गुलमोहर — जयश्री रॉय की कहानी |

मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती 

मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेर बड़े दर्दनाक रूप में जयश्री रॉय की कहानी 'गुलमोहर' पर सही बैठता है। जैसे भी हो, कहानी को पूरा ज़रूर पढ़िएगा! ~ सं० 




गुलमोहर

जयश्री रॉय

खिड़की पर झुके गुलमोहर को वह बिस्तर पर लेटी-लेटी देखती रही थी, कैसा खूबसूरत रंग है, जैसे आग लगी हो! कई दिनों की अनवरत बारिश के बाद आज धूप निकली है। नीला आकाश साफ-झक्क होकर आईने की तरह चमक उठा है। पिछले कई महीनों से जैसे उसने जीवन को खिड़की से ही देखा था, मौसम के बदलते हुए तेवर के साथ क्षण-क्षण रंग बदलते हुए, चेहरा बदलते हुए... मगर उदासी का एक दबा-सा एहसास अंतः सलिला नदी की तरह अंदर-ही-अंदर चुपचाप बहता रहा था— उसके अस्तित्व को किस्तों में तोड़ते हुए, बिखेरते हुए। सतही तौर पर भले ही उसने हँसना, बोलना नहीं छोड़ा था, मगर कहीं गहरे वह जानती है, वह अंदर से टूटती जा रही है, शायद फिर कभी न जुड़ने के लिए। यह निःशब्द दरकना और ऊपर से बने रहने का प्रयास... बहुत थका देने वाला था। गहरी साँस लेते हुए उसने खिड़की से दृष्टि हटा ली थी।

पहले-पहल यह सब इतना हताशाजनक नहीं था, क्योंकि तब उसके अंदर की ऊर्जा चुक नहीं गई थी, वह मजबूत थी। अपनों का साथ हो तो इंसान हर विपदा का सामना कर लेता है। यह अकेलापन ही होता है जो उसे असमय तोड़ कर रख देता है। बीमारी के शुरू-शुरू के दिन उसके लिए बेहद मुश्किल थे। उसके परिवार के लिए भी आसान नहीं रहा होगा। मगर, उन्होंने मिलजुलकर झेल लिए थे। उसे याद है, जिस दिन उसका कैंसर कंफर्म हुआ था, प्रबीर किस तरह डाइनिंग रूम में देर तक चुपचाप बैठा रह गया था। उसने खुद ही उठाकर मेडिकल रिपोर्ट पढ़ ली थी। दोनों ही कुछ बोल नहीं पाए थे। शाम को बच्चे स्कूल से लौटे तो दोनों उनके सामने सहज होने के प्रयत्न में बार-बार असहज होते रहे थे। उस रात प्रबीर देर तक बालकनी में खड़ा सिगरेट पीता रहा था। बाद में वह ही उसे बिस्तर पर बुला लाई थी। तब सुबह होने में ज्यादा देर नहीं थी शायद...।

उसके बाद कुछ महीने दुःस्वप्न की तरह बीते थे। दस दिन के अंदर दो-दो ऑपरेशन, तरह-तरह के टेस्ट, दवाइयाँ, अस्पतालों के अंतहीन चक्कर और इन सबके बीच एक सर्वग्रासी डर— किसी भीषण अज्ञात का, कुछ सांघातिक घट जाने का। रातदिन पूरा परिवार अंदर ही अंदर घुल रहा था, मगर ऊपर से एक-दूसरे के लिए सामान्य होने का अभिनय किए जा रहे थे। यह स्थिति सबसे ज्यादा त्रासद थी। एक-एक ऑपरेशन होता, नमूना परीक्षण के लिए लैब भेजा जाता, और वे किसी अनहोनी की आशंका में अपने आप में सिमटे-सिकुड़े बैठे रहते। यह प्रतीक्षा उन्हें तोड़ रही थी। हालांकि कैंसर ज्यादा फैला नहीं था, मगर केमोथेरपी तथा उसके बाद रेडिएशन लेना जरूरी था। उनके छोटे से शहर में यह सुविधाएँ उपलब्ध न होने के कारण उन्हें इलाज के लिए किसी दूसरे शहर जाना था। प्रबीर का अपना व्यापार था, बच्चों के स्कूल थे। समझ में नहीं आ रहा था, मगर क्या किया जाए। बानी दी पुणे में थीं। उन्होंने उसे अपने पास बुला लिया। बानी दी के पास रहकर इलाज करवाने से उनकी कई समस्याओं का हल हो गया था— प्रबीर का काम तथा बच्चों की पढ़ाई निर्विघ्न जारी रह सकती थी। शुरू-शुरू में सब कुछ अपेक्षा के अनुरूप ही होता रहा था। वह बानी दी के साथ अस्पताल जाया करती थी। शनिवार के दिन प्रबीर बच्चों के साथ मिलने आ जाता था। पहले-पहले एक-दो केमो के बाद वह अपने घर भी वापस गई थी। मगर सफर की तकलीफें झेल नहीं पाई थी। उल्टियाँ बहुत बढ़ गई थीं। जी भी घबराता रहता था। फिर, सफर में परहेज करना भी मुश्किल था। घर पहुँचकर वह केमो के असर तथा सफर की थकान से दिनों तक बीमार पड़ी रही थी। इसलिए इलाज के दौरान बानी दी के पास ही रहने का फैसला लिया गया था। प्रबीर के लिए भी अपना काम तथा बच्चों की पढ़ाई रोककर बार-बार आना कठिन था। इस व्यवस्था से उसका मन तो बहुत छटपटाया, मगर मन मारकर उसे रहना ही पड़ा था।

घर से दूर होकर उसने जाना था, घर क्या होता है। घर की छोटी-छोटी बातों में कितनी खुशी, कैसा सुख छिपा होता है, इसका एहसास भी उसे पहली बार इतनी शिद्दत से हुआ था। रोजमर्रा के जिन कामों में उसे ऊब होती थी, अब वही उसे सुंदर सपनों की तरह लुभाने लगे थे— सुबह का नाश्ता बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना... प्रबीर बच्चों को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाता था। जाते हुए दोनों बच्चे दूर तक हाथ हिलाते जाते थे— बाय माँ... 

अस्पताल के बिस्तर पर तरह-तरह की यंत्रों-नलियों से घिरी वह अपने परिवार को याद करती रहती— अभी प्रबीर सुबह की चाय पी रहा होगा, गुड़िया अपने अनगढ़ हाथों से स्कूल की तैयारी कर रही होगी... कभी-कभी एक-एक पल गुजारना मुश्किल हो जाता था। रातों को अपेक्षाकृत शांति होती तो वह चुपचाप रोती रहती। एक बार नाइट ड्यूटी पर आई नर्स के पूछने पर उसने बहाना बना दिया था कि आँखों में कुछ पड़ गया है। 'दोनों आँखों में?' नर्स कौतुक से मुस्कुराई थी। अब वह किसी को क्या बताती कि वह आँखों में बाँह रखे क्यों सोती है, क्यों गर्मी लगने पर भी चेहरे से चादर नहीं हटाती, क्यों बार-बार चेहरा धो आती है...

शुरू-शुरू में घर से फोन लगातार आते थे, मगर धीरे-धीरे वह भी कम हो गया था। प्रबीर का काम बढ़ गया था, बच्चों के इम्तिहान भी करीब आ रहे थे। उसे हर पल इंतजार रहता था, मगर शिकायत करती तो किससे करती! 

राउंड पर आए डॉ. विवेक में एक बार उसे रोते हुए देख लिया था। वह अटपटे बहाने गढ़ने लगी थी— 'सर में दर्द है, आँखों का इन्फेक्शन ठीक नहीं हो रहा है'... डॉ. विवेक मुस्कुराते हुए सामने बैठ गए थे— 'हूँ! तब तो आपको एक बड़ा-सा इंजेक्शन लगाना पड़ेगा मिसेज पाल... आप झूठ बोल रही हैं न? मैं नब्ज देखकर बता सकता हूँ।' वह झेंपकर रह गई थी। 'अच्छी किताबें पढ़िए, प्राणायाम तो जरूर कीजिए, आपका मन लगा रहेगा, सेहत के लिए भी अच्छा है...'

इसके बाद राउंड पर आकर डॉ. विवेक प्रायः कुछ देर के लिए उसके पास रुक जाते थे। एक बार बेगम अख्तर की सी.डी. भी दे गए थे। इस तकलीफ और अकेलेपन के बीच डॉ. विवेक का थोड़ी देर के लिए उससे हँस-बोल लेना उसे अनजाने ही अच्छा लगने लगा था। अब प्रबीर, बच्चों के फोन के साथ उसे डॉ. विवेक का भी इंतजार रहने लगा था। उनके आने का समय होता तो उसकी आँखें अनायास आईने की तरफ उठ जातीं। वह कई बार स्वयं को डॉ. विवेक की नजरों से देखने लगती थी। एक बार उसकी केस फाइल देखते हुए डॉ. विवेक ने आश्चर्य से कहा था— 'फोर्टी टू। आर यू श्योर मिसेज पाल? आप तीस से ज्यादा की नहीं लगतीं!' 

'और क्या, आप से दस साल बड़ी हूँगी...' 

'अच्छा, आप समझती हैं, मैं मान लूंगा?" 

डॉ. विवेक की दोस्ती की वजह से अब दिन कुछ हल्के-फुल्के गुजरने लगे थे।

अस्पताल की सफेद, नीली दीवारों, पर्दे और एक तटस्थ-सी चुप्पी के बीच एक अनकहे-इंतजार में रात-दिन आते-जाते रहते थे। उसने दिन गिनना छोड़ दिया था, कैलेंडर की ओर देखना छोड़ दिया था, अपनी घड़ी उतार कर रख दी थी... हर तरह से इस इंतजार से छूट जाने का प्रयत्न किया था, मगर वह जानती थी, यह उसके अंदर बना रह गया है... हर पल, हर क्षण—अच्छे दिनों का इंतजार, दर्द, तकलीफ, डर से छूटने का इंतजार, जिंदगी का इंतजार, खुशियों का इंतजार...ठीक से सो नहीं पाती थी, बार-बार उठकर अपना मोबाइल चेक करती थी— शायद प्रबीर का एस.एम. एस. आया हो, शायद गुड़िया ने मिस कॉल दिया हो... उस दिन दोनों बच्चे मोबाइल छीन-छीनकर एक-दूसरे की शिकायत कर रहे थे— 'माँ, दादा ने मेरा कलरबॉक्स डस्टबीन में फेंक दिया...'

'नहीं माँ, इसने मेरा होमवर्क पहले फाड़ा था, मुझे स्कूल में डाँट पड़ी, पनिस्ड भी हुआ...' उनको चुप कराते-कराते वह स्वयं अजीब सुख से भर कर रो पड़ी थी—  ईश्वर! मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस मुझे मेरा छोटा-सा घर, मेरी जिंदगी वापस दे दो... इस घर को बनाने में स्वयं को खपा दिया था। अपनी महत्वाकांक्षाओं और सपनों की बलि दे दी थी। शादी के बाद पी.एच.डी. के लिए उसका शोधकार्य रुक गया था। मानव पैदा हुआ तो उसने अपनी लेक्चरॉर की नौकरी भी छोड़ दी। प्रबीर  भी यही चाहता था। शादी के बाद उसका परिवार ही उसकी पूरी दुनिया बन गया था। आज उसी परिवार के छूट जाने से जैसे उसके पास कुछ भी नहीं रह गया था, मैं खुद भी नहीं! इतना अकेला उसने स्वयं को इससे पहले कभी महसूस नहीं किया था। 

इन दिनों जब भी वह उकताकर प्रबीर को फोन करती, वह एक-दो बातें करके व्यस्तता का बहाना कर फोन रख देता था। उसका मन भर आता। मगर कुछ कह नहीं पाती। बस, एक अनबूझ दुख अंदर ही अंदर बना रहता। वह रुक गई थी तो क्या उसके साथ दुनिया भी रुक जाएगी...! सबका काम है, जिंदगी है। सिर्फ एक वह है जो जिंदा तो है, मगर उसके पास जिंदगी नहीं है। उसकी जिंदगी तो यही जिंदगियाँ थीं जो आज उसे अकेला छोड़ अपनी-अपनी राह चल पड़ी हैं। बच्चों से पूछती तो यही सुनने को मिलता कि पापा लंच पर नहीं आते, होमवर्क नहीं कराते... पूछने पर प्रबीर न जाने क्यों अकस्मात चिढ़ गया था— 'तुम तो वहां जाकर बैठ गई हो, यहाँ दस झमेले मेरे सर हैं, क्या-क्या संभालूँ? रात-दिन एक प्रेजेंटेशन की तैयारी में लगा हूँ!'

'मेरा मतलब ये नहीं था...' यह मायूस हो उठी थी— 'घर पर लंच नहीं लेते, रोज-रोज होटल का खाना...'

'नहीं, विभा अपने घर से बना कर लाती है, वरना मेरी तो हालत खराब हो जाती, ऐसी एसिडिटी हो रही थी कि बस...'

'ये तो अच्छा हुआ...' उसने रूंधे गले से कहा था, जैसे स्वयं को ही विश्वास दिलाने का प्रयत्न कर रही हो कि जो कुछ हो रहा है, अच्छा ही हो रहा है। बाद में गुड़िया ने बताया था, पापा चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स की मीटिंग में दिल्ली गए हैं। विभा आंटी ने वहाँ से उसके लिए बार्बी डॉल लाने का वादा किया है। इसके बाद कई दिनों तक प्रबीर का फोन नहीं आया था। केमो की वजह से उसे पेट में भयंकर इंफेक्शन हो गया था। उल्टी-दस्त-बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा था। आई.वी. के जरिए भारी मात्रा में एंटीबायाटिक्स दिया गया था। मन और शरीर की दुहरी मार ने आठ-दस दिन में ही उसे बेहद कमजोर बना दिया था, बाद में प्रबीर ने उसे बताया था, मीटिंग के बाद उनकी आउटिंग की व्यवस्था की गई थी। चाँदनी रात में ताजमहल वाकई अद्भुत दिखता है। विभा ने तो अनारकली के गेटअप में तस्वीर खिंचवाई... 

उसने उम्मीद से भरकर पूछा था— 'शनिवार को आओगे न? तुम लोगों से मिले बहुत दिन हो गए...'

'नहीं, बहुत काम है, फिर, तुम ठीक भी हो...' बिना जिद किए उसने फोन रखकर खिड़की से बाहर देखा था— गुलमोहर के फूल प्रायः खत्म हो आए थे। पिछली बार जाते हुए प्रबीर ने उसके आँसू पोछे थे— 'मैं तुम्हें जल्दी घर ले आ जाऊंगा अपराजिता...' उसने अपने अनजाने ही उँगलियों से क्रॉस बनाया था।

कई दिनों बाद डॉ. विवेक लौटे तो उसे देखकर चौंक पड़े थे— 'अरे! आप बहुत चिंता करती हैं क्या? मुझे प्रबीर का नंबर दीजिए, बात करता हूँ उनसे!' डॉ. विवेक गणेश पूजा के अवसर पर अपने गाँव गए थे। वहाँ उनके परिवार ने उनके लिए कोई लड़की भी पसंद कर रखी थी। 

'क्यों डॉक्टर, कोई लड़की पसंद आई?' उसने मुस्कुराते हुए उन्हें छेड़ा था।

'अरे कहाँ मिसेज अपराजिता, एक तो कोई पसंद नहीं आती, और जो आती है, उसकी शादी हो चुकी होती है पहले ही...' 

'कैसी लड़की चाहिए आपको, कहिए तो मैं ढूँढ दूँ...' 

'अपनी जैसी लड़की ढूँढ दीजिए, अभी शादी कर लूँगा...'

उनकी बात सुनकर वह झेंपकर रह गई थी। उठकर आईने में अपना चेहरा देखा था— आँखों के नीचे स्याह घेरे, जर्द चेहरा, नीली-बैंगनी धारियों से भरी बाँहें... सुई, आई.वी. लगा-लगाकर अब हाथ में कोई नस नहीं बची थी।... खुद अपनी ओर नहीं देखा जाता, कोई मेरे जैसी औरत से क्या शादी करेगा... 

एक अनाम सुख से भरकर वह सोचती रही थी। प्रबीर की उपेक्षा ने उसे कब से उदास कर रखा था। उस रात केमो की रंगीन बोतल को देखकर उसे गुलमोहर के पीले, नारंगी फूल याद आए थे... 

अस्पताल से डिस्चार्ज होकर भी उसे कुछ दिन अकेले ही रहना पड़ा था। बानी दी अपने पति के साथ थोड़े दिनों के लिए मालदीव गई हुई थीं। वैसे, घर में नौकर, चौकीदार सभी थे। बीच-बीच में लंदन से बड़े भैया का फोन भी आ जाता था। इन दिनों उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। पूरी शाम टेरेस पर चुपचाप बैठी रहती। आकाश में उड़ते पक्षियों को देखकर मन एक अनाम इच्छा से भर उठता था— सब अपने अपने घर लौट रहे हैं, वह अपने घर कब लौटेगी... उसे अपने आंगन का तुलसी चौरा याद आता, आषाढ़ की भीगी हुई नीली संध्या में हरसिंगार के फूलों के बीच झिलमिलाता हुआ दिया, उसकी सुनहरी लौ में जैसे पूरे आंगन में सुख, स्वप्न की धारा बहती रहती थी। वहाँ खड़ी होकर उसने सालों अपने परिवार के लिए मंगल कामना की थी। शाम ढले वह चुपचाप उठकर अपने कमरे में चली आती। सुख, वैभव से भरे घर में एक अनकही उदासी बिछी रहती थी। घर इंसान और उसके रिश्तों से बनता है, ईंट, पत्थर या वैभव से नहीं, उसने पहली बार इस सच्चाई को इतनी शिद्दत से महसूस किया था। उस रात प्रबीर ने न फोन किया था, न उसका फोन उठाया था। दूसरे दिन पता चला था, प्रबीर को पूरी रात विभा के यहां रुकना पड़ गया था। उसकी तबीयत अचानक बिगड़ गई थी। डॉक्टर ने उसे अकेली छोड़ने को मना किया था। घर में कोई दूसरा था भी नहीं। वह अकेली रहती है। 'बेचारी बहुत डर गई थी, मेरा हाथ ही नहीं छोड़ रही थी...' प्रबीर की बातें सुनकर उसका बदन घुलाने लगा था। रात भर उल्टी होती रही थी। सुबह तक कमजोरी बहुत बढ़ गई थी।

थोड़े दिन बाद हेमोग्राम करवाने वह अस्पताल गए तो डॉ. विवेक उसे चाय के लिए कैंटीन ले गए। 'मिस्टर प्रबीर दो महीने से आपसे मिलने नहीं आए...?' चाय पीते हुए उन्होंने गंभीर होकर पूछा था— 'मैंने उनसे बात की थी। पता नहीं, अच्छे मूड में नहीं लग रहे थे, कह रहे थे, अपराजिता के जो प्रॉब्लम्स हैं उसे आप समझा सकते हैं, मैं नहीं। मैं अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूँ, इतना पैसा खर्च कर रहा हूँ...'

वह चुपचाप चाय पीती रही थी। कोई भी सफाई देना यहाँ निरर्थक था। डॉ. विवेक उसकी तरफ देखते रहे थे— 'आप खुश रहा कीजिए मिसेज अपराजिता, उदासी आप पर अच्छी नहीं लगती।'

उस दिन उसने आईने में अपना चेहरा फिर देखा था। चेहरा तमतमाया हुआ था, तपेदिक के बीमार की तरह! आज उसे अपने बालों की कमी बहुत साल रही थी। कितने खूबसूरत बाल थे उसके। केमो के पहले डोज के बाद ही झड़ गए थे। सुबह उठकर आईने में खुद को देखकर देर तक रोती रही थी वह। गंजे माथे पर बिंदी कितनी अजीब लग रही थी। पीछे बाल जटा में बदलकर लटक रहे थे। प्रबीर ने उसके गंजे सर पर नजर पड़ते ही झटके से दूसरी तरफ नजर फेर ली थी। सारा दिन वह उसकी तरफ देखने से बचता रहा था। बच्चे भी सहम गए थे। एक अजीब क्षोभ और विद्रोह से वह भर उठी थी। दो दिन सर पर रुमाल लपेटकर घूमने के बाद उसने नंगे सर घूमना शुरू कर दिया था। उसे देखकर विभा के सामने जहां प्रबीर बिल्कुल अपदस्थ हो उठा था, वहीं विभा अपनी आँखों की चमक छिपा नहीं पाई थी। 

उस रात प्रबीर उस पर बिफर पड़ा था— 'तुमने नंगे सर क्यों घूमना शुरू कर दिया, कितना भद्दा लगता है...' 

'जो हुआ है, उसमें मेरा तो कोई कसूर नहीं प्रबीर फिर मैं क्यों छिपाती फिरूँ...?'

'तुमसे बहस कौन करे...' प्रबीर मुँह फेर कर सो गया था। 

चेहरों के बदलने की, रिश्तों के टूटने की वह शुरुआत थी। परिवर्तन की इन खामोश आहटों को सुन वह एक अदृश्य आतंक से भर उठी थी। असुरक्षा की भावना से इंसान अपने चारों तरफ से दीवार खड़ी कर लेता है, एक दिन उस से घिरकर स्वयं अकेला हो जाता है। खुद के और अपनों के बीच शायद वह खुद ही एक दीवार बनकर खड़ा हो जाता है। न खुद किसी तक पहुंच पाता है, न किसी को अपने पास आने देता है। उपेक्षा के एहसास में ज्यादा-से-ज्यादा ध्यान आकर्षित करने के लिए उसकी शिकायतों का सिलसिला बढ़ता ही चला गया था। वह चिड़चिड़ी हो गई थी। हर छोटी-मोटी बात पर लड़ पड़ती थी। रात-दिन तकलीफों की शिकायत करती रहती, कराहती रहती। अब सोचती तो लगता है, उसने सब कुछ पाने के चक्कर में ही सब कुछ खो दिया था। उसने जिंदगी को जितना समेटने की कोशिश की, जिंदगी उतनी ही बिगड़ती चली गई...

अगले शनिवार जब पूरा परिवार उससे मिलने आया, उसने सब कुछ बदला-बदला पाया। प्रबीर बार-बार बाहर जाकर मोबाइल पर किसी से दबी आवाज में बातें कर रहा था। बच्चों के मुँह से बार-बार विभा आंटी का नाम सुनकर वह और भी मायूस हो उठी। माँ, विभा आंटी तुमसे भी अच्छा पिज्जा बनाती हैं... प्रबीर में भी कई तब्दीलियां आई थीं— उसके कपड़े ज्यादा रंगीन हो गए थे, उसने तरह-तरह के कोलोन, आफ्टर शेव का इस्तेमाल शुरू कर दिया था। दोपहर को प्रबीर नहाने के लिए बाथरूम गया तो गुड़िया उसका पर्स लेकर चिल्लाने लगी— भैया, देख, विभा आंटी का फोटो... प्रबीर ने बाहर निकल कर उसके हाथ से अपना पर्स छीन लिया था। वह दूसरी तरफ मुँह फेरे अनजान बनी पड़ी रही थी। आँसू एक आँख से दूसरी आँख तक बहते रहे थे देर तक। प्रबीर ने झुककर देखा वह जाग रही है या नहीं, शायद यही देखने का प्रयत्न किया था। 

शाम को टेरिस पर चाय पीते हुए उसने बात छेड़ी थी— 'मेरी तबीयत का ये हाल है, बच्चों की बड़ी चिंता होती है...' 

'सोचो मत, सब ठीक हो जाएगा...' प्रबीर ने तटस्थ भाव से कहा था।

'मुझे कुछ हो गया तो... माना, विभा बच्चों की बड़ी परवाह करती है, मगर कौन दूसरों को हमेशा संभालता है...।'

'विभा ऐसी नहीं है, वह हमेशा...' कहते-कहते प्रबीर अचानक रुक गया था। वह उसे एकटक देख रही थी। प्रबीर का चेहरा लाल हो उठा था, वह उठकर अंदर चला गया था। आज उसे अपने सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए थे। आस्था-अनास्था के मारक द्वंद्व के बीच जीना कितना कठिन था। आज वह यातना की सारी हदों से गुजर गई थी। मन में तूफान के गुजर जाने के बाद की शांति थी। अब सबकुछ उजड़ चुका था, कुछ उजड़ने की चिंता से वह मुक्त हो गई थी। 

दूसरे दिन जब सब वापस जाने लगे, उसने सहज ढंग से सबको विदा किया। प्रबीर ने हाथ पकड़ा तो उसने धीरे से स्वयं को छुड़ा लिया— 'ठीक रहना प्रबीर...' प्रबीर उसकी तरफ सीधा देख नहीं पा रहा था। कार स्टार्ट करते हुए उसने धूप का चश्मा पहन लिया था। जाती हुई कार को देखते हुए उसके अंदर अजीब-सी चुप्पी थी, जैसी अक्सर अस्पताल के कॉरीडोरों में पसरी हुई मिलती है। अपने अंदर की किसी दीवार में आज उसने खुद को हमेशा के लिए चुनवा दिया था। बहुत जी लिया... उस दिन उसने प्राणायाम नहीं किया, दवाइयाँ भी पड़ी रहीं। दूसरे दिन उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। उसका बुखार उतर नहीं रहा था। चार-पाँच दिन कैसे बीत गए, उसे पता भी न चला। प्रबीर घर पहुँचते ही दूसरे दिन एक महीने के लिए विदेश चला गया था। विभा ने गुड़िया से फिर बार्बी लाने का वादा किया था। छोटी मौसी घर संभाल रही थी। शाम को बानी दी उससे मिलने आई थीं, रजनीगंधा का गुलदस्ता लेकर।... 'रजनीगंधा, तुझे बहुत पसंद है न!' उसने फूलों की तरफ देखा तक नहीं था।

आज सोनोग्राफी, हेमोग्राम, कार्डियोग्राम, सी.टी. स्कैन, ब्लड टेस्ट— सभी कुछ करवाना था। उसे खून आना शुरू हो गया था, शायद ब्लड काउंट बहुत गिर गया था। कल रात से उसके जबड़े तथा सीने में भी दर्द होने लगा था। डॉ. विवेक के चेहरे पर चिंता साफ देखी जा सकती थी। टेस्ट रिपोर्ट आने पर वे बानी दी तथा जीजाजी को अपने ऑफिस में बुला ले गए थे। दोनों लौटे तो बानी दी का चेहरा उतरा हुआ था। शायद वह रोती रही थीं। उसने उदासीन भाव से पूछा था— 'कितने दिन...?' उसके सवाल पर बानी दी फफक-फफककर रो पड़ी थीं। जीजाजी ने पूछा था, 'प्रबीर को बुला लें?' 

'नहीं, नाहक परेशान होंगे, बहुत काम है, बाद में तो आना ही है...' 

सुबह के राउंड पर डॉ. विवेक आए तो वह सामान्य ढंग से मुस्कुराई थी— 'क्यों डॉक्टर, अब भी लड़की ढूंढ रहे हैं?'

'नहीं, मिल तो गई है, बस, वह मान जाए...' उसने गंभीरता से उसे देखा था— 'एक और ऑपरेशन होना है, हमें अपनी तरफ से कोशिश तो करनी ही है...'

'मैं बहुत थक गई हूँ, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए...' उसने अपनी आँखें मूँद ली थीं। 

इसके बाद के दिन फिर एक दुःस्वप्न का लंबा सिलसिला बन गए थे जैसे— ऑपरेशन, टेस्ट, दवाइयाँ, दर्द और दर्द... बिस्तर पर वह जागी सोयी-सी पड़ी रहती। यथार्थ, कल्पना में फर्क करना कठिन हो गया था। कभी वह जैसे अपने घर में होती, कभी आँखें खोलकर स्वयं को डॉक्टर, नर्स, मशीनों, नलियों के बीच घिरी पाती। गुड़िया, मानव को बुला लिया गया था। दोनों उस पर झुके हुए थे— 'माँ... माँ...'

'गुड़िया, होमवर्क हुआ? मानव, उसे सताओ मत...'

सेडाटिवस के प्रभाव में वह नशे में डूबती-उतरती रही थी। जैसे लहरों पर तैर रही हो... बड़े भैया भी लंदन से आ गए थे, साथ में भाभी भी थीं। प्रबीर जल्द ही आ रहा है— उससे कई बार कहा गया था। उसने पूछा नहीं था। डॉ. विवेक आसपास बने हुए थे— 'मिसेज पाल, आपने हौसला क्यों छोड़ दिया...?'

'नहीं, बस, अब कुछ अच्छा नहीं लगता... डॉक्टर, मेरा चेहरा कहाँ गया, मेरा घर कहाँ है?' वह हिलक-हिलककर रो रही थी। किसी ने जैसे चुपके से उसके कानों में कहा था, आप खूबसूरत हैं, मेरी नजर से देखिए... उसने चेहरों की भीड़ में डॉक्टर विवेक को ढूंढा था, नहीं कोई नहीं था। उसे अब मुक्ति चाहिए, ये मोह की मरीचिका उसे कब तक भरमायेगी! उसने गुड़िया की नन्हीं उँगलियों से अपना हाथ छुड़ाया था, मानव को परे धकेला था... तुलसी का दिया आप भी झिलमिला रहा है— भगवान! मेरा घर बना रहे... वह अपनी जवा फूल बनी आँखें झपकाती है— ये मेरा मंगलसूत्र है, ये मेरा बिस्तर है, ये मेरा नाम है— श्रीमती प्रबीर पाल... आह! दुखता है, अब और नहीं! हटा लो— ये नलियाँ, ये दवाइयाँ, ये चाकू-छुरियाँ! माँ, माँगो... जीजा जी बच्चों को बाहर ले गए हैं, बीना दी सिरहाने रो रही हैं। भैया जीजाजी से कह रहे हैं, 'प्रबीर भोर तक पहुँच रहा है।' 'क्या हमारे पास इतना वक्त है?' डॉ. विवेक जीजा जी के प्रश्न का कोई जवाब नहीं देते। नर्सों को डाँटते हुए वह अपनी टाई ढीली करते हैं— बड़ी घुटन हो रही है! सबके अंदर एक इंतजार-सा बना हुआ है, कुछ घटने का, कुछ न घटने का, न जाने वह अभागा पल कौन-सा है...।

दिनभर की अफरा-तफरी के बाद वार्ड नं. 10 अब शांत है। अस्पताल के कर्मचारी चुपचाप अपनी-अपनी ड्यूटी में लगे हुए हैं या मौका पाकर इधर-उधर ऊँघ रहे हैं। बीमार नशीली नींद में डूबे हुए हैं। कॉरीडोर में रात दवाई की तरह महक रही है। दूर कहीं रेडियो बज रहा है। पहली मंजिल में कोई रुक-रुक कर कराह रहा है। नर्स स्टेशन में फोन की घंटी लगातार बज रही है, मगर कोई फोन नहीं उठा रहा है। 

रात के अंतिम राउंड में डॉ. विवेक उसके कमरे में आए हैं। वह जाग रही है। उसके कराहने की आवाज आ रही है। डॉ. विवेक ने उसका हाथ पकड़ लिया है। बानी दी भयभीत एक कोने में खड़ी हैं। उनका रोना बंद नहीं हुआ है।

'डॉ. विवेक लड़की पसंद आई?' उसके लहजे में अजीब उन्माद-सा है। वह ढूँढती हुई नजर से दरवाजे की ओर देख रही है। बाहर अकस्मात बारिश शुरु हो गई है। तेज हवा में पेड़-पौधे दुहरे हुए जा रहे हैं। डॉ. विवेक ने उसका हाथ और सख्ती से पकड़ लिया है— 'मिसेज पाल, मुझे कोई अच्छी नहीं लगती...'

'मगर, उसे तो वह बहुत अच्छी लगती है, पिज्जा भी अच्छा बनाती है...' 

'आप अच्छी हो जाएँगी...' 

'हाँ, मैं भी बहुत जीना चाहती थी, डॉ. आपने ही तो कहा था।' वह शायद रोना चाहती है। मगर, उसके गले से से घरघराहट की-सी आवाज निकल रही है।

'इतनी बारिश में वह कैसे आएँगे?' वह फिर दरवाजे की तरफ देख रही है... 'मेरे बाल भी झड़ गए...'

'आप बहुत खूबसूरत हैं, तीस से ज्यादा की नहीं लगतीं।' 

'आपको चश्मे की जरूरत है...' शायद वह हँस रही है। उसका शरीर ऐंठने लगा है, चेहरा तमतमा उठा है।

'मैं तो जीना चाहती थी डॉक्टर...' अब वह फिर से रो रही थी शायद...

"मिसेज पाल!' डॉ. विवेक उसे धीरे-से हिला रहे हैं। बानी दी रोती हुई बाहर निकल गई हैं, शायद घर फोन करने। उसने थरथराते हुए डॉ. विवेक का हाथ पकड़ लिया है— 'मेरा चेहरा कहाँ गया डॉक्टर? और यह जर्द रंग! झुर्रियाँ... नीली-स्याह धारियाँ... कितना दुखता है! खून और खून... मुझे ताजमहल देखना है, चाँदनी रात में।... ये गहने गुड़िया के लिए, सिर्फ मंगलसूत्र मेरा...' बाहर तेज बिजली चमक रही है। पूरा कमरा सफेद रोशनी के झमाकों से भर गया है।

'एक भी फोन नहीं बचा...' वह फटी-फटी आँखों से बाहर देख रही है— 'कितनी फूल थे।' 

अचानक तेज थकान से भरकर उसने आँखें बंद कर ली हैं। अंदर परकटे पक्षी-सा कुछ छटपटा रहा है। एक काला भँवर अपने अंदर सब कुछ समोता जा रहा है— उसका चेहरा, गुलमोहर के फूल, गुड़िया की उजली हँसी... प्रबीर ने उसके मुँह के बालों में अपना चेहरा छुपा लिया है— सुबह नहाकर तुम मोगरे के ताजे गजरे-सी महकती हो...

कैसी खुनक भरी मीठी धूप है। प्रबीर, उठो, ऑफिस नहीं जाना? प्रबीर ने फिर से चादर अपने चेहरे पर खींच ली है। बड़ा आलसी है! मेरा हाथ पकड़े रहना, उधर मत देखना... रस्सी के झूले पर दोनों चल रहे हैं। नीचे अलकनंदा बह रही है। उनकी शादी हुए अभी दस दिन ही हुए हैं। माथे पर कितना सारा सिंदूर दपदपा रहा है। 

'तुमने मेरा हाथ क्यों छोड़ दिया प्रबीर। मैं डूब गई न...!'

कितना उपालंभ भरा हुआ है उसके स्वर में।

'मैं आपका हाथ पकड़े हुए हूँ, मिसेज पाल!'

'कौन कह रहा है!' वह अपने सूने हाथों को देख रही है।

आह! सब कुछ डूब रहा है— साँसें, आवाजें, रोशनी चेहरे... कैसा स्याह है ये समंदर है! वह चिंघाड़ती हुई लहरों को काटती है, कैसी काली रात!

सुबह कहाँ है? वह टटोल रही है— सब कुछ कहाँ खो गया? 'मैं हूँ न तुम्हारे साथ!' प्रबीर उसे अपनी बाँहों में बाँधे हुए है। बाहर बहुत तेज बारिश हो रही है। रह-रहकर बिजली चमक रही है। उसे बिजली से बहुत डर लगता है।

'मिसेज पाल मैं हूँ न...' उसके इर्द-गिर्द ये बाँहें किसकी हैं।...ये महक। वह अपने पर झुके हुए उस भीगे चेहरे को टटोलती है— 'उसने कहा था, मुझे घर ले जाएगा...' 

'मैं हूँ न...'

 'माँ! आ ना...' उसकी नजरों में एक काला कंबल चढ़ रहा है। आवाजें दूर से दूर होती जा रही हैं। शायद ये गुड़िया की आवाज है, नहीं! मानव की... उफ। ये ठंडा, काला पानी का रेला कैसे हरहराकर ऊपर चढ़ रहा है। ठोढ़ी तक, नाक तक, आँखों तक... ऐसे तो वह पूरी ही डूब जाएगी।

'प्रबीर!' काली नदी में क्षण-क्षण डूबता हुआ उसका हाथ हिल रहा है— प्रबीर...!' 

'आप मुझसे शादी करेंगी?' 

'क्या? कैसा वाहियात सवाल है!' उससे साँस नहीं ली जा रही है। सीने में, गले में एक काला नाग कुंडली मार रहा है, लिपट रहा है, पेंच कस रहा है। उसका फेफड़ा सूज रहा है, दम घुट रहा है— थोड़ी हवा, बस थोड़ी हवा... प्रबीर चुपचाप किनारे पर खड़ा है, उसकी बार्बी अपनी लंबी पलकें झपका रही है, उसके सुनहरे बाल हवा में उड़ रहे हैं... बाल!... सब झड़ गए... अरे! वह तो सचमुच डूब रही है! उसने मुझे कहा था...! उसकी आवाज में एक परकटे पक्षी की-सी छटपटाहट है। चारों तरफ टूटे हुए पंख-ही-पंख फैले हैं। 

'आप मुझसे शादी करेंगी?' ये कौन रो रहा है? उसका माथा भीग गया है। वह आँसुओं से तर उस चेहरे की ओर देखती है—उसने कहा था... वह किसी तरह इस बर्फीले पानी से बाहर निकल जाए! अरे! प्रबीर तो मुड़कर जा रहा है। इस बार की मीटिंग गोवा में होगी। बार्बी उसकी तरफ देखकर हाथ हिला रही है। समंदर की नीली लहरों में उसके सुनहरे बाल पिघला सोना बनकर लहरा रहे हैं।

अब और नहीं! उसके हाथ-पाँव एक-एक कर शून्य होते जा रहे हैं, अंतरिक्ष में गायब हो रहे हैं। एक काला गहर सब कुछ लीनता जा रहा है, वह बर्फ की सिल्ली बन गई है। जो पिघली आँखों के सिवा कुछ भी जिंदा नहीं, उम्मीद भी नहीं! वह सचमुच मर गई है। मगर, काले झील में पूरी तरह से डूबते हुए उसका हाथ अब भी हिल रहा था— प्रबीर...!

...ये उम्मीद से आगे की कोई चीज थी शायद... जो हर इंसान को अपने भगवान से होती है! 

बानी दी दरवाजे के पास बैठी फफक रही हैं। नर्सें चुपचाप सारे यंत्र,उपकरण हटा रही हैं। प्रबीर अभी तक नहीं पहुंच पाया था। कफन ओढ़ाने से पहले डॉ. विवेक ने झुककर धीरे-से जैसे कुछ कहा था और फिर चुपचाप कमरे से निकल गए थे। उन्होंने बार-बार अपराजिता से जो सवाल आज किया था, उसके जवाब की अपेक्षा उसे शायद कभी भी नहीं थी। खिड़की के बाहर गुलमोहर के सारे फूल झड़ गए थे।

जयश्री रॉय
तीन माड मायना सिओलिम वारडेज़ गोवा 4034517
ईमेल jaishreeroy@ymail.com


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