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उनके दिमाग में रेल: रेलवे स्टेशन पर एक माँ की मौत, स्वर्ग में हुई एक बातचीत — प्रताप भानु मेहता




प्रताप भानु मेहता का अंग्रेज़ी लेखन मेरे लिए हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ी लेखकों में सबसे बेहतर है. पीबीएम के न सिर्फ़ विचार और टिप्पणियाँ गहरी होती हैं बल्कि लेखन भी, उससे कहीं अधिक. प्रतापजी का यह लेख इन्डियन एक्सप्रेस में छपा था, और इसकी हिंदी में ज़रुरत समझते हुए, मेरी यह, उसके अनुवाद की एक कोशिश... भरत एस तिवारी/ शब्दांकन संपादक

उनके दिमाग में रेल

रेलवे स्टेशन पर एक माँ की मौत, स्वर्ग में हुई एक बातचीत.

प्रताप भानु मेहता


दृश्य एक बार फिर से स्वर्ग का, जहाँ हमेशा की तरह अपना दिमाग भर बोर हो चुकीं, इतिहास की हमारी महान हस्तियाँ साथ टहलती दीखती हैं. क्यों न हों, आख़िर स्वर्ग में पूर्णकालिक तालाबंदी जो है, बगैर बाल कटवाने की कोई फ़िक्र. मोहनदास गांधी, जवाहरलाल नेहरू, हंसा मेहता, रवींद्रनाथ टैगोर, भीमराव अंबेडकर, मुहम्मद अली जिन्ना, श्री अरबिंदो, सरोजिनी नायडू, जयप्रकाश नारायण, दीनदयाल उपाध्याय सब आसपास घूम रहे हैं. नारद उन्हें उकसाने के लिए प्रकट होते हैं.

नारद: ओ जवाहर! तुम अभी तक स्वर्ग में कैसे हो? मुझे लगा वो तुम्हें नरक में भेज रहे हैं. तुम ने नहीं वो सब भारत का नाश-वाश किया है?

जवाहर: वे नरक के लिए रेल के थर्ड क्लास का टिकट निकलवाने की कोशिश कर रहे थे. तभी तालाबंदी हो गई. अब मैं फँसा हूँ.

मोहनदास (धिक्कारते हुए): प्रिय जवाहर, जबतक फँसे हुए हो, ध्यानपूर्वक हिन्द स्वराज पढ़ लो. याद है, उसमें मैंने ट्रेनों पर लिखा था कि “रेलवे अपने साथ प्लेग के कीटाणु भी ढोता है।“

जवाहर (दर्द भरे भाव से): लेकिन बापू, आपने रेल से भारत की खोज की थी.

कस्तूरबा: और बापू, आपके आत्मज्ञान का क्षण थी एक ट्रेन. उससे अगर आपको फेंका नहीं गया होता, तो आप कभी नहीं जागते.

भीमराव: गाँधीजी, क्या आपने यह भी नहीं लिखा था, “हमारे मुख्य लोग पैदल या बैलगाड़ी में हिंदुस्तान का सफर करते थे, वे एक-दूसरे की भाषा सीखते थे और उनके बीच कोई अंतर नहीं था.” क्या आपने ही यह नहीं कहा था कि रेलवे के आने के बाद “हम अपने को अलग-अलग मानने लगे?” 

जिन्ना बीच में बोले: मैंने तुमसे कहा था, तुम्हारा ये नया बंदा, नरेंद्र रणछोड़दास मोदी बिलकुल मोहन की तरह है. लाखों हिन्दुस्तानियों को उसने देश भर में यहाँ से वहाँ पैदल यात्रा करा दी. ये तपस्या उनसब को मुख्य लोग बना देगी, और हिंदुस्तान में कोई अलग-अलग नहीं रहेगा. बिलकुल जैसा मोहन ने कहा. उसने सब को शंकराचार्य बना दिया (हँसते हुए).

सरोजिनी: अरे जिन्ना, तुम फिर इन्डियन फ़िल्में देखते हुए पकड़े गए. तुम्हारे कहने का अर्थ नरेंद्र दामोदरदास मोदी है. भारत के प्रधानमंत्री का तुम्हें सम्मान करना चाहिए. रणछोड़दास तो थ्री इडियट्स का किरदार है, जिसका डिग्री से पंगा था.

जिन्ना: माफ़ करना सरोजनी बहन, ये हिंदी के एक जैसे सुन पड़ते नाम. कई दफ़ा भर्मित करना आसान होता है.

भीमसेन जोशी: एक दास एक दास है (आसावरी तोड़ी में आलाप लेते हुए) “मैं तो तुम्हरो दास , जनम जनम से”.

के एम मुंशी: ओ जिन्ना, नरेंद्र भाई बुलेट ट्रेन बना रहे हैं.

हंसा मेहता (साँसों में फुसफुसायीं): क्या पता वो बुलेट शब्द के फेरे में आ गया हो.

मोहनदास (विचलित): मेरे गुजराती भाई मुझे हमेशा ग़लत समझे हैं! तपस्या मैंने सदैव स्वयं की है, बेरहमी से कभी दूसरों पर नहीं थोपी.

भीमराव बीच में बोले: आइये वल्लभभाई. हम आपके प्रिय विषय पर बात कर रहे हैं, रेलवे. भारत को एकसाथ रखने वाला लोहे का असली फ्रेम. मोहन का भ्रम दूर कीजिये. 

वल्लभभाई: मेरी रेल की यादें बहुत मधुर हैं. सच तो यह है, उड़ीसा रियासत से प्रत्यर्पण संधि के मिलने का इंतज़ार मैंने एक रेल में बैठकर किया था. रेल, अच्छी चीज़ है.

वीपी मेनन बीच में बोले: सर, रियासत वाले राज्यों ने भले ही अपनी प्रत्यर्पण संधि रेल में दी होगी. कुछ राज्य रेल स्वीकार ही नहीं कर रहे. केंद्र राज्यों को दोष दे रहा है, राज्य केंद्र को दोष दे रहे हैं.

वल्लभभाई: क्या? केंद्र समन्वय नहीं बैठा पा रहा है? हमने भारत को एक मजबूत केंद्र दिया था.

जयप्रकाश: जब तालाबंदी लागू करनी हो तो केंद्र मजबूत है, और जब खोलनी हो तो कमज़ोर. जैसे की एमरजेंसी में था. 

नारद (रवीन्द्रनाथ की तरफ देखते हैं): आप क्यों चुप हैं? बाबू किछु बोलो? आपने रेलवे स्टेशन पर कवितायेँ लिखी हैं.

दीनदयाल (ख़ुशी से दोहराते हुए): मेरे नाम पर तो एक रेलवे स्टेशन है. 

रवीन्द्रनाथ (बेमन से) कविता सुनाते हैं: 
कुछ सवार हो गए
कुछ छूट गए; 
सफल होना सवार होना गिरना या रह जाना
कुछ नहीं बस दृश्य बाद दृश्य 
कुछ जो एक पल आँखों को बांधे मिट जाए अगले ही पल
ख़ुद को भूलने का एक अजबगजब खेल (रेलवे स्टेशन, विलियम रेडिस के अंग्रेज़ी अनुवाद से हिंदी में अनुदित: भरत एस तिवारी)

श्री अरबिंदो: ‘माया’ सरीखा सुनायी पड़ता है. या फिर शायद सोशल मीडिया से कहीं अधिक जुड़ी बात है – “कुछ जो एक पल आँखों को बांधे मिट जाए अगले ही पल”.

भीमराव (तड़ाक से बोले): माया और तपस्या के बीच फँसे भारत का काम हो गया. लोग रेल की पटरियों पर मर रहे हैं.

जवाहर (रविन्द्रनाथ से बोले): अरे छोड़िये ये ख़ुद को भूलने का अजबगजब खेल. आपने देखा नहीं मुज़फ्फरपुर स्टेशन पर क्या हुआ? एक नन्हा-सा बच्चा अपनी मृत माँ के ऊपर पड़ा कपड़ा खींच कर उससे उठने की मिन्नत कर रहा था। वास्तविकता क्या तुम्हें कभी नहीं घूरती? इस दृश्य को हटा कर मैं कभी किसी रेलवे स्टेशन के बारे में नहीं सोच सकता. शायद बापू सही हैं. रेलवे स्टेशन हमारी नैतिकता के पलायन की जगह है. यहाँ अच्छाई से कही तेज़ी से बुराई फैलती है.

मोहनदास: वे मेरे ताबीज को भूल गए हैं। मैं दोहराऊंगा नहीं। मैं भी इसे भूल गया हूं। गरीबों के बारे में था कुछ।

कोई (बहुत धीमे) फुसफुसाता है: लेकिन, क्या स्टेशन पर वाई-फाई था?

वल्लभभाई: जवाहर, तुम हमेशा भावुक हो जाते ही. तुम्हें याद नहीं हैं मौत की रेलें जिनका सामना हमें बँटवारे के समय करना पड़ा था? लाशों से भरी एक ट्रेन अप, एक ट्रेन डाउन. गोधरा और उसके बाद. हमारी रेलें वैसी ही हैं, जैसी हम उन्हें बनाते हैं. रोना बंद करो.

(सब नीचे देखने लगते हैं; कुछ लोग चुपके से जिन्ना को देखने की कोशिश करते हैं)

दीनदयाल: रेल पटरियों की बात हो रही है, आप सब लोग जानते ही हैं मेरी लाश ऐसी ही किसी पटरी पर मिली थी.

नारद: बेशक. तुम बड़े दिमाग वाले लोग चूंकि उपन्यास कभी नहीं पढ़ते हो, तुम असलियत पर ध्यान नहीं देते, मैं बता रहा हूँ तुम्हें, हिन्दुस्तानियों ने हमेशा रेल की पटरी पर मरने की शिकायत की है. एक रोहिंटन मिस्त्री हैं जिसने एक बेहतर संतुलन (अ फाइन बैलेंस) में एमरजेंसी के बारे में लिखा है, कई तरह से हमारे समय से मिलता जुलता. उसका एक पात्र, रेलयात्री लेट होती ट्रेन पर चिढ़कर कहता है, “मरने के लिए सबको रेल की पटरी ही क्यों मिलती है?” तो दूसरा बड़बड़ाया, “हमारी फ़िक्र किसे है. हत्या, आत्महत्या, नक्सली-आतंकवादी हत्या, पुलिस-हिरासत में मौत सब ट्रेन को लेट करती हैं. आख़िर ज़हर या ऊंची बिल्डिंग या चक्कू से क्या परेशानी है?”

भीमराव: और अब, भूख से भी पटरी पर मौत...,मरते कैसे हैं कि शिकायत हम अधिक करते हैं, न कि मरते क्यों हैं की.

हवा में सन्नाटा फ़ैल जाता है

सुभाष बोस बीच में बोलते हैं: ठीक समय पर नहीं चलने वाली ट्रेन की बात हो रही है, कभी मेरे ऐसे दोस्त थे जिन्होंने रेल को सही समय पर चला दिया था. मुसोलिनी समय पर ट्रेनें चलाता था. मैं इसकी वकालत नहीं कर रहा हूँ, लेकिन इस विषय में सोचो. अनुशासन की कड़ी खुराक मिले तो हो सकता है कि रेल गाड़ियाँ समय पर चलने लगें.

भीमराव: तानाशाह हिन्दुस्तान में रेल सही समय पर नहीं चला सकते. और अभी तो हमने देख लिया कि यह भी नहीं तय कर सकते कि रेल वहाँ पहुँच जाए जहाँ उसे जाना था. जीवित यात्रियों समेत.

जवाहर: लगता है कि मुझे नरक हवाई जहाज से जाना पड़ेगा. रेल छोड़ो. वहाँ बहुत मौत और अफरातफरी है.

हंसा मेहता: तुम तो भाग सकते हो, लेकिन गणतन्त्र का क्या होगा, जवाहर? रेल की गति से जायेगा या फिर उड़ेगा? क्या अपनी मंज़िल तक पैदल जायेगा? क्या बीच रास्ते में थककर ढह जायेगा? और हम, स्टेशन के उस बच्चे की तरह, उस माँ से उठने की मिन्नत कर रहे होंगे जिसकी अंतड़ियों से ज़िन्दगी बहुत पहले निकाली जा चुकी है.  

(अनुवाद भरत एस तिवारी)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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