प्राग की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 35 | Vinod Bhardwaj on Prague

विनोद जी अपने संस्मरणों में, इसके पिछले लेखन (जापान वाले 'साकुरा की यादें') से, खूबसूरत कवि-से हो गए हैं! उनके इस सौन्दर्य भरे परिवर्तन से उनको पढ़ना अलग किस्म का रोचक हो गया है. आनंद उठाइए... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक


लेखक के लिए उपेक्षा खराब है तो उसको ज्यादा व्यवसायिक बना दिया जाये, तो वो उससे भी बुरा है।

प्राग की यादें 

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

1980 की मार्च के मध्य में मैनें पहली बार जब प्राग को देखा था, तो वहाँ काफ्का का नाम लेना भी मुश्किल था। जिस यहूदी कब्रिस्तान में काफ्का दफन किए गए थे, वह मेरे होटल से दूर नहीं था। पर मेरे सरकारी गाइड ने बताया कि आप काफ्का से दूर ही रहें।

तब प्राग की इमारतें केमिकल धुलाई से चमकती नहीं नज़र आती थीं, उनका कालापन लेकिन आकर्षित करता था। वह निर्मल वर्मा का प्राग था। और निर्मल वर्मा ने ही मेरा नाम भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् को इस यात्रा के लिए अनुमोदित किया था।

प्राग 1987 (फ़ोटो https://vintagenewsdaily.com)
वे बर्फ गिरने के दिन नहीं थे। पर उस साल वाइट ईस्टर था। खूब बर्फ गिरी और मुझे शहर काफ्का का ही लगने लगा। मैं जैसे किसी परीकथा में घूम रहा था। रात को ट्राम लंबी सड़क पर चलती थी, तो बहुत अच्छा लगता था। ट्राम में सीट पर बैठना किसी काम का नहीं था क्यूंकि बूढ़े आते-जाते रहते थे। वे बूढ़े थके हुए से नज़र आते थे।



मुझे जिस होटल में ठहराया गया था वह सारका लित्विनोवा के घर के सामने ही था। वह जे एन यू में हिंदी की छात्रा रह चुकी थीं, हिंदी की दुनिया को जानती थीं। तब वह चार्ल्स विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती थीं, मुझे वह अपनी क्लास में भी ले गयीं। सरकारी होते हुए भी संस्कृति मंत्रालय का अतिथि होने के कारण मुझे साम्यवादी प्राग की अच्छी झलक मिली। लोग रोकटोक के व्याकरण से दुखी जरूर थे। मैनें बीथोवेन की पाँचवीं सिंफनी को सुनने की इच्छा प्रकट की, तो पता चला एक साल पहले ही सीटें बुक हो जाती हैं। पर मंत्रालय ने मेरे लिए एक अलग से कुर्सी बाल्कनी में रखवा दी।

एक लंबे अन्तराल के बाद 32 साल बाद मैनें प्राग को देखा, तो सब कुछ बदल चुका था। इमारतें ज्यादा चमकदार थीं, काफ्का एक बहुत बड़ी दुकान बन चुका था, सेक्स शॉप भी नज़र आ रही थीं।

सारका अब एक बड़ी टूरिस्ट एजेन्सी की मालकिन थीं, पर उनका हिंदी प्रेम कम नहीं हुआ था। उनके शहर से थोड़ा बाहर एक बड़े घर में हिंदी की किताबें अपनी एक जगह बनाये हुए थीं।

सारका की उदारता के कारण मैं प्राग कई बार जा सका। वे अपने एक दूसरे फ्लैट में मुझे अच्छी-खासी जगह दे देती थीं। चित्रकार नरेंद्र पाल सिंह का प्राग की नेशनल गैलरी में उन्होने शो भी करवाया। ये एक बड़ा मौका था, मैनें एक भाषण भी दिया। नरेंद्र ने तो अपना काम स्क्रीन पर दिखाने के बाद मेज को तबला बना कर एक बिहारी गीत भी गाया।

सारका आज भी सहज और सरल हैं।

मैनें उन्हें बताया कि एक बार मैं रोम में लंबे समय रहा, तो बोर हो गया। मुझे बैंगन के भरते की याद सताने लगी। तो मैनें भारत वापसी का टिकट बदलवा लिया। शाम को सारका फ्लैट में आयीं, तो खुद बैंगन का भरता बना कर खास तौर पर मेरे लिए ले कर आयीं।

बदले हुए प्राग में काफ्का की टी शर्ट जगह जगह लटकी हुई थीं। उनसे जुड़ी सभी जगहें व्यवसायिक हो गयी थीं। काफ्का म्यूज़ियम के सामने दो पेशाब करते नंगे मर्दोँ का दिलचस्प इंस्टालेशन था। शहर में काफ्का की मूर्तियों की मांग बढ़ गयी थी। उनकी कब्र पर जा कर उन्हें याद करने का मौका मुझे कई बार मिला।



80 में काफ्का का नाम गायब था, अब वह प्राग का बहुत बड़ा आकर्षण था। शायद काफ्का गलती से कहीं भटकता हुआ आज के प्राग में आ जाये, तो उसे बड़ी कोफ्त होगी अपना ये बुरा हाल देख कर।

लेखक के लिए उपेक्षा खराब है तो उसको ज्यादा व्यवसायिक बना दिया जाये, तो वो उससे भी बुरा है।

काफ्का ने प्राग के बारे में कहा था, उसकी पकड़ से बाहर आना बड़ा मुश्किल है, वह एक छुटकी माँ की तरह है जिसके नुकीले पंजे हैं। 

दूसरी बार जब मैं प्राग गया, तो पता चला आज वहाँ के मशहूर बियर फेस्टिवल का आज आखिरी दिन है। मैं टैक्सी से सामान उतार कर एक नक्शा हाथ में ले कर भागा। सचमुच उस फेस्टिवल का माहौल गजब का था। वेटर लड़कियाँ अपने हाथों में आठ आठ बियर के बड़े मग ले कर मुसकराते हुए इधर-उधर आ जा रही थीं। प्राग की बियर बहुत मशहूर है और सस्ती भी। संगीत के शोर और बियर के साथ खूब खाने-पीने के जोर में फेलिनी की फिल्मों की याद दिलाने वाली भव्य सेक्सी स्त्रियाँ आप के पास से चिढाने के अंदाज़ में निकल जाती थीं।



पेरिस भी है प्राग में पर प्राग को प्राग ही मानिए। चार्ल्स ब्रिज से शहर को जिया जा सकता है। संतों की बरोक मूर्तियां एक शानदार माहौल बनाती हैं। हमारे बिहारी बाबू नरेंद्र अपने गमछे की शान में उस पुल पर चमक रहे थे।

प्राग में किला है और किले में प्राग है। किले के पास ही दो सूरज नाम का एक छोटा सा बार है। वहाँ चेक लेखक यान नेरुदा का घर हुआ करता था। महान और मेरे सबसे प्रिय कवि पाब्लो नेरुदा ने अपना नाम उसी से लिया था।

उस बार में हन्ना नाम की वेटर हमारी दोस्त बन गयी। नरेंद्र ने उसे अपना चित्र बहुत सस्ते में बेच दिया। उसने कहा, अब बियर मेरी तरफ से।

हन्ना के साथ नरेंद्र पाल सिंह और विनोद भारद्वाज 

मुझसे वह कहती थी, आप हमेशा गम्भीर क्यूँ बने रहते हो। फिर वो मुझसे बार के काउंटर पर ही पंजा लड़ाने लगी। वह मस्त थी।

मुझे प्राग की नाचती इमारत बहुत पसंद है। ऊपर एक शानदार बार है और किला भी दूर से दिखता है।

किला तो हर जगह से दिखता है और किला आपको भी हर वक्त देखता रहता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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