स्मृतिआँगन: वो मसीहा मोहब्बत के मारों का है ~ गीताश्री | Dhirendra Asthana in GeetaShri's SmritiAangan

मुझे हमेशा लगता रहा है कि हम जितना दूसरों के अनुभवों को समझकर जानकार बनते हैं, उतनी आसानी से और किसी तरह नहीं। खुश हूँ कि गीताश्री ने अपनी यादों को हम तक पहुंचाना शुरू किया है, जिसकी पहली कड़ी में वे संपादक साहित्यकार धीरेंद्र अस्थाना को लेकर आई हैं।  
हिन्दी दिवस की बधाई के साथ गीताश्री के स्मृतिआँगन में स्वागत है।~ सं० 


Dhirendra Asthana in GeetaShri's SmritiAangan


स्कर्ट और टॉप पहनने वाली ललिता ने एक आदमी का कालर पकड़ा हुआ था और वो आदमी गिड़गिड़ा रहा था, बहन जी छोड़ दो, गलती हो गई। भीड़ अपने काम में जुटी थी— आदमी पर लात, घूंसे, चांटे बरसा रही थी। मुझे देख ललिता गरजी, साला कह रहा था, चलो चलिए। चल, अब पुलिस चौकी चल। 


गीताश्री के स्मृतिआँगन में धीरेंद्र अस्थाना 

वो मसीहा मोहब्बत के मारों का है...

~ गीताश्री

पता नहीं कहाँ पढ़ा था लेकिन मेरी नोटबुक में वो पेज आज भी मौजूद है जिस पर लिखा है —“मेरी तमाम कोशिशें फ़िज़ूल और प्रतिबद्धताएँ संदिग्ध ठहराई जा चुकी है। इस संसार में एक छोटे आदमी की अकेले पड़ जाने कि यह विराट पीड़ा है जिसे मैं अपनी आँख से देखने और महसूस करने पर मैं इस मुल्क के एक बड़े वर्ग समूह की छाती में कलपता पाता हूँ मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं इन लोगों के बीच खड़ा हो जिनके हक़ छीन लिए गए हैं।”

साहित्य को लेकर मेरी समझ तब थोड़ी बननी शुरू हुई थी और मैं किसी भुक्खड़ की तरह टूट कर पुरानी चीजें ढूँढ कर पढ़ना चाहती थी। संगति भी थी ऐसे लेखकों की जो मुझे पठनीय सामग्री मुहैया कराते थे।

उसी दौरान की बात है। लेखन प्रक्रिया की समझ बन रही थी कि ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलीं। कहने में गुरेज़ नहीं कि मेरे कथा-गुरु राजेन्द्र यादव ने कहीं से खोज कर दी और कहा — धीरेंद्र को पढ़ ले … पत्रकारिता से ये भी जुड़े हैं। साहित्य और पत्रकारिता के बीच संतुलन सीख सकेगी और एक समझ भी विकसित होगी कि पत्रकारिता में स्थापित होने के बावजूद वो कौन सी खला है जो इस बला को लेखन की तरफ़ मोड़ रही है।”

वे ठहाका लगाते थे और मैं इन पंक्तियों से जूझने लगती थी।

जबकि ये सच मैं इन्हें बता नहीं पाई कि लेखन से जुड़ने से पहले उनके संपादकत्व में ख़ूब छपी हूँ।

मैंने बाद में उन्हें बताया — 
“याद है मुझे। मैं चीजें सँभाल कर रखती हूँ।”

आज जो संपादक नामक संस्था ख़त्म हो गई है और लेखन लगभग बेक़ाबू हो चला है। ऐसे समय में मुझे याद आता है वो दौर जब आप संपादक के सामने बैठे हों, वो आपको कुरेद कर पूछते हैं – “ इन दिनों क्या किया? कहाँ घूम कर आई? कुछ नया और अलग सा लाई हो?”

“जी …”

“कुछ ख़ास नहीं… वेब दुनिया के काम से पुणे गई थी। पंडित भीमसेन जोशी का इंटरव्यू करने…”

“वाह ! हमें दे सकती हो ? कुछ exclusive हो तो?”

हमने तो वेब दुनिया के लिए किया, उन्हें दे दिया।

कुछ देर वो चुप रहे। देह कुर्सी पर लगातार हिल रही थी। छोटा सा केबिन और सामने मैं बैठी थी।

उनके हाथ में कोई कॉपी थी, पेन थी, कोई मैटर पढ़ रहे थे, एडिट भी कर रहे होंगे, ऐसा मेरा अनुमान था।

मेरे पास उनकी पत्रिका को देने के लिए कुछ नहीं था और मैं उनसे असाइनमेंट माँगने पहुँची थी।

जबकि होना ये चाहिए कि कुछ आयडिया लेकर मैं पहुँचती वहाँ, उन्हें बताती और उनमें से एक चुन कर वे मुझे काम पर लगाते। मैं यात्रा से लौटी थी और बस कायनेटिक होंडा चलाती हुई उनके ऑफिस पहुँच गई थी। वजह थी… मैं उनसे मिलने और बात करने में ज़्यादा रुचि ले रही थी। मेरे भीतर जो रूखा-सूखा पत्रकार था, उसे ऐसी संगतियों और गपशप में भी आनंद आता था। कुछ न मिले तो भी कुछ लेकर हम लौटते हैं जब ऐसे किसी व्यक्ति के समक्ष बैठते हैं।

मुझे बहुत सुख मिला जब बिना आयडिया के उन तक काम माँगने पहुँची मुझे उन्होंने जज नहीं किया। बल्कि मुझे कुरेदने लगे… भीमसेन जोशी पर बातें करने लगे। उनकी गायकी पर। फिर अचानक मेरा अनुभव पूछा… “तुम्हें कैसा लगा मिल कर…?”

“इंटरव्यू छोड़ो… अपना इंप्रेशन बताओ…”

लिविंग लीजेंड से मिलने का जादू वो पूछ रहे थे और मैं जैसे भरी बैठी थी।

मैंने उन्हें बताना शुरु किया कि कैसे भीमसेन जोशी के घर में हमारा स्वागत हुआ… किस तरह पंडित जी और उनके परिवार ने व्यवहार किया। मेरे साथ तब आज की प्रख्यात सिने लेखिका अनिता पाध्ये भी थीं। और रिकार्डिंग के लिए दो लड़के भी थे। पंडित जी ने उन्हें रोक दिया था, वो अंदर न आ सके थे। वीडियो रिकार्डिंग से पंडित जी ने सख़्ती से मना किया और हमारे बहुत आग्रह पर सिर्फ़ पूरी बातचीत टेप रिकार्डर में टेप करवाने को राज़ी हुए।

वीडियो के लिए उन्होंने खुल कर पैसों की डिमांड की जो हम उन्हें दे नहीं सकते थे। उन्हें हमने बहुत समझाया कि यह वेबसाइट के लिए है, दूरदर्शन के लिए नहीं। पंडित जी ने बताया कि वे दूरदर्शन से पैसा लेते हैं।

हम बहुत आग्रह किए, न माने। अनिता इस पूरी बातचीत को को-ऑर्डिनेट कर रही थीं। हम मुंबई से बाई रोड यात्रा करके पूणे पहुँचे थे। पंडित जी ने इतना निराश किया कि बातचीत का उत्साह जाता रहा। मेरा मन उचट गया और उनके घर एक घंटे बैठे, पानी पीकर निकले।

महान लोगों से व्यक्तिगत तौर पर मिलने का मेरा उत्साह हमेशा के लिए मर गया और वो फिर ज़िंदा न हो सका। मेरा मन होता है, घोषित महान लोगों के दरवाज़े पर तख्ती टांग दूँ कि इधर भूल कर भी न आना, बहुत ठेस पहुँचेगी।

मैं अपने इस संकल्प पर आज भी क़ायम हूँ। मुहब्बत होगी तो किसी साधारण व्यक्ति के दरवाज़े पर खड़ी हो जाऊँगी …

आप महानता बोध से भरे हुए हैं तो दूर से सलाम।

ये सारी बातें मैं रोष से भर कर बोले जा रही थी… और बोलती अगर जो वो न रोकते।

वो मतलब वरिष्ठ साहित्यकार —संपादक धीरेंद्र अस्थाना।

मेरे लिए वे पहले पत्रकार फिर साहित्यकार रहे और आज भी मैं उनके पत्रकारीय रुप की प्रशंसक हूँ। इस पर आगे बात होगी।

फ़िलहाल महानता पर बातें।

धीरेंद्रजी ने मुझे बीच में ही रोक दिया…” रुको … मैं समझ गया… पूरा मत सुनाओ…”

“इंटरव्यू तुम वेबदुनिया को दे दो... मुझे तुम अपना यह वृतांत दो। पंडित भीमसेन जोशी से मिलना और महानता के मिथ का टूटना… तुम्हारे कोमल मन पर इसका प्रभाव और उनका रुखा व्यवहार …! मैं चाहता हूँ, यह पक्ष भी सामने आए। “

मैं वहाँ से ये काम लेकर लौटी और लगभग हाथ का लिखा आठ पृष्ठों का आलेख लेकर उन्हें देने गई।

उस दिन उनके चेहरे पर कुछ तनाव था, खुल कर कुछ कहा नहीं, तब शायद निकटता कम थी या, उन्होंने सोचा होगा कि किसी फ्रीलांसर से क्या बात करना। वो ऑफिशियल मसला रहा होगा। उन्होंने मेरे सामने ही आलेख पढ़ा और उन्हें अच्छा लगा कि मैंने उनके सुझाए सारे पहलुओं पर खुल कर लिख दिया था। मुझे कभी भी किसी की महानता आक्रांत नहीं करती न दबाती है। मेरे प्रोफ़ेशन ने मुझे हमेशा महानता के बोझ तले दबने से बचाए रखा। हम महान लोगों के सामने स्थिर और सम पर रहने की कोशिश करते हैं।

उस आलेख को कंपोज़ करने के लिए किसी को आवाज़ लगाई। मैं उन्हें सौंप कर उठने लगी तो मुझे एक किताब पकड़ाई –- “इसका रिव्यू कर देना।”

पतला-सा उपन्यास था, जयंती (जयंती रंगनाथन) नामक लेखिका का। जो बाद में मेरी अभिन्न मित्र बनीं, उसकी वजह यह समीक्षा भी रही। मैं उनसे और उनके लेखन से परिचित नहीं थी। उपन्यास पढ़ा और छोटी-सी समीक्षा लिख कर दे आई। तब हमें शब्द संख्या पृष्ठ पर जोड़ना पड़ता था। आज हम कंप्यूटर पर शब्द संख्या चेक करते हैं। आज आसानी है। तब कहा जाता था, पाँच सौ, हज़ार शब्द से ज़्यादा मत लिखना।

हम पेज पर शब्द काउंट करते और बड़ा होता तो ख़ुद से संपादित करके भेजते। ज़्यादा बड़ा हो तो वैसे ही भेज देते कि कॉपी एडिटर ठीक कर ले। यह कितना बड़ा अन्याय था, यह तब समझ में आया जब मैं ख़ुद कॉपी एडिटर बनी। तीन हज़ार शब्दों की कॉपी को तीन सौ शब्दों में करने की तकलीफ़ कोई क्या जाने।

तो मैं उस उपन्यास की समीक्षा उन्हें लिख कर दे आई। वह जल्दी छप गई। आलेख छपने में देरी हो रही थी और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। तब हमें संपादक को फ़ोन करते बहुत हिचक होती थी। इससे बेहतर मिल कर बात करना।

और फिर… मैंने आलेख को भुला दिया। नौकरी लग गई, काम में डूब गई। तभी कुछ दिन बात पता चला कि वह पत्रिका “ जागरण उदय” बंद हो गई।

एक बढ़िया पत्रिका का बंद होना, दुखद था। तभी मुझे ध्यान आया कि उस दिन आलेख देते समय वे तनाव में क्यों थे। वे मुझसे कुछ कह क्यों नहीं पाए। आलेख का असाइनमेंट देते समय वे सहज थे, लेते समय वे असहज। वे मुझे मना भी नहीं कर पा रहे थे और बता भी नहीं रहे थे कि पत्रिका कुछ अंकों की मेहमान है, शायद न छाप सकूँ।

वे चाहते थे कि आख़िरी अंक में भी छपे। उतना स्पेस न मिला होगा और वो आलेख रह गया छपने से। जिसे मैंने बड़े मन से लिखा था। जो छपता तो कई मिथ टूटते। तब पंडितजी जीवित थे। मैंने सोचा था कि पत्रिका का वह अंक उनके पते पर भिजवाऊँगी ताकि वे पढ़ें कि दूर से चल कर आई दो पत्रकारों को अपने घर से पानी पिलाकर विदा कर देना कितना निर्मम होता है। इंटरव्यू के लिए पैसे माँगना एक श्रमजीवी पत्रकार से कितना दुखद होता है। हम तो अपना काम कर रहे थे।

हमने उन्हें गाने को तो नहीं कहा था, सिर्फ़ बात ही तो करनी थी…!

मोहभंग ऐसे ही होता है। वास्तव में मोहभंग हमारी भावनाओं का खून कर देता है। लेख नहीं छपा, उसकी कॉपी वापस नहीं मिली, लेकिन उसे लिखते हुए मेरी शुद्धि हो गई। मुझे धीरेंद्रजी ने हमेशा के लिए बचा लिया।

मैंने महानता के मक़बरे पर चिराग़ जलाना बंद कर दिया।

धीरेंद्रजी ने मुझे मुक्ति दिलाई। पत्रकारिता का एक पाठ पढ़ा मैंने जो साहित्य संसार में भी काम आ रहा है। 

जो रचेगा वही बचेगा 

उनके इस सलोगन की चर्चा तब ज़ोरों से शुरु हुई थी जब उन्होंने मुंबई में सबरंग का संपादन करते हुए एक कॉलम शुरु किया था —
“जो रचेगा वो बचेगा “

लेखकों / पत्रकारों को लेखन की तरफ़ मोड़ने वाला यह ब्रम्ह वाक्य मुंबई से होता हुआ दिल्ली तक पहुँचा और सबके कंठ में बस गया। उस वक्त भारी संख्या में पत्रकारों ने साहित्य की तरफ़ रुख़ किया। उनकी दबी हुई लेखनी, काव्य प्रतिभाएँ, उनका किस्सागो बाहर आने लगा। वह दौर रचनात्मकता के उभार का दौर था, आज की तरह विस्फोट का दौर नहीं। इस कॉलम ने खोये-सोये अरमान जगाए। अपनी रचनाओं के आलोक में जगमगाने लगे थे लोग। 

ख़ुद चाहे कम रचे, बहुतेरे लोगों से लिखवाया। दूसरों से लिखवाने का उनका सिलसिला दिल्ली-मुंबई हर शहर में जारी रहा… एक संपादक / कॉपी एडिटर / फ़ीचर एडिटर की सारी ज़िंदगी दूसरों को आयडिया देकर लिखवाने में, उसकी कॉपी ठीक करने में, संपादन करने में, सुंदर मानीखेज हेडिंग लगा कर छापने में खप जाती है। अखबारी जीवन बड़ा शुष्क होता है जहां अपना लेखन रुष्ट हो जाता है। अपनी प्रतिभा दूसरों को चमकाने में लग जाती है। जाने कितने बड़े लोगों की कॉपी जाँचते हुए / बाँचते हुए एक संपादक / पत्रकार काम करता जाता है। उसके सीने में लेखन की आग दबी-सी रह जाती है। इनके साथ भी यही हुआ, इनके तमाम दोस्त गवाह होंगे। 

मैंने राजेन्द्र यादव को कई बार इन पर झुंझलाते देखा है। एकाध बार फ़ोन पर झिड़कते भी। फ़ोन रखने पर बताते कि कहानी नहीं दे रहा … देखो तो… 

उनके मुख से प्यार भरी गाली फूल-सी झड़ जाती। 

इस तरह उनका एक चरित्र मेरे सामने बनता रहा। जो दूसरों को प्रेरित करता है वो ख़ुद अमल क्यों नहीं करता जबकि उनका ब्रम्ह वाक्य हमारे दिमाग़ों में घुसने लगा था। हम उसी दिशा में सोचने लगे थे कि बचे रहने के लिए रचना होगा। और फिर एक दिन पत्रकार रहते हमने ऊँची छलांग लगा दी। 

तब इसके भीतर की सच्चाई, छल छद्म मालूम न थे। ये भी पता न था कि रचने की क़ीमत किस तरह चुकाई जाती है और यह बहुत ही निर्मम प्रक्रिया है। बचने के चक्कर में रचते-रचते एक दिन लगा, मैं कहीं ख़त्म हो रही हूँ। इतना झोंकना उचित नहीं। धीरेंद्रजी ने इतना झोंकने को नहीं कहा था कि सबकुछ छोड़ कर लेखन के पीछे पड़ जाओ। वो ख़ुद ही नौकरी की लंबी पारी खेलते रहे। 

मैंने कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लिया था और जिसकी वजह से बहुत कुछ छूट गया। सबकुछ लुटा कर होश में आए तो क्या किया…

अब कोफ्त होकर ठीक उलट कहती हूँ — “हम बचेगा तो रचेगा !”

उनसे सीखने को और भी बहुत कुछ है। हर दिन, हर बात में वे कुछ सीख दे जाते हैं। उनसे जितने भी संवाद होते हैं, उन्हें सँभाल कर रखती हूँ, मन उलझे, कुछ न सूझे तो संवाद पढ़ लिया करती हूँ। 

अभी कुछ संशय था… कहीं जाने आने को लेकर। मैं चाहती हूँ, वो भी एक आयोजन में शिरकत करें। वो लगातार आयोजकों को मना करते जाते हैं। 

मैंने पूछा तो उनका लिखित जवाब आया — 
“मैं कामू काफ्का सार्त्र का शिष्य रहा हूं, अध्ययन के स्तर पर इसलिए लेखन के सिवा किसी बात को महत्व नहीं दे पाता!”

गहरे आदर से भर गई हूँ। 

काफ़्का का एक कथन याद आया जब वो स्वीकारते हैं —“ मैं हर समय अपनी क़ैद अपने अंदर लिए रहता हूँ।”

या 

“एक किस्सागो क़िस्सा कहने की कला के बारे में कुछ नहीं बता सकता। वह क़िस्सा कहता है, या चुप है। उसकी दुनिया या तो उसके अंदर धड़कती है या ख़ामोश हो जाती है।”

धीरेंद्रजी को मैंने हमेशा ऐसा ही पाया। 

ये बात सीखने लायक़ है। लेकिन मैं नहीं सीखूँगी … क्योंकि हमारे स्वभाव और सोच भिन्न हैं। 

इन दिनों जब मैं उन्हें बहुत क़रीब से जानने लगी हूँ— तब समझने लगी हूँ। अपने दोस्तों के लिए वे अलग हो सकते हैं, मेरे लिए वो वैसे ही हैं, जैसे ग़ुस्ताद जैनुक के लिए काफ़्का। 

बहुत लंबे साथ के बावजूद ग़ुस्ताद उन्हें समझ नहीं पाया। 

मैं भी समझने के दौर में हूँ। बस संगति नहीं मिली। जब परिवार का हिस्सा बनी तो शहरों की दूरियाँ आड़े आ गई। 



मैं अपने द्वीप में रहता हूँ 

यह सच है, दुनिया में रहते हुए अलग दुनिया के निवासी हैं। अपने बारे में उनकी यह राय सही है और मेरी भी यही राय बनी है कि वे अपने अलग द्वीप में रहते हैं। एक शब्द में कहें तो वीतरागी। 

इसीलिए उनका हाल-चाल जानना भी कई बार मुश्किल हो जाता है। काफ़्का की चर्चा से याद आयी वो घटना जब वे फेफड़े के संक्रमण से जूझ रहे थे। तब मुझे उनका हाल बता रहे थे, मित्र पंकज कौरव। मैं कभी पंकज को तो कभी फ़िरोज़ को फ़ोन लगाती। बहुत डरी रहती थी उन दिनों। एक बार बात कराई पंकज ने तो उनकी आवाज़ सुन कर बहुत रोना आया था। दुआ के लिए मेरे हाथ उठे रहते थे। जब तक वो ठीक होकर वे घर नहीं आए, मुझे कल नहीं पड़ा। हॉस्पिटल में संक्रमण से जूझते हुए वे मुझे जब भी याद आते हैं, सिहरा देते हैं। बाद में मैंने उनसे हॉस्पिटल के अनुभव पर एक कहानी के शिल्प में रहस्यमय संस्मरण लिखवाया। उसे पढ़ कर और सिहर उठे हम। मेरे संपादन में एक किताब आई है — वो क्या था (शिवना प्रकाशन) उसमें शामिल है। 

मेरा डर स्वाभाविक था। 

काफ़्का भी फेफड़ों की बीमारी से जूझते रहे हैं। वे शर्मीले, घरघुस्सू, विनम्र और अच्छे थे। लेकिन उन्होंने जो किताबें लिखी, वे क्रूर, दर्द से भरी हुई, उन्होंने एक ऐसी दुनिया देखी जो अदृश्य दैत्यों से भरी हुई थी और जो असहाय मनुष्यों के खिलाफ लड़ते हैं और उन्हें नष्ट कर डालते हैं। 

धीरेंद्र अस्थाना के दो उपन्यास मैंने पढ़े हैं और कई कहानियाँ पढ़ी हैं। जितनी पढ़ीं, सब याद है। ऐसा कम होता है कि किसी लेखक की सारी रचना स्मृति में बची रहे। न मैं उनके उपन्यास “ देश निकाला” (2009) के किरदारों को भूल पा रही हूँ न “गुजर क्यों नहीं जाता“ के मार्मिक कथानक को। 

देश निकाला के नायक गौतम सिन्हा भी अपने लेखक की तरह ही एकांत प्रेमी हैं और महानगर से दूर एक शांत इलाक़े में रिहायश बनाता है। 

इस उपन्यास में गोवा अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल का ज़िक्र आता है जहां नायक कोरियन फ़िल्म देख कर बाहर निकलता है और एक बार में जाकर बैठ जाता है। मुझे याद है, उस बरस हमलोग गोवा में फ़िल्म समारोह साथ कवर कर रहे थे, अपने-अपने अख़बार और पत्रिका के लिए। मैं तो हर साल जाती थी, जब तक नौकरी में रही। जब से गोवा में शुरु हुआ तब से। धीरेंद्रजी पहली बार आए थे, उनके साथ मेरे मित्र प्रदीप तिवारी भी आए थे जिनकी बाद में बीमारी से मृत्यु हो गई। उस बरस हम तीनों साथ-साथ ही रिपोर्टिंग कर रहे थे। साथ ही फ़िल्में देखते, समारोह कैंपस के पीछे एक कोंकणी रेस्तराँ में लंच करते और शाम को मीडिया सेंटर में बैठ कर काम करते। मुझे रोज़ नहीं लिखना पड़ता था लेकिन धीरेंद्रजी अख़बार में रोज़ रिपोर्ट भेजते थे। उन दिनों वे अपने अख़बार में हर सप्ताह फ़िल्म समीक्षा लिखते थे। मुंबई में रहने के कारण वे हम दिल्ली वालों से पहले फ़िल्म देखते और लिखते थे। बेहिचक लिख रही हूँ कि उनकी समीक्षा पढ़ कर ही फ़िल्म देखने के लिए तैयार होती थी। उनकी इतनी तटस्थ, स्पष्ट और सुलझी हुई समीक्षा होती थी कि या तो दिलचस्पी जागती या एकदम ध्वस्त हो जाती थी। साहित्य और रिपोर्टिंग से परे यह अलग लेखन और रुप था उनका। जब गोवा में मिले तब वे उस वक्त पूरी तरह फ़िल्म समीक्षक नज़र आए जिसे अकेला फ़िल्म देखने में मज़ा नहीं आता था। वे हम सबके साथ ही रहते थे। हमारी एक टोली बन गई थी जो सुबह से शाम तक फ़िल्में देखती और समारोह के रात्रि भोज में शामिल होती। वे सुंदर दिन थे। हम दोनों को प्रदीप भी जोड़ता था। प्रदीप सिर्फ़ फ़िल्म देखने आए थे। हम तीनों उनके साथ बैठ कर देखी हुई फ़िल्म पर चर्चा करते। 

“गुजर क्यों नहीं जाता“ उपन्यास में दिल्ली के दुख-दर्द की दास्तानें हैं जो कलेजा चीर कर निकलती हैं। 

यक़ीन नहीं आता कि तकलीफ़ें इस तरह भी आती हैं। दुख-दर्द की भट्ठी में तप कर बनते हैं धीरेंद्र अस्थाना जैसे लेखक जिनकी आँखें ताप की तायी हुई लगती हैं। 

मानो उन आँखों को कभी नींद आती न हो। बहादुर को भी नींद नहीं आती थी। धीरेंद्रजी की आँखें बाहर की तरफ़ निकलती दिखाई देती हैं … बेधक आंखें। उनके भाव पढ़ पाना आसान नहीं कि वे कितना बाहर देखती हैं कितनी भीतर। 

क्या पता था कि इन आँखों में एक दिन इन आँखों में मेरे लिए इतना स्नेह होगा कि वे मेरे बाप बन जाएँगे। उम्र का फ़ासला ज़्यादा नहीं होगा मगर बाप बन बैठे हैं और ललिता अम्मा ! 

मुंबई जाऊँ तो उनके घर पर जाना वैसे ही है जैसे मायके में। वैसे ही स्वागत और विदाई। वे सारी तस्वीरें गवाह हैं। अब वो मेरा भी एक घर है जहां बेधड़क कभी भी उठ कर ज़ाया जा सकता है। उनसे कुछ भी बातें की जा सकती हैं। दुनिया, समाज और साहित्य की सारी बातें, शिकायतें सब। वे धैर्यपूर्वक सुनते हैं और समझाते हैं —“मुग़ालते में मत रहा करो।“

यही नहीं। हाल में मेरी एक कहानी पढ़ने के बाद उनका मैसेज आया —

“उम्र भर यही मानते रहे कि गंदा आदमी अच्छा लेखक नहीं हो सकता।
पता चला हम मूर्ख हैं।
अगर व्यक्ति अच्छा नहीं है तो लेखक अच्छा हो ही नहीं सकता।
ऐसा मैं मानता और यकीन करना चाहता हूं।”

उनकी बातों से मुझे यक़ीन हो गया है कि इसीलिए वे अपने बनाए द्वीप पर रहते हैं। शायद इसीलिए वे बाहर कम निकलते हैं ताकि बौद्धिक मोहभंग से बचे रहे। जैसे काफ़्का ने ख़ुद को बचाने के लिए घरघुस्सू बना लिया था।



तुम रुकोगी नहीं वैशाली

बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे कविता भी लिखते हैं। अक्सर कहानीकार अपनी कविताएँ छुपा लेते हैं। उन्हें साइड में रखते हैं कि कहीं उनकी कहानियों पर कविताएँ हावी न हो जाए। उनकी कविताएँ भी उतनी ही दमदार होती हैं और वे जानते हैं। 

मेरे हाथ लगी है, उनकी कुछ कविताएँ। और मैं चकित हूँ कि उन्होंने इसे दबाया क्यों? न दबाया होता तो “निरुपमा दत्त ” (कुमार विकल की कविता) और “चेतना पारीक” (ज्ञानेन्द्रपति की प्रसिद्ध कविता में व्यक्त एक नाम) की तरह एक और रहस्यमयी स्त्री चर्चित होती काव्य जगत में - वैशाली ! काव्य -प्रेमी वैशाली को उचित स्थान देते। यकीनन ! 

वैशाली नाम पढ़ कर मैं चौंक गई। 

एक पाठ और सीखा रहे हैं वो कि कहानीकारों को अपनी कविताएँ नहीं दबानी -छुपानी चाहिए। यह कविता के साथ अन्याय है। 

इस दौर में जब नयी पीढ़ी एक साथ कविता, कहानी, उपन्यास में सक्रिय है। उनकी पहचान गड्डमड्ड हो रही, फिर भी जोखिम उठा रहे। आख़िर रचना को दबाए क्यों या बीच राह में छोड़े क्यों ? 

साथ चल सकती है तो चलनी चाहिए। 

एक कविता के कुछ अंश मुझे याद है जो 1988 में लिखी गई थी। 

1

अब जबकि 
उँगलियों से फिसल रहा है जीवन 
और शरीर 
शिथिल पड़ रहा है 
आओ …
अपन प्रेम करें वैशाली ! 
एक अशक्त 
और थके हुए समय में 
छलरहित होता है प्रेम 
और 
ख़त्म होते जीवन को 
अथ में बदल देता है ! 

2

आँखों में जुनून 
और आँखों में हाहाकार लिए 
तुम एक गाँव से दूसरे गाँव 
और 
एक शहर से दूसरे शहर 
कब तक 
आती जाती रहोगी वैशाली ! 
शहर अगर कठिन है 
तो गाँव 
असंभव 
असंभव रास्तों पर चलकर 
तुम जीवन को 
कठिन क्यों कर रही हो वैशाली ! 
जरा-सा रुको 
वैशाली 
इस थका देने वाले सफ़र में 
कोई तो होगा 
जो तुमसे 
अपना अर्थ जानना चाहे 
तुम्हारे होने को महसूस करता हुआ 
रुकोगी नहीं वैशाली ! 


दंत-कथाओं के नायक

वे एक साथ सहज और दुरुह दोनों हैं। अपने भीतर रहते हुए भी उन्हें बाहर सबका ख़्याल रहता है। सहजता इतनी कि उन्हें पता चले कि किसी गलत व्यक्ति को अनजाने में सपोर्ट कर दिया है तो तुरंत पीछे हट कर अपनी अनभिज्ञता स्वीकार लेते हैं। 

उनमें बड़े लेखक वाला महानता बोध अब तक नहीं आया जबकि उनके बाद की पीढ़ी में कई सितारे घोषित कर चुके ख़ुद को। सहजता से सबसे मिलना, सबके बुलावे यानी व्यक्तिगत आग्रह पर जाना। सबको पढ़ना और यथासंभव लिखना। कौन वरिष्ठ करते हैं? किसे वक्त है या मिज़ाज है कि परवर्ती पीढ़ी को पढ़े? 

ऐसे में कुछ ही वरिष्ठ नज़र आते हैं जो नियमित पढ़ रहे हैं और टिप्पणी कर रहे। उन्हें जैसी किताब लगती है, कहानी जैसी लगती है, वो बेहिचक लिखते हैं। कई बार खुल कर आलोचना कर देते हैं, बिना इसकी परवाह किए कि सामने वाला कितना क़रीब या दूर है। इस मामले में वे संबंध नहीं निभाते, वे रचना के साथ संबंध देखते हैं। कई किताबों पर उन्हें तल्ख़ होते देखा है, कई कहानियों पर फ़िदा होकर लिखते देखा है। उनका यह साहस अनूठा है। न बिगाड़ का डर न दबाव की फ़िक्र। जैसी लगेगी, वैसी लिखेंगे। 

ख़ुद कम लिखते हैं और जब लिखते हैं तो कई दिन तक साहित्य संसार हिला रहता है। उनका विरोधी भी दबी ज़ुबान में कहता है- “कहानी कैसे लिखी जाती है, इनसे क्यों नहीं सीखते ?” 

तब मुझे मनोज रुपड़ा के एक इंटरव्यू का वो हिस्सा याद आता है जिसमें वे अपने कथा जीवन पर धीरेंद्र अस्थाना के प्रभाव को खुल कर स्वीकारते हैं। 

मैंने कई आलोचकों और कथाकारों में उनकी कहानियों को लेकर प्रशंसा भाव देखा है। 

मैं तो उनके स्वभाव और कथा के जादू में बहुत पहले से हूँ लेकिन उसके बहुत पहले से उनकी पत्रकारिता पर रीझी हुई हूँ। 

वे न सिर्फ़ अपने लेखन के चकित करते हैं बल्कि उन दंत कथाओं से भी हमें रिझाते हैं जो हमने टुकड़ों में सुनी है। कुछ उनके चाहने वालों से तो कुछ ख़ुद उनसे। 

दंत कथाओं में वे एक नायक की तरह नज़र आते हैं जिसके लिए एक पहाड़ी लड़की सबकुछ छोड़ कर उससे प्रेम कर बैठती है और उसकी जीवन संगिनी बन जाती है। जो आज तक निर्वाह करती है और यह लड़की उनकी कहानियों, उपन्यासों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है। यही उनके जीवन और कथा की नायिका है, स्त्री सशक्तिकरण का प्रतीक और प्रेम में डूबी हुई, नायक के जीवन को सहेजती, सँभालती हुई। उसके क़िस्सों का गवाह और भागीदार भी। 

सही समझे … यही अपनी चुलबुली, मस्त मौला, हरदिल अज़ीज़ ललिता जी। यानी मेरी ललिताम्मा। 

अपना बनाना और नेह लुटाना भी एक कला होती तो नि:संदेह ललिता जी उसकी मास्टर होती। अन्यथा अपनी धुन में रहने वाले, अपने भीतर रमने वाले अपने जैसा एक लेखक को संभालना, झेलना आसान नहीं होता।

क्योंकि वे जितने दुरुह हैं उतने ही सहज भी। ऐसे में सामंजस्य आसान भी है, नहीं भी है। 

जब भी स्त्री-पुरुष संबंधों, उनकी जटिलताओं और दांपत्य के बिखराव पर बात करते हैं हम तो वे हैरत से भर कर कहते हैं -– “यार, कैसे लोग इतने शत्रु हो जाते हैं, एक दूसरे के। मैं और ललिता तो आज तक उसी भाव में जीते हैं। तमाम बहसों और मतभेदों के बावजूद हमारा प्रेम अब भी वैसा ही है, पता नहीं लोग कैसे हैं जो अपने दांपत्य को सँभाल नहीं पाते।”

उन्हें हैरानी यह भी होती है कि पुरुष अब भी नहीं बदले, जबकि स्त्रियाँ बहुत बदल चुकी हैं। जहां भी संबंधों में गैरबराबरी का भाव होगा, वहाँ दुश्वारियाँ और बिखराव पैदा होंगे। 

ललिता जी शुरु से साहसी महिला रही हैं और इन्होंने उस साहस का सम्मान किया। वे बदले हुए पुरुष थे, जैसा किसी शिक्षित, जागरुक स्त्री के लिए काम्य पुरुष होता है। ज़ाहिर है, इनके संबंधों में टिपिकल पति पत्नी वाली जड़ता कभी न आएगी। 

उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया था — सुनिए — 

एक वाकया दरियागंज में गोलचा सिनेमाघर के पास हुआ। हम रात छह से नौ का शो देखकर निकले थे। ललिता को वहीं इंतजार करने को बोल मैं कुछ पीछे सिगरेट लेने चला गया। लौटा तो ललिता वहां नहीं थी, मैं घबरा गया। बदहवास मैं दौड़ता हुआ पहले आगे गया फिर पीछे आया। वह मोबाइल फोन तो दूर लैंडलाइन फोन का भी आम और सहज जमाना नहीं था। मैं बुरी तरह घबराया हुआ था। सोचिए, हमारी शादी को कुल पांच महीने हुए थे और अभी तक हम ठीक से सैटल भी नहीं हुए थे। हमारे पास न तो कोई बैंक अकाउंट था, न राशन कार्ड, न मैरिज सर्टिफिकेट और न ही कोई आई कार्ड। नवंबर की दिल्ली वाली सर्दियों में मैं पसीने पसीने था। तभी सड़क के उस पार, राजकमल प्रकाशन के बंद शटर के सामने मुझे कुछ शोर और लोगों का हुजूम नज़र आया। मैं सड़क पार कर अपने दफ्तर के बाहर पहुंचा तो मेरे होश उड़ गए। सन् 1978 का समय था। स्कर्ट और टॉप पहनने वाली ललिता ने एक आदमी का कालर पकड़ा हुआ था और वो आदमी गिड़गिड़ा रहा था, बहन जी छोड़ दो, गलती हो गई। भीड़ अपने काम में जुटी थी— आदमी पर लात, घूंसे, चांटे बरसा रही थी। मुझे देख ललिता गरजी, साला कह रहा था, चलो चलिए। चल, अब पुलिस चौकी चल। मामले को रफा-दफा कर हम आदमी को छोड़ गेस्ट हाउस पहुंचे तो मैंने राहत की सांस ली। आज भी ललिता को छेड़ना होता है तो मैं कहता हूं- “चलो, चलिए।”

ऐसी बहादुर स्त्री का प्रेमी कोई शेरदिल ही होगा।

मुझे यकीन हो चला है कि जिसे जीवन में जितना प्रेम मिलेगा, वो उतना ही औरों पर लुटाएगा। बस आपको उस प्रेम के लिए निस्वार्थ पात्रता अर्जित करनी पड़ती है। 

हम जैसे कितने मोहब्बत के मारो के वो मसीहा बने बैठे हैं। हम मुंबई जाते हैं तो कुछ देर सुस्ता लेते हैं उस छांव में। वैसे हम जैसों को उस घर में ये पता करना मुश्किल है कि ललिता जी और धीरेंद्रजी में से कौन हमें ज्यादा स्नेह करता है। 

चलो, चलते हैं वहां जहां घर छोटा और दिल समंदर है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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