कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सबसे अहम बात यह कही गई है कि समृद्ध ही विजयी होता है
सचाई यह है कि जिन असल ड्रैगनों से हमें लड़ना है, वे न केवल हमारी सीमाओं से परे हैं, बल्कि वे सीमा के भीतर भी हैं.
अश्विन सांघी
गलवान में भारत और चीन के बीच हाल में झड़पें हुई हैं। इस घटना ने फिर याद दिलाया है कि हाथी और ड्रैगन का रिश्ता कितना जटिल है। यह संबंध इतना जटिल क्यों है? इस मसले पर कई विशेषज्ञों ने गौर किया है। कुछ का कहना है कि चीन अपनी घरेलू दिक्कतों से ध्यान हटा रहा है, तो कुछ दूसरे कह रहे हैं कि वह एशिया में साफ तौर पर अपना दबदबा कायम करना चाहता है। इसीलिए भारत, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान, हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया की ओर से कई तरीकों से ऐतराज जताया जा रहा है। वहीं एक अन्य खेमे का मानना है कि अभी जिस स्थिति में भारत है, उसके लिए वह बराबर का जिम्मेदार है। इस खेमे का कहना है कि चीन के बारे में कई दशकों से भारत की एक स्थिर नीति नहीं रही है।अगर चीन सुन जू से प्रेरित हो सकता है, तो भारत के पास भी कौटिल्य हैं।
समस्या यह है कि भारत इस रिश्ते के इतिहास को 1950 और उसके बाद के चश्मे से ही देखता है। 1950 में ही पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत पर कब्जा किया था और बाद में अक्साई चिन पर भी। वही साल था, जब दोनों देशों के संबंध बिगड़ने शुरू हुए। फिर 1962 में दोनों ने एक जंग लड़ी। हालांकि उस युद्ध के लिए भारत तैयार नहीं था। जंग करीब एक महीने ही चली, लेकिन 1383 भारतीय और 722 चीनी सैनिकों की जान चली गई। हजारों अन्य घायल हुए। करीब 3900 भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया था चीन ने। 1962 की जंग के बाद भी सीमा पर कई बार संघर्ष हुए। 1967 में नाथू ला में ऐसा ही एक संघर्ष हुआ, जिसमें भारत निर्णायक तरीके से विजयी रहा। 1987 में समदोरोंग चू में झड़प हुई तो 2017 में डोकलाम के लिए दो-दो हाथ किए गए। हाल में इस साल लड़ाई हुई है गलवान में। इसे देखते हुए स्वाभाविक ही है कि चीन का जिक्र भर होने से भारत चिढ़ जाए।
सुन जू कहता है, हर युद्ध कला का आधार होता है छल।
चीन की विदेश नीति और सैन्य कदम केवल इस मिडल किंगडम वाले नजरिए पर आधारित नहीं हैं। उन पर सुन जू की युद्ध कला का भी असर है। सुन जू कहता है, हर युद्ध कला का आधार होता है छल। यानी जब हम ताकतवर हों तो कमजोर की तरह दिखें। सक्रिय हों तो निष्क्रिय लगें। पास हों तो ऐसा लगना चाहिए कि हम दूर हैं। जब हम दूर हों तो दुश्मन को लगना चाहिए कि हम नजदीक हैं। चीन न तो अपना इतिहास भूला है और न ही प्राचीन ज्ञान। अफसोस कि भारत भुला बैठा है।
भारत के पास भी कौटिल्य हैं
अगर चीन सुन जू से प्रेरित हो सकता है, तो भारत के पास भी कौटिल्य हैं। उनका सामरिक और आर्थिक नजरिया कहीं से कमजोर नहीं है। कौटिल्य कहते हैं, सेना का सहारा लिए बिना मकसद पूरा हो सकता हो तो सशस्त्र संघर्ष नहीं करना चाहिए। भले ही मकसद हासिल करने के लिए साजिश, कपट और धोखे का सहारा लेना पड़े। दुश्मनी पर उतारू दुश्मन की तरक्की को नुकसान पहुंचाने वाले कदम को भी प्रगति माना जाएगा। लेकिन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सबसे अहम बात यह कही गई है कि समृद्ध ही विजयी होता है। हमने इस बुनियादी सच पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
यह बात पूरी तरह नजरंदाज कर दी कि आर्थिक असंतुलन हमारे लिए भारी पड़ेगा।
भारत का चश्मा बदलने की जरूरत है। चीन से भारत का संबंध सदियों पुराना है। कलारिपयट्टू और सिलंबम जैसी दक्षिण भारतीय युद्ध कलाएं पल्लव राजकुमार बोधिधर्म के जरिए शाओलिन पहुंची थीं। इस तरह वह नई टेक्नीक सामने आई, जिसे आज हम कुंग फू के नाम से जानते हैं। इसी तरह बौद्ध धर्म भारत से लुओयांग के व्हाइट हॉर्स टेंपल पहुंचा और फिर वहां से न केवल चीन में, बल्कि बाकी दुनिया में भी इसका प्रसार हुआ। चाणक्य के अर्थशास्त्र में जिक्र चीन के रेशम का भी आया है। भारत में उसका आयात होता था। उसकी कीमत काफी ज्यादा होती थी। भारत आया ह्वेनसांग विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय पहुंचकर रोमांचित हो उठा था, तो यहां के गुड़ के स्वाद का भी वह दीवाना हो गया था। ऐसा गुड़ उसने कभी नहीं खाया था। ब्रिटेन के लोगों के जरिए चीन से चाय हम तक पहुंची। सवाल यह है कि इस इतिहास के लंबे हिस्से में चीन ने हमसे युद्ध क्यों नहीं किए? एक तो हिमालय से हमें कुदरती तौर पर सुरक्षा मिली, वहीं इसमें एक अहम भूमिका हमारी आर्थिक शक्ति की भी रही।
1978 में दोनों देशों का जीडीपी लगभग बराबर था
2010 के डॉलर मूल्य के आधार पर 1960 में चीन का जीडीपी 128.3 अरब डॉलर था। उस साल भारत का जीडीपी था 148.8 अरब डॉलर।
लेकिन 1978 में भारत से आगे निकल गया चीन। उसका जीडीपी 293.6 अरब डॉलर हो गया, वहीं भारत का आंकड़ा था 293.2 अरब डॉलर। एक तरह से देखें तो 1978 में दोनों देशों का जीडीपी लगभग बराबर था। लेकिन उसके बाद चीन और भारत का अंतर बढ़ता गया।
2019 में चीन का जीडीपी भारत का 4.78 गुना हो गया। भारत में एक के बाद एक सभी सरकारें यह मानती रहीं कि वे सैन्य या कूटनीतिक तरीकों से चीनी आक्रामकता का मुकाबला कर सकती हैं। उन्होंने यह बात पूरी तरह नजरंदाज कर दी कि आर्थिक असंतुलन हमारे लिए भारी पड़ेगा।
मेरा हमेशा मानना रहा है कि भारत चिंतकों का देश है, लेकिन विचारों और योजनाओं पर अमल करने में हम बुरी तरह फिसल जाते हैं। यही बात हमें जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और मलेशिया जैसे अपने एशियाई पड़ोसियों से बुनियादी तौर पर अलग करती है। इन देशों ने नाइकी की 'जस्ट डू इट' की फिलॉसफी पर अमल किया और खुद को गरीबी से बाहर निकाल लिया। मैं सोच रहा था कि यह कोविड 19 महामारी इस बात का सटीक मौका है हाथी के लिए कि वह ड्रैगन से दो-दो हाथ कर ले। संकट आने पर भारत साहसिक निर्णय करता रहा है। यह महामारी ऐसा ही संकट है, जिसमें साहसिक और बदलाव लाने वाली सोच सामने आती। ऐसी सोच हमें बड़ी छलांग लगाने और सही संतुलन बनाने में मदद कर सकती थी। लेकिन हम अब भी टुकड़ों में सोच रहे हैं। दुर्भाग्य से यह सब उसी तरह है, जैसे पैरासिटामॉल से कैंसर के इलाज की कोशिश की जाए।
हम सबको पहले से पता है कि भारत को क्या करना चाहिए। हमें लकदक सलाहकारों की जरूरत नहीं है, जो हमें यही सब बताएं। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है, जो इन पर अमल करें। नौकरशाही का शिकंजा काट दें, टैक्स नियमों को आसान बनाएं। शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतें दूर करने के लिए कुछ नए तरीके तलाशें। मुकदमों का जल्दी निपटारा हो। पुलिस मशीनरी को आधुनिक कलेवर दिया जाए। खेती-बाड़ी के बारे में हाल में जिन सुधारों का ऐलान किया गया था, उन्हें तेजी से लागू करें। शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर करें। उन तमाम कायदा-कानूनों को हटाएं, जो उद्यमिता की राह रोकते हैं। मंत्रियों को इस बात के लिए जवाबदेह बनाया जाए कि अपने कार्यकाल में वे दो-तीन अहम काम करेंगे।
आमतौर पर माना जाता है कि हाथी दौड़ नहीं सकते। लेकिन साइंस ने हाल में पता लगाया है कि हाथी 'ग्रूशो' ट्रिक का इस्तेमाल करते हैं और इसके जरिए वे 25 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार पकड़ लेते हैं। उनके पांव धरती से कभी भी एकसाथ नहीं उठते, लेकिन वे ग्रूशो मार्क्स की चर्चित शैली में दौड़ लगा लेते हैं। समय आ गया है कि भारतीय हाथी भी कार्ल मार्क्स को छोड़कर ग्रूशो मार्क्स की शैली अपना ले।
सचाई यह है कि जिन असल ड्रैगनों से हमें लड़ना है, वे न केवल हमारी सीमाओं से परे हैं, बल्कि वे सीमा के भीतर भी हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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2 टिप्पणियाँ
बढ़िया लेख
जवाब देंहटाएंबेह्तरीन आलेख. Bahut दिनों बाद shabdankan खोला. पढ़कर आनंद a गया.
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