जो भी हो तुम, ख़ुदा की क़सम लाजवाब हो ~ गीताश्री के स्मृतिआँगन में ममता कालिया | Mamta Kalia in GeetaShri's SmritiAangan

ममताजी जैसा मित्र तो, जैसा आप गीताश्री के संस्मरण में पढ़ेंगे, मेरा भी कोई दूजा नहीं है। ममताजी अगर कमाल हैं तो गीताश्री भी अब कमतर नहीं रहीं हैं! आज हिन्दी संसार की प्रिय कथाकार ममता कालिया के जन्मदिन पर उन्हें प्यार भरी बधाई और स्मृतिआँगन के लिए उनपर लिखे इस ज़बरदस्त-जानदार-ज़रूरी आलेख के लिए गीताश्री को आभार !  ~ सं० 

Mamta Kalia in GeetaShri's SmritiAangan


हंसी से बढ़िया कवर स्टोरी कुछ नहीं

~ ममता कालिया पर गीताश्री का संस्मरण 

मेरे भीतर जो गुस्सा है, आक्रोश है, असंतोष है चीज़ों के प्रति उससे लगता है कि हो सकता है मैं बहुत हिंसक होती या रेडिकल किस्म की व्यक्ति होती। लेखन कहीं हमको बहुत परिमार्जित और समृद्ध भी करता है। बहुत सारा गुस्सा जो लोगों पर निकलता, वो काग़ज़ पर निकल जाता है। कई बार मुझे इतना तेज़ असंतोष होता है किसी बात से तो लगता है कि अगर लिखूंगी तो काग़ज़ में छेद हो जाएगा। कभी ये भी लगता है कि मैं बहुत ठस्स किस्म की इनसान होती और मैं केवल आलू गोभी बनाती और अपने जीवन को सार्थक मानती। अपने बच्चों की फ़ोटो फेसबुक पर बार-बार लगा-लगा कर इतराती और कहती देखो, ये बन गया, वो ये बन गया, मैं ऐसा काम कभी नहीं करती। लोग अपना फ़ोटो लगाते रहते हैं। मैं कभी इस तरह की कोशिश नहीं करती। क्योंकि मुझे लगता है कि किताबें लिखना मुझे बहुत संतोष देता है अंदर से तृप्त करता है। फुलफिल करता है, जो कमी है भीतर में, उसे। वो कमी, केवल पति, बच्चे, दाल भात से पूरी नहीं होती। हम पढ़े लखे हैं, हमने विश्व साहित्य को इतना पढ़ा-लिखा है, तो उसमें एक किरच अपनी तरफ से भी एड करे, भले ही वो जुड़े या न जुड़े, लेकिन हर लेखक अपने लेखन से ये प्रयत्न तो करता है।

~ ममता कालिया, मुझसे साक्षात्कार के दौरान 


मैंने उन्हें लंबे साक्षात्कार के दौरान ही ठीक से जाना। जानने के कई अवसर आए थे, बातचीत में वे ख़ूब खुलीं और बिना छुपाए बहुत कुछ बताया। वे बाते भी, जिन्हें लेखक छुपाना चाहते हैं। समाज के जज करने का भय उन्हें रोकता है। ममताजी छुपाना नहीं जानतीं। उन्हें जो उचित लगेगा, बोल देंगी। चाहे मंच हो या कोई और माध्यम। ऊपर दिए गए पैरा में वे कितना स्पष्ट कहती हैं कि वे कैसी हैं। ये तो लेखक का अपने बारे में अपना आकलन है। एक और चेहरा होता है, जिसे लोग जानते हैं। जिन्हें मैं जानती हूं, उन पर बात करना चाहती हूं। 

ममता कालिया, इस दौर की सबसे सक्रिय, सबसे चहेती लेखिका हैं जिनसे सबको लगाव है और जिन्हें सबसे लगाव है। पिछले कुछ सालो में उनका नया अवतार मेरे सामने आया है। हो सकता है, वे पहले से ऐसी ही हों। मेरे हिस्से जब से आई हैं, मैं उनके प्यार में गंभीरता से पड़ गई हूं। उस भंवरे की तरह जो शाम होते ही फूलों की पंखुरियों में कैद होना चाहे। फूल का सुवास, पंखुरियों की नरमाई उसे रात भर पोसती है, कम से कम बाहर के डरावने अंधेरे से उसके भीतर का कोमल अंधेरा कहीं बेहतर है। सुबह कितनी लेकर उड़ान भरता है भंवरा। मैं वो भंवरी हूं जो ममता कालिया की पंखुरी-पाश में बंधे रहना पसंद करती हूं। कोई मेरे दिल से पूछे कि वो क्या हैं। उन्हें क्यों जाने किसी की नज़र से हम। फ़क़त इक नज़र ही तो है अपने पास, जो सुंदर मनुष्यों की पहचान कर लेती है। उनकी मोहब्बत में, सोहबत में गिरफ़्तार हुआ चाहती है। 

मेरे लिए तो वे उम्र से परे हैं। वे मुझे उम्र से परे ले जाकर दोस्त की तरह ट्रीट करती हैं। मैं उन्हें दीदी नहीं कहती। वे मेरी बहन नहीं, मेरी सखि हैं। बिल्कुल किसी हमउम्र की तरह जिससे जी भर बातें खुल कर की जा सकती हैं, जिसे कुछ भी कहा जा सकता है, जिनसे लड़ा जा सकता है। बहस की जा सकती है। चुहल और मस्तियां भी। उनमें कृत्रिमता कतई नहीं। उन्होंने मेरे भीतर से वरिष्ठता का ख़ौफ़ दूर किया था। मैं तो वरिष्ठ लेखकों और लेखिकाओं से सहमी रहती हूं। कुछ के व्यवहार याद रहते हैं कि कैसे वे बातें करते हुए वरिष्ठ बने रहते हैं। फ़ोटो खिंचवाते समय कैसे असहज और कृत्रिम हो उठते हैं। उन पर कुछ लिखो तो वे आपके शब्दों की नाप तौल करने लगते हैं। कुछ तो नियंत्रित भी करना चाहते हैं। ऐसे समय में ममता सखि का व्यवहार जादू जगाता है। कई बार चकित रहती हूं। न वरिष्ठता का बोध न गरिष्ठता का अहसास, न बातों में बनावटीपन। बात-बात पर हंसती-खिलखिलाती, चुहल करती। उनकी बातें इतनी चुटीली होती हैं कि आप चुप बैठ ही नहीं सकते। ना जाने कितनी शामें, कितनी दोपहरिया हमने खाते-पीते, हंसते-बोलते गुजारी हैं। इन पहरों का कोई हिसाब नहीं। उनसे मिलने की ललक इतनी कि वे एक बार आवाज़ दें तो हम दौड़े चले जाएं। किसी से मिलने का ऐसा लालच कम होता है मेरे भीतर। ये जो समय है, जब लोगों के चेहरे से नक़ाब उतर रहे हैं, अपने-परायों की पहचान हो रही है, असली-नकली लोग एक्सपोज हो रहे हैं, ऐसे लोगों की पहचान के बाद इनसे दूर जाने का मन करता है, तब ममताजी जैसे चंद आत्मीयों की संगति राहत देती है। ऐसे रिश्ते तमाम नकली रिश्तों पर भारी होते हैं। 

हम साथ बैठ कर ठहाके में उनकी फिक्र, उनकी दी हुई पीड़ा उड़ा देते हैं। हंसी से बढ़ कर कोई नेमत नहीं। ममताजी के पास हंसी का अकूत खजाना है। कम ही नहीं पड़ता। दुख उन पर भी पड़े। दुख उनके भीतर पल रहा है। अपने साथी से बिछड़ने का दुख सबसे बड़ा। प्रख्यात लेखक-संपादक रवींद्र कालिया उनके जीवन-साथी थे। उनसे बिछड़ने के बाद वे अकेली रह गई हैं। भीतर से बिखरी होंगी, टूटी होंगी, घर का सूनापन खलता होगा, लेकिन एक लेखक का एकांत हो या एकाकीपन, वो सामान्य लोगों से अलग होता है। लेखक का एकांत अनुर्वर नहीं होता। वे जीवन में कभी बोर नहीं होते। वे अकेले कहां होते हैं। अकेले होकर भी अपने गढ़े-रचे गए किरदारों की भीड़ में होते हैं। उनके किरदार कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ते। ये बातें मैं अब समझने लगी हूं जब ख़ुद लिखने लगी। ममताजी ने ख़ुद को संभाला, पीड़ा की तहें बनाईं, उन्हें अपने भीतर ऐसे रखा, जैसे मेघ छुपा रखते हैं बिजली को। कौंधते हैं दुख, उनकी हंसी में। उनकी चुटीली बातों में। हंसी से बढ़िया कवर स्टोरी कुछ नहीं। हंसी हर दुख की कवर स्टोरी होती है। मैं बेहतर समझ सकती हूं। जिसने अपने जीवन में भीषण दुख देखा हो, उससे पूछिए कि उसकी छलकती हंसी का मतलब क्या है। वैसे भी ये ना-मुराद दुनिया दुख सुनाने या दिखाने के काबिल नहीं है। मैं तो ख़ारिज करती हूं ऐसी दुनिया को, शायद इसीलिए मुझे ममताजी की हंसी उस पाक आब-ए-जमजम की तरह लगती है, जो सारे कलुष धो देती है। उस ना-मुराद दुनिया को ख़ारिज कर देती है, जिसे कदापि अपना दुख नहीं सुनाया जाना चाहिए। हम जैसे लेखक किस्तों में अपना सबकुछ किरदारों को दे देते हैं। 

ममताजी ने ‘रवि-कथा’ और ‘जीते जी इलाहाबाद’ में जो लिखा, वो किसी भी लेखक के लिए पाठशाला हो सकती है। जीवन, शहर और संबंधों को ऐसे भी लिखा जा सकता है। ममताजी को मैंने इन दो किताबों से ज़्यादा जाना। कितना खुली हुई, जैसे मेघालय की उमंगगोट झील का पारदर्शी जल हों, सतह तक साफ-साफ दिखाई देती हुई। उनकी बातों में जो रस है, वहीं रस उन्हें पढ़ते हुए आता है मुझे। सच कहूं तो मैं फेसबुक पर उनके कमेंटस को दीवानों की तरह पढ़ती हूं, कई पंक्तियां तो कापी करके संभाल कर रखती हूं। वे इतनी सटीक, चुटीली और मा'नी-ख़ेज़ होती हैं कि कहीं भी कोट कर सकते। मेरे लिए जब-जब उन्होंने लिखा, मैंने संभाल कर रखा है। प्योर देसी घी की महक से भरी हुई पंक्तियां मुझे दिलासा देती चलती हैं और मुझ पर मेरा भरोसा भी। आप हमेशा ऐसी संगति चाहते हैं जो आपकी हिम्मत न तोड़े, आपको सिर्फ कमियां बता कर निराशा की गहरी खाई में न फेंके, फूलों की घाटी का पता भी बताए। मुझे तो ममताजी इसी रुप में मिली हैं। हंसते हुए अक्सर कहती हैं, “गीतू, जरा थम कर लिखो। जितनी देर में मैं तुम्हारी एक किताब पढ़ नहीं पाती हूं, तुम दूसरी किताब लिख लेती हो। “

मैं इन वाक्यों में छुपे हुए संदेश सुन लेती हूं। मैं फिर ख़ुद को थाम लेती हूं। जो थमना आया, उनकी बातों से आया। वरना, हम तो चलते-चलते दौड़ने लगे थे। कुढ़ने वाले निंदको ने इसी बात को कहा था- “बहुत जल्दी-जल्दी लिखती है यार। मेहनत नहीं करती। मेहनत करती तो और अच्छा लिख सकती थी। “ 

सच है कि शुरुआती दौर में बड़ी हड़बड़ी थी। अपने समकालीनों से पिछड़ जाने का मलाल तो होता ही है। अब नहीं है। मेरा सौभाग्य कि संगति ऐसी मिली, जिन्होंने मुझे संवार दिया। ममताजी जैसी संगति मिले तो आप कुछ हासिल ही करेंगे। यहां प्राप्ति ही प्राप्ति है। उनके हाथों का बना स्वादिष्ट खाना, उनके हाथों से बनी गरमा गरम चाय, पकौड़े। वे कितनी अच्छी मेहमान- नवाज़ हैं, उनके करीबियों को मालूम है। 

मैं जब भी जाती हूं, लेखिका वंदना राग, प्रत्यक्षा या कभी कोई और साथ रहे हैं। मैं अकेली कम ही गई हूं। वंदना के साथ सबसे अधिक बार गई हूं। जब भी हमारा मिलने का मन करता है, हम उन्हें मैसेज करते हैं- वे जो जवाब देती हैं, वो लाजवाब कर दे किसी को भी। 

उनका जवाब- “तुम दोनों के बिना आधा रौशन दरवाजा खोला नहीं जाता। “ 

आह...कौन न मर जाए इन पंक्तियो पर। कौन न इठलाए ऐ ख़ुदा, ख़ुद पर। 

गीताश्री, ममता कालिया व वंदना राग



एक बार मैं अकेली गई थी। हमीं तीन बैठे थे। मैं, ममताजी और उनकी पड़ोसन लेखिका मित्र मीना झा। हम देर तक हंसते-हंसाते रहे। चाय-पकड़े का दौर चला। फिर मैं सांझ हुई तो निकल गई। अभी रास्ते में ती कि ममताजी का व्हाटसप पर मैसेज आया- “गीतू, मीना जी कह रही हैं, गीता गईं तो ऐसा लगता है, दस बीस लोग उठ कर चले गए। “

ये पढ़ कर मेरा हंसते-हंसते बुरा हाल। हम तीनों मिल कर ख़ूब धमाल करते रहे थे। मैं थोड़ा ज़्यादा ही उत्साहित। आखिर ममता कालिया जैसी बड़ी लेखिका की संगति में मैं बावरी क्यों न होऊं। मैंने आज तक इस मैसेज को संभाल कर रखा है। मैंने इसे अपनी तारीफ के रुप में लिया। 

बाद में मैंने अपने मित्रों को सुनाया, तब से वे अक्सर मुझे चिढ़ाते हैं, “ठीक ही तो कहा ममताजी ने, आप तो दस बीस के बराबर ही हैं। “ मैं लोटपोट हो जाती हूं, ये समझ कर भी कि ममताजी ने किसी और मंशा से कहा, मेरे मित्र मेरे मोटापे का मजाक बना रहे हैं। 

ममताजी का एक एक कमेंट ऐसा है आप हंसे बिना या सोचे बिना नहीं रह पाएंगे। वन लाइनर की चैंपियन हैं ममताजी। उस पंक्ति में या तो हास्य होगा या जीवन-दर्शन। बड़ी बातें लिख जाती हैं और मैं मुग्ध होकर उस पंक्ति को कई-कई बार पढ़ती हूं। वंदना राग से इस बारे में अक्सर चर्चा करती हूं, वो भी सहमत होती हैं। 

मैं कमेंट पढ़ कर उन्हें मैसेज करती हूं- “क्या गजब कमेंट, लव यू रहेगा हमेशा। “ 

वे तत्काल सहजता से जवाब देती हैं- “तुम ज़िन्दगी डालती हो। इस लमहा कोई ईसीजी करे, क्या गज़ब रिपोर्ट आये। “

ममताजी की ताऱीफ करने वाले अनेक लोग हैं, पाठक वर्ग है। उन्हें भरपूर सराहना और स्नेह मिला है, हरेक वर्ग से। ऐसी लेखिका जब हमें सराहे तो भला हम फूल कर गुब्बारा क्यों न हो जाएं। 

कुछ समय पहले मैंने इन्हें बताया कि आपके ऊपर संस्मरण लिखने जा रही हूं....उन दिनों वे अस्वस्थ चल रही थीं। 

तबीयत का हाल भी पूछना था, मिलने का भी मन था और बताना भी था। उन्होंने जवाब दिया- 

“ज़रूर लिखो गीता। अभी डेंटल सर्जन के पास से लौटी हूँ। दिल की मरम्मत अलग चल रही। उम्र में एक सीढ़ी ऐसी आती है जिसे उलांकना मुश्किल लगता है। खैर, मैं उलांक लूँगी। विश्वास है। “

इसी अस्वस्थता के दौर में वे एक बड़ा काम कर रही थीं। उन्हें एक पल चैन कहां। हमेशा कुछ न कुछ करते रहना है। वे कभी खाली नहीं बैठ सकतीं। एक साथ तीन–चार काम शुरु कर देती हैं। ख़ुद ही बताया था। कई बार दो तीन रचनाएं, किताबों पर एक साथ काम। ये काम सबके वश का नहीं। मल्टी ट्रैक पर चलना आसान नहीं। तभी अस्वस्थता के दौर में ‘वर्तमान साहित्य’ नामक पत्रिका के महिला महाविशेषांक का दायित्व कंधे पर उठा लिया और लग गईं इसके पीछे। ममताजी के संपादन की खबर फैलते ही सबको इंतजार रहा कि वे सबसे रचनाएं मांगे। उन्होंने चयन किया, रचनाएं मंगवाई। बातों ही बातों में बताया उन्होंने कि इतनी रचनाएं आ चुकी हैं कि कई अंक निकाले जा सकते हैं। एक अंक की सीमाएं होती हैं। उन्होने मुझसे कहानी भेजने को कहा। ममताजी के लिए कहानी लिखना, उनके संपादन में छपना, किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं। मैं सब काम छोड़ कर एक ऐसी कहानी लिखना चाहती थी जो उन्हें पसंद आए। वे सख्त चयन करती हैं। पसंद न आए तो साफ बोल देती हैं। किसी का दिल नहीं तोड़तीं, मगर हंसते-हंसते वे नापसंदगी जता देती हैं। मेरे सामने चुनौती थी। एक बड़ी लेखिका की कसौटी पर कसी जाने वाली थी। 

मैं जुट गई जी जान से। धड़कते दिल से उन्हें कहानी भेजी। वे पढ़ेंगी तो क्या कहेंगी। मैंने कहा था उन्हें कि पसंद न आए तो मत छापिएगा। कमियां बताइएगा। मैं फिर से मेहनत करूंगी, और बेहतर लिखूंगी ताकि आपको पसंद आ सके। दोस्ती अपनी जगह, काम अलग रहे। कुछ समय की प्रतीक्षा के बाद उनका मैसेज चमका- 

“बेहद सशक्त रचना है गीतू। मेहनत की महिमा और सौंदर्य इससे पहले मत्स्यगंधा में भी देखा था। इसी की मैं कद्र करती हूँ। बहुत मुबारकबाद। ”

मुझे याद आया कि जिन दिनों उन्होंने मेरी कहानी “मत्स्यगंधा” आधा ही पढ़ कर मैसेज किया था- “तुम बहुत सशक्त रचानाकार हो, जिसकी जड़ें गांव की मिट्टी में है और फैलाव नगर चेतना में है। “ 

मेरी खुशी के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है....मैं क्यूं न फिरु छलकी...छलकी...। यहां ये सब बताने का मकसद ये है कि ममताजी का दिल दरिया है। उस समय जिनकी कहानियां पसंद, सबको छापा और सबको इतने ही प्यारे संदेश भेजे होंगे, मुझे यकीन है। बड़े लेखक सबके हिस्से में होते हैं थोड़े-थोड़े। वे प्रतिभा को चुनते हैं, सराहते हैं। चेला मंडली तैयार करके सिर्फ उन्हें ही प्रोमोट नहीं करते। हालांकि ममता के आसपास कई मठ और मठाधीश सक्रिय हैं। वे उनके साथ होकर भी अलग और स्वतंत्र विचारों की हैं। 

ममताजी का दरबार सबके लिए खुला है। दिल्ली जो भी आता है, उनसे मिलना चाहता है। मिलता भी है, सब उनके सहज स्वभाव और आत्मीय आवभगत के कायल होकर लौटते हैं। बड़ा लेखक अपने व्यवहारों से भी बड़ा बनता है। सिर्फ लेखन काफी नहीं। 

मैं ये सब लिखते हुए यहां याद करना चाहती हूं कि उनका नाम पहली बार कब सुना था। हम पहले नाम सुनते हैं फिर उन्हें पढ़ते हैं फिर मिलने की इच्छा जागती है। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार नाम कब सुनी और कब इनसे लगाव महसूस हुआ। कॉलेज के दिनों की बात है। अस्सी का दशक था। मेरी चेतना बनने, जगने के दिन थे। मेरे भीतर एक सजग स्त्री पैदा हो रही थी जिसने गंभीर साहित्य पढ़ना शुरु किया था। हिंदी भाषा के अध्ययन के प्रति लगाव हुआ और मैंने विषय के रुप में उसे चुना। फिर तो साहित्यिक पत्रिकाएं, पुस्तकें पढ़ने का चस्का लगा। साहित्यकारों के बारे में दिलचस्पी जगी। हमारे बीच उन नामों पर, उनके लेखन पर चर्चा होती। इलाहाबाद को हम तब साहित्य के गढ़ के रुप में जानते-मानते थे और वहां के लेखकों को पढ़ रही थी, उनके बारे में जान रही थी। उन्हीं दिनों की बात है। मैंने ममता कालिया का नाम सुना था और उनकी कुछ कहानियां किसी पत्रिका में (याद नहीं) किसी ने पढ़ने को दी थी। 

उन दिनों हम हसरत से देखा करते थे दूर बड़े शहरों, नगरों में रहने वाले लेखकों को। हम ठहरे छोटे शहर के होस्टल के कैदी। हमारी दुनिया सीमित थी। घर से होस्टल तक सिमट कर रह गए थे हम। लेकिन भीतर में एक समानांतर दुनिया बन रही थी जो बाहरी दुनिया से ज़्यादा आजाद थी। जहां हमने महबूब लेखकों को बसा रखा था। मुझे लेखिकाएं ज़्यादा लुभाती थीं। क्योंकि मैं एक बंद समाज की स्त्री थी, मुझे स्त्रियों की उपलब्धियां जैसे आज रोमांचित करती हैं, वैसे ही पहले भी करती थी। तब तो और ज़्यादा करती थीं। मैंने उसी दौर में कुछ लेखिकाओं के नाम जाने, सुने और उन्हें पढ़ा। तब कहां सोचा था कि उनसे कभी मिल पाऊंगी। उन्हें देखने तक की कल्पना नहीं की थी। वो हमारे आकाश के सितारे थे। जब दिल्ली आई, पत्रकारिता के दिन शुरु हुए तो मेरे सिरहाने इंद्रधनुषी ख्वाब नहीं, किताबें हुआ करती थीं। अति व्यस्तता भरे दिन होते, रात किताबों के संग। मैं तब लेखकों के बारे में, उनके व्यवहारों के बारे में किताबी ढंग से सोचती थी। जीवन से ठीक से पाला जो नहीं पड़ा था। 

और एक समय ऐसा आया जब आउटलुक साप्ताहिक (हिंदी पत्रिका) में आई, साहित्य का पेज मेरे जिम्मे आया, तब साहित्य समाज से पाला पड़ा, तब जीवन भी समझ में आया। उन्हीं दिनों उस दौर के बड़े लेखकों से मिली, उन्हें अपने पेज पर छाप कर गौरवान्वित हुई। उसी दौर में एक दिन ममता कालिया को फोन किया पहली बार। हम वैलंटाइन डे पर लेखिकाओं से उनके प्रेम प्रसंगों पर परिचर्चा कर रहे थे। सबसे फोन पर ही बात करनी थी। मुझे याद है, ममताजी ने हैलो करने के साथ ही खिलखिलाना शुरु कर दिया। जब सवाल पूछा तो वे और ठहाका लगाने लगीं। मैं तो सकुचाई हुई, थोड़ी सहमी हुई कि कहीं डांट देंगी, बातचीत नहीं करेंगी तो मेरे संपादक बहुत नाराज हो जाएंगे। उन दिनों साहित्य पेज की प्रभारी होने के नाते वैसे भी कई लेखक, रचना न छपने या देर से छपने को लेकर नाराज थे, जैसा संपादक जी बताया करते थे। पहले तो मुझे लगा कि शायद मेरी कु-ख्याति ममताजी तक भी पहुंच गई है। लेकिन मेरा डर निर्मूल निकला। हंसते–हंसते ही उन्होंने मेरे सवाल का जवाब दिया, कालिया जी के साथ अपनी पहली मुलाकात से लेकर प्रेम परवान चढ़ने तक के किस्से सुना दिए। इतने मजेदार ढंग से सुनाया कि वे किस्से मुझे आज तक याद हैं। मेरे मन पर उनके व्यवहार की गहरी छाप पड़ी और मुझे लगा, इनसे यारी हो सकती है। 

दिल से चाहो तो मौके भी मिलते हैं। ‘अल्केमिस्ट’ का वो संवाद याद करिए या ‘ओम शांति ओम’ में शाहरुख खान का संवाद। समय आया, जब अपनी यारी हुई...क्या ख़ूब हुई कि दिलदार बने बैठे हैं। 

इन दिनों आलम ये है कि जब कभी मौज चाहिए तो उनसे बातें कर लेती हूं। उनके चुटीले कमेंटस पढ़ कर हंसी आती है, रहा नहीं जाता तो बात कर लेती हूं। बार-बार मिलने की इच्छा रखती हूं, क्योंकि उनके साथ सखियों की तरह ठिठोली भी कर लेती हूं और हाथ पकड़ कर झूले भी झूल लेती हूं। कभी उलझन हो कि क्या लिखूं, क्या न लिखूं तो उनसे सलाहें भी लेती हूं। उन्होंने हाल में सुझाया है – “मुजफ्फरपुर की महागाथा लिखो, सुपर हिट होगी। “

दिनों दिन उनकी सक्रियता बढ़ती जा रही, यात्राएं ख़ूब हो रही हैं। जो भी आदर से बुलाता है, वो मना नहीं कर पातीं। इस समय देश की सबसे ज़्यादा घूमने वाली लेखिका हैं। चाहे कोई लाख मना करे, हम लोग या उनके बच्चे, वे नहीं मानती हैं। वे कहती है- मुझे इसी से ऊर्जा मिलती है, मैं क्यों न जाऊं। उनकी उम्र की कई लेखिकाएं उनकी इस भागदौड़ से चकित रहती हैं। ममताजी ने सच में साबित किया है कि उम्र सिर्फ नंबर है, दिमाग पर उसका लोड न लेना बेहतर। हालांकि उन्हें इस बात का अहसास है कि उनकी व्यस्तताओं ने उनके लेखन पर असर डाला है। एक बार हाल ही में कुछ उदास स्वर में बात कर रही थी कि मैं कुछ लिख नहीं पा रही हूं। तब उन्होंने हौसला बढ़ाते हुए कहा था – “देखो दोस्त, अपनी शक्ति पहचानो। तुम इधर के लेखन में सशक्त स्वर हो। मेरा समय शोध छात्रों में, गप्पबाजी में और पढ़ने में खर्च होता रहता है। जम कर गंभीर लेखन कभी लिखने की मोहलत ही नहीं मिलती। “

इतना विपुल लेखन के बाद उन्हें ऐसा लगता है तो हम जैसों का क्या हाल होगा, सोचिए। बेघर (1971), नरक दर नरक (1975), प्रेम कहानी (1980), लड़कियां (1987), एक पत्नी के नोटस (1997), दौड़ (2000), सुक्खम-दुक्खम (2009), कल्चर-वल्चर (2016), सपनों की होम डिलीवरी (2017) जैसे एक से बढ़ कर एक उपन्यास लिखने वाली, अनेक कहानी संग्रह, नाटक, कविता संग्रह लिखने वाली, अनेक बड़े पुरस्कारों से नवाज़ी गईं लेखिका को लेखन न कर पाने का मलाल घेरता है। 

वे चाहे तो सबसे दूरी बना कर लेखन में जुट जाएं। वे समाज से, पाठकों से, प्रशंसकों से, मित्रों से, आयोजकों से कट कर रहें। वे ऐसा नहीं कर सकतीं। ये सारी चीजें एक सच्चे लेखक को ताकत देती हैं, जीने का हौसला भी। यह हौसला बना रहे। 

और एक बात। ऐसा नहीं कि मेरी उनसे असहमतियां नहीं होतीं। उन्होंने इतना साहस दे रखा है या छूट कि मैं अपनी असहमति जता कर उनसे उलझ पड़ती हूं। ऐसे मौके पर उन्हें संयमित जवाब देते, समझाते देखा है। वे दिल नहीं तोड़तीं। 

कितनी बातें लिखूं...। उनकी याद ही रौनक बढ़ा देती है चेहरे की। अभी तो स्मृतियों के और नये झरोखे बनने हैं। उनका साथ, उनके साथ हम बने रहें। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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