नए, उभरते लेखकों को पढ़ने का अपना एक अलग मज़ा है। केतन यादव युवा लेखक हैं और अनामिकाजी व गीताश्री के साथ अपनी मगहर यात्रा के संस्मरण को कुछ रोमांचक ढंग से बयान कर रहे हैं। पढ़िए। ~ सं०
मगहर में अमरदेसवा की खोज़
यात्रा-संस्मरण ~ केतन यादव
बी कॉम, हिंदी से एमए एवं नेट / वागर्थ , जानकीपुल, इंद्रधनुष कृतिबहुमत , जनसंदेश टाइम्स , समकाल पत्रिका , समकालीन जनमत, हिंदुस्तान, अमर उजाला आदि पत्रिकाओं, समाचार पत्रों एवं डिजिटल माध्यमों पर कविताएँ प्रकाशित। संपर्क - 208, दिलेजाकपुर, निकट डॉ एस पी अग्रवाल, गोरखपुर -273001 उत्तर प्रदेश / ईमेल - yadavketan61@gmail.com / मो . 8840450668
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासुका, जे चले हमारे साथि।।
इस साल जब जनवरी, 2023 के शुरुआती दिन थे; गोरखपुर लिटरेरी फेस्टिवल में जाना हुआ था। मेरा तो गृह जनपद है गोरखपुर, पर मैं भी इलाहाबाद से एक दिन पहले ही पहुँचा था। वरिष्ठ कथाकार गीताश्री ने मुझसे पहले ही मगहर ट्रिप की बात कही थी। अगले दिन सुबह-सुबह जब हम गुपचुप होटल से निकल ही रहे थे कि यह प्लान प्रिय कवि अनामिका जी को पता चला तो वे भी रोक नहीं पाईं। सुबह के आठ तीस हो रहे थे और हमें बारह बजे उद्घाटन सत्र के पहले वापस लौटना भी था। फिर क्या था हम तीनों अपनी ‘अथाह घुमक्कड़ जिज्ञासा ’ लिए चल दिए।
हमारे दिल्ली के मेहमान कह रहे थे कि यहाँ ठंड वहाँ से ज्यादा है। गोरखपुर नेपाल का तराई मैदानी भू-भाग है लिहाजा मौसम में नमी और अधिक रहती है। ठंडी हवाएँ कान खड़े कर दे रही थीं और पूरा शहर कोहरे में डूबा हुआ था। गाड़ी के आते ही हम बिना देर किए झट से निकल लिए। विडंबना की बात यह थी कि मैं गोरखपुर का होकर भी मगहर पहली बार जा रहा था। इसलिए वहाँ जो कुछ भी हमने महसूस किया वह हम तीनों के लिए नया अनुभव था। कार के शीशे कोहरे के धुंध में शीत की बूँदों से ढ़क जा रहे थे। ड्राइवर वाले भईया ने शारदा सिन्हा के गाने गाड़ी में ऑन कर रखे थे। उनके पास लोकगीतों का बहुत प्यारा कलेक्शन था। ‘ बलम कलकत्ता ’ और ‘ संईया भइलें डुमरी के फुलवा ’ के मादक गीतों के बोल पर हम बैठे-बैठे झूम रहे थे। वैसे “बलम कलकत्ता” की लेखिका गीताश्री भी साथ ही थीं। गोरखपुर और मुजफ्फरपुर की लोक संस्कृति बहुत से बिंदुओं पर एक हो जाती है। ये गीत भी हमें जोड़ रहे थे।
मगहर की पगडंडियाँ चीड़, सागौन और विशेषतः आम के पेड़ों से भरी हुई थीं। हमारी गाड़ी कबीर के शांतिवन के सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी। कुहासे में पेड़ की झुरमुटों में लुकाए हुए पक्षी बीच-बीच में बोलकर मानो हमारा अभिवादन कर रहे थे। अनामिका शीशे से बाहर झाँकते हुए दृश्य-दर-दृश्य खोते जा रही थीं। गीताश्री गूगल से सर्च करके मगहर से जुड़ी कई ऐसी बातें बता रही थीं जो हमने कभी नहीं सुनी थी। हम सब शायद मन ही मन सोच रहे थे कि कबीर काशी छोड़कर मगहर क्यूँ आए थे? मगहर को क्यूँ चुना था अपने अंतिम समय के लिए? वह स्थान जो सबके लिए उपेक्षित था। वह स्थान जिसके सामने से गुजरने पर बड़े से बड़े कुलशीलों की पवित्रता भ्रष्ट हो जाती थी। जिसके सामने से लोग मुँह और नाक कपड़े से दबाए गुजरते थे। जहाँ समाज के सबसे पिछड़ी जाति का शव फूँका जाता था। जहाँ सदियों से केवल कूड़ा-कचरा फेंका जाता रहा है। इतनी सारी वर्जनाओं के बाद भी इस पगडंडी के तार बुद्ध से जुड़े हैं। पता नहीं यह बात कबीर जानते भी थे या नहीं। जो भी हो कबीर का वहाँ बसना एक बहुत बड़ी क्रांति थी। एक सच्चे लेखक का भी यही काम है, जो समाज में हाशिए पर हो उसका हाथ मजबूती से पकड़ना। गीताश्री की कहानियों उपन्यासों में भी ऐसे पर्याप्त नायक नायिका हैं और अनामिका जी की कविताओं में भी अति सामान्य, मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय स्त्रियां मौजूद रहती है।
कई मोड़ से होते हुए अंतत: हम जब कबीर के दरवाजे पहुँचे तो मानो चारों तरफ सूफी संगीत एक रोमानी वातावरण लिए बज रहा था। आमी नदी का किनारा, जंगल के पेड़ों के मध्य का वह दिव्य स्थान, मेले के खाजे और मिठाइयों की दूकानें, खूब सारा कोहरा और बहुत सारी ठंड। जाड़ा इतना था कि वहाँ केवल स्थानीय दो-चार श्रद्धालु ही दिख रहे थे। कार से बाहर उतरते ही कवि अनामिका एक विहंगम लोक में पाँव धर चुकी थीं। आस-पास के दिव्य वातावरण को वे अपने आँखों के सहारे अपने भीतर उतार रही थीं। चकित नजरों से गीताश्री एक-एक करके आश्रम के चारों दिशाओं की ओर मुड़ कर देख रही थीं। मानो कथाकार को भविष्य का कोई भूला भटका पात्र दिखाई दे दिया हो। जिसका पीछा करते करते मुजफ्फरपुर की कथाकुमारी नोएडा से मगहर आ गई हों। ‘लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल’ वाली आँखों से मैं उस वातावरण और वातावरण में इन दोनों साहित्य साधिकाओं को पुलकते देख रहा था। ‘जित देखूँ तित लाल’ वाली स्थिति थी चारों तरफ। अपने लंबे डग भरते हुए हम सबसे पहले सामने खड़ी कबीर की विशाल प्रतिमा के सामने पहुँचे और फिर वहाँ कुछ देर ठहर कर हम कबीर की समाधि की ओर बढ़ चले। यह अद्भुत समाधि स्थल मगहर में ही हो सकता था। एक ओर कबीर का मजार दूसरी ओर समाधि और मंदिर।
बाहर सीढ़ियों पर जूते उतार कर हम मजार के भीतर प्रवेश किए। कबीर साहब कब्र में पाँव पसारे लेटे हुए थे... नहीं नहीं वो तो फूल बन गये थे। अमन का फूल, सद्भाव का फूल। कब्र से माथा टेक हम समाधि की ओर बढ़ चले। कबीर के कब्र से समाधि तक के चबूतरे को नापते हुए मन ही मन मैं सोच रहा था कि आज कबीर की कितनी आवश्यकता है।
माला पहिरे टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना
साखी सब्दै गावत भूले आतम खबर नहीं जाना
साधो, देखो जग बौराना
इस बौराए जग में हम सब पुरखा कबीर का होना ढूँढ़ रहे थे। समाधि के सामने चबूतरे के बाहर एक गहरा कुआँ था। ऊपर से लोहे के क्षण से ढका हुआ। कुएँ के ऊपर धुँध था जैसे मन के ऊपर। अनामिका जब समाधि के सामने कबीर की मूर्ति देखीं तो भाव विह्वल हो चुकी थीं। गीताश्री एकटक उन्हें देख रही थीं। गीताश्री मठ की दीवारों को इस तरह से स्पर्श कर रही थीं जैसे अमरदेसवा का स्पर्श पा लिया हो। अनूठी कथाकार गीताश्री उस अलौकिकता की मांसल अनुभूति कर रही थीं। एक चुलबुली लड़की उनके भीतर हमेशा रहती है। यह अनुभूति उनके चेहरे पर आए रोमांच में घटित हो रही थी। समाधि के बाहर श्वेत वस्त्रधारी कबीरपंथी कबीर साहेब की बंदगी कर रहे थे। उनकी बानी किसी मंत्र की तरह उचार रहे थे। हमारे चारों ओर कबीर की साखी, सबद, रमैनी के दोहे और पद घूम रहे थे। बचपन से कबीर को अबतक जितना पढ़ा था वे सारे निर्गुण बिना सितार तानपूरे के आस-पास सुनाई दे रहे थे। समाधि को चूमकर अनामिका कबीर के पास ही बैठ गयीं। मानो बहुत से प्रश्न भीतर घुमड़ रहे थे। उनकी आँखें झर-झर-झर बह रही थीं। गीताश्री चौखट के रास्ते कबीर का चेहरा देख रही थीं। मानो उनसे बतिया रही हों। न धूनी थी न कोई चिमटा था फिर भी मन रमा हुआ था। दृश्य से क्षणभर भी विलग हुए बिना हम एक-एक क्षण को पूरी तरह जी रहे थे।
बाहर निकले तो समाधि स्थल की परिक्रमा करते हुए मठ की दीवारों पर चारों तरफ कबीर की बानियों को उकेरे हुए देखा। अनामिका जी बोल पड़ी कि यह तो बहुत चयनित दोहे हैं। यह सब देखते-पढ़ते कबीर के ध्यान वाले छोटे गुफा की ओर बढ़े। साथ में जो कबीरपंथी महंत थे, गीताश्री लगातार उनसे जानकारियाँ जुटा रही थीं। उनकी बातों को फेसबुक लाइव करते हुए अपने फॉलोवर्स और वर्चुअल मित्रों को भी समृद्ध कर रही थीं। गीताश्री एक सतत अन्वेषक हैं। उनके भीतर वह गैर अकादमिक शोधार्थी बैठा हुआ है जिसके संस्कार उन्होंने अपने पत्रकारिता काल की साधना से अर्जित किया है। मैं मन ही मन सोच रहा था कि “राजनटनी” और “आम्बपाली” (उपन्यास) को रचते हुए गीताश्री ऐसे ही खोजबीन कर रही होंगी। जरूर यह सब उनकी कोई भविष्य की कहानी या उपन्यास में जुड़ेगा। कबीर की समाधि के बगल में बहुत से चबूतरे हैं और पुराने पेड़ हैं। वहाँ एक पतली-सी काली नदी बहती है जिसका नाम आमी है। आमी भी पूरी तरह कोहरे में ढकी हुई थी। धुंध के बीच नदी में पड़ी एक पुरानी नाव दिख रही थी। मुझे पता था आमी के लिए कितने आंदोलन हुए हैं। जिस नदी के तट बुद्ध ने अपने राजशाही वस्त्र छोड़े थे अपने केश उतारे थे जिसके किनारे कबीर अपने शिष्यों के साथ धूनी रमाए थे। आमी के किनारे बहुत सारे आम के पेड़ हुआ करते थे, उनसे आम लटक कर नदी में प्रायः गिर जाते थे। जिस कारण नदी का पानी मीठा रहता था और उसे आमी कह के बुलाया जाता था। उसका हाल बेहाल हो चुका था। कितनी सारी लोक मान्यताएं, लोक मिथक जुड़े हुए हैं आमी से। उस अंचल के कितने सारे लोकगीतों में आमी शामिल रही है। उस पवित्र आमी के तट पर बैठकर हम तीनों सुस्ताए और बहुत सारी तस्वीरें लीं। उस पल को हर तरीके से संजो लेने की उत्कंठा थी। सफेद कोहरे में लिपटा हुआ मगहर मानों कबीर की ‘झीनी-झीनी सी चदरिया' ओढ़कर बैठा हुआ हो। ठंडी बहती हवा कानों के पीछे साएँ-साएँ का आवाज़ कर रही थी। कबीरपंथी साधू हमें विदा करके पुन: अपने आसन अपने पाठ की ओर लौट गये थे।
हम अभी भी अनहलक की अनुभूति में थे। कबीर ने मगहर में ही अमरदेसवा बसा लिया था। कबीर की बानियों का शरण ही उस लोक से साक्षात्कार था। अनामिका जी ने कबीर के पदों का भाष्य भी लिया। हम तीनों गाड़ी में बैठे और आश्रम के मुख्यद्वार पर गोरखपुर का प्रसिद्ध बड़ा वाला खाजा (खजली) लिए। ड्राइवर भईया ने पुन: गाड़ी में लोकगीतों की मोहक श्रृंखला चला दी थी। हमने जो महसूस किया शायद उसे ‘सात समुंदर की मसि’ करने के बाद लिख भी लिया जाए लेकिन कुछ न कुछ अधूरा रह जाएगा। जो कुछ शेष बचा रहेगा, अकथ रह जाएगा वही कबीर के अमरदेसवा की सच्ची अनुभूति होगी। गाड़ी धीरे-धीरे वहां की पगडंडियों को पीछे छोड़ रही थी पर हमारा मन उस मगहर में ही अटका रहा।
अब तक मन मगहर–सा अहसास तारी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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