यास के लिए गढ़े गये थे, तब उपन्यासिका की अवधारणा ही नहीं थी। तो सवाल टूल्स पर ठहर जाता है। कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो खटकती हैं — जैसे इस छोटे-से उपन्यास की कथा का उनचालीस अंकों में विभाजन। कुछ अंक तो महज एक डेढ़ पृष्ठ के ही हैं। उस पर प्रकाशक ने हर अंक की शुरुवात और अंत में आधे से अधिक पृष्ठ खाली छोड़े हैं। मुझे लगता है यह कागज का अपव्यय और पाठकों की जेब पर डाका है।  

बावजूद इसके इसमें कोई दो राय नहीं, कि यह एक अच्छा और महत्पूर्ण उपन्यास है जो दिल्ली के भीतर की दिल्ली, यानी उसके गाँवो की समस्याओं की पड़ताल ही नहीं करता, उसे एक दिशा भी देता है। लेखिका योगिता यादव को बधाई। भविष्य में उनके और आगे जाने की उम्मीद बरकरार है। 

पुस्तक - ख्वाहिशों के खांडववन 
लेखिका – योगिता यादव 
मूल्य – 150 /- (पेपर बैक )
प्रकाशक – सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
उर्मिला शुक्ल
प्रकाशित पुस्तकें: कविता संग्रह- इक्कीसवीं सदी के द्वार पर. कहानी संग्रह -मैं फ़ूलमती और हिजडे़ उपन्यास -बिन ड्योढ़ी का घर. यात्रावृत्त - यात्रायें उस धरा की जो धरोहर हैं हमारी. आलोचना -स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी -बदलते मूल्य , हिंदी कहानी में छत्तीसगढी़ संस्कृति, छत्तीसगढी़ लोक गीतों में नारी.  सम्मान: राष्ट्रभाषा सम्मान 2007 राष्ट्रभाषा प्रचार समिति म. प्र. भोपाल. साहित्य वाचस्पति सम्मान 1999 साहित्यकार मंच बिलासपुर. राष्ट्रभाषा  गौरव सम्मान - राष्ट्रभाषा प्रचार समिति छत्तीसगढ़ 2011
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