चित्रा मुदगल का उपन्यास 'आवां': उपभोक्ता समाज का चक्रव्यूह-भेदन - डॉ० कविता राजन


समीक्षा

आवां: उपभोक्ता समाज का चक्रव्यूह-भेदन

डॉ० कविता राजन

बीसवीं सदी के अंतिम वर्ष में पूर्ण महाकाव्यात्मक व्याप्ति के साथ प्रस्तुत यह स्वातंत्र्योत्तर भारत में द्वंद्वों की प्रखर अभिव्यक्ति है। उपन्यास के शीर्षक (बीज -शब्द) को एक साक्षात्कार में लेखिका- चित्रा मुदगल ने स्पष्ट किया हैः

कलात्मक खूबसूरत वर्तनों और नक्काशीदार सुराही को आवां में पूरी सावधानी से पकाया  न जाय तो जब आवां खोला जाता है तो सारी खूबसूरत वस्तुएं जलकर काली हो जाती हैं।...... ऐसे में बत्र्तन टूटे-फूटे निकलते हैं।

...आवां धरती के भीतर लाया जाता है। एक छोटे पोखर की तरह धरती को खोद दिया जाता है। बाद में पेड़ों की सूखी पत्तियां बिछा दी जाती है। उसके ऊपर अनाज का भूसा बिछा दिया जाता है। पतली-पतली टहनियों और लकड़ी के बुरादे को भी इस्तेमाल में लाया जाता है। और इन सबकी सेज पर बेहद नजाकत से खिलौनों को लिटा दिया जाता है। फिर इन कलात्मक बीजों को इन्हीं चीजों से ढंक दिया जाता है। इसके बाद आवां में चारों तरफ से आग लगाई जाती है कि सभी जगह सभी वस्तुओं को अपेक्षित आंच का ताप उपलब्ध हो। अगर कहीं भी आग ज्यादा पकड़ लेती है तो उसका अनुपात बिगड़ जाता है। कुम्हार की सारी मेहनत बेकार चली जाती है।

...’स्वराज्य’ का यह कैसा आवां हमने प्रज्वलित किया है कि सामाजिक विषमताएं अपना रूप बदलकर, पहले की अपेक्षा और अधिक उग्र और विकराल हो, नैतिकता को तिलांजलि देकर, उपभोक्तावादी मानसिकता की गोद में बैठकर, पूंजी की सहधर्मिणी हो गई कि जो कुछ है वह बाजार ही है। बाजारवाद के इस आंवें में जल रहा है पसीना बहाने वाला मजदूर, देश की आधी आबादी, गिरवी  होता देश का स्वाभिमान।
(सुरैया खानः आवां, सुलगाने का दायित्व, नई दिल्ली, 2010 पृष्ठ 96-98)

’आवां’ का एक और अर्थ उपन्यास में हैः

’’प्रत्येक युवा हृदय के कुछ सपने होते हैं। एक आवां होता है आंच से दहकता जिसकी पकावट से वह आकांक्षा की भीति उठाता है। छाजन छाता है।...समाजसेवा का संकल्प मरूभूमि की तपती पीठ है। सामान्य व्यक्ति उसे अपनी शुष्क संवेदना के पायों पर नहीं झेल सकतां वही झेल सकता है, जो मनुष्य  के लिए चिंतित और मौजूदा व्यवस्था से असंतुष्ट हो। परिवर्तन कामी हो।’’ 
(पृष्ठ 75)

उपन्यास में ’आवां’ की संकल्पना ’व्यक्तिगत’ और ’संस्थागत’- दोनों दायित्वों की समीक्षा करती है। ’आवां’ को सही तापक्रम पर, पूरी निष्ठा के साथ सुलगाए रखने का दायित्व सबका है। अतः इस उपन्यास के विमर्श के निकष पर एक ओर ’दहकता’ है, तो दूसरी ओर ’आवां’ से निकलने वाले विकृत-काले चेहरे भी! युगबोध और अस्मिता की एक साथ बारीक समझ रखनेवाला यह उपन्यास उत्तर-औपनिवेशिक लेखन का एक अत्यंत मौलिक ग्रंथ है।

मूलतः ’आवां’ उपन्यास की कथा ट्रेड-यूनियन हिंसा से बाधित व्यक्ति (देव शंकर पांडेय) की पुत्री नमिता की कथा है। देवीशंकर बम्बई के विक्रोली-स्थित एक टाइल्स में भट्ठी सुपरवाइजर रहे थे, कामगार आघाड़ी के महासचिव के पद पर भी पहुंचे थे, तथा एक अत्यंत जुझारू मजदूर नेता के रूप में उनकी ख्याति थी। पिता के शारीरिक संकट के कारण नमिता पर ही परिवार का बोझ था। इस संकटग्रस्त परिवार में सारे संबंध तनाव में थे। उपन्यास में इसका प्रभावी चित्रण हैः

उसे अचानक ख्याल आया-तीन रोज से ऊपर हो रहे, उसने बाबूजी को नहलाया नहीं। उन्हें नहलाना तामझाम भरा ही नहीं, कष्टसाध्य प्रक्रिया है। स्नानघर में कुरसी रखकर सहारे से उस पर बिठा उन्हें शिशु की सी सावधानी और सतर्कता के साथ नहलाना पड़ता है। देह का निचला हिस्सा वे स्वयं साफ कर सकें इसकी सुविधा के लिए निकट ही स्टूल पर पानी से भरी बाल्टी, मग, साबुनदानी रखना होता है, ताकि किसी चीज के लिए उन्हें विशेष प्रयत्न न करना पड़े। ऐसा वह उनके संकोचवश ही करती है, वरना शुरूआत में, जब वे आधा प्राणवंत शरीर बिना सहारे के घसीट पाने में असमर्थ थे, उसने उन्हें अपने हाथों पॉट दिया है और निःसंकोच साफ-सफाई भी की है। उसने अनुभव किया कि लाचारी के इन क्षणों में बाबूजी आंखें  ढांप लेते। उनकी दोनों कनपटियां आंसुओं से चिपचिपा आतीं। 
(पृष्ठ-25)

’’क्रियाकर्म कौन करेगा, बुलवाइए उसे।’’

मां दबे स्प्रिंग-सी उछलीं। 

’’बेटा है! बेटा करेगा, पंडितजी।’’ माथे पर हथेली पटक मां ने मानो भाग्य को धिक्कारा। ताई को बगल में बैठी हुई वह सहसा उठ खड़ी हुई।

’’क्रियाकर्म मैं करूंगी, पंडितजी, मुखाग्नि भी मैं ही दूंगी! मैं पांडे जी की बड़ी बेटी हूं। छुन्नू बच्चा है। बच्चे के हाथ से क्रियाकर्म करवाना उचित नहीं।’’

मां क्रोध से तिलमिलाई

’’दिमाग तो नहीं चल गया तेरा नागिन, जो बैठे-ढाले अलाय-बलाय बकने लगी? न मैं बांझ हूं, न छूंछी! कुलदीपक बेटा जना है मैंने, बेटा!  तो भला किस दिन के लिए जना है? बोल?

’’जा पंडितजी  के पास बैठ छुन्नू! ’’मां ने आंखें तरेर छुन्नू को आदेश दिया। शोक-संताप कहां बिला गया मां के हृदय से।
(पृष्ठ 339)

संकटापन्न श्रमिक परिवार की विवशताओं, कुंठाओं उपभोक्ता समाज और पूर्वग्रहों की चित्रण-क्षमता के अतिरिक्त, आवां की वैशिष्ट्य उन चक्रव्यूहों के उद्घाटन में हैं जिन में पूरा का पूरा ’उपभोक्ता समाज’ एक है। नमिता के लिए जितना कुत्सित परिवार का एक सदस्य था फिर ग्लैमरयुक्त धनी व्यापारी(संजय)! कार्ल माक्र्स ने अपने दर्शन में ’कमौडिफिकेशन’ की जिस प्रक्रिया का उल्लेख किया था, उसके उदाहरण के तौर पर हम नमिता के साथ इन पुरुषों के छल को देखते हैं।

उपन्यास में इन स्थितियों के स्पष्ट चित्रण हैं। मनोसामाजिक आयाम भी यथोचित परिपक्वता से उभर कर आए हैं।

घर आकर उसका बुझा हुआ हौसला लौटा। संकेत से उसने मां को मामाजी की ओछी हरकत के विषय में बताया। लेकिन पाया कि मां  ने बात भी पूरी नहीं होने दी। हथेली से उसका मुंह चांप दिया। मौसाजी जैसे ही जल्लादी आंखों से तेरते हुए उसे चेतावनी दी- ’’ जो हुआ सो पेट में डाल! अपने मगज-फिरे बाबूजी से पौने की कतई जरूरत नहीं, वरना मामूली-सी बात जीवन-जले वैर हो उठेगी। वेसे ही चिढ़ते रहते हैं- पूंजीपति से कैसी नातेदारी! 
(पृष्ठ-303)

’’मुझे सिर्फ उस लड़की से औलाद चाहिये थी जो पेशेवर न हो..... पवित्र हो, जो मुझसे प्रेम कर सके। सिर्फ मेरे लिए मां बने! सिर्फ मुझसे सहवास करे हमारा मिशन सफल रहा ..........तेरह वर्ष बाद मैं बाप बना...अपने बच्चे का बाप। उस औरत से जिसे मैं सचमुच प्यार करने लगा! मुझे धोखा दिया? मेरे बच्चे की जान ले ली!’’

स्तब्ध सुनती रही वह!

’’बल्कि मैंने......मैंने निर्मला को पिछले दिनों तुम्हारे बारे में बताकर मना लिया था... जैसे ही बच्चा होगा, हम उसे गोद ले लेंगे। मुझे बाप बनाकर तुम जीवन भर ऐशोआराम से रह सकती थीं।’’

संजय लानत-मलानत पर उतर आए। ’जिस टुच्चे से कैरियर के लिए तुमने गर्भ गिराया....क्या कमा लोगी तुम दो कौड़ी की डिजाइनर बनकर, नमी! कितना समझाया था तुम्हें..........’’

’’मैं तुमसे घृणा करता हूं तुमसे.....’’

उसे लगा, गर्भ कल नहीं, आज गिरा है उसका। किरपू दुसाध मरा नहीं है। मरेगा भी नहीं। जब तक औरत अपने पेट को उसकी लातों के प्रहार से स्वयं को बचाना नहीं सीख जाती................
(पृष्ठ 539-40)

श्रम और शरीर अस्मिता-बोध के अतिरिक्त आवां का नैतिक विमर्श इतिहास-चिंतन का व्यापक दार्शनिक दायरा भी छूता है। इस व्यापकता को समझे बिना उपन्यास को नहीं समझा जा सकता। जो नमिता के साथ हुआ, उपभोक्तावादी समाज में विवशता में पड़ी किसी महिला के साथ कभी भी हो सकता है। इस अर्थ में नमिता एक वर्ग-चरित्र भी है।

उपन्यास के रूप में ‘आवां’ की विशेषता है कि वह उपभोक्तावाद को व्यवस्था के रूप में परखता है और विचारधारा वर्ग-सघर्ष का यथासंभव शमन! पूंजी की दबंग सत्ता के मध्य और उससे नीचे की सतहों पर मूल स्वीकृति उपभोक्तावादी विचारधारा की रणनीति है तथा माटी की मूरतों का कमौडिफिकेशन उसका लोभ! कुल प्रभाव है- सतत अवमूल्यित होती अस्मिता और नैतिकता!

स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी आवां क्यों सुलगाए नहीं रखा जाता, यह उपन्यासकार का है। उपन्यास के कवर-पेज पर दो सार्थक प्रश्न हैं-

1. विरासत भेड़िए की शक्ल क्यों पहन बैठी?

2. क्या हुआ उन मौर्चों का जिनकी अनवरत मुठभेड़ों की लाल तारीखों में अभावग्रस्त, दलित, शोषित श्रमिकों की उपासी आंतों की चीखती पीड़ा खदक रही थी? उपन्यास में एक सुचक वाक्य भी यक्ष-प्रश्न की तरह है- ’’सभी सिद्धांतवादियों और सत्यनिष्ठों को नृशंसता से रौंद दिया जाएगा। (पृष्ठ -71)

नारी विमर्श का भी एक सूत्र है- ’’मत भूलो औरत के अस्तित्व का  तिलिस्म उसकी देह से उपजता है।’’ 
(पृष्ठ 214)

उपन्यास आवां मे विकृत व्यवस्था का ’प्रतिकार-बोध’ अनेक पात्रों द्वारा विविध रूपों में व्यक्त हुआ है। यह उपन्यास की खूबी है। उदाहरणार्थ, नमिता पांडे का पृष्ठ-542 पर अंकित निर्णयः

जो हुआ, उसका होना अच्छा या बुरा, अब इस द्वंद्व से स्वयं को निर्वासित करते हुए मैं बस, इतना ही सोच रही हूं- शायद उसकी भी कोई अनिवार्यता थी। दूसरे की नजर से देखी हुई दुनिया अपना सच नहीं होती, न अपना अनुभव। अपने अनुभव के बिना कोई परिष्करण संभव है?

..मैं घर लौट रही हूं, अब समझ पा रही हूं कि मिट्टी पर फावड़े न चलाओं तो समझ में नहीं आता कि सतह के नीचे की उसकी प्रकृति कैसी है...क्या है एक अन्य प्रकार का सारांश पृष्ठ- 522 पर हैः

’’बाबूजी की बीमारी के चलते जो पढ़ाई अधर में लटकी, अभी तक पूरी हो पाई? और फिर जिन सुख-सुविधाओं को मैं भोग रही हूं वो मेरी अर्जित की हुई है? स्वयं अर्जन का नितांत अपना ही आत्मसुख होता है, संजय! तृप्ति होती है। शक्ति होती है। निःशंक होता है मन छिन जाने के भय से!

’’फिर मैं वैसी आधुनिकता नहीं हूं कि बिना ब्याह के अवैध संतान पैदा कर छद्मक्रांति जिऊं। मेरे लिए संतान सामाजिक जिम्मेवारी है। उंगली नहीं उठा सकता वह मेरी ओर कि मैंने उसे क्यों पैदा किया, जिस तरह से वो जन्मना नहीं चाहता था?’’

नमिता के पिता (देवीशंकर पांडे) के व्यापक अनुभवों की सुंदर अनुगूंज उपन्यास में कई स्थलों पर सुनने को मिलती हैः

’’समय परखता है व्यक्ति के मनोबल को। उसकी संकल्पबद्धता को, छोटे-छोटे अवसरों में उपलब्ध हो, हो सकता है अपनी कसौटी पर कस रहा है वह तुमको।’’
(पृष्ठ 61)

आन्दोलन की बात कर रहे हो न तुम? मुट्ठीभर अंग्रेजियत को लेकर मुझे कोई परेशानी नहीं लगती। फर्क यही है। हमें किसी चीज से लड़ना है, प्राथमिकता के आधार पर तय करना जरूरी है।
(पृष्ठ 61)

श्रमिकों की लड़ाई में समाज का कोई दायित्व नहीं, मैम? बाबूजी का कहना है कि हम संवदनहीन नंपुसक समाज में जी रहे हैं।
(पृष्ठ 68)

उपन्यास में नैरेटर के माध्यम से भी समाज और सत्ता से जुडे़ सूक्त-वाक्य हैं:

1. केवल अपने घर-परिवार के अभाव-दबाव समग्र दृष्टि अर्जित करने के लिए अपर्याप्त है।(पृष्ठ 96)

2. राजनीतिक महत्त्वाकांक्षियों के लिए संबंधों की गहनता खंचे भर है चैपड़ के। 
(पृष्ठ 410)

3. समाज सेविका चाहे ट्रेन में  सफर कर रही हो या पैदल सड़क पर, किसी मोहल्ले से गुजर रही हो या अपने चैक में घांस फैलाती कुछ छौंक-बघार-चीते-सी उसकी पैनी आक्रामक नजर में बदरंग तख्तियां नहीं बच पातीं जिनकी उघड़ी सफेदी के ऊपर उत्पीड़न और अंदेशों की सहमी भयाक्रांत इबारतें खुदी हुई हों।
(पृष्ठ-23)

4. कट्टरपंथियों का कोई भरोसा नहीं।
(पृष्ठ481)

शिल्प -विधान की दृष्टि से आवां उपन्यास अनेक कारणों से विशिष्ट है। पहला गुण है ओजपूर्ण और अनुभव-सिक्त भाषा। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:

संकोच के टांके टूटे।
(पृष्ठ-19)

जवाब पढ़ते ही मां कुल्हाड़ी की हुमक-सी टूटतीं बाबूजी पर।
(पृष्ठ-73)

हठात् जादू की छड़ी-सी घूमी।
(पृष्ठ-185)

हंसी प्रतिबंध तोड़ती है। 
(पृष्ठ-294)

मां कड़ाह में ताजे खौल रहे गुड़-सी गमकी। 
(पृष्ठ-441)

दूसरी विशेषता है- नैरेटिव-स्टैªटेजी! 544 पृष्ठों के विचारोत्तेजक कथानक को बांधे रखने का काम आसान नहीं है। विषय भी है तो अछूता, फलक अतिविस्तृत तथा पात्र विमर्शों के अत्यावश्यक सूत्र! उपन्यास में छोटे से छोटे पात्र को न्याय देने की क्षमता है और भाषा पात्रों की क्षमता के अनुरूप! कई तो वर्ग-चरित्र हैं। अंत तक पता नहीं चलता कि होगा क्या? कथोपकथन के दो सुंदर प्रतिमान हम इन उद्धरणों में देख सकते हैं:

आत्मालाप-सा करती मां का सुर कुछ ऊंचा हुआ

’’अन्ना साहब पूछ रहे थे कि नमिता क्यों रुष्ट है मुझसे? मेरे जो जी में आया बक दिया- बेलगाम घोड़ी हो रही वह इन दिनों। चार ठो पैसे कमाने का घमंड सिर चढे प्रेत-सा हर किसी को पटकनी देने को उतारू रहता है। बेटी समान है। उदंडता झेल ले।

’’मगर कितना भी कोई सगा लगा हो, घर आए को दुत्कार बरदाश्त होती है?’’

’किसे पड़ी है उनकी आरती उतारने को? न बरदाश्त हो, न आएं।’’ वह तीखी हुई।

मां मसूल की हुमक-सी प्रहारात्मक हो आई।

’’बड़े बोल न बोल। जिसके पाराने में लाड़-दुलार झेलते चले आते हैं न, उसकी खटिया सूनी होते ही भिनकेंगे भी नहीं।’’अनायास जी भरभराने लगा।

मां औरत होकर भी क्यों सोच नहीं पाती कि कल तक जो लड़की अन्ना साहब की खातिर ’अंकल, अंकल’ अलापती, मुंह सुखाती उनके आगे-पीछे डोलती फिरती थी, अचानक उसे क्या हो गया कि वह उनके नाम से कोसों बिदकती है? कह दे अंतर्सत्य!
(पृष्ठः 250-51) 

आवां अपन्यास के चरित्र - चित्रण मंे लेखिका ने प्रजातांत्रिक आस्था का परिचय दिया है। फलतः उपन्यास के पात्र लेखिका के मानस की कठपुतलियों से नहीं लगते। उनकी स्वतंत्र इयत्ता है। उन्हें जबरदस्ती ’परफेक्ट’ नहीं बनया गया है। खूबी यह है कि विमर्श के संकेत पात्रों से उभर कर उपन्यास में आते हैं। आरोपित कुछ भी नहीं है।

आवां उपन्यास की उप-कथाएं पूरी सक्षमता से उपन्यास के वैचारिक-साहित्यिक स्तर को ऊंचा उठाती हैं। परंपरा की जमीन पर आसमनी चक्रवात झेल रही हर्षा, स्मिता, मां, कुंती मौसी, सुनंदा, किशोरीबाई, नीलम्मा, अनीसा और अंजना वासवानी उपभोक्तावादी व्यवस्था के नमूने हैं, जिन्हें कटघरों में खड़े करने के बजाय समझने की जरूरत ज्यादा है। इतिहास के अंधे युग में ये अलग-अलग मनोसामाजिक स्थितियों और संस्कारों में जी अवश्य रही हैं, पर बीसवीं सदी के भारत के अंतिम वर्षों के इतिहास के ये वास्तवादी पन्ने हैं जिन्हें ठीक से समझे बिना इतिहास समझा नहीं जा सकता और न दार्शनिक-मंथन ही हो सकता है।

जलते अनुभवों की सुलगन से निकली है यह कृति! उतनी ही ताकत से उसे अभिव्यक्त भी किया गया है। लेखिका की अपनी अनूठी कथा-भाषा है, प्रयोग हैं। भाषिक संप्रेषण को प्रभावी बनाने के लिए बहुत बड़ा दायरा लिया गया है संस्कृति-बोध पैना है, और कुछ वक्यों में तो अद्भूत दार्शनिकता है। समूचे आवां उपन्यास की संरचना कथा, चरित्र और संवादों के माध्यम से एकनिष्ठ हो गई है। शब्द-विधान, सूक्ति-विधान, बिंब-विधान, अप्रस्तुत-विधान, भावाभिव्यक्ति भी समकालीन साहित्य का नया प्रतिमान है।

आवां उपन्यास नमिता की ट्रेन-यात्रा से शुरू होता है ट्रेन-यात्रा द्वारा अंत होता है- बम्बई के एक ’टर्मिनस’ पर। वहां से नमिता अपने घर जाती है। यह घर उसका अनुवांशिक घर नहीं है। वैवाहिक तो नहीं ही है। यह घर उसके मुक्ति मूलक कार्यक्षेत्र का संभाव्य केन्द्र है। यह किशोरीबाई की चाली है, एक सर्वहारा वृद्धा का घर! ’कामगार आधाड़ी’ के दफ्तर की आपाधापी से दूर घर! क्या यह आधुनिक विमर्शों का अपना घर है- ‘अ रूम ऑफ वन्स ओन’ एक विराट संसार!
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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