लघुकथा - लंबा सफर — अर्चना त्यागी

लघुकथा: लंबा सफर

— अर्चना त्यागी

उन्हें घूमने का बहुत शौक था। रिश्तेदारियों में भी वह खूब आते जाते थे। किसी को शहर जाना हो या किसी दूसरी जगह कोई काम हो, उनके पास आ जाता था। वह तो जैसे अवसर की ताक में ही रहते। तुरंत कपड़े घर भिजवा देते धोने के लिए। घर वाले भी उनकी आदत से भली भांति परिचित हो चुके थे। इसलिए ज्यादा रोक टोक नहीं नहीं लगाते थे। कई बार उनके छोटे पोते को गुस्सा आ जाता। कहता, "दादू की उम्र अब घर बैठकर आराम करने की है। परन्तु उन्होंने तो पूरे गांव का ठेका उठा रखा है। कोई भी किसी काम को कहे, तुरंत साथ चल देते हैं।" वह मुस्कुरा देते। उसे समझाते हुए कहते “शेर होते हैं जो सफर में अपना जीवन बिताते हैं। घर पर तो कायर पड़े रहा रहते हैं। जो खतरों से डरते हैं। और फिर यह जीवन, यह सफर हमे एक ही बार मिला है। दोबारा नहीं मिलेगा।"

उनकी बात का उसके पास कोई जवाब नहीं होता। निरुत्तर होकर चुप हो जाता।

परन्तु बढ़ती उम्र के कारण अब उतना सक्रिय नहीं थे वो। कई दिनों से बुखार आ रहा था। शरीर कमजोर हो गया था। बिस्तर से उठ भी नहीं पा रहे थे। सहारा देकर ही खाने के लिए, शौच के लिए उठ पाते थे। आंखों की रोशनी भी धीरे धीरे कम हो रही थी। सुनने भी कम लगे थे। इस हालत में भी बाहर से आने वाले और जाने वाले को बड़ी उत्सुकता से निहारते। जानने की कोशिश करते कि कहां से आया या गया। आंखों से साफ झलकता कि उसके साथ उनकी भी जाने की इच्छा हो रही है। एक दिन बोलने की शक्ति भी क्षीण हो गई। कुछ कहने की कोशिश करते लेकिन जीभ नहीं उठ पाती। जबान लड़खड़ा जाती। फिर इशारों में अपनी बात समझाने की कोशिश करते।

आज उनकी तबियत कुछ बेहतर लग रही थी। बार बार अंगुली से कुछ इशारा कर रहे थे। पोता पास आया तो उसे अपने कपड़ों को दिखाया। मानो कह रहे हों इन्हें धुलवा दो मुझे सफर करना है। उसने उनकी बात साझकर एक और जोड़ी कपड़े लाकर उनके पास रख दिए। कपड़ों को हाथ से अच्छी तरह टटोला उन्होंने। जैसे देखना चाह रहे हों कि साफ धुले हैं या नहीं। फिर तकिये के नीचे रख लिए। पोते को इशारे से पास बुलाया। इस बार इशारा लाठी के लिए था। उसने लाठी लाकर उनकी चारपाई से टिकाकर रख दी। अब उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। दो दिन तक इसी हालत में पड़े रहे। कभी अपने जूतों को देखते, कभी रास्ते को निहारते। उठकर चलने की हिम्मत नहीं थी। तीसरे दिन तबीयत फिर बिगड़ गई। सभी घरवाले उनकी चारपाई के पास घिर आए। उन्होंने मुस्कुराने की चेष्टा की। बारी बारी से सबकी और देखा। फिर छोटे पोते को बुलाकर कपड़े अपने सीने पर रखे। लाठी को हाथ से पकड़ने की कोशिश की। पोते ने उनके सिरहाने बैठकर अपनी गोद में उनका सिर रख लिया। अब उनकी नज़र जूतों पर थी। कुछ देर बाद रास्ते को निहारने लगे।

घर वाले सोचते रहे, किसी के आने का इंतजार कर रहे हैं। परन्तु नब्ज टटोली तो सब खत्म हो चुका था। उनकी आंखों में वही स्थिर भाव था। जैसे कह रहे हों मै लंबे  सफर पर जा रहा हूं अब। यह अंतिम सफर है मेरा।

—अर्चना त्यागी
(व्याख्याता रसायन विज्ञान एवम् कैरियर परामर्शदाता, जोधपुर, राजस्थान)


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3 टिप्पणियाँ

  1. ऐसा होता है, हमारे परिवार में भी हुआ है.
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