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चैक एण्ड मेट - कहानी: रीता दास राम | Kahani - Check and Mate - Reeta Das Ram

रीता दास राम के लेखन का प्रवाह अच्छी गति और भाषा के साथ बढ़ रहा है। कहानीकार को बधाई और रचना हमें भेजने का आभार, पढ़िए उनकी नई कहानी 'चैक एण्ड मेट'। ~ सं० 

Kahani - Check and Mate - Reeta Das Ram

चैक एण्ड मेट

~ रीता दास राम

कवि / लेखिका /  एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई 
प्रकाशित पुस्तक: “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली), / उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कहानी संग्रह: “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर)  / कविता संग्रह: 1 “गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्द युग्म प्रकाशन)  2. “तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन). विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित: ‘हंस’, कृति बहुमत, नया ज्ञानोदय, साहित्य सरस्वती, ‘दस्तावेज़’, ‘आजकल’, ‘वागर्थ’, ‘पाखी’, ‘शुक्रवार’, ‘निकट’, ‘लमही’ वेब-पत्रिका/ई-मैगज़ीन/ब्लॉग/पोर्टल- ‘पहचान’ 2021, ‘मृदंग’ अगस्त 2020 ई पत्रिका, ‘मिडियावाला’ पोर्टल ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप, ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘नव प्रभात टाइम्स.कॉम’ एवं ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल, समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित। / रेडिओ : वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ। प्रपत्र प्रस्तुति : एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी चेन्नई, बनारस यूनिवर्सिटी, मुंबई यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज में इंटेरनेशनल एवं नेशनल सेमिनार में प्रपत्र प्रस्तुति एवं पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। / सम्मान:- 1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, तृतीय स्थान ‘तृष्णा’ को उज्जैन, 2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ 2015-16, 3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017 ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से, 4. ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’ मधुकर शोध संस्थान दतिया, मध्यप्रदेश, द्वारा ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को राष्ट्र स्तरीय सम्मान, 5. साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, मुंगेर, बिहार, 6. ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ द्वारा ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021 / पता: 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई – 400074. / मो: 09619209272. ई मेल: reeta.r.ram@gmail.com 


पूरा हफ़्ता ख़ामोश कसक जी लेने के बाद कॉल किया, यूँ ही पूछने हालचाल...जबकि वह ख़ुद अपना हाल जानना चाहता था।  

“हे...वाट्स-अप...” 

“...कॉल कैसे किया?” 

“ऐसे ही...क्यों नहीं करना चाहिए था?” 

“ये मैंने कब कहा?” 

“कहा तो...। ऐसे ख़ामोश शब्दों की लिस्ट लिए फिरती हो और...” 

“और क्या...?” 

“कुछ नहीं...हम्म...और इन्हें ही नहीं पता...।” वह कहते हुए मुँह फेर लेता है और बात नहीं पहुँचती उस तक, जो फोन की दूसरी ओर है। फोन काटने के बाद ध्यान आता है कि बेचैनी बढ़ गई होगी। हाँ, उस तरफ। उस बेचैनी का वह मज़ा नहीं लेना चाहता। पर वह चुप है कुछ देर फोन को घूरता हुआ। एक संतोष-सी फिलिंग जो किसी को बेचैन देखकर होती है, क्या वाकई ये वो है या...ये कुछ और है। वह तौलता हुआ कि क्या ये सिर्फ़ पसंद है या रिश्ता है, प्यार है...!! या यूँ ही किसी से बात करने की चाह या फिर कसक बने रहने का सबब। जानते हुए कि इच्छा भीतर बनी ही नहीं टीस भी रही है और यह जिद्द भी के उसे प्यार नहीं कहा जा सकता। कोई नाम नहीं दिया जा सकता...जाने क्यों! 

कॉल आता है उधर से जहाँ शायद कुछ बिखर गया था, “क्या हुआ? भन्नाए हुए क्यों हो?”

“कुछ नहीं। तुमसे बात करने की इच्छा हो रही थी। तो...” 

“इतनी-सी बात...सीधे-सीधे बोला नहीं जाता तुमसे?” 

“हम्म...नहीं बोला गया।...लगा, जाने क्या सोचोगी।”

“अच्छा।...और तुम मिस भी कर रहे हो।” 

“हाँ शायद” 

“हाँ कि ना??”

“पता नहीं” 

“हाँ??”

“नहीं” 

“तो चलो रख रही हूँ।” 

“नहीं...रुको” 

“किसलिए?” 

“बात करनी है।...ऐसी भी क्या बात है? हड़बड़ी में हो?!” 

“हूँ तो।...पर लगा तुम मिस कर रहे हो। बेचैन हो। उदास हो। इसलिए तुम्हें समय देने का विचार था, पर अब तुम ठीक हो तो...। काम में लगूँ।” 

“अच्छा तो तुमसे बात करने के लिए...मुझे तुम्हें मिस करना होगा?” 

“मैंने ऐसा नहीं कहा।” 

“कहने का मतलब तो यही है...और पूछती हो ऐसा नहीं कहा।” 

“मेरी ख़ामोशी बहुत पढ़ने लगे हो...क्या बात है?” 

“क्यों नहीं पढ़ना चाहिए?...कोई गुनाह है?” 

“ना” 

“क्या ना?”

“कोई गुनाह नहीं” 

“फिर” 

“फिर क्या?” 

“कुछ नहीं...”

“इत्ती-सी बात कह नहीं सकते! ...तुमसे बात करना अच्छा लगता है इसलिए फोन कर रहा हूँ।” 

“हर कुछ बताना ज़रूरी है क्या?” 

“नहीं...बिलकुल नहीं...मैं तो अंतर्यामी हूँ...है ना...तुम्हारे मन की बात पढ़ लूँगी...” 

“वैसे क्या...क्या कुछ पढ़ा?...कहो तो...” 

“यही...कि...तुम्हें मुझसे बात करना अच्छा लगता है” कह कर लोमा हँस दी। 

“कुछ अच्छा-वच्छा नहीं। अरे यार थोड़ा सा बात भर कर लेने से क्या कुछ सोचने लगी हो।” 

“सिर्फ़...मुझसे ही बातें!...क्यों करना है?” 

“हाँ यार...। सही तो कह रही हो...तुमसे ही क्यों...!!” 

“आ गए ना पॉइंट पर। अब रखो।” 

“अरे...क्यों?” 

“सनत! ...अच्छा बताओ तो खामखां बिफर क्यों रहे थे। अच्छा, अब समझी।...ख़ुद पर ही ना...!!” 

“लोमा!! कुछ भी कहती हो...कहाँ बिफर रहा हूँ!! अच्छे से तो बात कर रहा हूँ!!” 

“ओह! अच्छा!...तब तो ठीक है न। अभी मुझे काम है। बाद में बात...।” और फोन कट जाता है। सनत गहरे सोच में तो था ही जिज्ञासु भी हो गया। 

मेरे ही दिल की बात...ज़बान पर ऐसे लानी थी!! इससे तो अच्छा चुप रहती। बात ही नहीं करती। पता नहीं क्या समझती है ख़ुद को। मुझे प्यार का एहसास कराया और चुप हो गई। मेरी बेचैनी का उसे अंदाज़ा नहीं?...होगा भी कैसे? और क्यों भला!!... और ये मुझे क्या हुआ है। बार-बार उसका ख़्याल। बात करने का इंतिज़ार। अरे तो क्या?। इतना भी क्या है। कुछ दिन ही शहर घूमने का साथ था। यूँ ही बात करने की इच्छा हुईं। बस। हाँ बस। चल यार...बाहर चलते हैं, और सनत बुदबुदाता कैफ़े चला गया। 

आधे घंटे में दो कॉफी पी। बिना किसी के इंतिज़ार के...। वाकई। देर बाद लोमा का फोन आया। 

“सॉरी सनत...” 

“फोन क्यों काटा?” 

“कहा ना सॉरी” 

“बुरी हो।”

“यार!! बच्चे हैं। भूख लगी थी उन्हें। खाना पकाना था। और भी कई काम। तुम नहीं समझोगे।”

“ओके। ओके। समझ गया। आई एम... आई एम सॉरी...रियली। रियली वेरी सॉरी यार... ” 

“ये अच्छा है। आज हम सॉरी सॉरी गेम खेलते हैं।” खिलखिला दी लोमा। हँसी जैसे छन कर आ रही थी, सुनता रह गया सनत। 

“......” कुछ बोल नहीं पाया।   

“अच्छा तो तुम अब मेरी हँसी सुन रहे हो...।” 

“क्या बोल रही हो!...तुम्हें कैसे पता चल जाता है?...कैसे अंदाज़ा लगाया।”

“चलता है ना पता।” 

“हम्म...बहुत हो गया। हाँ .. ” 

“अच्छा अच्छा...अब बकवास बंद। बोलो कैसे याद किया?” 

“बस यूँ ही। कहा तो कितनी बार जानना चाहोगी। बात करने का मन कर रहा था...बताया तो।” 

“वो तो दिख रहा है...लेकिन तनाव में क्यों लगे? परेशान से।...क्या सोच रहे हो?” 

“तनाव नहीं।...बस...सोच रहा था ऐसा क्यों?...”  

“अच्छा । सोचो तो अगर मैं पुरुष होती...!!” 

“तो क्या??”  

“हाँ...वही तो...सोचो। तब भी...क्या ऐसा फ़ील करते!! मतलब ऐसे ही फोन करने में ख़ुद को उतावला महसूस करते?...सोच कर बताना।” 

“....शायद नहीं। आराम से खा-पीकर इत्मीनान से फोन करता।”

“क्यों?...ऐसा क्यों। सोचो।...ये प्रश्न मैं तुमसे नहीं।...तुम ख़ुद से कर रहे हो?...ओके...” और लोमा ने फोन कट कर दिया। सोचने को छोड़ देना ज़रूरी था सनत को...। कम बौखलाया सनत इस बार।  

सोचता रहा वह खाते, पीते, उठते, बैठते। वह कर रहा है यह सब। आख़िर क्यों!! किसलिए। दिमागी उधेड़बुन। और इस सब के बीच फोन करना भूल गया पत्नी को। नहीं वह भुला नहीं। उसने फोन नहीं किया जानते हुए कि वह रोज़ सुबह पत्नी को फोन करता है। बच्ची से बात करता है। ये अलग बात है कि आज शनिवार है। बच्ची का सुबह का स्कूल है और वह नहीं मिलेगी। वह दोपहर का इंतिज़ार कर रहा है हमेशा की तरह। नहीं भुला वह कुछ भी नहीं...। 

सिगरेट निकालकर पीने के लिए उसने समय लिया। सोचने के लिए भी कि सिगरेट पीना है या अभी नहीं। पीना कितना ज़रूरी है...पीना है भी या नहीं। नहीं तो क्यों नहीं...। वह तो रोज़ ही पीता है। इतना सोचने का...आज समय क्यों ले रहा है। और वह सोचने लगा लोमा के बारे में। 

लोमा ने जैसे उसके हर पल को ठहरा दिया था। सिगरेट किनारे रख वह बेड पर लेट गया। देखने लगा पंखे की ओर...कुछ सोचता हुआ। ऊपर पंखा अपनी पूरी तन्मयता से घूम रहा है। बटन बंद कर देने पर नहीं घूमेगा। इस बात में क्या जिज्ञासा हो सकती है...!! कुछ नहीं। पर सनत पंखे को घूर रहा है सोचते हुए जैसे अपने बीते जीवन को देख रहा हो। एक-एक रील...जो घूम रही थी उसके और लोमा के बीच। वह खुश है। बहुत खुश। लोमा के बारे में सोचकर। लोमा को सोचकर। पत्नी घर परिवार बच्चे सब है उसके निजी जीवन में। पर वह लोमा को सोच रहा है। क्यों। तो क्या!! वह पहला शख्स है जो ऐसा कर रहा है। पत्नी के होते किसी और के बारे में सोच रहा है। नहीं। नहीं ना...। कई करते हैं ऐसा। कई कर चुके हैं। फिर प्रॉब्लेम क्या है। क्या ज़रूरी है? कितना ज़रूरी है? सोचता रहा सनत खुली आँखों से घूमते पंखे को घूरता हुआ घंटों। वह तय करना चाहता था कितना, क्यों, किसलिए, क्या है ज़रूरत। ज़रूरत है भी या नहीं, सब कुछ...। 

लोमा एक साफ़ दिमाग इंसान, सीमित बोलने वाली और बहुत कुछ ऐसा जिसका सोचना ज़रूरी ना हो तो उससे मुक्ति दिलाने वाली। प्यारी।...प्यारी कहना ज़रूरी नहीं। क्यों नहीं।...सुलझी हुईं...लड़की। लड़की कहना भी ज़रूरी नहीं। क्योंकि वह औरत है। दो बच्चों की माँ। और वह उसके बारे में सोच रहा है तब से जब से उससे दूर हुआ है। क्या फ़र्क पड़ जाता है लड़की हो, औरत हो, दो बच्चों की माँ हो उम्र में बड़ी हो या नहीं हो। वह सोच रहा है। और यह भी कि यह सोचना भी कितना मुनासिब है। नहीं सोचने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा? नहीं बात करने से क्या कम हो जाएगा? और उसने सिगरेट निकाल ली। पीने के लिए। पीने लगा। एक। दो। तीन। चार। नहीं। अब नहीं। उसे लोमा चाहिए। बस बात करने के लिए। बात करने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा। कोई मिलने थोड़े ही जा रहा हूँ। वह कहाँ, मैं कहाँ। कुछ दिनों की मुलाक़ात थी बस...और ये क्या हो गया मुझे। सोचता रह गया सनत। 

दिल में आया एक प्यारी-सी नींद ले लें। लेकिन नहीं, उठा। फ्रेश हुआ। नाश्ता तो दो कॉफी की भेंट चढ़ चुका था। उसने खाने का ऑर्डर अभी से दे दिया। खाना आने में अभी तो समय है। आज सुबह-सुबह दुबारा कैसे नींद लेने की इच्छा हो रही है। आश्चर्य। याद आया रात काफी देर तक वह जागता रहा था। सोने की कोशिश करता फिर बार-बार बीती ट्रिप के बारे में सोचने लगता। यह अच्छी ट्रेकिंग ट्रिप होती। पर ट्रिप पूरी करने आगे नहीं जा पाए हम। कुछ अड़चने और सभी ने वापस लौटना सही समझा। ऑनलाइन बुकिंग से पच्चीस लोगों की ट्रिप थी लेकिन कैंसल हो गई। दो-तीन दिन दिल्ली में ही इंतिज़ार किया था सबने और लौट गए। वरना पिछली बार चंबा और उसके पहले धर्मशाला की यात्रा, इस बार भी मजा आ जाता। खैर। कोई बात नहीं अगली बार फिर कहीं। 

इसी असफल ट्रिप में मिली लोमा। कुछ दिन का साथ। मतलब दिल्ली में बिताए कुछ दिन। वह पहली बार ही आई थी। शायद ट्रिप के कैसल होने ने उसे पस्त कर दिया हो अब। शायद अब कभी जाने की सोचे ही ना। मुझे क्या फरक पड़ता है। आए या ना आए। लेकिन उससे मिलना हुआ। अब लगता है जैसे डेस्टिनी थी। जाने क्या-क्या सोचने लगा हूँ। हाँ वह अच्छी लगी। बहुत अच्छी। उसके अच्छे होने का एहसास...आज ज्यादा हो रहा है। अब। अब जबकि वह एक कहानी है बस। बीत गई सो बात गई वाली। क्या वाकई? उसने सवाल करते हुए ख़ुद को निहारा आईने में। आईने ने बढ़े हुए शेव की उसकी तस्वीर दिखा दी। हाथ अनायास ही बढ़ी हुईं दाढ़ी पर गए। होंठ को गोल करते हुए हल्की सीटी के साथ उसने दाढ़ी को सहलाया और उँगलियाँ माथे पर ले जाकर बालों में घुसा दी। चेहरा बाई और दाएं करते हुए बारीकी से चेहरे की परतों में आई कमियों को तलाशने लगा। अचानक फोन बज उठा और उसने लपक कर उठाया। कान तक ले जाते-जाते फोन में पत्नी के नाम पर नजर पड़ी। आवाज सुनाई दी...

“पापा!! कब आ रहे हो? जल्दी आओ ना। मेरे लिए गाड़ी लाना मत भूलना। रिमोट वाली कार। मेरी सारी सहेलियों के पास है रिमोट वाली गाड़ी और गुड़िया। पता है पापा टीचर ने आज हमें ‘ऐसे’ लिखने कहा। टीचर कहती है, मम्मी पर तो ‘ऐसे’ कई बार लिख चुके हैं सभी। तुम सब कल पापा पर ‘ऐसे’ लिखकर लाना।” 

“हाँ, मेरा बच्चा। माय डार्लिंग। ज़रूर लिखो। खूब अच्छे से लिखना। आकर देखूँगा। ठीक है। अच्छा बेटा मम्मी कहाँ है?”

“मम्मी किचन में हैं। शांति बाई आई है ना। उससे बात कर रही है। और खाना बना रही है। आप कल पक्का आ रहे हो ना पापा?”  

“हाँ बेटा। ज़रूर आऊँगा।” 

“मेरा गिफ्ट ज़रूर लाना पापा?” फोन बिना काटे रख दिया गया सोफ़े पर...। कविता और मेड की बातें सुनाई देती रही और टीवी पर आते कार्टून चैनल की आवाज। सनत बेटी के चेहरे को अपने मोबाइल की स्क्रीन में देखने लगा। बेटी और पत्नी की तस्वीर। साथ में। जैसे उसकी अमानत। जब भी उदास होता इस तस्वीर को देखने लगता। वे दोनों उसकी जीवन का हिस्सा। उनके बगैर वह अधूरा। बेमतलब। 

डोर बैल बजी। स्वीगी वाला खाना लाया होगा। सनत ने बेमन से खाना खाया जैसे कोई ड्यूटी कर रहा हो। कल उसे घर जाना है पूना। मुंबई से पूना 4 घंटे का रास्ता। पत्नी और बिटिया उसकी निगाहों के सामने घूम गए। हर बार वह दुगने उत्साह से जाता है और आते वक्त दुखी भी होता है। आज वह खुशी कहाँ गुम हुईं जा रही है। क्या वह बदल गया है। क्या वह वह नहीं रहा जो अब तक था। ऐसा भी क्या हुआ है। क्या बदल गया है। वह सोचता रह गया। खाना कब खत्म हुआ, उसे याद नहीं। क्या कोई भूल हुईं उससे। नहीं तो। फिर क्या हुआ। ख़ुद को खोजता रहा ख़ुद में और सो गया सनत एक लंबी नींद जो उसके लिए ज़रूरी थी एक भरपूर रात जागने के बाद।  

उठने पर लगा फायनल करना होगा। कुछ तो। ऐसे नहीं चलेगा। कुछ फैसले लेने होते है। क्या लोमा भी उसके बारे में सोचती होगी। सोचती होगी भी या नहीं। उसने सोचना बंद कर दिया। अब वह बात करके ही फैसला लेगा। लोमा को बिना सोचे समझे फोन लगा बैठा। 

“क्या कर रही हो?”

“होम वर्क करा रही थी बच्चों को” 

“डिस्टर्ब किया?”

“नहीं। बोलो।” 

“मैं मैं...बहुत अकवर्ड फ़ील कर रहा हूँ। तुम भी क्या सोच रही होगी।” 

“सुन रही हूँ।” 

“मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। ना जानते हुए कि तुम्हारे पति...” 

“नहीं है।” 

“कहीं गए होंगे” 

“अब नहीं रहते हम साथ” 

“ओह...एम सॉरी। मुझे पता नहीं था।” 

“पता चल भी जाने से स्थिति नहीं बदलती सनत। आगे बोलो।” 

“मैं जो कर रहा हूँ करना चाहता भी हूँ। पर सोच भी रहा हूँ कि क्यों कर रहा हूँ”

“हम्म...प्रॉब्लेम क्या है क्लियर बोलो।” 

“वही तो सोच नहीं पा रहा हूँ। आख़िर ऐसा फ़ील क्यों कर रहा हूँ।”

“इसका जवाब तुम्हें ही खोजना है।” 

“येस”

“तो खोजिए...”

“तुमसे मिलने का मन है।”

“नहीं मिल सकती।”

“क्यों...?” 

“क्योंकि...तुम अपनी पत्नी से बेइंतहा प्यार करते हो।” 

“तुम्हें कैसे पता चला?”

“और तुम लोमा के बारे में भी सोचने लगे हो। दुविधा में हो। यह बात तुम्हें समझ नहीं आ रही है कि लोमा से कैसे...क्या...क्यूं...कब...है ना?” 

“एकजेक्टली। मेरा मतलब तुमसे प्यार हो गया है। बिलकुल यही फ़ील कर रहा हूँ।”  

“दोस्ती में पनपती मोहब्बत का मतलब यह नहीं कि बर्बाद हो जाना। बदनाम हो जाना। दो-तीन दिन की बातचीत को आप प्यार कहते हो कोई फरक नहीं पड़ता। बुरा तब लगेगा जब इसे तुम अपनी पत्नी के रिश्ते से तौलोगे?” 

“तुम करती हो मुझसे प्यार?” 

“क्या फ़र्क पड़ता है डियर। करती हूँ या नहीं करती।”

“....“ ख़ामोश था सनत। 

“इसके अंजाम क्या तुम जानते हो? देख चुकी हूँ मैं। पति की जीवन में किसी के एंट्री की सजा भुगत रही है मेरी फैमिली। जिंदगियाँ बर्बाद हो जाती है। चार साल से अकेली रह रही हूँ। बच्चों और पेरेंट्स के साथ ने संभाला हुआ है मुझे। जब तुम्हारी जिंदगी में सब कुछ अच्छा चल रहा है सनत तो हमारी दोस्ती की बिसात पर जिंदगी के रिश्तों से शतरंज ना खेलो। बहुत तकलीफ होती है। जब एक-एक कर प्यादे मरते हैं। हम खुली आँखों से देखते भर रह जाते हैं और कोई नहीं बचता। हम किसी को बचा नहीं पाते। सब एक खेल की तरह चलता चला जाता है। बीतता जाता है और एक दिन हम सामना करते हैं ‘चैक एण्ड मेट’ का। एक ना एक को तो हारना ही होता है। बहुत दुखदाई होता है जब दोनों तरफ अपने ही दाँव पर लगे हो। जीत भी जीत की तरह नहीं लगती। दोनों ओर से हार ही महसूस होती है। पाया पाया जैसा नहीं लगता और खोना तो जीवन ही बर्बाद कर देता है। किसी के लिए कोई सम्मान नहीं बचा रह जाता उस वक्त। जानते हुए भी हम खेलते हैं शतरंज करते हुए अपने अपनों को जख्मी शायद यही नियति है सोचते हुए। जबकि हमें सोचना है नियति के अनेक विस्तार को...जिसमें रिश्तों के टूटने की झन्नाहट भी हो, सीलती हुईं रिश्तों में पैबंद भी, फैसलों में होती खाईयों की मौजूदगी भी। पर कहाँ सोच पाता है कोई। ठोकर ही हमें सिखाती है तब तक देर हो चुकी होती है। मुझे गलत ना समझना सनत। पर इस तरह से भी सोच कर देखना ज़रूर। वैसे हर कोई अपने फैसले ख़ुद लेने के लिए स्वतंत्र है।” 

“समझता हूँ। थैंक्स लोमा। रखता हूँ। कल पूना जाना है पैकिंग भी करनी है।”  

“कब वापस लौटोगे?” 

“कुछ कह नहीं सकता। शायद इस बार कुछ लंबा रुकूँ।” बाय कहकर सनत ने फोन रख दिया और कल की तैयारी में जुट गया सोचते हुए कि कहाँ से खिलौने खरीदने हैं। कहाँ से कविता के पसंद की साड़ी लेनी है। लेकिन मन...मन ने पुनः टोका, “और लोमा? दोस्त या मोहब्बत”। 

मुस्कुरा कर रह गया सनत। सोचते हुए कि नहीं जानता। फिर भी अच्छी थी। दोस्त हो या मोहब्बत...निभा गई। 

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