गला घोंट डंडामार डॉक्टर की दुनिया — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 27: | Vinod Bhardwaj Childhood Memories



गला घोंट डंडामार डॉक्टर की दुनिया

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

ऐसा कहा जाता है अज्ञेय अपनी पंजाबियत को छिपाते थे, दूसरी तरफ़ कृष्णा सोबती हिंदी की लेखिका होते हुए भी अपनी पंजाबियत को अपने लेखन में तमग़े की तरह दिखाती थीं। दिल्ली में कृष्णा जी से मेरा अच्छा परिचय हो गया था। जब वह ज़िंदगीनामा नाम को ले कर अमृता प्रीतम को कोर्ट में ले गयी थीं, तो उन्हें रिवेरा अपार्टमेंट्स का अपना फ़्लैट बेचना पड़ा था। तब मैं गगन गिल के साथ एक शाम उनके घर गया, वे अपना बहुत सा सामान दोस्तों को गिफ़्ट कर रही थीं। मुझे उन्होंने एक कटग्लास का पुराना और बहुत ख़ूबसूरत फूलदान दिया और मछली के आकार की सीरेमिक्स की ऐश ट्रे दी। ऐश ट्रे तो एक दिन टूट गयी, बड़ा अफ़सोस हुआ। फूलदान अब उनकी याद दिलाता रहता है। 

कभी नरेश सक्सेना ने कहा था, कि किसी अच्छी कविता को पढ़ कर कवि को आम का टोकरा भेजने का मन करता है। कृष्णा जी पर एक बार मैंने जनसत्ता में एक लंबा फ़ीचर लिखा, वह बहुत ख़ुश हुईं, उनका फ़ोन आया, तुम्हारे लिए मैंने कॉर्डरॉय की एक क़मीज़ ख़रीदी है ख़ाकी रंग की, घर आ कर ले जाना। 

तो ऐसी अनोखी थीं कृष्णा जी, उनसे मैंने सीखा कि अपनी पंजाबियत को छिपाया क्यूँ जाए। हिंदी के लेखक हैं तो क्या। 

लखनऊ में मेरा जन्म हुआ और लंबे समय तक मैं लेखक मित्रों से यह छिपाता रहा की मैं पंजाबी हूँ। तब मुझे लगता था कि मेरी सांस्कृतिक पहचान थोड़ा कमज़ोर हो जाएगी। हर साल गरमी की छुट्टियों में मैं दो महीने पंजाब के गाँव बहलपुर में जा कर रहता था। वहाँ एक बार एक बिलकुल नयी चमकती शर्ट पहन कर निकला एक रौबदार अन्दाज़ में। शर्ट लंबी थी, नीचे कुछ पहनने की ज़रूरत नहीं समझी। प्रीतो झीरी का लड़का भूंडी मेरे पास आ कर बोला, शर्ट तो बड़ी शानदार है। मेरे साथ मेरा छोटा भाई भी था। मैं प्रसन्न था कि नई शर्ट अपनी शान भी दिखा रही है। लेकिन वह लड़का ज़्यादा स्मार्ट था। अचानक उसने शर्ट ऊपर कर के मुझे नंगा किया और तेज़ी से भाग। बाद में नाना जी को पता चला तो वे तथाकथित निचली जाति की प्रीतो से लड़ने गए। 

एक जाट लड़के की आत्महत्या आज भी याद आती है, वह शादी के बाद लौट रहा था। कहते हैं कि तेज़ हवा ने बीवी का घूँघट उड़ा दिया, वह बहुत काली थी। लड़के ने अफ़ीम की गोलियाँ खा कर आत्महत्या कर ली। गाँव में अफ़वाह यही थी। 

मैं जब चौदह साल का हुआ, तो एक दोपहर तरबूज़ के खिले हुए खेत में मैंने अपने जवान हो जाने की एक शानदार घोषणा की। तड़के सुबह मैंने छिप कर एक पारिवारिक स्त्री दल को खेतों के पास एक रहट में नहाते देख लिया था। 

पहले मेरे पिता लाहौर में एक पोस्ट ऑफ़िस में कैशियर थे। उन दिनों मोहम्मद रफ़ी को अपना चेक जमा कराने के बाद गाना सुनाना पढ़ता था। 

फिर मेरे पिता इम्पीरीयल बैंक में आ गए, जो आज स्टेट बैंक है। मेरे बड़े भाई की पैदाइश लाहौर की थी, मैं आज़ादी के बाद लखनऊ में पैदा हुआ। पिता विभाजन की भयावह हिंसा से पहले ही ट्रान्स्फ़र कराने में सफल हो गए थे। 

एक मेरी कहानी है चाक़ू जिसमें लाहौर से एक ट्रंक आने के बाद एक चाक़ू सामान में निकलने का ज़िक्र है। वह ट्रंक सचमुच हमारे घर आया था। 

लखनऊ में हम रेफ़्यूजीज़ कॉलोनी सिंगार नगर में बाद में शिफ़्ट हुए। शुरू में हम आइ टी कॉलेज के पास ठाकुरों के बड़े कॉम्पाउंड में रहते थे। वहाँ पिता पैदल ही शरतचंद्र का कोई उपन्यास पढ़ते हुए हज़रत गंज के पास अपने बैंक चले जाते थे। यह बात मुझे कुछ साल पहले ही उस इलाक़े में जा कर पता चली। 



वहाँ ठाकुर दीप नारायण सिंह गला घोंट डंडा मार डॉक्टर के नाम से भी मशहूर थे। मैं बचपन में उनके विशाल पलंग के नीचे छिप कर खेलता था। वह योग, मनोचिकित्सा के जानकार रहे होंगे। सख़्ती से कुछ रोगियों का इलाज करते रहे होंगे। हाल में मैं वहाँ गया, तो उनकी मूर्ति भी देखी। 

एक रात का दृश्य मुझे आज भी याद है। लाल कपड़ों में लाठी लिए पाँच चोर हमारे घर के बरामदे में ताला तोड़ने की कोशिश कर रहे थे। गरमियों के दिन थे। हम सब बाहर चारपायी में सो रहे थे। बरामदे में खट खट से मेरी माँ की नींद खुल गयी। वह बहादुर पंजाबन थीं। चारपायी पर खड़े हो कर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगीं, भारद्वाज साहेब के घर पाँच चोर घुस आए हैं। 

सब के पास बंदूक़ें थीं, वे सब बल्ब जला कर अपने अपने बरामदों में खड़े थे। आगे कोई नहीं आया। चोर घबरा कर भागे। मेरे पिता नींद में उठ कर उन चोरों के पीछे भागे। पास में रेल्वे लाइन थी, जहाँ एक चोर उनके हाथ में आ गया। बाक़ी चोरों ने उसे बचाने के लिए मेरे पिता की टाँग की हड्डी तोड़ दी। एक युवा लड़का साहस कर के उन्हें किसी तरह से वापस घर लाया। 

मेरी माँ ने तय कर लिया अब यहाँ नहीं रहना है। रेफ़्यूजी कॉलोनी के लिए ट्रक में हमारा सामान लद गया। एक छोटा सा पिल्ला हमें मिल गया जिसे ट्रक में लाद लिया गया। उसे हमने टॉमी नाम दिया। 

वह चौदह साल का हो कर जब मरने के नज़दीक था, तो मेरी श्रद्धालु माँ ने उसके पास बैठ कर गीता पाठ किया। 
लखनऊ के लेखक मित्रों से मैं अपना असली गाँव हमेशा छिपाता रहा। 

दादा जालंधर के पास घोड़ेवाहा गाँव के निवासी थे। वह मस्त आवारा आदमी थे, लखनऊ में पिता को जब बैंक में नोट गिनते देख लिया, तो वह यही समझते रहे कि बेटे के पास बहुत पैसा है। 

गला घोंट काम्पाउंड में एक रेटायअर हो चुके अफ़सर रहते थे, वह हमारे घर की बग़ल के गराज़ में रोज़ सुबह पूजा पाठ करते थे। मैं चुपचाप बाहर खड़ा उनकी पूजा के ख़त्म होने का बेसब्री से इंतज़ार करता रहता था, कुछ फल वगेरह खाने को मुझे भी मिल जाते थे। वह बाहर आ कर मुझसे कहते थे, संतरी तुम खड़े हो। 

एक बार हमें वह अपने गाँव ले गए। वह ज़मींदार थे। पीताम्बरपुर स्टेशन पर हाथी हमारा इंतज़ार कर रहे थे। गाँव का नाम शायद बधौली था। हाथी की शानदार सवारी थी। 

बचपन के कुछ खानों के स्वाद कभी नहीं भूलते हैं। वहाँ कच्चे आम के साथ हंडिया में पकाई गयी अरहर की दाल का स्वाद कभी नहीं भूलता है। यू पी का यह पहला गाँव मैंने देखा था। दूसरा गाँव बरसों बाद महाकवि निराला का देखा, गढ़ाकोला। 

पर पंजाब के गाँव मैंने सचमुच जिए थे। 

बरसों बाद कृष्णा सोबती या गगन गिल या अजित कौर से मैंने जाना कि पंजाबियत की भी अपनी ख़ास संस्कृति है। उसे छिपाओ नहीं। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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