रश्मि भारद्वाज और उनकी कविताओं को किसी परिचय, टिप्पणी आदि की ज़रूरत नहीं है इसलिए, उनका स्वागत करते हुए इतना कहूँगा कि ये नौ कविताएं, वर्तमान में माँ दुर्गा की नौ नवेली और भीतर तक उतरती रचनाएं हैं। ~ सं०
Nav Durga: Rashmi Bhardwaj's Poems |
नवदुर्गा: नौ कविताएं
योगिनी, तुम करो अपना आह्वान
~ रश्मि भारद्वाज
लेखक, अनुवादक, संपादक | अंग्रेज़ी साहित्य से एम फिल,पीएचडी
पुस्तकें: तीन कविता संग्रह - एक अतिरिक्त अ, मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है, घो घो रानी कितना पानी / एक उपन्यास- वह साल बयालीस था / संपादित पुस्तक- प्रेम के पहले बसन्त में। अनुवाद एवं संपादन में कई महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित।सम्मान: ज्ञानपीठ नव लेखन अनुशंसा, शिवना अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान, पाखी शब्द साधक सम्मान आदि
नवदुर्गा कोई और नहीं, हमारी आंतरिक शक्ति है, हम स्त्रियों में अंतर्निहित चेतना, संकल्प शक्ति, प्रेम और तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उबार ले जाने वाली हमारी जिजीविषा। वे परंपरा से मिली धरोहर हैं और वहीं से आधुनिक स्त्री का स्वरूप भी मिलता है। ऐसी आधुनिक स्त्री जो गढ़े गए रूपकों और मिथकों के बाहर संधान करती है अपना अस्तित्व। हम सबके अंदर स्थित दुर्गा महाकाव्यों के पार जाकर आम जीवन में खोजती है अपने स्त्री होने के मायने। एक आम स्त्री की तरह पराजित होती है, भयभीत होती है लेकिन अपनी सारी ताकत बटोर पुनः अपनी यात्रा आरंभ करती है। वही नवदुर्गा मेरा हाथ गह अपना यह नया स्वरूप लिखने के लिए मेरी अन्तःप्रेरणा बन जाती है।
-रश्मि भारद्वाज
|१|
शैलपुत्री, पिता से रखना अनुरक्ति
कोई आस मत रखना
प्रथम मोहभंग सदैव पिता ही करते हैं
जब उनके गृह में ही नहीं
हृदय में भी तुम आगन्तुक हो जाती हो
मिलेंगे तुम्हें ऐसे पिता भी
गर्भ में वीर्य डाल आने के अतिरिक्त
एक जीवन में वे कही नहीं होते,
मात्र अपनी काया का अंश हो तुम
अपनी ही योनि से जन्म लेती हो
मत रमाना धूनी किसी कैलाशपति की प्रतीक्षा में
कोई रचेगा प्रेम का स्वांग
विवाह के लिए कुल, गोत्र, धन धान्य, देह कोरी चाहेगा
वह जिसके लिए तुम फूंक दोगी अपना शरीर
तुम्हारी राख पर ही धरेगा अपनी गृहस्थी नयी,
वरण करे कोई तुम्हारा, इतनी सिद्धि शेष नहीं कहीं
तुम धारण करती हो जिसे
वह अर्धनारीश्वर हो जाता है
शैले, कहीं नहीं है वह आश्रय
जिसके लिए तुम वन-पर्वत भटकती रही
जिसे तुमने रचना चाहा
माटी के एक टुकड़े पर
इस संसार के उल्लास के लिए
खोती रही अपना समस्त वैभव,
किए तमाम आडम्बर, अनुष्ठान
अपनी देह ही नहीं अपनी आत्मा को भी
देवों की तृप्ति के लिए गिरवी रख दिया
योगिनी, तुम करो अपना आह्वान
गाओ केवल अपनी स्तुति के मंत्र
तुम जिसे बाहर खोजती चली आयी हो सदियों से
वह तिलिस्म सदैव तुम्हारे भीतर ही है
|२|
सहस्त्रों वर्ष की साधना , क्षीण शरीर, निस्तेज मुख
यह देह तो साध ली तुमने, अपर्णा
इस मन को कैसे बांधा
तप, त्याग, सद्विचार हो
जो पाना हो अभीष्ट, गलानी पड़ती है काया
नष्ट कर देनी होती है मन की सभी कुंडलियाँ,
फिर क्या उसे व्यभिचार कहोगी
जहाँ किसी वांछित के लिए
तोड़ दी जाती हैं समस्त वर्जनाएँ
छोड़ दिया जाता है स्वयं को अनियंत्रित
बहने के लिए प्रवाह में
भूलकर पाप-पुण्य के तमाम बहीखाते
कुछ पाने का रास्ता
जहाँ गुज़रता है इच्छाओं के बीहड़ से
रचती हैं स्वप्न जागती आँखों का
प्रेम में
प्रेम के बाद भी
बना ही लेती हैं कोई एक दरीचा
जहाँ से आ सकती है रोशनी
नक्षत्र के अस्त हो जाने पर
विलग नहीं हो पातीं
कभी अपनी कामनाओं से
छूटती नहीं जिनकी जीवन की लालसा
उन अपराधिनों की फिर कौन सी गति
ब्रह्मचारिणी!
|३|
देवसुता
चाहे सिरजी गयी देवों द्वारा
निमित्त मात्र नहीं हो उनके संग्राम का
रचा गया तुन्हें जब पराजित हुए देवता
तुम्हारी दिव्यता ही उन्हें उबार सकती थी,
आयुध थे उनके
उनके ही वस्त्र आभूषण
पर वह विवेक तुम्हारा हो
जो देख सकता हो दमित का भी पक्ष
वह पक्ष जिसे नवदेवता बदल सकते हैं
धन धान्य, कुल गोत्र के प्रभाव से
इस देवलोक के राजा जानते हैं
केवल सत्ता की भाषा
धर्म सिमट कर इतना भी शेष नहीं
एक मनुष्य वहाँ पूरा अट सके
रखना स्मरण
तुम नहीं हो समिधा देवों के हवन कुंड की
तुम्हारे स्त्रीत्व ने सदैव
देवलोक का उद्धार किया है,
तुम्हें रहे सदैव स्मरण उनका
जिन्हें स्वर्ग से निष्काषन का दंड मिला है
वह जो अर्धचंद्र है तुम्हारे माथे का
दमकता रहे न्याय की आभा से
चन्द्रघण्टा!
|४|
स्त्री की हँसी एक रहस्य है
कहते हैं ज्ञानी
देवता यहाँ रख देते हैं अपनी समस्त क्लांति
संसार यहीं लेता है आश्रय,
यहीं पाता है सारा भोग विलास
कथा भी कहती है, भवानी
तुम्हारे ईषत् हास्य से निर्मित हुआ यह ब्रह्मांड
किन्तु तुम्हारी ही बनाई इस सृष्टि में
तुम्हारी पुत्रियों की आँखें सदैव सजल हैं
कोई भेद ही है, या है केवल उनका दक्ष स्वांग
खोज लाती हैं वे अपनी हँसी
हर ग्रहण के उपरांत
यह तुम्हारा दिया आशीर्वाद है,
एक चिरन्तन अभिशाप है,
अथवा तुम्हारी परम्परा से चला आ रहा वह पाठ
एक संसार हो
या हो एक घर
सृष्टि के लिए
स्त्री का हँसते रहना ज़रूरी है
|५|
जगतारिणी
एक बालक मात्र नहीं है तुम्हारी गोद में
समस्त पृथ्वी ही समाई है,
कभी जो
उतार देना चाहो सारा भार
किसी काँधे पर टेक लगाकर
सुस्ता लेना चाहो पहर दो पहर
पैर सिकोड़ कर सो जाओ किसी गोधूलि
कहीं झोला टाँग निकल पड़ो
दूर भ्रमण पर एकाकी,
यह भी कैसा अधम प्रश्न है
किन्तु क्या यह सम्भव है
त्याग कर अपनी ही संतानें
तुम निकल जाओ कभी सत्य के संधान में
फिर भी वंदनीय कहलाओ
|६|
पुत्रियाँ अभीष्ट नहीं
किन्तु मंगालाचरण के लिए उनकी आवश्यकता है
होठों पर प्रार्थना
गर्भ में बीज
नेत्रों में लज्जा हो
जो घर आओ, कात्यायनी
जिन प्रश्नों का कोई हल नहीं
उन्हें मत उचारो
दोष लगेगा पुनरुक्ति का
संसार नित नवीन के संधान में है
काव्य हो या जीवन,
पराक्रम कथाओं में शोभता है
हम तुम्हारी छवि की स्तुति करेंगे
वहाँ तुम रहो अनंता
जगत व्यवहार में आओ
तो जानो सर्वप्रथम
तुम्हें कहाँ अंत हो जाना है
|७|
कितनी कालरात्रियाँ
गुंजित होती हैं तुम्हारे आर्तनाद से
करुण स्वर में पुकारती हो देवों को
जागो, दैत्यों का संहार करो
तुमने उनके संग्राम में
संहार किया कथानक के असुरों का
स्वयं हो क्षत विक्षत
जीवन में,
मृत्यु के बाद भी,
कितने विकट दिन
जब मृत्यु ने भी नहीं गही तुम्हारी हथेली
तुम प्रतीक्षा में रही
एक रात्रि तुम्हें छिपा ले अपनी गोद में
रौद्रा, कहाँ भूल आयी तुम अपना खड्ग
अपनी ज्वाला,
खोलो अपने धधकते नेत्र
तुम्हें नष्ट करने हेतु
देव -दानवों ने संधि कर ली है
अब वे सर्वत्र घूमते हैं तुम्हारे संधान में
कभी - कभी वेष धरे
स्नेहीजनों का भी
|८|
चन्द्रमौलि ने गंगा जल से स्नान करा
तुम्हें इतना उज्ज्वल कर दिया है
तुम्हें देख नेत्र चौंधिया जाते हैं
वहाँ शरण नहीं मिलती,
इतना रूप किस हेतु गौरी
जो अपनी ही किसी श्याम अंश के लिए
कठिन कर दो जीवन
समस्त उबटन चंदन प्रलेप के बाद भी
बदलती नहीं जिनकी काया
ऐसी श्यामवर्णाएं कहना चाहती हैं
उन कथावाचकों से
क्रोध में नहीं जलता है रंग
प्रतिकार या हिंसा से नहीं होता कोई स्याह
यह किसकी गणना रही
काला तम का प्रतीक हो गया
घोर उजाले की ओट में जबकि
होते रहे अधर्म
|९|
अभी गायी जाती रहेंगी स्तुतियाँ
गढ़े जाते रहेंगे रूपक
इसी बीच, हौले से तुम कानों में फूंक देती हो एक मंत्र
दूसरों की पराजय में नहीं
उल्लास अपने विजय में है, जया
तुम स्वयं तय करो अपना युद्ध
हार जाओ थोपे गए छद्म
हारना भयमुक्त करता है
ज़रूरी लड़ाईयों के लिए,
सजग हो तुम्हारी दृष्टि
दूर तक देखना, देर तक देखना
ताकि देख सको स्पष्ट
तुम्हारी सिद्धि छिपी है
तुम्हारे हृदय में
तुम उसे अपने वश में रखना
कथा में नहीं हूँ मैं
स्तुति में नहीं हो सकता मेरा संधान
यह जानना
किसी देवी की आराधना नहीं थी यह
एक मानुषी का वक्तव्य है
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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