'निचला ओंठ अधिक चंचल है ' व अन्य कविताएं — जोशना बैनर्जी आडवानी | Joshnaa Banerjee Adwanii Hindi Poetry

शब्दों को प्यार से चुनकर जोशना कविताएं बुनती हैं। उनकी कविताओं में एक नई कसावट है। जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताओं पर बातचीत होनी चाहिए। फ़िलहाल, कविता प्रेमियों से इतना ही कि जल्दी वक़्त निकालकर इन कविताओं को पढ़िए। ~ सं० 

प्रिय की देह मुझे कलम लगती है
मेरी देह कागज़
दुर्भाग्यवश इस कागज़ पर नहीं लिखी गई कोई कविता
हम सभ्य घोषित हुए, न ही हम प्रेम कर सके, न ही छिप के मिलने के खतरे उठाये
अंततः हमने महान होना चुना, प्रेमी नहीं
हमारे पास इतना सामर्थ्य ही नहीं था कि हम अपने भविष्य में जाकर किसी शिशु के माता पिता बनते
फूँस से छत बाँधते, एक वृक्ष लगाते
हम ऐसा कुछ भी नहीं कर सके
हमनें अपनी मनोकांक्षाओं को मृत्युदंड दिया
हम उपेक्षाओं की डाल के बंदर बने रह गये।

जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएं


जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएं


जोशना बैनर्जी आडवानी आगरा के स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्या। ३१ दिसंबर, १९८३ को आगरा में जन्मीं जोशना के पिता बिजली विभाग में कार्यरत थे। जोशन आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में पोस्ट ग्रेजुएशन, बी.एड, एम.एड और पीएचडी हैं। पहला कविता संग्रह "सुधानपूर्णा" व दूसरा "अंबुधि में पसरा है आकाश" (वाणी प्रकाशन) है। जोशना को रज़ा फाउंडेशन से शंभू महाराज जी पर विस्तृत कार्य करने के लिए 2021 में फैलोशिप मिली है। 

ढाँप दो निशानाथ को

ढाँप दो निशानाथ को
कुहुकिनी से कहो साधे गांधार
देवसरिता कराये हमारा स्नान
घनप्रिया से कहो अभी सो जाये
कह दो
इन सब से ऐसा ही करे
ढूँढों तुहिनकण वाली घास
जहाँ हम बैठ सकें पूरी रात
नीले नारंगी सभी स्वप्नों से कहो पहरा दें
घास के उस तरफ

हम बैठेंगे पूरी रात यहाँ
कोई जल में तिनका भी न गिराये हमारे मिलन की घड़ी में
दो संकेत हवाओं को ये सावधान रहें
समझा दो इन्हें
ये बासन घिसने जितना सहज नहीं
ये कठिन है
कोई दो प्रेमी जब मिलें
तो उन्हीं के संकेत का पालन करें पृथ्वी, देव और दिशायें

हमारा मन बहलाने केवल चिड़ियाँ, तितली और
वैशाखनंदन आ सकते हैं यहाँ
इनके समान सुंदर मन किसी और का नहीं
आते समय मेरी एक चप्पल गुम गई है
कहो लम्बोष्ठ से ढूँढ के लाये

अपनी पुतलियों से आओ ठेल दें सबको
यहाँ रूके हम, कहें हम, लजाऐं हम
भोर में जब हम निकलें यहाँ से
पृथ्वी पूरी पहले जैसी  हो जाये
और भाषा भी।


दिनों में तुम बृहस्पत हो, रंगों में हल्द 

मेरा बृहस्पत एक छिद्र है जिसपर रख दिए हैं तुमने अपने ओष्ठ
तुम्हारी फूँक गुंजायमान है
वे मनुष्य जो खरीदते नहीं नये कपड़े बृहस्पत को, जाते नहीं डॉक्टर के पास और शुरू नहीं करते कोई शुभ कार्य इस दिन
वे अचम्भित करते हैं मुझे, दुःखी भी
इस दिवस की शुभता और महिमा से अनभिज्ञ हैं
मैंने तो बृहस्पत को ही काटे अपने नाखून, पहने नये वस्त्र, केश धोये, दिखी सुंदर और खिलखिलाई खूब
पीला वस्त्र ओढ़ाया तुलसी को
पीले फल खाकर विटामिन ई इकठ्ठा किया
पीली मिठाई बाँटी मंदिर में
पीले पुष्पों की माला पहनाई देवों को
गर्दन उठाकर देखा तो पीला दिखा आकाश
आकाश की ओर उठने की चाह जगी जब मन में, कानों में मंत्र के साथ ठूँस दी गई सीता और दमयंती
पीला युक्त ललाई लिए दिनों बाद जब जीवन ठीकठाक लौटने लायक जगह बना है अब
यह संभव हुआ तुम्हारे आने से
तुम आये हाथ में सुख, आँखों में आस, हृदय में प्रेम लिए तुम आये और रह गये पास मेरे
तुम आये जीवन लेकर,
लेकर आये तुम वायु, आकाश, पृथ्वी
ओज लेकर आये तुम
तुम वह सब लेकर आये जो भाग्य में नहीं था मेरे
एक सुंदर आलय बनाया तुमने मेरे लिए
लयबद्ध संगीत लेकर आये तुम
मैं अब नृत्यरत हूँ
हाथ हैं पीले
दिनों में तुम बृहस्पत है, रंगों में हल्द प्रिये।


अठोतरी

आठ सहेलियों में चर्चा का विषय था कि अश्रु बहकर कहाँ चले जाते हैं
पहली सबसे बड़ी उम्र की लड़की ने कह दिया नीलोत्पला में जाकर मिल जाते हैं
सहसा किसी ने पूछा अनुकांक्षाऐं जो पूरी नहीं होती वे कहाँ शरण पाती हैं
दूसरी लड़की जिसके पिता धमतरी में पत्थर काटते थे कह उठी सिहावा में जम जाते हैं
जब पूछा गया कि पीड़ा में भी मुड़ जाने की लचीली कला देह के किस अंग में हैं
गौना हुआ था जिस तीसरी लड़की का धीमें स्वर में बोली जाँघों में
हम सब ताकते रह गये उसे
चौथी लड़की जो कुम्हड़ा सिर पर रखकर चली आई थी बोली जब बना चुकी होगी चूल्हे में अपनी देह झोंककर तरकारी रोटी
खा लेंगे सभी
पर मेरी देह की गंध से स्नेह नहीं करेगा कोई
पाँचवींं लड़की की कामना थी कि वह ऐरावत की सवारी करे
ऐसा कह देने भर से ही सब ने उसकी खूब खिल्ली उड़ाई
अल्लम गल्लम बकते रहे सब
छठीं लड़की अंधी थी
माँ बाबा मर चुके थे
कहने लगी पता नहीं कौन उसकी छाती मसल देता है जब तब
गंध से पहचानती है तो दादी डांटकर समझा देती है चाचा के बारे ऐसा नहीं कहते पाप लगता है दण्ड मिलेगा
उसकी आँखों में झोंक दिया गया था दण्डविधान
सातवीं लड़की को खूब पढ़ाई करनी थी
देश दुनिया घूमना चाहती थी
अजायबघरों पर किताब लिखना चाहती थी
एक घर खरीदेगी परिवार के लिए अच्छी नौकरी लगने पर
अभी प्रतीक्षा में है
पिता ने कन्या छात्रवृत्ति योजना में फॉर्म भरा है
आठवीं लड़की सोच रही है उसे क्या कहना चाहिए
किस विषय पर बात करे
यकायक उठकर सबको गले से लगा लेती है
आठों सहेलियाँ खिलखिलाकर हँस देतीं हैं

आठ लड़कियों के आठ दुःख
आठ सौ लड़कियों के होंगे आठ सौ
और इस तरह जितनी लड़कियाँ उतने दुःख
किस अठोतरी में इतनी दिव्यता जो जप भर लेने से मिट जाये इनकी पीड़ाऐं
आठ लड़कियों के लिए एक सौ आठ मनकों की एक अठोतरी
निर्रथक है
निर्रथक है अठोतरी।

अर्थ ....
अठोतरी-  एक सौ आठ मनकों की माला


हम सटे थे एक दूजे से

कोहिमा के एक चर्च में हमारा विवाह हुआ
चर्च में बेथलहम जैतून की लकड़ी से बनी एक नाद के बगल में खड़े हम दोनों पृथ्वी के सबसे सुंदर दूल्हा दुल्हन लग रहे थे
दजुकोउ घाटी और जप्फु चोटी पर हाथों में हाथ डाले
घूम रहे थे हम
अचानक ...
अचानक स्वप्न टूटा
घड़ी देखी थी तो भोर के चार नहीं बजे थे
ये सब स्वप्न था
हाँ स्वप्न ही तो था
फिर याद आया पिछली दफे कैसे लड़े थे हम
साईबेरियन बाघ और तिब्बतियन भेड़िये की तरह

दो अलग अलग दिशायें थे हम
दोनों का कोई मेल नहीं
एक अंतरीप तो दूसरा सियालदह जंक्शन
एक भारत का संविधान तो दूसरा संघ
एक मणिपुर तो दूसरा पुरानी दिल्ली
एक लोकटक झील तो दूसरा पथरीला पहाड़
कैसे रिझाया था अर्जुन ने चित्रांगदा को
एक शिरोई लिलि पुष्प देकर
कैसे रिझाओगे तुम मुझे
कोई पुष्प, कोई पत्ता, कोई बेलपत्र तक ना रखा मेरी हथेली पर
आजतक तुमने

उतना ही तो सटे थे हम एक दूसरे से जितना जलपाईगुड़ी की
अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटा है भूटान
जैसे क्षितिज
जैसे पिता की सुराही से सटा रहता था माँ की सूती साड़ी का फटा हुआ एक हिस्सा
माँ सुराही को ठंडा रखने के लिए रोज़ कपड़े को गीला करके
सुराही से लपेट देती थी
उतनी भर ही तो महक थी तुम्हारी जैसे
रसोई में पंच फोरन की महक
जैसे सक्या मठ के प्रार्थना कक्ष में फैली धूपबत्ती की महक
जैसे शिशु के ओष्ठ पर फैली हो माँ के स्तन के दूध की महक

तत वितत, सुषिर,घनवाद्य ,अवनद्ध
संगीत गूँजता था हमारे कानों में
आँखें बंद करते थे हम
और पहुँच जाते थे एक दूसरे के पास
तितिक्षा भर शक्ति थी हमारे अंदर
धार चढ़ रहे थे हम
पानी उतर रहा था तीस्ता में
उधर मैं धागा बाँध रही थी हमारे मिलन के लिए

हम एक दिन उभरेंगे चेचक की तरह
लाल दानों की तरह दिखेंगे
सिरदर्द, भूख की कमी और बुखार की तरह
खत्म हो जायेंगे एक दिन
ना तुम मुझे गले से लगाओगे
ना मैं तुम्हारा माथा चुमूँगी
हम बिछड़ जायेंगे एक दिन
पृथ्वी के शून्य में।


निचला ओंठ अधिक चंचल है 

उचक कर कोने से दाँत में पहले वही जा गड़ता है
जैसे एक रहस्य टिका हो उसपर
जैसे रहस्योद्घाटन से पहले की भंगिमा
जैसे प्रियतम की पहली पसंद हो वही
छुआ जाये तो उसी को पहले छुआ जाये
जैसे अधरामृत अमोघ
जैसे वृष्टि, मेघ, गर्जन से भी अधिक चपल
जैसे उपरी ओंठ हो अपंग और इसीपर हो दायित्व
देखरेख का
जैसे ऋतुसंहार में कवि अपनी प्रिया को संबोधित
कर रहा हो
जैसे चेहरे पर उभरे रहने के बावजूद निचले
होने की दुआई दे रहा हो
नकारता हुआ इस सत्य को कि दोनों ओंठ समान
जैसे अपरिचय से जुड़ी कोई संवेदना
दंभ इतना जैसे ऊपरी ओंठ का भार उसी ने संभाल रखा हो
जैसे उसी पर टिका हो सौंदर्य सम्पूर्ण
जैसे दंतपंक्ति के सफेद पर लाल जवा
जैसे ऊपरी ओंठ की सभी ज़िम्मेदारी उसी पर हो
एकांत में मुस्कुराये तो खींच ले जाये उसे अपने साथ
जैसे अवसाद में खंडित नायिका का बिछोह गीत
जैसे विरह के अवशिष्ट दिनों में भी रमणीयता
बनाये रखने की कला
जैसे देह के शासन के कार्यभार की सूची
जैसे आठ अध्यायों वाली अष्टाध्यायी
इतना चंचल जैसे काम, क्रोध, मोह, माया अहंकार
निचला ओंठ अधिक चंचल है

परंतु
कहो कोई इस निचले ओंठ से
मेरे प्रेयस से इसे नहीं छुआ
छुआ मेरे माथे को पहले, फिर छुए मेरे नेत्र
इसे तो छुआ ही नहीं।


हम उपेक्षाओं की डाल के बंदर हैं

हम उपेक्षाओं की डाल के बंदर हैं
हम मन को कतई यह नहीं सिखा पाते कि हमें अकेले रहना सीखना होगा
एक पीड़ा की आयु मनुष्य से भी बहुत बड़ी होती है
एक मनुष्य की आयु एक पीड़ा ही तय कर देती है
चेष्टाओं से एक आस की नदी निकलकर किसी समुद्र तक नहीं, प्रिय तक पहुँचना चाहती है
हम एक दूसरे की पीड़ाओं को प्रेम देने की चेष्टा में अपनी पीड़ाओं को ढाप देते हैं
एक पत्थर की रगड़ हो जाते हैं, शीत के उपाय के जुगत में ताप में सुख पाते हैं

खोजने पर नहीं मिलता कोई एक पुष्प
भी खुद के लिए
मिलने को मिल जाते हैं चाबुक अनेक पीठ पर
लगने को संसार के सारे भिक्षुक भाई बंध लगने लगते हैं
नहीं लगने को कोई नौकरी भी नहीं लगती खुद के लिए
आने को कई रातें एक साथ आ जाती हैं
नहीं आने को कोई रात्रि उत्सव का निमंत्रण नहीं आता दरवाज़े पर
संसार की सबसे सुंदर स्त्रियों को पाते देखती हूँ पुरूषों से प्रेम
संसार की सबसे बदसूरत स्त्रियाँ उबटन करना सीखती हैं यू ट्यूब पर
कविता लिखते समय कोई कोई शब्द अकड़ जाता है, आगे बढ़ता ही नहीं
रख दी जाती है वह कविता अगले इतवार तक
कोई सुंदर चित्र आँखों को एक शांत रात दे देता है
उसी चित्र के बागान में खड़ा मिलता है प्रेमी प्रतीक्षा करता हुआ
दिखने को किसी की आँखों में भी दिख जाती है नीली झील
नहीं दिखने को संसार में आँख से मिलती जुलती एक भी झील नहीं दिखती
केदारनाथ अग्रवाल को पढ़ते हुए कट जाती हैं तीन रातें
सीने से दुपट्टे की तरह उड़ता रहता है मन का सबसे अपंग भाव
अरसा हुआ मन किसी भी चीज़ को देखकर नहीं ठिठकता
मन के भी नीचे एक छोटा मन रहता है
मैं सीढ़ियाँ उतर कर उस छोटे मन में अपने अधिकार की एक पृथ्वी देखती हूँ
एक कोमल स्पर्श खोजती हूँ
एक शत्रु जो महामारी से मर गया, मेरी सफलता तो देख ही नहीं पाया
उसके मरने के बाद लगा न ही मरता, रहता
रह लेता भले ही मेरी असफलताओं के साथ
कमसकम जीवित तो रहता
महामारियों से मृत्यु के बाद क्या पिशाच बनकर घूमता होगा
मृत्यु तो सभी के भाग्य में है
अकालमृत्यु न हो किसी के भाग्य में, कुछ ऐसा उपाय कर दें ईश्वर
एक कीर्तिमय सुगंध में पड़ी रही चंचरी
एक दुर्गंध मेरे लिए जगह बनाती रही
कीट कितने ही भाग्यवान पुरूष से
एक पीड़ा की आयु मनुष्य से भी बहुत बड़ी होती है
आशचर्यजनक है

प्रिय की देह मुझे कलम लगती है
मेरी देह कागज़
दुर्भाग्यवश इस कागज़ पर नहीं लिखी गई कोई कविता
हम सभ्य घोषित हुए, न ही हम प्रेम कर सके, न ही छिप के मिलने के खतरे उठाये
अंततः हमने महान होना चुना, प्रेमी नहीं
हमारे पास इतना सामर्थ्य ही नहीं था कि हम अपने भविष्य में जाकर किसी शिशु के माता पिता बनते
फूँस से छत बाँधते, एक वृक्ष लगाते
हम ऐसा कुछ भी नहीं कर सके
हमनें अपनी मनोकांक्षाओं को मृत्युदंड दिया
हम उपेक्षाओं की डाल के बंदर बने रह गये।


बातों का एक गुड़ घुलता है प्रेम की जिह्वा के नीचे

अत्रि, जामवंत, कृपाचार्य, परशुराम
कौन कौन है जीवित अभी भी
तारामंडल की ठीक ठीक सच्ची कहानियाँ
कौन कौन जानता है
गवाक्ष, गवय, द्विविद, शरभ
कौन कौन जानता है इन वानरों की जीवनी
झूमरों के टापू के मलबे तले मिली नर्तकियों
की आयु ठीक ठीक किसे पता है
यक्ष जब मेघों को समझा रहे थे अलकापुरी तक पहुँचने का मार्ग
कौन कौन सुन रहा था उन्हें

हर बात नहीं जानता हर कोई
हर बात कही नहीं जाती हर किसी से
कुछ बातों की एक लम्बी आयु होती है
कुछ बातों की भ्रूण हत्याएँ कर दी जाती है
कुछ बातों की पपड़ियाँ ओष्ठ पर जमी रहती हैं
कुछ बातें हमारे भीतर आयु भर पिघलती हैं
कुछ बातों को जन्म देकर छिपाकर किया जाता है उनका लालन पालन
पृथ्वी पर जितनी बातें छिपाई गई, उतना तो धन भी नहीं छिपाया गया, न ही प्रेम संबध
किसी को हम नहीं बताना चाहते कोई बात
किसी से हम कह देना चाहते हैं मन की सारी बातें

मुझे अरस्तु की बातें प्रिय हैं, सुकरात की बातें अति प्रिय
दो हृदयों की एक सी बातों से जन्मता है विश्वास
मुझे अपनी आयु बढ़ाने के लिए प्रेम से भरी बातों की आवश्यकता है
प्रेम से इतनी भरी हों वे बातें कि अगर उन्हें छुआ जाये तो ऊँगलियों में उतर आये प्रेम और जा पहुँचे किसी के माथे तक
बुखार में कहीं जाये सबसे कोमल बातें जो सीधे छूटकर आईं हों मन के सबसे शिशु हिस्से से
प्रेम से भरी किसी बात में ही मेरे प्राण निकले
वहीं मेरा मोक्ष है
माँ की कही बातें मैंने बच्चों में बाँट दी हैं
पिता की कही बातें मैंने अपनी कविताओं को दे दी हैं
भाई ने जो बातें कहीं वह मेरे दोस्त जानते हैं
बहन होती, तो बहुत कुछ कहती, उसकी कही बातें मैं प्रेयस को अवश्य बताती
दोस्तों की कही बातें मैं शत्रुओं से कहना चाहती हूँ ताकि वे समझ सकें कि मेरा शत्रु होकर वे भिक्षुक ही रहेंगे
मेरे पास भी थोड़ी सी बातें हैं
अभी उन सब बातों को कह पाने में समय है
कुछ बातें मैंने लिखकर ड्राफ्ट में बचाकर रखी हैं, वह शायद किसी से न कह पाऊँ
मेरे बाद उन्हें जो पढ़ सकेगा, वह मुझसे अवश्य ही प्रेम करेगा, ऐसा मेरा अँधविश्वास है

बातों का चित्ताकर्षक सौंदर्य देखना हो तो छोटे बच्चों से बात करो
या उससे जिसके भाग्य में हो एकतरफा प्रेम
बातों की एक झिल्ली से बिंधे हैं इस दुनिया के सबसे सुंदर अधर
कुछ बातें छिपी हैं आँखों में
इन्हें वही देख पायेगा जिसे बहुत कम बातें कहने का अवसर मिला
बातें, जो हमारी सबसे क्रियाशील अभिव्यक्ति है, हमें हमारा महत्व चाहे हमें बताये या न बताये
हमें यह तो अवश्य ही बताती हैं कि एक मन भी हर लिया अगर अपनी सच्ची मीठी बातों से तो, तुमसे धनेश कोई नहीं

बातों की एक धुनकी मस्तिष्क में सदैव ही नृत्यरत रहती है
बातों का एक हवाईजहाज उड़ता है सबसे ऊँचे बादल के ऊपर
बातों की एक मीन मन में अंत तक प्यासी रहती है
बातों का एक गुड़ घुलता है प्रेम के जिह्वा के नीचे
बातों का एक झुंड हमें अकेला पाकर आक्रमण चिल्लाता है
सारी उपदिशाओं में बातों के अणु तैर रहे हैं
बातों के एक अंतहीन चुप से चौंकती हैं हमारी आँखें
बातों की कुछ हिचकियों से उछलते हैं दो प्रेमी
बातों का एक लाल पुष्प खो़स लेती है नई नई प्रेम में पड़ी लड़की अपनी चोटी में
नये नये प्रेम में पड़ा लड़का बातों के पुष्प से बनाता है जयमाल

बातों बातों में ही कह दी गई इस दुनिया की सबसे कड़वी बातें
मीठी बातें कहने के लिए एक अतिरिक्त बात की भी आवश्यकता नहीं पड़ी
मेरे लिए बनाओ बातों की एक पालकी
मेरे होने वाले चार काँधियों, मुझे ले जाते समय तुम सभी अवश्य ही मुझसे कह देना अपने मन की वे सभी दबी बातें जो तुम किसी से कह न सके
मैं अवश्य ही सुनुँगी, उस समय नहीं बोल पाऊँगी कोई बात परंतु तुम्हें आशीष अवश्य ही दे जाऊँगी।


जोशना बैनर्जी आडवानी
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