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मनोज पांडेय की कहानी 'खेल' | Manoj Pandey - Hindi Kahani - Khel

अगर गलती करने पर किसी को मारा जा सकता है तो यह बात हर बड़े-छोटे पर समान भाव से लागू होनी चाहिए। ~ मनोज पांडेय 

गर शब्द रंग हैं और कागज़ कैनवास तो मनोज पांडेय की कहानी ‘खेल’ बेहतरीन पेंटिंग है...पढ़िए/निहारिए ! ~ सं0 


पेचीदा रचना प्रक्रिया है इस कहानी खेल की।जीवन की चुनौतियों को ऐसे ही झेला जा सकता है ~ ममता कालिया 


Manoj Pandey - Hindi Kahani - Khel


खेल

~ मनोज पांडेय 

7 अक्टूबर, 1977 को इलाहाबाद के एक गाँव सिसवाँ में जन्म। लम्बे समय तक लखनऊ और वर्धा में रहने के बाद आजकल फिर से इलाहाबाद में। / कुल पाँच किताबें - ‘शहतूत’, `पानी’, `खजाना’ और `बदलता हुआ देश’ (कहानी संग्रह), ‘प्यार करता हुआ कोई एक’ (कविता संग्रह) - प्रकाशित। देश की अनेक नाट्य संस्थाओं द्वारा कई कहानियों का मंचन। कई कहानियों पर फिल्में भी। अनेक रचनाओं का उर्दू, पंजाबी, नेपाली, मराठी, गुजराती, मलयालम तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद। कहानी और कविता के अतिरिक्त आलोचना और सम्पादन के क्षेत्र में भी रचनात्मक रूप से सक्रिय। / कहानियों के लिए स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान (2021) वनमाली युवा कथा सम्मान (2019), राम आडवाणी पुरस्कार (2018), रवीन्द्र कालिया स्मृति कथा सम्मान (2017), स्पन्दन कृति सम्मान (2015), भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार (2014), मीरा स्मृति पुरस्कार (2011), विजय वर्मा स्मृति सम्मान (2010), प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान (2006)। / फोन : 08275409685 / ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

गणेश के जीवन में यह पहला मौका है जब वे घर में अकेले हैं। उन्हें अच्छा तो बहुत लग रहा है पर उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इस अकेलेपन और आजादी का क्या करें। बबली छत के रास्ते आई थी। दोनों देर तक घुट-घुट कर बतियाते रहे। दोनों के भीतर घर में अकेले होने की सनसनी थी। इसके पहले कि यह सनसनीखेज होने की तरफ बढ़ती बबली चली गई। 

वह दोबारा आए इसके पहले आपको गणेश के बारे में जानना चाहिए। गणेश का पूरा नाम गणेश प्रसाद है। गणेश प्रसाद केसरवानी। वे मिश्रीलाल और कौशल्या की इकलौती सन्तान हैं। मिश्रीलाल और कौशल्या के विवाह के कई सालों बाद उनका जन्म हुआ। मिश्रीलाल कहते हैं कि गणेश का जन्म गणेश भगवान के आशीर्वाद से हुआ था इसलिए उन्होंने इनका नाम गणेश प्रसाद रखा।  

यह एक पतला और लम्बा सा घर है, जिसमें गणेश रहते हैं। मुश्किल से चार मीटर चौड़ा और करीब तीस-बत्तीस मीटर लम्बा। अभी पूरे घर की पुताई हुई है सो यह सब तरफ से चमक रहा है। बिजली की रोशनी में गणेश अपना ही घर पहचान नहीं पा रहे हैं। इसके बावजूद कि वे इसी घर में जन्मे और पले-बढ़े। आप कहेंगे कि सिर्फ पुताई भर हो जाने से कोई घर इतना नया कैसे हो सकता है कि पहचान में ही न आए। इतनी दूर की तो विज्ञापन वाले भी नहीं फेंकते।

आप सही कह रहे हैं पर इसलिए कह रहे हैं कि आप न गणेश के बारे में कुछ जानते हैं न उनकी उस लड़ाई के बारे में जिसे वे साल भर से लड़ते रहे हैं। उसी लड़ाई का सुफल है कि गणेश आज घर में अकेले हैं। माँ मिश्रीलाल के साथ अपने मायके गई हैं और मिश्रीलाल माँ के साथ अपनी ससुराल। कहने को दोनों एक ही बातें हैं पर दोनों के बीच पहाड़ जैसा अन्तर है। 

गणेश अपने पिता को मिश्रीलाल कह कर ही पुकारते हैं। बचपन में कौशल्या ने उन्हें सुधारने की बहुत कोशिश की पर गणेश की तोतली जबान में मिश्रीलाल अपना नाम सुनकर चहक उठते। उन्हें अपना नाम इतना सार्थक और प्यारा इसके पहले कभी न लगा था। गणेश बड़े हुए तो यह स्थिति बदल गई। बाद में तो उन्होंने इस बात की जी-तोड़ कोशिश की कि गणेश उन्हें पापा बुलाने लगें। कई बार मार भी पड़ी पर बात नहीं बनी तो नहीं बनी।

 गणेश के माथे पर जो दाग है वह तब का है जब मिश्रीलाल ने पापा बनाम मिश्रीलाल के मसले पर नाराज होकर पाव का बटखरा उनके ऊपर फेंक मारा था। गणेश रो रहे थे, कौशल्या उनके साथ-साथ रो रही थीं। मिश्रीलाल अपनी दुकान से फिटकिरी का एक टुकड़ा लेकर आए थे और पत्नी से कहा था कि इसे पीसकर घाव पर लगाकर पट्टी बाँध दो। कौशल्या रोते हुए लगातार बड़बड़ाती रही थीं कि किस निर्मोही आदमी के पल्ले बँध गई हैं जिसके ऊपर एकलौते पूत का दर्द भी नहीं व्यापता। 

 कौशल्या आधी ही सही थीं। मिश्रीलाल ने कुछ कहा भले नहीं पर दिन भर उनका हिसाब गड़बड़ होता रहा। यही नहीं उस दिन के बाद मिश्रीलाल कहने पर भी उन्होंने गणेश की बातें वैसे ही सुनीं जैसे कि पापा या बाबू कहने पर सुनते। 

ऐसा नहीं है कि गणेश ने उन्हें पापा या बाबू कहने की कभी कोशिश नहीं की या कि जानबूझकर किसी जिद वश उन्हें मिश्रीलाल कहते रहे। बात इसकी उल्टी ही थी। गणेश ने अपनी तरफ से बहुत कोशिश की थी कि मिश्रीलाल की जगह पर पापा कहें। अकेले में बहुत सारा अभ्यास किया था पर जब भी वे सामने होते पापा कहते जबान को जैसे लकवा मार जाता। गणेश भीतर से पापा बोलते पर बाहर जो आवाज निकलती वह हमेशा मिश्रीलाल होती।

घर के आगे वाले हिस्से में मिश्रीलाल की किराने की दुकान है। दुकान की बगल से एक पतला सा रास्ता दुकान के पीछे वाले कमरे में खुलता है। इसके बाद तीन कमरे और हैं। फिर आँगन है। आँगन में लाल गूदे वाले अमरूद का पेड़ है, जिसके नीचे एक चापाकल है। आँगन के बाद रसोई है। रसोई में जल निगम का नल लगा हुआ है, जिसमें सुबह घंटे भर पानी आता है। कौशल्या का रोज सुबह का एक काम यह भी है - घर के सभी बर्तनों में जरूरत का पानी भर के रखना। 

रसोई के बाद फिर से दो कमरे हैं। कुछ इस तरह से जैसे माचिस की बहुत सारी डिब्बियाँ एक दूसरे से जोड़कर रख दी गई हों और उनके बीच एक से दूसरी डिब्बी में जाने के लिए रास्ता बना दिया गया हो। बिना किसी योजना के। कैंची उठाई और जहाँ मन किया काट दिया। घर के एकदम पीछे वाले हिस्से में शौचालय और स्नानघर बना हुआ है। शौचालय का प्रयोग सब करते हैं पर स्नानघर का प्रयोग कौशल्या के अलावा और कोई नहीं करता। 

घर के पीछे से कभी एक नहर गई थी जिसमें अब भी कभी कभी पानी आ जाता है। बाकी समय में वह मुहल्ले भर का कचरा, गंदा पानी और मल मूत्र अपने भीतर समोए बहती रहती है। मुहल्ले के ज्यादातर लोग अपने घरों का कूड़ा भी इसी नहर में ही फेंकते हैं। 

कहने को दुकान सिर्फ आगे वाले कमरे में है पर घर का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा हो जिसमें दुकान का कोई सामान न रखा हो। यह पूरा घर एक अव्यवस्थित गोदाम जैसा था जिसमें घर के तीनों सदस्य चूहों और काक्रोचों से बस थोड़ी ही बेहतर स्थिति में रहते। चूहे और काक्रोच घर में कुछ इस कदर फैले हुए थे कि नींद और सपनों तक में जगह घेरने लगे थे। यहाँ तक कि जब गणेश ने डायरी लिखनी शुरू की तो उनकी डायरी का दूसरा ही पन्ना काक्रोच और चूहों के बारे में था। 

चूहे और काक्रोच मिश्रीलाल की सनक थे। वे दिन भर काक्रोच और चूहे मारते रहते। मिश्रीलाल मरे हुए काक्रोचों को पीछे की नहर में फेंक आते पर पता नहीं कहाँ से अगले दिन उतने ही चूहे और काक्रोच फिर से प्रकट हो जाते। कई बार गणेश को लगता कि वे उन्हीं मरे हुए काक्रोचों के प्रेत हैं जो मिश्रीलाल से बदला लेने के लिए बार बार लौट आते हैं। 

पूरा घर मरे हुए काक्रोचों की गन्ध से भरा रहता। इस असहनीय गन्ध से बचने के लिए गणेश हींग, कपूर, कोई तीखी महक वाला तेल या लाल दन्त मंजन जैसी चीजें सूँघते रहते। कई बार कुछ भी सूँघने पर यह मरी गन्ध पीछा नहीं छोड़ती तब गणेश घर से बाहर भागते कि खुली हवा में साँस ले सकें। यहाँ तक कि घर के पीछे की नहर की गन्ध भी गणेश को अपने घर से बेहतर लगती जिसमें मुहल्ले भर की गन्दगी बजबजाती हुई बहती रहती। 

माँ अक्सर पूछती कि गणेश उस बजबजाती नहर में क्या झाँकते रहते हैं। गणेश ने इस सवाल का जवाब कभी नहीं दिया। तब गणेश लोहे का वह किवाड़ बन्द करते और छत पर चले जाते। गाँव में जैसे एक दूसरे से जुटे हुए बहुत सारे खेत होते हैं वैसे ही यहाँ एक दूसरे से जुटी हुई बहुत सारी छतें हैं। हो सकता कभी यहाँ भी खेत ही रहे हों पर आज इससे क्या फर्क पड़ता है। असली बात यह है कि छत पर से देखने पर पीछे की तरफ अभी भी खेत और बाग दिखाई पड़ते हैं। गणेश अक्सर वहाँ जाते हैं।

घर में कई और भी अजीबोगरीब बातें थीं। जैसे कि घर के हर कमरे में घड़ियाँ टँगी हुई थीं। ये घड़ियाँ दुकान में बिकने वाले तमाम सामानों के साथ उपहारस्वरूप आई थीं। उनमें सामानों का प्रचार छपा हुआ है। ये घड़ियाँ टिकटिक करते हुए एक दिन चुपचाप बन्द हो जातीं। दोबारा चलने के लिए इन्हें सेल चाहिए और सेल कोई भी कम्पनी मुफ्त में नहीं देती। सेल वाली कम्पनियाँ भी नहीं कि चाहिए बैटरी माँगिए निप्पो।

इसी तरह बहुत सारी कलमें जहाँ तहाँ पड़ी रहतीं जिनकी रिफिल की स्याही सूख चुकी होती। जर्दा-जाफरानी, बंधानी हींग, जय दुर्गे अगरबत्ती, हिन्दी सवार बीड़ी से लेकर चूहामार दवा तक के सालों-साल पुराने बहुत सारे कैलेंडर थे जो दीवारों पर एक के ऊपर एक टँगे रहते। ज्यादातर कैलेंडरों में देवी-देवताओं के काल्पनिक चित्र थे तो कुछ ऐसे भी थे जिनमें कुछ प्राकृतिक दृश्य मसलन पहाड़, जंगल, नदी या झरने आदि की तसवीरें भी होतीं। कुछ में सीधे सीधे उनका प्रोडक्ट छपा रहता। नया साल आता तो पुराने कैलेंडरों के ऊपर नए कैलेंडर टाँग दिए जाते। 

घर के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग समय जी रहे थे। किसी कैलेंडर में जनवरी चल रही होती तो किसी दूसरे में अगस्त। एक घड़ी में कुछ बजा होता तो दूसरी में कुछ दूसरा। बल्कि ज्यादातर में तो समय रुक ही गया था। इस तरह से पूरे घर में समय भयानक अराजक रूप में पसरा हुआ था। गणेश इस अराजकता के साथ खेलना सीख ही रहे थे कि उनके हाथ एक डायरी लग गई। 

यह डायरी किसी सुगन्धित तेल के जरिए आई थी। इसके हर पन्ने पर सुगन्धित तेल की शीशी बनी हुई थी। हालाँकि इसमें कोई गन्ध नहीं थी पर गणेश जब भी इसे अपने हाथ में लेते उन्हें सुगन्धित तेल की तीखी गन्ध आती। गणेश देर तक तेल की उस तीखी गन्ध में अपनी नाक डुबोए रखते। शुरुआत के दिनों में डायरी लिखना भी उनके लिए एक ऐसी ही चीज थी। देर तक नाक को डुबोए रखने वाली चीज। इसमें गणेश वह सब कुछ लिख सकते थे जो वह सोचते थे।

युवाओं वाले सारे स्वाभाविक आवेग गणेश के भीतर थे। इसी आवेग के साथ वे अपने घर के बारे में सोचते और उन्हें कुछ समझ में न आता। उनका डायरी लिखना बस इसे समझने की एक छोटी-सी कोशिश थी। फिर तो इसमें वह सब बातें शामिल होती गईं जो उनके दिल और दुनिया का हिस्सा थीं। बस बबली की बात वे कभी नहीं लिख पाए। किसी ने देख लिया तो! बबली उनके भीतर भरी हुई थीं पर डायरी में अभी उसके नाम तक की इन्ट्री नहीं हुई थी। 

जबकि उनके डायरी लिखने की शुरुआत ही बबली की तरफ आकर्षित होने से शुरू हुई। जैसे ही उनके भीतर प्रेम के फूल खिले, उनका सोचने समझने का तरीका ही बदल गया। अब तक जिन चीजों पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था वे एकदम ठोस होकर उनके भीतर का हिस्सा बन गईं। जब वे बबली की खूबसूरती की तरफ आकर्षित हुए तो उन्हें दुनिया भर की बदसूरती भी ज्यादा साफ होकर दिखने लगी। उन्हें यह सब देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं थी। 

डायरी में गणेश ने सबसे पहले घर में फैली हुई बू के बारे में लिखा। माँ के बारे में लिखा। पीछे की नहर के बारे में लिखा। दीवालों पर टँगी हुई बन्द घड़ियों के बारे में लिखा। एक के ऊपर एक टँगे हुए कैलेंडरों के बारे में लिखा। टँगे हुए कैलेंडरों के पीछे की दीवाल के बारे में लिखा। दुकान और ग्राहकों के बारे में लिखा। अपने दोस्तों के बारे में लिखा। स्कूल के अध्यापकों के बारे में लिखा और लगातार लिखते ही गए।

घर में बहुत दिनों तक किसी को पता भी नहीं चला कि गणेश डायरी लिखने जैसा एक ऐसा काम कर रहे हैं जो इस खानदान में शायद ही कभी किसी ने किया हो। तो इसी क्रम में एक दिन गणेश ने मिश्रीलाल के बारे में लिखा। उनके गन्दे पाजामे, बंडी और कमीज के बारे में लिखा। गणेश ने मिश्रीलाल की दुकान के बारे में लिखा। उनके कानों के लम्बे-लम्बे बालों के बारे में लिखा। उनके हिसाब-किताब में डूबे रहने को लिखा। कमाल की बात यह थी कि गणेश ने यह सब मिश्रीलाल की गद्दी पर बैठकर लिखा। 

मिश्रीलाल दुकान का सामान लाने गए थे। दुकान गणेश के हवाले थी। दोपहर का समय था। ग्राहकों का आना-जाना न के बराबर था। गणेश ने लिखा और लिख कर भूल गए। यह भूलना कुछ इस कदर था कि गणेश वह डायरी वहीं दुकान में छोड़ कर चले आए। इस तरह उनकी डायरी मिश्रीलाल के हाथ लग गई। मिश्रीलाल ने अनायास ही उसे पलटा और फिर पलटते ही रहे। डायरी में ऐसी तमाम बातें थी जो किसी भी तरह से उनके हिसाब-किताब में नहीं समा रही थीं। 

मिश्रीलाल ने गणेश को बुलाया। वह उसी गद्दी पर बैठे हुए थे जिस पर बैठकर गणेश ने डायरी में अपनी बातें दर्ज की थी। उन्होंने गणेश से कहा कि वह क्या वाही-तबाही सोचता रहता है और उसकी हिम्मत क्या इस कदर बढ़ गई है कि वह सरेआम अपने बाप के बारे में जो मर्जी आएगी सो लिख देगा। लोग सही कहते हैं कि ज्यादा पढ़ने-लिखने से दिमाग खराब हो जाता है। मिश्रीलाल ने कहा कि क्या तुम इतने मनबढ़ हो गए हो कि ये घर तुम्हें भूतों का डेरा नजर आता है। जिस दिन चवन्नी भी कमाने लायक हो जाना उस दिन बात करना। 

गणेश मुँह लटकाकर चले आए। उन्हें शर्म और गुस्सा एक साथ आ रहे थे। गलती मिश्रीलाल की न होकर उनकी ही थी। वे डायरी दुकान में कैसे छोड़कर आ सकते थे। पर यहीं पर यह बात भी उनके ध्यान में आई कि मान लो कि यह डायरी उनके कमरे में ही रखी होती और मिश्रीलाल के हाथ लग जाती तो क्या वे इसे नहीं पढ़ते। शर्तिया पढ़ते। तो क्या किया जाय? यह कैसे हो कि गणेश जो भी लिखें उसे मिश्रीलाल तो क्या कोई भी और न पढ़ पाए।  

दिन भर की मेहनत के बाद गणेश ने अपनी डायरी लिखने का एक नया सूत्र तैयार किया। सूत्र था - अ+5 = अ। यानी कि गणेश को जो भी अक्षर लिखना होगा, गणेश वह न लिखकर उसके आगे का पाँचवाँ अक्षर लिखेंगे। यानी कि क की जगह पर च। यह तय करते ही गणेश ने अपनी पीठ ठोकी और मान लिया कि उनकी निजता हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित हो गई है। इसके बाद गणेश ने अपने कमरे में बैठकर दोबारा डायरी लिखी और इस बात के लिए मिश्रीलाल की काफी मजम्मत की कि उन्हें अपने बेटे की निजता की परवाह नहीं है। 

गणेश ने जान-बूझकर अपनी डायरी सामने ही पड़ी रहने दी। ऐसी जगह पर जहाँ उस पर मिश्रीलाल की नजर जाए ही जाए। गणेश ने डायरी इस तरह से रखी कि अगर वह हवा से भी हिले तो गणेश को पता चल जाए। अपनी समझ में गणेश ने बड़ा तीर मार लिया था पर मिश्रीलाल के भीतर उनकी डायरी को लेकर एक सघन उत्सुकता घर कर गई थी। दूसरे दिन ही गणेश को पता चल गया कि मिश्रीलाल इतने भी बोदे नहीं हैं जितना वे उन्हें समझे हुए थे। 

मिश्रीलाल ने गणेश को बुलाया और पूछा कि चल क्या रहा है तुम्हारे दिमाग में? क्या तुम सलीम की तरह अपने पिता अकबर से बगावत पर उतारू हो? मिश्रीलाल ने कहा कि ऐसे खेल वे बहुत खेल चुके हैं। उन्होंने एक तंजिया हँसी के साथ गणेश को चुनौती-सी दी कि खेलना ही है तो कुछ कठिन खेलो, तुमको भी मजा आए और मेरा भी कुछ मनोरंजन हो। मुझे भी तो पता चले कि बगावत की आग कहाँ तक पहुँची है। 

गणेश शर्म और गुस्से से गड़ गए पर जैसे ही वह पिता के सामने से हटे, एक ढीठपना उनके अन्दर दोबारा आ बैठा। इसी के साथ गणेश को अपनी गलती समझ में आई। गणेश ने जो फार्मूला बनाया था उसमें व्यंजन तो अपनी जगह बदल रहे थे पर मात्राएँ जस की तस बनी हुई थीं। बाकी की कमी वाक्य के अन्त पर पूरी हो गई होगी। है की जगह खै, था की जगह फा। कितने मूर्ख थे गणेश! दिन भर हिसाब-किताब में डूबे रहने वाले मिश्रीलाल के लिए इतना आसान सा सूत्र! 

अगला पूरा दिन गणेश ने नया सूत्र बनाने में लगा दिया। इस बार मात्राओं की जगह भी बदली। है, हैं, था आदि में कुछ निर्रथक अक्षर जोड़े और उन्हें वाक्य की शुरुआत में ही ले आए। अब उनके पास एक नई भाषा थी। और जब मिश्रीलाल खुद को अकबर और गणेश को सलीम सम्बोधित कर ही चुके थे तो जरूरी हो गया था कि डायरी में अनारकली की इन्ट्री भी करवा ही दी जाय। 

यहीं पर मिश्रीलाल के बारे में वह बात बता दी जाय जो शुरू में छूट गई थी और उनकी पूरी धज के साथ जरा भी मेल नहीं खाती। मिश्रीलाल कस्बे के इकलौते सिनेमाहाल गंगा टॉकीज में लगने वाली सारी फिल्में देखते हैं। शुक्रवार को बाजार बन्द रहता है इसलिए मिश्रीलाल का शुक्रवार की शाम छ्ह से नौ का शो फिक्स है। बस यही एक चीज थी जो अभी भी उन्हें पुराने मिश्रीलाल से जोड़े हुई थी। अकबर और सलीम ने इसी रास्ते से उनके भीतर जगह ली होगी और अब अनारकली की इन्ट्री गणेश की तरफ से होगी। 

अगले दिन अपने नए सूत्र का प्रयोग करते हुए गणेश ने फिर से डायरी लिखी। डायरी में उन्होंने दो छत दूर की अपनी अनारकली बबली के बारे में लिखा। बबली के सामने यह बात कहने की हिम्मत उनमें नहीं थी। पर जब वे डायरी लिखने बैठे तो उनमें यहाँ तक हिम्मत आ गई कि उन्होंने उसका हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया। बबली ने भी हाथ छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की और गणेश से सटकर बैठ गई। ये सब लिखते हुए गणेश के भीतर ऐसी सनसनाहट प्रकट हुई जैसे सच में ही बबली उनसे सटकर बैठी हो। 

जब यह रोमांच कम हुआ तो न जाने कैसे गणेश को माँ की याद आ गई। जब माँ बबली की उम्र की रही होंगी तब कैसी दिखती रही होंगी! माँ की तब तक शादी हो गई थी। क्या पता गणेश पेट में भी रहे हों। कल्पनाओं में माँ बबली से ज्यादा खूबसूरत लगी। तब गणेश ने मिश्रीलाल के बारे में सोचा। गणेश की उमर में उनकी शादी हो गई थी। क्या मिश्रीलाल तब गणेश की तरह दिखते रहे होंगे? दोनों क्या कभी वैसे ही सटकर बैठे होंगे जैसे अभी वह और बबली बैठे हुए थे। गणेश जिस गति से यह सब सोच रहे थे लगभग उसी गति से यह सब लिखते भी जा रहे थे। 

तभी यह सवाल भी कागज पर उतरा कि गणेश माँ के बारे में इतना कम क्यों सोचते रहे हैं, जबकि मिश्रीलाल अच्छे या बुरे किसी न किसी रूप में उनके खयालों में हमेशा रहे हैं। क्या मिश्रीलाल ने कभी माँ की सुन्दरता पर ध्यान दिया होगा या हमेशा हींग और मसालों की गन्ध में ही खोए रहे होंगे? क्या दुकान का हिसाब-किताब दुरुस्त रखने के चक्कर में मिश्रीलाल के हाथ से जीवन का हिसाब-किताब फिसलता गया है! 

डायरी जिस दिशा में जा रही थी वह गणेश के लिए छोटे मुँह बड़ी बात थी। लिखते-लिखते गणेश रुक गए। उन्होंने डायरी बन्द की और माँ के पास जाकर बैठ गए। माँ सब्जी काट रही थी। गणेश बगल में बैठकर लहसुन छीलने लगे। माँ ने गणेश को लहसुन छीलते देखा तो चौंक-सी गई। माँ ने कहा कि तुम जाओ काम करो अपना। यह मैं कर लूँगी। गणेश ने कहा कि उनके करने में क्या दिक्कत है। किसी को तुम्हारा हाथ भी तो बँटाना चाहिए। माँ मुसकराई, फिर बोली, तो शादी कर दें अब तुम्हारी?

रात में जब गणेश लेटे तो उन्हें यह बात याद आई कि आज उन्होंने जीवन में पहली बार लहसुन छीला है। इसी के साथ भीतर यह सवाल भी उभरा कि माँ कितने सालों से लहसुन छील रही है? और क्या कभी मिश्रीलाल ने भी लहसुन छीला होगा? माँ के साथ या कि अपनी माँ के साथ। फिर गणेश को माँ की मुसकराहट याद आई। गणेश ने याद करने की कोशिश की कि इसके पहले माँ को मुसकराते हुए उन्होंने कब देखा था। गणेश को नहीं याद आया। 

इसी मुसकराहट की डोर के सहारे उन्हें माँ द्वारा उनकी शादी को लेकर किया गया मजाक याद आया। और जब यह याद आया तो साथ-साथ बबली भी वापस आ गई। गणेश डायरी वापस ले आए और जहाँ पर बात छोड़ी थी उसके आगे उनके मन के बाहर या भीतर जितनी भी बातें थीं सब लिख डालीं। लिखने के क्रम में गणेश - जो अपने इस नाम से अक्सर दुखी रहते थे - ने अपना नया नामकरण किया... बबलू। बबली की तर्ज पर। जैसे ही गणेश ने यह किया उनके भीतर कुछ जोर से बजा जिसकी गूँज में वे देर तक बजते रहे। 

सुबह गणेश छत पर गए तो गणेश को लगा कि बबली उन्हें देखकर मुसकरा रही हैं। वे अपने आप से ही चौंक गए। बबली की मुसकराहट गणेश को अच्छी लगी। उन्होंने हाथ ऊपर उठाया और इस तरह से हिलाया जिसे हाथ हिलाना भी माना जा सकता था और हाथ झटकना भी। जवाब में बबली ने भी हाथ हिलाया जिसे हर हाल में हाथ हिलाना ही कहा जा सकता था। गणेश का दिल इतनी तेज धड़क रहा था कि अगर वह अपने सीने पर हाथ न रख लेते तो वह बाहर ही आ जाता। 

कॉलेज में गणेश का कुछ खास मन न लगा। दिन भर वे बबली के खयालों में खोए रहे। अचानक कोई खुशबू आती और उन्हें महका कर चली जाती। वे बिना किसी बात के खुद को खुशी से भरा हुआ पाते तो दूसरे ही पल उतनी ही उदासी उनके भीतर बरस रही होती। दोपहर बाद जब वे कॉलेज से लौटे तो साथ में कॉलेज की एक भी स्मृति उनके साथ नहीं आई। वे बबली के साथ गए थे और बबली के साथ ही लौट आए। 

घर आने के बाद गणेश किसी न किसी बहाने छत पर पहुँच जाना चाहते थे। यह शुक्रवार का दिन था। मिश्रीलाल घर में नहीं थे। वे कहीं गए थे और वहाँ से उन्हें गंगा टाकीज में पिक्चर देखते हुए लौटना था। गणेश माँ के साथ बैठे हुए कुछ इधर-उधर की बतिया रहे थे पर उनका मन छत पर भटक रहा था। थोड़ी देर में गणेश छत पर पहुँच गए पर बबली तो क्या बबली की परछाईं भी कहीं नहीं दिख रही थी। बबली को क्या पता कि गणेश छत पर आए हैं, गणेश ने खुद को दिलासा दी। 

अगले दिन गणेश सोकर उठे ही थे कि मिश्रीलाल कमरे में डायरी लहराते हुए हाजिर थे। उन्होंने बिना कुछ पूछे गणेश को थप्पड़ मारा कि अब तुम इतने बड़े हो गए हो कि माँ-बाप की प्रेमकहानी लिखोगे? तुम माँ-बाप के जीवन में झाँकोगे? और ये बबली कौन है जिससे तुम अपनी माँ की तुलना कर रहे थे। इसके बाद मिश्रीलाल ने एक कहावत कही जिसका मतलब यह था कि अभी पिछवाड़ा साफ करना तो आया नहीं और चले हैं बड़ी-बड़ी बात करने। 

मिश्रीलाल का अचानक गरजना-बरसना कौशल्या की समझ में ही नहीं आया। जब उन्होंने पूछा कि हुआ क्या तो मिश्रीलाल ने कहा कि तुम्हीं ने इनको बिगाड़ कर रखा है नहीं तो इन्हें तो मैं एक दिन में तारे दिखा दूँ। जाहिर है कि कौशल्या को अब भी कुछ समझ में नहीं आया। जब तक वे दोबारा कुछ बोलतीं तब तक मिश्रीलाल रोज की तरह दुकान खोल रहे थे और गणेश ने चुप्पी साध ली थी। 

गणेश समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने ऐसी कौन सी बात डायरी में लिख दी जिससे माँ या पिता का अपमान या अवमानना होती थी। बहुत पहले जब मिश्रीलाल ने पापा की जगह मिश्रीलाल कहने पर बटखरा फेंक मारा था तब से यह पहली बार था जब उन्होंने गणेश पर हाथ उठाया था। गणेश अवाक और स्तब्ध से थे जब उन्होंने एटलस खोली। 

भूगोल गणेश का प्रिय विषय है और एटलस देखते हुए तो वे पूरा का पूरा दिन बिता सकते हैं। नक्शे उन्हें इस तरह से रट गए हैं कि वे आँख मूँदे-मूँदे भी चाड, फिजी, पापुआ न्युगिनी, एस्टोनिया या बुर्किना फासो पर सही-सही उँगली रख देते हैं। वे इन देशों के बारे में और जानना चाहते हैं पर उनकी कोर्स की किताबें बस जरा-सा बताकर चुप हो जाती हैं। वे इन देशों के बारे में एक खास तरह की कल्पना में खोए रहते हैं। इस कल्पना में तरह-तरह के लोग हैं। तरह-तरह के भोजन हैं। कभी न देखे गए जीव-जन्तु हैं और पता नहीं क्या-क्या है।

गणेश जब कॉलेज के लिए निकले तो उनकी कॉलेज जाने की जरा-सी भी इच्छा नहीं हुई। उनके गालों पर मिश्रीलाल की उँगलियों के निशान थे जिन्हें धीरे-धीरे ही मद्धिम पड़ना था। वे नहर के दूसरी तरफ के उस बाग में चले गए जो उन्हें हमेशा अपनी तरफ बुलाता रहता था। जैसे जादू के जोर से वहाँ उन्हें बबली मिल गईं जो अपनी किसी दोस्त के साथ वहाँ पर पहले से ही उपस्थित थीं। वे अपने में इस तरह से उलझे हुए थे कि यह भूल ही गए थे कि बबली यहाँ पर उनसे ही मिलने आई हैं। उन्होंने बबली को देखा और अचम्भे से भर गए। फिर उनका हाथ अनायास ही अपने गाल पर जाकर रुक गया।  

दूसरी तरफ मिश्रीलाल का हिसाब दिन भर गड़बड़ाता रहा। वे किसी को ज्यादा किसी को कम लौटाते रहे। उन्हें बार-बार वह बटखरा याद आता रहा जिससे उन्होंने बचपन में गणेश को चोट पहुँचाई थी। आखिर गणेश ने गलत क्या लिखा था जिस पर उन्हें इतना गुस्सा आया। यह सवाल मिश्रीलाल ने बार-बार अपने आप से पूछा और उन्हें एक बार भी इस बात का कोई सन्तोषजनक जवाब न मिला। कौशल्या अलग नाराज थीं। सुबह से उन्होंने मिश्रीलाल की तरफ देखा भी नहीं था।

गणेश रोज के समय पर घर लौटे। उनके बाएँ गाल पर अभी भी मिश्रीलाल की उँगलियों के निशान छपे हुए थे। मिश्रीलाल दुकान पर ही थे। उन्होंने एक चोर-नजर से  गणेश को आते हुए देखा और हिसाब-किताब में डूब गए। कौशल्या ने गणेश के लिए खाना परोसा और जब गणेश खा रहे थे तब कौशल्या की उँगलियाँ गणेश के गालों पर आईं और आकर चली गईं। बदले में गणेश और कौशल्या की आँखों में एक साथ आँसू आए और देर तक आँखों में ही टँगे रहे।

रात में गणेश डायरी लिखने बैठे तो उनसे कुछ लिखा नहीं जा रहा था। उनके मन में आया कि बहुत हुआ। अब ये खेल बन्द ही हो जाना चाहिए। गणेश इस बात से आहत थे कि मिश्रीलाल ने फाउल खेला था। उन्होंने अगर कुछ गलत लिखा था तब भी वह थप्पड़ जायज नहीं था जो उनके गाल पर पड़ा था। अगर गलती करने पर किसी को मारा जा सकता है तो यह बात हर बड़े-छोटे पर समान भाव से लागू होनी चाहिए। खेल के नियम पिता और पुत्र के लिए अलग-अलग नहीं हो सकते।

गणेश ने तय किया कि वे खेल के बीच में मैदान छोड़कर नहीं भागेंगे। वे मिश्रीलाल को बाध्य करेंगे कि वे खेल के नियमों का पालन करें। इसके लिए सबसे पहले उन्हें एक नया सूत्र चाहिए था। उनके पिछले सारे सूत्र मिश्रीलाल ने डिकोड कर लिए थे। गणेश इस बात से अभी भी अचरज में थे पर इस बात ने उनके भीतर पिता का कद बढ़ा दिया था। इसलिए इस बार वे उनके सामने ऐसी चुनौती पेश करना चाहते थे जिसका कोई तोड़ मिश्रीलाल के पास न हो। 

गणेश ने इस बार अपने लिए एक नई लिपि ही बना डाली। हर अक्षर के लिए नया निशान, हर मात्रा के लिए नया संकेत। यह मिश्रीलाल के फाउल का जवाब था। अपनी नई लिपि में उन्होंने अपना पूरा दिन लिख डाला। वह सब लिखा जो सुबह से उन्हें मथ रहा था। मिश्रीलाल के बारे में वह सारी बातें लिखीं जो उनकी आँख में तिनके की तरह करकती रहती थीं।

गणेश ने दोबारा अपने घर को भूतों का डेरा लिखा। उन्होंने माँ की इस पुरानी शिकायत पर लिखा कि मिश्रीलाल कभी भी उनके साथ गणेश के मामा के यहाँ नहीं गए। उन्होंने लिखा कि इस घर में काक्रोच ही काक्रोच हैं और इससे भी गिजगिजी बात यह है कि सबसे बड़े वाले काक्रोच मिश्रीलाल हैं। उन्होंने घर में सब तरफ पसरी हुई असहनीय गन्ध के बारे में लिखते हुए उन सब का स्रोत मिश्रीलाल को बताया और यह सब लिखकर मिश्रीलाल के सिरहाने रख आए। 

मिश्रीलाल अँधेरे कमरे में आँख मूँदे लेटे हुए थे। उनकी आँखों में वह दृश्य बार बार चुभ रहा था जिसमें वह गणेश को थप्पड़ मार रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनके अन्दर अचानक इतना गुस्सा कहाँ से आ गया था। गलत क्या लिखा था गणेश ने। यही तो सही शकल है उनकी। तो क्या वे अपनी ही शकल बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। इस सवाल के सन्नाटे में जब वे अपने भीतर उतरे तो उनकी डबडबाई हुई आँखों में एक के बाद एक न जाने कितनी फिल्में गड्डमड्ड होती गईं।

यह सब एक अन्यायी बँटवारे से शुरू हुआ था। पिता की मौत के बाद दुकान मिश्रीलाल के बड़े भाई मेवालाल सँभालते थे। मिश्रीलाल उन दिनों बड़े भाई की भक्ति और कौशल्या के खुमार में एक साथ खोए हुए थे। यह खुमार तब टूटा जब एक दिन उन्हें पता चला कि दुकान बड़े भाई ने पूरी तरह से अपने नाम कर ली है। मेवालाल का कहना था कि जब उन्होंने दुकान सँभाली तब दुकान टूटने के कगार पर ही थी और जब वे अपनी जवानी गलाकर दुकान दोबारा खड़ी कर रहे थे तब मिश्रीलाल ऐश कर रहे थे। 

मिश्रीलाल भाई की इस बे‌ईमानी से सदमे जैसी हालत में थे। ऊपर से बड़े भाई के प्रति उनकी भक्ति और प्रेम को लेकर कौशल्या द्वारा मारे गए ताने ने उन्हें अपने ही भीतर कैद कर दिया। वे एक तरफ जहाँ कौशल्या से दूर होने लगे वहीं दूसरी तरफ भीतर यह भी जिद उभरी कि वे भी दुकान ही चलाएँगे और बड़े भाई से बेहतर और बड़ी दुकान चलाकर दिखाएँगे। कौशल्या जब तक इस बात को समझ पातीं तब तक वे प्रेमी की बजाय हमेशा हिसाब-किताब में डूबे रहने वाले दुकानदार बन चुके थे।  

 इस पूरी रात उनका अपना जीवन उनके सामने ऐसे चलता रहा जैसे वह बड़े पर्दे पर कोई फिल्म देख रहे हों। इसमें पुरानी पारिवारिक फिल्मों की तरह समर्पिता पत्नी कौशल्या थीं। कौशल्या से उनका अपार प्रेम था। उन दोनों का इकलौता बेटा गणेश था जिस पर दोनों नेह लुटाते रहते थे। इसके बाद बेईमान भाई था। कौशल्या का तंज था। वैराग्य जैसी तटस्थता में बदलता हुआ प्रेम था। घर भर में पसरी हुई दुकान थी। गणेश को मारा गया थप्पड़ था।

आज जब वे अपना खुद का सिनेमा देख ही रहे थे तो उन्हें ऐसे बहुत सारे दृश्य दिखाई पड़े जो पहले देखने से रह गए थे। उन्हें कौशल्या के दुख और रुलाइयाँ दिखाई पड़ीं। कौशल्या के जिस तंज ने मिश्रीलाल को पूरी तरह से बदल दिया था वह गलत था क्या! कौशल्या ने उन्हें मेवालाल के बारे में बार-बार चेताया था पर हर बार उन्होंने कौशल्या को झिड़क ही दिया था। इसके बावजूद कौशल्या ने हर बार उन्हें माफ कर दिया था। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाए? 

 उधर कौशल्या अलग ही गुम थीं। उन्हें उस तनाव भरे खेल के बारे में कुछ नहीं पता था जो पिता और पुत्र के बीच चल रहा था। घर में तीन लोग थे और तीन अलग अलग कमरों में आँखें बन्द किए पड़े थे। मिश्रीलाल ने डायरी उठाई जो गणेश उनके सिरहाने रख गए थे। वे देर तक डायरी को कुछ इस तरह से सहलाते रहे जैसे गणेश के गाल सहला रहे हों। फिर वे उठे और जाकर कौशल्या की बगल में लेट गए।

दोनों पिछले कई सालों से अलग-अलग सो रहे थे। कौशल्या को मिश्रीलाल की गन्ध से उनके बगल में होने का पता चल गया पर वे सोने का अभिनय करते हुए लेटी रहीं। जैसे ही मिश्रीलाल ने उन्हें पीछे से अपनी बाँहों में भरा वे सिहर उठीं और उनका अभिनय टूट गया। वे उठ बैठीं और बोलीं कि आज तुम्हें हुआ क्या है जो सुबह से एक के बाद एक कारनामे किए जा रहे हो। मिश्रीलाल कुछ नहीं बोले। कौशल्या ने उन्हें छुआ तो पाया कि वे काँप रहे हैं। मिश्रीलाल बेआवाज रो रहे थे। कौशल्या स्तब्ध रह गईं। यह पहला मौका था जब उन्होंने मिश्रीलाल को रोते हुए देखा था। 

सुबह गणेश ने घर में नई गन्ध महसूस की। यह उनके लिए पूरी तरह से अबूझ थी। वे मिश्रीलाल के कमरे में झाँक आए। डायरी सिरहाने पड़ी थी जो उन्होंने पड़ी ही रहने दी। अपने कमरे में लौटते हुए उन्हें माँ का चेहरा भी अलग-सा लगा। गणेश की समझ में कुछ भी नहीं आया। वे जैसे इस बदलाव से बचते हुए छत पर चले आए। बबली अपनी छत पर मौजूद थीं। 

अगले दिन जब गणेश कॉलेज से लौटकर आए तो देखा कि पूरा का पूरा घर बिखरा हुआ पड़ा है। दीवालों पर से सारी घड़ियाँ और कैलेंडर नीचे उतर आए थे। उनकी जगह दीवालों पर गोल, चौकोर या आयताकार निशान दिखाई दे रहे थे। ये निशान बाकी दीवाल की तुलना में चमक रहे थे। कौशल्या का चेहरा भी इसी तरह से चमक रहा था। गणेश ने अचरज से माँ की तरफ देखा। माँ ने बताया कि घर की पुताई होनी है। तुम भी अपनी किताबें वगैरह ढंग से साफ करके रख लो।  

घर में जो कुछ भी हो रहा था उसे गणेश कौतुक से देख रहे थे। मिश्रीलाल से गणेश की बातचीत तकरीबन बन्द चल रही थी। उनकी वह डायरी मिश्रीलाल के सिरहाने कई दिन पड़ी रही थी। गणेश तय नहीं कर पा रहे थे कि मिश्रीलाल उनकी नई लिपि पढ़ पाए हैं या नहीं पर घर में आए बदलाव इतने साफ थे कि गणेश चौंक-चौंक जाते। एक दिन उन्होंने मिश्रीलाल को माँ की बगल में बैठकर सब्जी काटते देखा और अगले दिन तो उनके अचरज की सीमा ही नहीं रही जब माँ ने उन्हें मुसकराते हुए बताया कि वे मिश्रीलाल के साथ पिक्चर देखने जा रही हैं।  

और एक दिन गणेश ने मिश्रीलाल और कौशल्या को मामा के यहाँ जाने की तैयारी करते देखा। मामा के नए घर का गृहप्रवेश होना था। जिसमें शामिल होने के लिए दोनों जा रहे थे। दो दिन दुकान गणेश के हवाले थी। कौशल्या मुसकराते हुए गणेश के पास आईं। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पापा पूछ रहे हैं कि तुम्हारे कपड़े प्रेस हैं क्या? कह रहे हैं कि उनके पास ससुराल जाने लायक कोई कपड़ा ही नहीं है।

जब दोनों घर से निकलने वाले थे गणेश मिश्रीलाल के पास गए। गणेश ने उनसे पूछा कि उन्होंने उनकी लिखी आखिरी डायरी पढ़ ली थी क्या? जवाब में मिश्रीलाल मुसकराए। गणेश ने विस्मित स्वर में पूछा, मगर कैसे? मिश्रीलाल ने कहा कि मिश्रीलाल की मदद से। मैं तुम्हारे लिखे में सबसे पहले अपना नाम खोजता था। एक बार यह मिला नहीं कि बाकी सब कुछ मेरे सामने खुलता चला जाता था। गणेश एक साथ विजित और विजेता दोनों ही भावों से भर गए। उन्होंने मुग्ध होकर मिश्रीलाल की तरफ देखा। मिश्रीलाल शरमा से गए।

कौशल्या और मिश्रीलाल मामा के यहाँ जाने के लिए निकले तो गणेश की समझ में ही नहीं आया कि वह अकेले करें क्या। वह बहुत खुश थे। उन्होंने पहली बार मिश्रीलाल और कौशल्या को एक साथ इतना खुश देखा था। गणेश खुशी के मारे रोने-रोने को हो आए। खुशी की बात यह भी थी कि घर में उन्हें रोते हुए देखने वाला कोई नहीं था। बबली आए इसके पहले वह आराम से रो सकते थे। 

(वनमाली कथा के मई-2023 अंक में प्रकाशित)

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