मगहर में बुलावे पर या उसके बिना ~ मृदुला गर्ग | With or without invitation in Maghar ~ Mridula Garg

व्यस्त ज़िंदगी के इतवार की सुबह यदि, मृदुला गर्ग अपनी सिग्नचर स्टाइल में मगहर से जुड़ा संस्मरण लिखकर भेज दें तो, आराम को छोड़कर उसे आप तक पहुंचना मेरी ज़िम्मेदारी है ~ सं०




बस थे तो कबीर

~ मृदुला गर्ग



केतन यादव, गीताश्री और अनामिका के साथ जनवरी की जिस ठिठुरती सर्दी में गोरखपुर से अलख सुबह मगहर यात्रा पर गए थे, तब मैं भी गोरखपुर में थी। [पढ़ें: अनामिका व गीताश्री के साथ मगहर ~ केतन यादव] दुपहर में उद्घाटन सत्र में भाषण देने का पाप कर्म मैं ही करने वाली थी। कुछ उसके चलते और कुछ एक ज़रूरत से ज्यादा धाँसू कमरे में ठहराए जाने के कारण, मेरा मगहर जाना मुमकिन न था। छत के कोने पर बने, आर पार होती सर्द हवा के बहाव से असुरक्षित, उस वीवीआईपी कमरे में न हीटर था, न बिजली और न फोन। मुहब्बत में मेरे मोबाइल ने भी ज़िंदगी से रुखसत कर ली थी। लगा कमरा, ख़ास तौर पर 80+ साला जवानों के लिए रिजर्व था! दो-चार कमरे छोड़ कर अनामिका का कमरा था। रात में वहीं शरण लेनी पड़ी थी। पर मैं गोरखपुर पहुंचने से बहुत पहले, करीब बीस साल पहले, मगहर पहुंच चुकी थी। गई नहीं थी, पहुंचाई या बुलाई गई थी। 

वह तेज़ गर्मी की दुपहर थी। 

दरअसल रेलगाड़ी से हम चार जन, वागीश शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, सुनीता जैन, अशोक वाजपेयी और मैं गोरखपुर जा रहे थे। वहां विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम था। पर ख़ुदा के फज़ल से गाड़ी बस्ती पर बिगड़ गई। वागीश जी ने, जो वहीं के निवासी थे, कहा, गाड़ी आगे बढ़ने वाली नहीं थी। बेहतर था कि हम वहीं उतर जाएं। तो हम प्रवासी चेले, मय सामान वहीं उतर गए। 

अपने स्वभाव के विरुद्ध संयोग से मेरे पास खाने का काफी सामान था। क्यों था, उसकी कहानी फिर कभी। अभी इतना काफी है कि एक निहायत खटारा गाड़ी में ठुंस कर हम लोग, खाते पीते, गोरखपुर की तरफ़ बढ़े। पर… यह खासा बेढ़ब था… होता ही है। तो हम सबके मन में एक ही ख़याल था। शर्तिया हमारे वहां पहुंचने से पहले कार्यक्रम ख़त्म हो चुका होगा। मन में चाहत रही होगी तभी न सबने एक सुर में कहा, कुछ ही देर में मगहर आएगा।

हमने कुछ नहीं किया। गाड़ी खुद ब खुद कबीर के मज़ार पर रुक गई। कैसे न रुकती। बस्ती में रेलगाड़ी खराब ही इसलिए हुई थी की हम गोरखपुर पहुंचने से पहले मगहर पहुंचे। केतन यादव ने मज़ार, समाधि, मंदिर और कुएं का ज़िक्र किया है। सच कहूं, मुझे सिर्फ और सिर्फ कबीर का मज़ार दिखा, फिर और कुछ नहीं दिखा। शायद वहां कोई हिंदू प्रार्थना कर रहा था। किसी ने बतलाया था। शायद न भी कर रहा हो। वह मैं ही रही हूं। प्रार्थना में मर्द औरत का फर्क नहीं रहता। जैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन का। ईश्वर वहां नहीं था, न खुदा, न बेटा, पिता और होली घोस्ट, और न बुद्ध, ऋषभदेव या महावीर। बस थे तो कबीर, थे जो इनमें और इनसे परे हमारी अंतरात्मा में बसे थे। उस आत्म से साक्षात्कार करने के बाद हम गोरखपुर गए और तमाम ज़मीनी कार्यवाही हुईं। पर उसे सम्पन्न होना नहीं कहा जा सकता था। वे बस हुईं। हमारी आत्मा में तो सबकुछ पहले ही संपन्न हो चुका था। 

आप समझ सकते हैं, उसके बाद, दुबारा मैं मगहर कैसे से जा सकती थी।
मृदुला गर्ग

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

काली-पीली सरसों | ज्योति श्रीवास्तव की हिंदी कहानी | Shabdankan
बारहमासा | लोक जीवन और ऋतु गीतों की कविताएं – डॉ. सोनी पाण्डेय
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
चतुर्भुज स्थान की सबसे सुंदर और महंगी बाई आई है
अनामिका की कवितायेँ Poems of Anamika