सुवन चन्द्र की कविताएं | Suwan Chandra Ki Kavitayen


कितनी खुशी होती है जब कविता के नाम पर कविता ही पढ़ने को मिलती है। आइए, सुवन चन्द्र की इन अच्छी कविताओं का आनंद उठाइए। ~ सं० 

नई कविताएं

सुवन चन्द्र

लगभग 1995 से सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय। ‘इप्टा’ से जुड़कर नाटकों का मंचन, ‘जनमोर्चा’ में राजनीतिक और इतिहास पर लेख लेखन, उत्तर प्रदेश की खत्म होती लोक-कलाओ पर कुछ आधा अधूरा शोध और कविता लेखन । कुछ कविताएं इधर उधर अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित । मूलचंद गौतम जी की पत्रिका ‘परिवेश’ में अंक 36 और अंक 40 में कुछ कविताएं प्रकाशित। फिर कई सालो बाद ‘कथादेश’ के अक्टूबर 2010 के अंक में दो कविताएं प्रकाशित। ‘वागर्थ’ के अगस्त अंक 2021 में कविता प्रकाशित। आजीविका के लिए एक कॉलेज में अध्यापन।


एक अनाम साथी के लिए....

मैंने सर्द, नम से समय में
ईंधन जुटाया जतन से
कि आग जलेगी, जीवन पकेगा
तुमने रूखाई उलीच ठंडा कर दिया/जाने क्यों?

मैंने लम्हो को जोड़-जोड़कर छत बनाई/दीवालें
तुमने यूँही बिखेर दिया/सीमाएं नापसंद थी तुम्हे
तुमने हमेशा चाहा कि मैं वो कहूँ, जो कहना सा होता भर है
हर कहना सुनना नहीं होता !!
ठीक इसी तरह, हम चुप रहे!
चुप्पी, हमारे बीच बिछी रही सूखी पत्तियों सी, और
संबंध, उनके टूटने की आवाजों में धँसते रहे/ धीरे -धीरे
प्रेम हमारे बीच,
गायब रहा पहले दिन से ही
और मैं टूटे हुए क्षणों में उसे ढूंढता रहा/साल-दर-साल
बिला-वजह!
मेरी इच्छाएं, सबकी और छोटी रही
तुम्हारे सपने केवल तुम्हारे
हम रात भर छत पर जगे तो
मगर अँधेरा संदेह हमारे बीच उड़ता रहा
कपास के फूल की तरह
तुम हमेशा लेटी मेरे बगल में
मैं भी
मगर हमारे बीच कुछ नहीं भरा
निर्वात के सिवा
मैं भावनाई फलसफे बिखेरता रहा
कि चाँद उगेगा देह की सिलवटों में
तुम दुनियावी तर्कों से / बुनती रही चादरे सुख की
जिस पर हम कभी नहीं सो पाये/ सिवाय तुम ख़ुद
हम हैं एक दूसरे के साथ ही 
हमारा होना
एक सड़ चुकी संभावना की तरह है !
मगर.............



आउटसाइडर

कुछ शब्द 
हमेशा 
रचना से बाहर रहते हैं
आउटसाइडर की तरह 
जैसे कुछ रंग फूलो से 

कभी वे 
रचना मे कहीं से 
पहुँच ही जाते हैं कमबख्त !
तो भी रचनाकार 
उन्हें 
बाहर से आए हुये की ही तरह 
प्रयोग करता है 
छोड़ देता है उन्हें निपट अकेला 
रचना के बियाबान मेँ 
लय और सुर से उन्हें 
रखा जाता है दूर ही 
अच्छे धुले हुए साफ़ शब्दों के बगल 
उन्हे नहीं मिलती है जगह 
कभी कभी तो, उन्हें 
कॉमा या अल्पविराम की तरह तक 
इस्तेमाल किया जाता है
तब भी 
जब वे पूरी रचना का ही भार 
अपने मजबूत अर्थो के कंधो पर उठाए फिरते हैं 
लहूलुहान से, बेआवाज़

रचनाकार अनथक प्रयास करता है 
उन शब्दों के जैसा भावों वाले शब्दों को ढूँढने का 
वो गहन छानबीन करता है शब्दों की 
दुनिया के सारे शब्दकोश उलट पुलट डालता है बदहवास सा 
बड़े बड़े भाषाविदों से पूछताछ करता है गहरी और गुप्त 
जब कभी वो भटक जाता है 
भाषा के जंगल मेँ 
आधुनिक यंत्रो के सहारे सर्च करता है वो 
लगा देता है ट्रांसमीटर, राडार
उन दिशाओं पर भी 
जहां से, उसे ज़रा सी भी सुनाई देती है 
प्राकैतिहासिक आहटें तक भी, उन शब्दों की 
वो बेचैन हो जाता है अक्सर 
इतना कि
उसका बस चले 
तो वो ड्रोन लगा दे भाषा के जंगल मेँ 

वो बार बार हार जाता है 
निष्फल हो जाते है उसके सारे प्रयास 
वे शब्द जो उगे होते हैं / भाषा के जंगल मे
कटीले पेड़ों कि तरह 
चले ही आते हैं धकियाते हए रचना मे 
बेधड़क
रचनाकार दिखावटी हंसी के साथ 
करता है स्वागत उनका 
और वे शब्द अपूर्व आत्मीयता से 
अन्य शब्दो के सहयात्री बन जाते हैं 
कभी कभी सहारा भी
ये सच हर वक्त जानते हुये कि / वे एक आउटसाइडर हैं !!

कभी कभी यूं ही 
रचनाकार जब पूंछ बैठता है उनसे 
कि वे रचना मेँ ही क्यों आना चाहतें हैं /बार बार 
तब वे बेसाख्ता रो पड़ते हैं 
(जैसे किसी ने उनकी आत्मा को छू लिया हो यकबयक ! )
और कह उठते हैं / दहाड़ कर रोते हुये 
“रचना मे होना , ज़िंदगी मेँ होना है 
इसलिए .........”


 

निर्वाण

कोई ......रास्ता ........ नहीं 
दृश्य धंसते जा रहे हैं
दलदली अंधेरे में
मौत जैसे
ज़िंदा
ऐसा कहते हुए बदहवास एकांत ने
छलांग लगा दी
चमकती महकती सफ़ेद खाई में
उजाले की
आस पास भरते जा रहें हैं आवाजों से !!


 

रोज़ की तरह

एक निगाह आरी की तरह सामने आ लटकती है हर बार
और हर बार, मै आधे रास्ते से ही लौट आता हूँ
बुदबुदाता हुआ – “ नहीं मुझे कहीं और जाना था “

लौटते हुए 
रास्ते में पड़े तमाम सारे आदर्श ग्रन्थों के जर्जर पन्ने 
बटोर लेता हूँ, ये सोचते हुए
कि हर बार इन्हें कमरे मे बंद कर आता हूँ 
और हर बार ये यहाँ कैसे पहुँच जाते है कमबख्त !

एक अबूझ –लोक की यात्रा करता हुआ 
फिर से कमरे के सामने होता हूँ 
दरवाजा खोलता हूँ, सिगरेट सुलगाता हूँ 
रेडियो ऑन करता हूँ 
महीनों से बंद घड़ी में, कल ही खरीदा गया 
सेल लगाता हूँ 
लेकिन साँस नहीं चलती 
मरने का यह कौन सा तरीका होगा !!

रोज़ की तरह चारपाई पर 
आँखों को बंद करता हूँ 
कि लगता है, चारपाई कमरे मे नहीं 
उसी रास्ते पर पड़ी है,
और सामने वही निगाह ,
आरी की तरह लटकती हुई 
रोज कि तरह चीखता हूँ /
हाथ दीवार से लड़ता है /
आंखे खुलती हैं 
छौंकी हुई खिचड़ी की बास नथुनों में घुसती है 
भय और सुकून की एक गहरी धुंध 
रास्तों को ले लेती है अपने आगोश मेँ
रोज़ की तरह .......................

सुवन चन्द्र
443, अवधपुरी कॉलोनी
अमानीगंज, फैजाबाद (अयोध्या)
मो. 9517573560


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