धीरेन्द्र अस्थाना की पहली प्रकाशित कहानी - लोग/हाशिए पर [1974] | Dhirendra Asthana ki Kahaniyan

जो आनंद पुरानी, अनदेखी, बेहतरीन फ़िल्म को देखने में आता है, वैसा ही धीरेन्द्र जी की 1974 में प्रकाशित पहली कहानी 'लोग/हाशिए पर' को पढ़ते हुए आया। ~ सं० 


Dhirendra Asthana ki kahaniyan


लोग/हाशिए पर

~ धीरेन्द्र अस्थाना

सन् 1981 के अंतिम दिनों में टाइम्स समूह की साप्ताहिक राजनैतिक पत्रिका ‘दिनमान’ में बतौर उप संपादक प्रवेश। पांच वर्ष बाद हिन्दी के पहले साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया में मुख्य उप संपादक यानी सन् 1986 में। सन् 1990 में दिल्ली में बना-बनाया घर छोड़कर सपरिवार मुंबई गमन। एक्सप्रेस समूह के हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ में फीचर संपादक नियुक्त। मुंबई शहर की पहली नगर पत्रिका ‘सबरंग’ का पूरे दस वर्षों तक संपादन। सन् 2001 में फिर दिल्ली लौटे। इस बार ‘जागरण’ समूह की पत्रिकाओं ‘उदय’ और ‘सखी’ का संपादन करने। 2003 में फिर मुंबई वापसी। सहारा इंडिया परिवार के हिन्दी साप्ताहिक ‘सहारा समय’ के एसोसिएट एडीटर बन कर। आजकल स्वतंत्र लेखन। संपर्क : डी-2/102, देवतारा अपार्टमेंट, मीरा सागर कॉम्प्लेक्स, रामदेव पार्क रोड, मीरा रोड (पूर्व). ठाणे -401107 / मोबाईल : 09821872693 / ईमेल : dhirendraasthana@gmail.com



‘प्रेस तो एक प्रतीक है’, बन्धु ने कहा था, ‘लोग समान्तर तकलीफों से गुजर रहे हैं और मैं या तुम भी उन्हीं की एक इकाई हैं। देश के अधिकांश लोग कगार पर खड़े हैं और नीचे अन्तहीन खाई है, सुरक्षित कोई नहीं है।’ श्रीवास्तव सोचता है।

सामने की दीवार पर राम, कृष्ण और भगत सिंह के कैलेण्डर लटक रहे थे और ठीक उनके बगल में एक नंगी औरत का फोटो चिपका हुआ था।

‘यह अफसरों के आने की जगह है, क्लर्कों की जगह बार है।’ एक सूटेड-बूटेड आदमी अपने साथ खड़े क्लर्कनुमा व्यक्ति को समझा रहा था।

‘यस सर।’ क्लर्कनुमा व्यक्ति दारू पीने के बावजूद तमीज़ से पेश आ रहा था। दरअसल, उसने इतनी दारू नहीं पी थी कि दफ़्तर की मानसिकता को उतार सके। वह चुपचाप खिसक लिया।

ठेके का शोर आत्मीय था, इसके बावजूद माहौल अचानक ही कहीं ग़लत हो गया। 

‘तुम अपना कवर डिजाइन किसी और से क्यों नहीं बनवाते?’ अवधेश ने गिलास की अन्तिम बूंदें तक हलक में उंडेल लीं।

‘तुम्हें क्या एतराज़ है?’ श्रीवास्तव नरम पड़ गया। अवधेश देर तक चुप रहा फिर बीड़ी निकाल कर सुलगाने लगा।

‘तुम मुझे हमेशा ग़लत समझते रहे हो।’ श्रीवास्तव भावुक होने लगा।

‘मैं तुम्हें कुछ समझता ही नहीं।’

‘क्या?’ श्रीवास्तव का सारा सुरूर तुरन्त उतर गया। उसके जी में आया, सोडे की बोतल खींचकर अवधेश के सिर पर दे मारे।

‘मैं ही तुझे कौन-सा कुछ समझता हूं।’ श्रीवास्तव उत्तेजित था।

‘बात खत्म’, अवधेश सहजता से बोला, ‘तू मुझे कुछ नहीं समझता, मैं तुझे कुछ नहीं समझता, कवर कैसा?’ 

‘साले, जब मेरी दारू ढकोसी जा रही थी, तब ये बात दिमाग में नहीं आयी थी।’

‘गाली-गलौज न कर, मैं जा रहा हूं।’ अवधेश ने रवि जी से हाथ मिलाया और ठेके के बाहर चला गया।

‘कॉलेज खुलने दे बेटे, सारी चित्रकारी घुसेड़ दूंगा।’

‘हल्ला न मचा यार।’ रवि जी ने उसका कन्धा थपथपाया और पव्वा ख़रीदने चले गये।

‘मैं नहीं पीता।’ श्रीवास्तव गुर्राया और बाहर निकल गया। रवि जी का मूड चौपट हो गया। वे सोच रहे थे रात को कोई गीत-वीत लिख डालेंगे, लेकिन सारा मामला ही ख़राब हो गया। एक ही सांस में पव्वा धकेल कर वे लड़खड़ाते हुए बाहर निकल गए।

उसकी तकलीफों से कौन जुड़ा है? श्रीवास्तव ने सोचा, किसे नहीं पता कि किताब छपवाने के लिए उसे पूरे सात सौ रुपए का क़र्ज़ लेना पड़ा है, साले जितने भी लोग हैं, जड़ों में मट्ठा देने वाले ही हैं।

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सामने घण्टाघर था और घड़ी में सवा नौ हो गये थे। आख़िरी बस छूटने में पन्द्रह मिनट बाकी थे। उसने पान की दुकान से दो चारमीनार ख़रीदीं और एक को सुलगाने लगा। तभी सामने से प्रेमनगर की बस आती दिखायी पड़ी। वह हड़बड़ा कर और बग़ैर पैसे चुकाये भागकर बस के पायदान से लटक गया। पान वाला गाली देने के सिवा कुछ नहीं कर सका।

‘सवा नौ पर ही गाड़ी भगा ली?’ उसने कन्डक्टर से बहस करनी चाही। 

‘पौने दस हो गये श्रीमान जी।’ कन्डक्टर ने व्यंग्य किया। 

‘पास’ का नम्बर बोलकर उसने बस के कन्डक्टर, घण्टाघर की घड़ी और अवधेश को मन ही मन मां की गाली दी और अन्दर जगह बनाने लगा।

घर पहुंचते-पहुंचते नशा तेज़ हो गया। पता नहीं गुस्से के आधिक्य से या ठण्ड के कारण। एक बोतल तीन जनों में कोई नयी बात तो थी नहीं। उसने दरवाज़ा खटखटाया और जोर-जोर से एक घटिया गाना गाने लगा। अन्दर की लाइट जली और दरवाज़ा खुला। उपमा थी, शायद बिस्तर से उठ कर आयी थी।

‘तुम आज फिर पी आये?’

‘अरे सामने से हट।’ वह बहन को धक्का देकर भीतर आ गया।

‘बाऊजी नाराज़ हो रहे थे।’

‘तो?’ उसने जूते उतारे और बग़ैर कपड़े बदले मोजों समेत बिस्तर में घुस गया।

‘खाना...?’

‘लाइट बढ़ा के दफ़ा हो ले।’

उपमा पैर पटकती हुई कमरे से चली गयी। वह सिगरेट सुलगाकर पीता हुआ सोचता रहा कि छपने के बाद अपने उपन्यास की समीक्षा कहां-कहां और किस तरह करवायी जाये। उपन्यास बेचा कैसे जाये ताकि कर्जा उतर सके। ज्यादा देर वह सोच नहीं सका, उसका दिमाग नशे में डूबने लगा।

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सुना था—पहाड़ों पर बर्फ गिरी है। कोट के कॉलर खड़े करने के बावजूद ठण्ड बदन के भीतर तक घुसती जा रही थी—मांस को चीरती, हड्डियों को तोड़ती-सी। बालकराम ने एक भद्दी-सी गाली ठण्ड को दी, इसके बावजूद ठण्ड कम न हुई। प्रेस का ताला बन्द करने के बाद श्रीवास्तव चाबी देने ऊपर चला गया—फ्लैट में।

‘रवि जी दो रुपये दे दो, एडवांस वाले दिन काट लेना।’ बालकराम ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। 

‘हैं नहीं यार।’ रवि जी ने बीड़ी सुलगा ली। बालकराम कुछ उदास गया। श्रीवास्तव लौट आया। उसके हाथ में गोर्की की किताब थी जिसे वह बीच-बीच में प्रूफ निपटाने के बाद पढ़ता रहा था।

‘चलें।’ रवि जी ने अचानक पूछा।

‘मेरे पास सिर्फ दो रुपये हैं।’ श्रीवास्तव ने जवाब दिया। 

‘चलते हैं, देख लेंगे।’

बालकराम सब कुछ भांप गया। उनसे विदा लेकर वह चकरौता रोड की तरफ मुड़ गया। रवि जी और श्रीवास्तव मच्छी बाजार वाली गली में मुड़ गये।

(पाठक ध्यान दें, इस बार हमारा कथाकार बालकराम के साथ है।)

घण्टाघर पहुंचते-पहुंचते बालकराम के दांत किटकिटाने लगे और पैरों की उंगलियां बर्फ के टुकड़ों-सी हो गयीं। तिब्बती मार्केट से बीस रुपये में ख़रीदा गया कोट ठण्ड को रोक पाने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हो रहा था। घण्टाघर से बालकराम गांधी रोड की तरफ मुड़ गया। गांधी रोड के चौराहे पर उसका एक जिगरी यार कच्ची शराब बेचता था। कच्ची ज्यादा महंगी नहीं होती। पूरी बोतल तीन रुपये की पड़ती है। उसे यकीन था कि उसका दोस्त पावभर कच्ची और एक भरी सिगरेट उधार दे ही सकता है। दुकान बन्द थी और ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। साढ़े सात का भोंपू कुछ देर पहले बजा था उसे ताज्जुब हुआ।

‘किशन कहां गया?’ उसने साथ के चाय वाले से पूछा।

‘पुलिस ले गई हरामी को।’

‘क्यों?’

‘क्यों क्या, चरस पकड़ी गयी दुकान पर और दारू भी।’ चाय वाला खुश-खुश आवाज में बोला, ‘पांच महीने से पहले नहीं छूटते बेटा, मजाक थोड़े ही है, साले गांधी महात्मा के मुंह पर ही शराब का धन्धा... पकड़ा गया स्साला, अच्छा हुआ।’ 

बालकराम कुछ देर खड़ा रहा और चाय वाले को मन-ही-मन गालियां देता रहा, जो किशन के पकड़े जाने पर खुश था। फिर वह घर की तरफ मुड़ गया, इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था।

घर पहुंचने पर उसने अपनी सबसे बड़ी लड़की सीता, जो तकरीबन ग्यारह वर्ष की थी, को जागते पाया। सीता से छोटे उसके तीन लड़के और थे। जब तक वह घर पहुंचता था। उसके चारों बच्चे सो चुकते थे। 

‘तेरी मां कहां है?’

‘मां काम पर गयी है।’

‘तू सोयी नहीं?’

‘भूख लगी है, मां ने कहा था—लौटने पर रोटी लायेगी।’

‘रोटी नहीं बनी आज, हरामजादी।’ वह गुस्से में बड़बड़ाया और दोनों लड़कों वाली खाट पर एक तरफ लेट गया। सबसे छोटा मुन्नू लक्ष्मी की खाट पर लेटा था। तीन खाटें आने के बाद कमरे में मुश्किल से खड़े होने की जगह बचती थी। कमरे से लगकर एक छोटी रसोई जैसी कोठरी और थी जिसमें कुछ कनस्तर और एक-दो बक्से थे। वहीं पर रसोई का काम लिया जाता था।

उसने सीता को डांटकर सो जाने के लिए कहा और खड़ा होकर बीड़ी खोजने लगा। उसे ध्यान था कि सुबह जाते वक्त वह कोठरी में दो-तीन बीड़ियां छोड़ गया था। लैम्प लेकर वह कोठरी में गया और बीड़ी-माचीस तलाश लाया। 

जब तक दरवाजे पर थाप पड़ी वह दो बीड़ी पी चुका था और सीता चुपचाप सो गयी थी। उसे गुस्सा आ गया, पता नहीं क्यों? उसने उठकर दरवाज़ा खोल दिया, लक्ष्मी थी। सर्द हवा का झोंका लक्ष्मी के साथ कमरे में घुसा और बग़ैर चिमनी वाले लैम्प को बुझा गया। कमरे में एकाएक घुप्प अंधेरा फैल गया। जब आंखें कुछ देखने लगीं तो उसने लैम्प को जला दिया। तब तक लक्ष्मी किवाड़ बन्द कर चुकी थी।

‘रोटी क्यों नहीं बनायी?’

‘उसी का जुगाड़ करने तो गयी थी।’

वह कुछ नहीं कह सका, चुप पड़ गया। ये औरत बोलती नहीं चाकू मारती है। उसने सोचा।

‘पांच का पत्ता मिला, लेकिन जान खींच ली, दो थे।’ लक्ष्मी पीठ खुजाते हुए बोली और धोती के छोर में बंधा पांच का नोट कोठरी में कहीं रख आयी।

कितनी चालू है मादर...। बलराम ने सोचा, सारी बातें साफ-साफ ही बोलेगी ताकि सुनकर कलेजा फुंक उठे। उसने एक-एक करके दोनों बच्चों को सीता की खाट पर लिटा लिया और लक्ष्मी को अपनी खाट पर ले लिया।

‘आज नहीं, तकलीफ है।’ लक्ष्मी ने तुरन्त करवट बदल ली। 

उसका पोर-पोर दुख रहा था। दो जनों ने एक घण्टा लगा दिया था पूरा और वह सुबह से भूखी थी।

‘बाहर तकलीफ नहीं होती, छिनाल।’ बालकराम को गुस्सा आ गया। एक तो उसे दारू नहीं मिल पायी थी, दूसरे वह सुबह से भूखा था और तीसरे ठण्ड बदन तोड़े दे रही थी।

‘किसके कारण बाहर जाती हूं।’ लक्ष्मी बिफर गयी, ‘जिन्दगी को नरक बना दिया तूने, रोटी तक खिला नहीं पाता, ऊपर से इल्जाम ठोंकता है अलग।’

‘चुप।’ उसने लक्ष्मी का मुंह दबा दिया और उसे दबोच लिया।

लैम्प को फूंक मारने के बाद उसने लक्ष्मी की गर्दन पर अपने होंठ चिपका दिये और उसके ऊपर आ गया। लक्ष्मी के होंठों से कराह फूट पड़ी और उसकी आंखों में आंसू उतर आये। तकलीफ से होंठ भिंच-भिंच जाते थे। तभी सीता उठ बैठी और अंधेरे में अपनी मां की कराहें सुनती रही। सीता की समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी मां पर चढ़ा हुआ उसका बापू क्या कर रहा है?

(हमारे कथाकार के दिमाग में एकदम ‘राग-दरबारी’ का पलायन संगीत गूंजने लगा... भागो, भागो, यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है। कथाकार इससे पहले आम लोगों के बीच कभी नहीं आया था, वह परेशान हो गया। उसे लगा, प्रेमिका की आंखें ज्यादा सुविधाजनक हैं। उसे कार्ल मार्क्स पर क्रोध आने लगा जिसने अच्छे-खासे अमूर्त और मनोरंजक साहित्य को तकलीफों और जनसाधारण से जोड़ने की बात शुरू की।)

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ये देहरादून के साहित्यकार हैं, श्रीवास्तव प्रूफ देखता हुआ सोचता है, ये सब प्रेस से जुड़े हुए लोग हैं, यहां आए बिना जिनका खाना हजम नहीं होता। प्रूफ निपटाने के बाद उसने सोचा - वह प्रेस के स्टाफ और प्रेस से जुड़े साहित्यकारों को लेकर कोई लम्बी चीज लिखेगा। प्रेस में एक-से-एक ‘धापसोल’ कैरेक्टर भरे पड़े हैं। प्रेस वर्कर्स की तकलीफों, मालिक द्वारा उनका शोषण और शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने के बजाय हतवीर्यों की तरह लगातार बर्दाश्त करते चले जाना। वह पन्त और बन्धु से इस थीम पर डिस्कस करेगा, उसने सोचा और पढ़ा हुआ प्रूफ लेकर कम्पोजिंग रूम में चला गया। मसूरी की नेशनल एकेडमी से एक जरूरी काम आ जाने के कारण उसका उपन्यास बीच में ही रुक गया था। ‘नवरक्त’ का गणतंत्र विशेषांक भी छप रहा था। और छोटे-छोटे डेली-वर्क अलग से। सारा टाइप ब्लॉक था।

‘नवरक्त’ प्रेस का अखबार था और रवि जी प्रेस मैनेजर होने के साथ-साथ ‘नवरक्त’ के सम्पादक भी थे। वैसे चीफ एडीटर तो प्रेस के मालिक विक्रम साहब ही थे। पढ़ा हुआ प्रूफ पेज सेट करने के लिए अनूप सिंह को देकर वह दूसरा गैली प्रूफ उठवा कर ले आया। अभी सिर्फ साढ़े छह हुए थे और प्रेस सवा सात पर बन्द होता था। 

प्रूफ पढ़ने से पहले उसने देखा— बन्धु ‘दिनमान’ का नया अंक पढ़ रहा था और अवधेश किसी छोटी पत्रिका को देख रहा था, जो कानपुर से नयी-नयी निकली थी। रवि जी बड़ी तन्मयता से खत लिखने में व्यस्त थे। श्रीवास्तव प्रूफ पढ़ने लगा। इस बीच अवधेश चला गया। प्रूफ पढ़ने के बाद श्रीवास्तव ने घड़ी देखी—सात बजकर तेरह मिनट। रवि जी से हाथ मिला कर वह पन्त और बन्धु के साथ बाहर आ गया। वे ‘डिलाइट’ में जाकर बैठ गये। किशन तुरन्त तीन गिलास पानी रख गया और बन्धु को एक भद्दी गाली भी दे गया। बन्धु के साथ उसका अश्लील मजाक चलता था—आत्मीयता के स्तर पर।

चाय पीकर पन्त जी उठ खड़े हुए, उन्हें कोई काम था, वे चले गये। 

‘मैंने एक कविता लिखी है।’ बन्धु ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा। 

‘सुना दे।’ 

‘ऐसे नहीं। पहले दारू पियेंगे, फिर रात का शो देखेंगे, इसके बाद कविता। रात को तू मेरे घर रुक जाना।’

‘पैसे?’

‘आज साइकिल-एडवान्स मिला है।’ बन्धु ने इत्मीनान से जवाब दिया। श्रीवास्तव खुश हो गया।

चाय के पैसे बन्धु ने ही चुकाये। इसके बाद दोनों मच्छी बाजार की तरफ मुड़ गये। दारू ख़रीदने के बाद दोनों एक खाली बेंच पर बैठ गये। बेंच का खाली पाया जाना वैसा ही विचित्र था जैसे डिलाइट में किसी गैर-बौद्धिक का मिलना। बोतल निपटाने के बाद उन्होंने पान खाये और चारमीनार की डिब्बी ख़रीदी। बन्धु आज बादशाह बना हुआ है, श्रीवास्तव ने सोचा।

फिल्म देखने के बाद उन्होंने चाय पी और कनाट-प्लेस की तरफ मुड़ गये। कनाट-प्लेस से कुछ ही दूर यमुना कालोनी थी, जहां बन्धु रहा करता था। 

घर पहुंचने से पहले घर के सामने के खम्बे के नीचे खड़े होकर बन्धु ने एक सिगरेट खुद जलायी और एक उसे दी, इसके बाद वो जेबें टटोलने लगा। 

‘क्या हुआ?’

‘यार वो कविता वाला कागज तो दफ़्तर में ही छूट गया शायद।’

‘फिर?’

‘फिर क्या... अन्तिम लाइनें याद हैं।’

‘वोई सुना दे।’ श्रीवास्तव मुस्कराया। दिसम्बर के अन्तिम दिनों की ठण्ड में सड़क के किनारे, ट्यूब लाइट वाले खम्बे के नीचे खड़े होकर कविता सुनना अपने में एक मौलिक सुख है। श्रीवास्तव ने सोचा। 

‘आखीर की लाइनें इस प्रकार हैं, बन्धु अपने विशेष लहजे में बोला,

  हां, यह भी एक रास्ता है
  इस पर वर्तमान कभी दौड़ता है हम से
  आगे भविष्य की तरह
  कभी पीछे/
  भूत की तरह लग जाता है
  हम इसकी तरह उल्टे लटके हैं, आग के अलाव पर
  आग ही आग है
  नसों के बिलकुल करीब जिनमें बारूद भरा है।

हालांकि कविताओं में श्रीवास्तव का विश्वास नहीं था फिर भी बन्धु अभी भी ऐसी चीजें लिख रहा था जो सोचने के लिए एक लड़ाकू जमीन तैयार करती थीं।

‘तेरी उमर कितनी हो गयी?’ श्रीवास्तव ने अचानक ही पूछा।

‘सत्ताईस, क्यों?’

‘शादी कब करेगा?’

‘शादी?’ बन्धु चौंक पड़ा, फिर हंसा और चुप हो गया।

‘इसी साल जनवरी में अपने फण्ड से एक हजार रुपया एडवान्स लेकर और पिताजी की वो एक अदद छोटी-सी कपड़े की दुकान बेचकर मैंने अपनी बहन की शादी की है।’ बन्धु एकाएक ही टूट गया, ‘अब दूसरी बहन भी तैयार है।’ वह घर की तरफ चलता हुआ बोला, ‘क्या मैं शादी कर सकता हूं?’ बन्धु जोर का ठहाका लगाकर हंस पड़ा।

श्रीवास्तव ने सोचा—ठहाका लगाकर बन्धु ने मोहन राकेश की तरह अपने अन्दर एक कील और जड़ ली है। बन्धु के साथ श्रीवास्तव घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। बन्धु का कमरा बहुत छोटा था और एक छोटी खाट के अलावा उसमें सिर्फ कुछ किताबें थीं। बगल के कमरे में उसके पिताजी, उसकी बहन और उसका छोटा भाई था। श्रीवास्तव जूते उतार कर बन्धु के बिस्तर में घुस गया। वह काफी उदास था। 

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पेशाब करने के बाद अनूपसिंह ने एक गिलास ठण्डा पानी पिया और कम्पोजिंग रूम से होता हुआ ऑफिस में आ गया। अनूपसिंह बहुत उदास था। वह किसी भी काम में हिस्सा नहीं ले पा रहा था। प्रेस की घड़ी में साढ़े सात हो गये थे और विक्रम साहब का पता नहीं था। उसे आज पैसों की सख्त ज़रूरत थी। आज सुबह जब वह काम पर आया था तो घरवाली के दर्द हो रहे थे। उम्मीद थी कि बाल-बच्चा आज ही हो ले। हालांकि घर पर अनूपसिंह की बहन और उसका बारह साल का लड़का भी था लेकिन बग़ैर पैसों के तो वे कोई तीर नहीं मार सकते थे। 

उधार वालों को तो वह अगली तनख्वाह तक टरका भी सकता है लेकिन जो बच्चा होने वाला है उसे कैसे समझाये कि इस बार कड़की है, अगले महीने पैदा होना। पता नहीं ऐन मौके पर किस चीज की ज़रूरत पड़ जाये। पैसा पास हो तो दिल मजबूत तो रहता ही है। वैसे भी इस बार वह अपनी औरत को गिजा वाली कोई चीज नहीं खिला पाया था, जबकि उसने सुना था कि बाल-बच्चे वाली औरतों को इस मौके पर घी देना चाहिए। उनका तो ये दूसरा जन्म होता है। 

दो-चार वर्कर बेसबरी में प्रेस के बाहर जाकर खड़े हो गये थे। 

अनूपसिंह भी बाहर निकल आया। सर्द हवा का झोंका उसे बहुत भीतर तक झकझोरता चला गया। 

कार के रुकते ही विक्रम साहब बैग उठाकर भीतर आये। कुर्सी पर बैठे रवि जी और श्रीवास्तव खड़े हो गये लेकिन सुकरम उसी तरह बैठा रहा। सुकरम मुजफ्फरनगर के एक गांव का जाट था और तड़ी के साथ ठेके के हिसाब से काम करता था। उसकी कम्पोजिंग की रफ्तार सबसे अधिक थी। इसीलिए उसका रुतबा भी था।

‘किसे एडवान्स देना है?’ 

‘सभी को चाहिए, साहब।’

‘ठीक है। विक्रम साहब ने लापरवाही से कहा, ‘कल मिलेगा।’

अनूपसिंह को लगा, उसका चेहरा सख्त पड़ गया है, लेकिन तुरन्त ही उस पर धुआं-सा तैरने लगा।

‘साब, मुझे तो आज ही दिलवा दो।’ अनूपसिंह गिड़गिड़ा पड़ा।

‘क्यों?’

‘जी, घरवाली के बच्चा होने वाला है।’

‘इस समय कोई पैसा नहीं है, कल बैंक से निकलवा कर देंगे।’

‘दसेक रुपये तो दे दो साब।’

‘दस रुपये रवि जी से ले लेना।’ विक्रम साहब ने कहा और प्रेस से बाहर निकल गये। 

‘रवि जी, दस रुपये...साब ने कहा है।’

‘साब चढ़ गये मेरे इस पे।’ रवि जी गर्म हो गये। ‘यहां क्या पेड़ लगा हुआ है, दस रुपये दे दो...।’

कोट के बटन बन्द करता हुआ श्रीवास्तव बाहर निकल गया। उसके पीछे-पीछे प्रेस के सारे वर्कर भी आ गये। रवि जी ने प्रेस का ताला बन्द करने के बाद चाबी खन्ना को दे दी—विक्रम साहब तक पहुंचाने के लिए। 

‘ये विक्रम है न, बड़ा हरामी है साला।’ शामलाल ने हथेलियां मलते हुए कहा।

‘दुपहर का बीज है मादर...।’ बालकराम गुर्राया, ‘कभी वक्त पर पैसा नहीं देगा।’ ‘दुपहर का बीज’ पर तमाम वर्कर ठहाका मारकर हंस पड़े लेकिन अनूपसिंह कुछ और उदास हो गया।

अनूपसिंह अचानक अकेला रह गया। सारे वर्कर खिसक लिये थे। बला की ठण्ड थी। यह दिसम्बर के दिन थे और अभी जनवरी-फरवरी भी सामने पड़ी थीं जब मंसूरी में गिरती बर्फ यहीं से दिखायी पड़ती है और घाटी में बसा हुआ यह शहर कांप-कांप जाता है। परके साल इसी ठण्ड में अनूपसिंह की इकलौती लड़की डबल निमोनिया का शिकार होकर अकाल मौत मर गयी थी।

सहसा ही अनूपसिंह के कदम एक साथ भारी हो आये और सारा बदन शिथिला गया। घर का रास्ता काफी लम्बा था और उसकी बीवी सुबह से दर्द झेल रही थी। वह परेशान हो गया। उसे लगा—खाली हाथ वह घर नहीं पहुंच पायेगा। विक्रम साहब ने ऐन मौके पर उसे तोड़कर रख दिया था। उसकी आंखों में अंधेरा-सा उतरने लगा और देर तक प्रेस के सामने से हिल नहीं सका—ठण्ड के बावजूद।

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‘मैंने तुम्हारी एक कहानी पढ़ी है श्रीवास्तव जी’, मदन ने कम्पोजिंग रोककर कहा, ‘उसमें एक वाक्य है—व्यवस्था लोमड़ी की तरह चालाक होती है और छोटे पोस्टरों पर बड़े पोस्टर चिपकाने की कला में माहिर।’ सिर्फ इसी वाक्य का मतलब समझ नहीं आया।

‘इन्टरवल में बताऊंगा।’ श्रीवास्तव मुस्कराया और बीड़ी सुलगाने लगा। 

‘एक आदमी है,’ मदन ने कहा, ‘सुअर की तरह धकापेल उसने आठ बच्चे पैदा किये हैं, इसका जिम्मा किस पर जाता है?’

‘उसी आदमी पर।’

‘मैं नहीं मानता। इसका जिम्मेदार उसका बाप है, जिसने उन्नीस साल की उमर में ही उसका ब्याह रचा दिया। तनखा सिरफ दो सौ दस रुपये, आदमी के आत्महत्या के पूरे चांस हैं न!’ 

‘बेशक।’

‘लेकिन मैं अभी तक जिन्दा हूं।’ मदन रुआंसा हो गया।

मदन जैसे हंसमुख कम्पोजीटर को टूटते श्रीवास्तव आज ही देख रहा था। उसे लगा हालात कुछ ज्यादा ही नाजुक हैं। आदमी अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेगा। कमरे का माहौल अचानक ही सुस्त-सी उदासी लिये भारी हो गया। दायीं तरफ बैठा शामलाल उसी का उपन्यास कम्पोज कर रहा था और बायीं ओर खन्ना ‘नवरक्त’ का छप चुका पेज डिस्ट्रीब्यूट कर रहा था। श्रीवास्तव ने चाहा कि वह मदन को बताये कि असल में दोष उस व्यवस्था का है जो विक्रम साहब के मुनाफे के लिए बनी है। लेकिन खन्ना को देखकर वह चुप लगा गया। खन्ना मजदूर होने के बावजूद विक्रम साहब का आदमी था। श्रीवास्तव इस कमरे में गैली प्रूफ लेने आया था। बीड़ी फेंककर उसने प्रूफ को भी फाइनल करना था।

दिसम्बर की ठण्ड में आधी रात को खम्भे के नीचे खड़े होकर बन्धु कविता सुनाता है—आग-ही-आग है नसों के बिलकुल करीब... श्रीवास्तव सोचता है और प्रूफ पढ़ता है। विक्रम साहब एक-एक रात में हजार-हजार रुपया जुए में हारते हैं और मशीनमैन गुप्ता अपने लड़के की दवाई के लिए सिर्फ ढाई रुपये का इन्तजाम नहीं कर पाता। रात के हादसे बहुत खतरनाक होते हैं और सरेआम किसी का चाकू किसी की पसलियां तोड़कर गुजर जाता है। श्रीवास्तव प्रूफ नहीं पढ़ता। क्यों पढ़े? डेढ़ सौ रुपये में वह सिर झुकाकर, आंखें मलता हुआ सारा-सारा दिन प्रूफ पढ़ता रहे, उसके चश्मे का नम्बर साल-दर-साल बढ़ता चला जाये और विक्रम साहब जुआ खेलते रहें, व्हिस्की पीते रहें और औरतों को चूसते रहें। एक आदमी है जिसने धकापेल बच्चे पैदा किये। एक अदद बीवी, एक बूढ़ा बाप। यह मदन है। सुना है, एक वक्त चूल्हा जलता है और रोटी को नमक से खाया जाता है। बड़ा लड़का एक सिनेमा हाल के सामने मूंगफली बेचता है और छोटा एक होटल में बर्तन मांजता है। हम सोने की मुर्गी हैं, प्रेस में सोना हगकर जाते हैं और हमारी ही साली ये हालत। इंकमैन शास्त्री चीखता है और बग़ैर दवा के मर चुके अपने बच्चे की ताजा लाश पर उसकी बीवी जार-जार रोती है। 

‘प्रेस तो एक प्रतीक है, इस महादेश का।’ बन्धु कहता है, ‘लोग समान्तर तकलीफों से गुजर रहे हैं।’

विक्रम साहब भी एक प्रतीक हैं, श्रीवास्तव सोचता है, जो एक अंधेरी गुफा के मुहाने पर पूरी व्यवस्था को लिये बैठे हैं। होटल की खिड़कियों से गोश्त की बची हड्डियां फेंक दी गयी हैं। नीचे खड़े लड़के एक साथ उन पर झपटते हैं और एक-दूसरे का सिर फोड़ देते हैं। दो-एक कुत्ते गुर्राते हुए आते हैं और हड्डियां लेकर भाग जाते हैं। लड़कों के सिरों से खून टपक रहा है। ताजा सूर्ख खून। सुना है क्रांति का रंग खून जैसा होता है। जमीन पर टपकने से पहले ही लड़के अपना-अपना खून पी लेते हैं और निर्मल वर्मा पाठकों को विदेशी जमीन पर खींच ले जाते हैं, भुतैली छायाओं और हवा के घोंसलों के बीच। 

मोहल्ले में रात को एक कार आती है और मां अपने बच्चे को छोड़कर कार में चली जाती है। कार में विक्रम साहब हैं। और विक्रम साहब एक प्रतीक हैं। पति निरीह आंखों से सब देखता है—पति भी एक प्रतीक है।

जिन्दगी वीभत्सता की हद तक सड़ी हुई है और कहानी एक फालतू और वाहियात चीज है, जो पेट भरे उबाऊ लोगों की मानसिक अय्याशी पूरी करती है।

सोचो। सिर्फ इतना सोचो कि तुम्हारे खेत में उगा हुआ सोना उनकी तिजोरी में क्यों कैद हो जाता है? कि चीनी, चावल, कपड़ा और घी तुम्हारे गट्टों के दम पर बाजार में आता है और तुम ही भूखे-नंगे हो।

बिहार के गांव में एक औरत भूख से तंग आकर अपने बच्चों का गला घोटकर आत्महत्या कर लेती है और महानगरों में ‘अकहानी’ का जन्म होता है। राजस्थान के गांव में प्यास से तड़पते अपने बाप को जवान लड़की रो-रोकर अपना पेशाब पिला देती है और ‘अज्ञेय’ ‘अपने-अपने अजनबी’ लिखकर पैसे पीटते हैं। महानगरों के सात मंजिला होटलों में बच्चों का गोश्त बिकता है, कलकत्ता के फुटपाथ पर प्रेमचन्द का ‘होरी’ मरा हुआ पाया जाता है और बुद्धिजीवी अपनी मां के शव के बगल में लेटकर अपनी बहन के साथ संभोग करता है—यह भोगा हुआ यथार्थ है और इसने कहानी को नये आयाम दिये हैं।

यह सबसे ज्यादा गरीब देश है, इन साले गरीबों ने देश के माथे पर कलंक लगा दिया है। गरीबों का एक महानगर बनाया जाये और उस पर एटम बम डालकर तबाह कर दिया जाये। चरस के नशे में ‘फ्री वर्ल्ड’ की बात करने वाला एक कवि यह धांसू आइडिया कॉफी हाउस की मेज पर उछालता है और ठहाकों से मेज हिलने लगती है। विक्रम साहब इस धांसू आइडिये से खुश होकर ‘फ्री वर्ल्ड’ के हिमायती उस चरसी कवि को साहित्य अकादमी का इनाम दिलवाने का आश्वासन देते हैं और बंगाल के मजदूरों पर ताबड़ तोड़ गोलियां बरसने लगती हैं। 

विक्रम सा...ह...ब...। श्रीवास्तव जोर से चीखता है। अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे एकाउन्टेन्ट नेगी और रवि जी एक साथ चौंक पड़ते हैं। श्रीवास्तव की सांस उखड़ गयी है, और माथे पर कड़ी ठण्ड के बावजूद पसीना चमक आया है। उसके दिमाग में कुछ बहुत बेहूदा-बेहूदा घट रहा है। यह अमूर्तीकरण है। इसे मूर्त करना है। अमूर्तता का जमाना पिकासो के साथ दफन हो गया।

श्रीवास्तव का सिर भारी हो गया, बेहद भारी। घड़ी देखी—पूरे पांच। वह जल्दी-जल्दी प्रूफ पढ़ने लगा। रवि जी अभी तक उसे घूर रहे थे। प्रूफ पढ़ता हुआ श्रीवास्तव फिर सोचता है कि लोग आत्महत्या के बजाय के बजाय हत्या की बात क्यों नहीं सोचते? दरअसल, जोतां वाली माता ने लोगों का दिमाग भी गरीब कर दिया है।

आज इतवार था। प्रूफ पढ़कर श्रीवास्तव रजिस्टर में अपना ओवर टाइम दर्ज करवाता है। साढ़े सात से साढ़े पांच। कुल दस घंटे। महीने की तनख्वाह में बीस रुपये जोड़कर कुल एक सौ सत्तर रुपये। इन बढ़े हुए रुपयों में से वह एक जोड़ी मोजे और देब्रे की ‘रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूश्न’ ख़रीदेगा।

पन्त जी एक नयी कविता सुना रहे हैं। लेकिन श्रीवास्तव सिर्फ एक बात सोच रहा है—विक्रम साहब।

‘नवरक्त’ का विशेषांक आज प्रकाशित हुआ है, कल की डाक से पोस्ट किया जायेगा। प्रेस की घड़ी में पौने सात हो गये हैं। और देहरादून के कुछ रचनाकार हमेशा की तरह प्रेस में मौजूद हैं। श्रीवास्तव को सहसा ही प्यास लग आयी है। वह उठकर कम्पोजिंग रूम में चला गया है—जहां एक ऊंचे स्टूल पर बैठा अनूपसिंह अपनी आंखों से खून के कतरे समेट रहा है। खून! यह सन्नाटा और सूर्ख खून भी एक प्रतीक है। श्रीवास्तव सोचता है— विक्रम साहब। अनूपसिंह की औरत बच्चा जन्मते समय दम तोड़ गयी थी और अनूपसिंह की आंखों में खून के कतरे हैं। श्रीवास्तव जाकर अनूपसिंह के पास खड़ा हो गया है। अनूपसिंह के कान श्रीवास्तव के होंठों के एकदम करीब हैं और श्रीवास्तव बेआवाज चीखता है—विक्रम साहब।

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अचानक ही श्रीवास्तव का पुराना चिन्तन अनायास ढह गया। नहीं, ‘अचानक’ शब्द ग़लत प्रयोग हुआ है। यह सब कुछ धीरे-धीरे लेकिन लगातार हुआ था। दरअसल, श्रीवास्तव कुछ ज्यादा ही संवेदनशील था, साथ ही अपने मूल में वह भावुक भी था। गड़बड़ी यहीं हो गयी। घृणा के आघात उसकी चेतना से लगातार टकराये और आघात-दर-आघात उसमें पैनापन भरने लगा। उसने साहित्य लिखना एकदम छोड़ दिया। साहित्य पर से उसका विश्वास उठ गया। सुकरम से उसकी खास यारी हो गयी थी और वह प्रेस के वर्कर्स के बीच अधिक उठने-बैठने लगा था। कुछ ग़लत है, जो बदलना ही चाहिए, वह सोचा करता। लन्च टाइम में वह सुकरम, मदन और शामलाल को चाय पिलाने ले गया और देर तक समझाता रहा। हमारे कथाकार ने सिर्फ एक ही शब्द सुना—विक्रम साहब।

प्रेस बंद होने के बाद वह अनूपसिंह और बालकराम के साथ बाहर निकला और दूर तक उन्हें कुछ समझाता चला गया। हमारा कथाकार फिर देर से पहुंचा, वह एक ही शब्द सुन पाया-विक्रम साहब। 

यह सिलसिला कई दिन तक चलता रहा। इस बीच सुकरम ने कई बार विक्रम साहब के साथ बदतमीजी और झगड़ा किया। एक दिन, सबके सामने, उसने जेब का चाकू निकाल कर खोला और बन्द किया। प्रूफ देखता हुआ श्रीवास्तव चुपचाप मुस्कराता रहा।

एक दिन मशीनमैन गुप्ता काम पर नहीं आया। उसने एक दिन पहले एप्लीकेशन भी नहीं दी थी। सारे दिन मशीन खाली रही। लाख खोजने पर भी नगर भर में कोई दूसरा मशीनमैन खाली नहीं मिला। विक्रम साहब ने हंगामा मचा दिया। उनका गुस्सा कुतुबमीनार की ऊंचाई तक पहुंच गया। कुछ अरजेन्ट वर्क जो उसी दिन देने थे, नहीं दिये गये। विक्रम साहब ने एकाउन्टेन्ट नेगी को हुक्म दिया कि गुप्ता की तनख्वाह में से घाटा पूरा किया जाये।

अगले दिन गुप्ता आया, उसका चेहरा उदास था। विक्रम साहब उसी का इन्तजार कर रहे थे। देखते ही फट पड़े। 

‘साहब, मेरा जो लड़का टाईफैड से बीमार था। वो गुजर गया। इसीलिए नहीं आ सका।’ गुप्ता रुआंसा हो गया।

‘हम क्या लड़के के ठेकेदार हैं।’ विक्रम साहब चीखे।

गुप्ता की आंखों में तुरन्त खून छलक आया, लेकिन वह चुपचाप सिर झुकाये खड़ा रहा। तनख्वाह में से घाटा पूरा करने की बात पर सुकरम बाहर निकल आया और अपनी मौलिक गालियों के साथ फैल गया। विक्रम साहब वैसे ही फुके हुए थे। उन्होंने तुरन्त सुकरम का हिसाब साफ किया और उसे निकाल बाहर किया। सुकरम वहशियों की तरह उन्हें घूरता रहा फिर वह बाहर निकल गया। उस दिन पांच जनवरी थी, सात जनवरी को तनख्वाह मिलती थी। श्रीवास्तव नाक छिनकने के बहाने बाहर निकला और शाम सात बजे के बाद सुकरम से दीपक रेस्त्रां के बाहर मिलने को कहा।

अगले दिन, छह जनवरी को प्रेस में मनहूसियत गश्त लगा रही थी। सब चुपचाप जल्दी-जल्दी अपना काम निपटा रहे थे। लंच टाइम में एकाउंटेंट नेगी, डिस्ट्रीब्यूटर खन्ना के अलावा बाकी सब वर्कर श्रीवास्तव के साथ एक चाय घर में जाकर बैठ गये और गुपचुप कुछ बात करने लगे। 

(हमारा कथाकार भी वहां पहुंचा लेकिन उसे डांट कर भगा दिया गया। उस रात कथाकार को नींद नहीं आयी, वह काफी परेशान था, उसने खूब शराब पी ली और टुन्न हो गया। पता नहीं उसके पास पैसे कहां से आये? खैर ये व्यक्तिगत मामला है। क्या पता वो पैसे वाला हो। जरूरी थोड़े ही है कि कथाकार गरीब ही हो।)

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कृप्या पाठक रुकें ओर थोड़ा अधिक अपनी-अपनी संवेदनाओं के मुताबिक अफसोस जाहिर करें क्योंकि इस जगह आकर एक जबरदस्त हादसा हो गया है। पता नहीं क्यों हमारा कथाकार पागल हो गया है। कहता है—मैं आत्महत्या करूंगा। मेरी आत्महत्या का कारण है, ये प्रेस। प्रेस तो एक प्रतीक है—बन्धु ने कहा था।

मुझे लगता है, ऐसी आक्रान्त स्थितियों से गुजरते हुए कोई भी भावुक और अति संवेदनशील व्यक्ति पागल हो सकता है। अरे, आप हंस रहे हैं। एक कथाकार पागल होकर आगरे चला गया और आप में रत्ती भर भी संवदेना नहीं जागी। शर्म की बात है।

सुनिए, आप भी सुनिए उसका आर्तनाद। कह रहा है—सारे क्लाड ईथरली पागलखाने में कैद हैं और दुनिया के सारे पागल बाहर घूम रहे हैं। विदा बन्धु। ब्रह्मराक्षस अकाल मौत मरता है।

खैर, कोई नया कथाकार ढूंढते हैं। आखिर कहानी को आगे तो बढ़ाना ही है। जब तक कोई नया कथाकार आये तब तक मैं ही सुनाये देता हूं। लेकिन भाई साहब। ‘कहानीपन’ का मुझे कतई नहीं पता। मैं तो इस बीच जो घटनाएं घटित हुई हैं उनका वर्णन-सा करे देता हूं। कहानीपन, स्थितियों का टैरर और कहानी की रोचकता आप स्वयं जोड़ते चलिए।

तो, किस्सा-ए-लोग/हाशिए पर, इस प्रकार है—सात तारीख को तनख्वाह लेने के बाद आठ तारीख से प्रेस में स्ट्राइक हो गयी। 

स्ट्राइक का हॉरर या टैरर जो कुछ भी होता है, आप स्वयं सोचिए।

एक महीना गुजर गया। लोगों ने तनख्वाह तो ले ही ली थी। चार घंटे के अन्तर से चार-चार के गु्रप में प्रेस के सामने आठ वर्कर बैठते रहे। रवि जी ने मौके का फायदा उठाया और इससे पहले कि उनसे सवाल किया जाता कि तय करो, किस ओर हो तुम? वे अपने गांव चले गये, दो महीने की छुट्टी लेकर। नेगी और खन्ना इस हड़ताल में शामिल नहीं थे, वे विक्रम साहब के पक्षधर थे।

श्रीवास्तव ने दो-तीन विरोधी पार्टियों से सम्पर्क कर लिया था। मजदूरों के मसीहा भी वर्कर्स को समर्थन देने के लिए कभी टैक्सी में और कभी स्कूटर में आते थे। दरअसल, इस हड़ताल का श्रेय एक विरोधी पार्टी लेना चाहती थी। पार्टी के नेता एम.एल.ए. के इलेक्शन में खड़ा होना चाहते थे और इसके लिए जनआधार की ज़रूरत थी। हड़ताल की सफलता-असफलता का सीधा सम्बन्ध उनकी सफलता और असफलता से जुड़ गया था। झण्डों पर काफी प्रसिद्ध नारे लिखकर टांगे गये और स्ट्राइक की खबर पूरे नगर में फैल गयी। इस बीच श्रीवास्तव भाग-दौड़ में व्यस्त रहा। उनकी आंखों में सिर्फ विक्रम साहब थे। 

दूसरा महीना शुरू होते ही वर्कर्स के चेहरे स्याह पड़ गये क्योंकि उधार वाले बीच हड़ताल में ही तंग करने लगे। उनके घर वालों को राशन, पानी, दवाई और कपड़ों की किल्लत हो गयी। उधार मिलना बन्द हो गया। विरोधी पार्टी द्वारा फण्ड इकट्ठा किया गया और किसी तरह एक हफ्ता और खिंच गया। फिर वही दिक्कत! वे और उनके बीवी-बच्चे रोटी के बग़ैर तरसने लगे। 

जरा आप उस वक्त के संघर्ष की कल्पना कीजिए, जब भुखमरी के दैत्याकार पंजे ने उन सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उनके पास खाने को रोटियां नहीं थीं। उनके बच्चे और बीवियां फरवरी की बर्फीली ठण्ड में बिना कपड़ों के ठिठुर रहे थे। यह वह वक्त था जब विक्रम साहब भारी-भारी कीमती कपड़ों में छुपे हुए थे और मुर्गे का गोश्त तथा व्हिस्की इस्तेमाल कर रहे थे। 

भई, मुझे तो लिखना नहीं आता और कथाकार हो गया पागल। बंद है। आप स्वयं ही उन संघर्षों के स्कैच अपने मस्तिष्क में बनाइये।

श्रीवास्तव की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही थीं क्योंकि उसी के कहने पर वर्कर्स ने हड़ताल की थी। हालांकि श्रीवास्तव को तो घर पर खाना मिल ही जाता था लेकिन वह खा नहीं पाता था। आपके साथी लगातार भूखे हों और आप रोटियां तोड़ें, इससे ज्यादा कुत्सित हरकत और कोई नहीं हो सकती।

आखिर विक्रम साहब का सिंहासन चरमरा गया। हड़ताल के कारण प्रेस की साख गिर रही थी और हजारों रुपयों का काम वापस लौट रहा था। अखबारों में रोज इस बात को उछाला जा रहा था। मजाक थोड़े ही है, नगर में मजदूरों की आठ पार्टियां हैं और तेरह अखबार। व्यवस्था भी किक्रम साहब का साथ न देने के लिए मजबूर थी। इसके दो कारण थे। एक तो इस हड़ताल को लेकर नगरवासी अतिरिक्त रूप से भावुक हो गये थे, दूसरे विक्रम साहब इतने बड़े  पूंजीपति नहीं थे कि चुनावों में सत्ता को लाखों रुपया दान दिया करते। नगर की जबान पर सिर्फ हड़ताल थी और बुद्धिजीवी तक चायघरों में इसे बहस का मुद्दा बनाये हुए थे। मस्तराम के साहित्य से मुंह निकाल कर कॉलेज के छात्र अपने नेताओं से पूछते थे—शहर जला दें क्या? दफ़्तर के दो-चार क्लर्क तो इतने गुस्सा थे कि उन्होंने अपने बॉस को सलाम तक करना छोड़ दिया।

आखिर मोर्चा फतह हो गया। हड़ताल तोड़ दी गयी। श्रीवास्तव ने उस रात शराब पी। उसकी सारी मांगें स्वीकार कर ली गयी थीं। वर्कर्स की तनख्वाह में पचास रुपये मासिक की बढ़ोतरी हुई, प्रेस टाइम सवा नौ से साढ़े सात के बजाय दस से छह कर दिया गया, हड़ताल के दौरान की तनख्वाह दी गयी, सुकरम को वापस काम पर लिया गया, इतवार के अलावा दस सालाना छुट्टियां और बढ़ायी गयीं, तथा सलाना बोनस की भी व्यवस्था की गयी। रातों-रात राजनीति के रंगमंच पर श्रीवास्तव के बल्ब जगमगा उठे। वह आम आदमी का मसीहा हो गया था और कमलेश्वर से मिलना चाहता था।

लेकिन नगर के साहित्यकार नाराज़ हो गये। उनका कहना था, लेखक को सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। 

अचानक एक और हादसा हुआ। 

एक दिन प्रेस में पूरी रात का ओवर-टाइम हुआ। पिछला नुकसान पूरा करने के लिए लगातार ओवर-टाइम चल रहा था फिर भी वर्कर्स खुश थे क्योंकि तीन रुपये घंटे के हिसाब से उनकी तनख्वाह में पैसे जुड़ते चले जा रहे थे। उनके दिमागों में एक लम्बे अरसे से कैद आकांक्षाएं आंखों में मचलने लगी थीं।

प्रेस के दरवाजे अंदर से बंद कर लिये गये थे। उस रात ओवर-टाइम में श्रीवास्तव सहित छह आदमी थे। गुप्ता, सुकरम, शामलाल, अनूपसिंह और खन्ना। 

यह करीब रात का सवा बजे का वक्त था जब प्रेस का दरवाज़ा अचानक ही खटखटाया गया। तुरन्त सब चौंक पड़े, फिर सहज हो गये। चौंकने वालों में खन्ना शामिल नहीं था और दरवाज़ा भी तुरन्त खन्ना ने ही खोला। एकदम से दो पेशेवर किस्म के बदमाश भीतर घुस आये। यह अप्रत्याशित था, सभी हतप्रभ रह गये। 

श्रीवास्तव ने चौंक कर देखा—खन्ना ने मुस्करा कर सुकरम की तरफ इशारा किया। पलक झपकते ही एक लम्बी खुकरी सुकरम के पेट में घुस कर उसकी आंतें बाहर खींच लायी। यह एक ऐसा खौफनाक क्षण था कि सब बुत की शक्ल में खड़े रह गये। सुकरम जोर से जिबह होते बकरे की तरह चीखा फिर जमीन पर गिरकर तड़पने लगा। दोनों बदमाश हवा हो गये। 

इसके बाद जो कुछ हुआ वह एकदम नाटकीय था। श्रीवास्तव फौरन ऑफिस की तरफ भागा और दरवाजे पर विक्रम साहब से टकरा गया। उनके साथ दो पुलिस वाले भी थे। आप क्या सोचते हैं वो धरती फाड़ कर निकले थे। मेरा अनुमान है कि वो विक्रम साहब के फ्लैट में पहले से ही मौजूद थे। 

अचानक बड़े नाटकीय अंदाज में खौफनाक लहजे के साथ खन्ना चीखा — सुकरम को श्रीवास्तव ने मारा है। खन्ना की चीख सुनते ही बाकी वर्कर्स चुप पड़ गये। श्रीवास्तव अवाक् रह गया। जब तक वह कुछ कहता, उसे पकड़ लिया गया।

जिस दिन उसके मुकदमे की तारीख थी उस दिन कोई साहित्यकार कोर्ट नहीं पहुंचा क्योंकि उसी दिन दिल्ली से आये एक बड़े लेखक के सम्मान में गोष्ठी का आयोजन था।

श्रीवास्तव चीखता रहा — मुझे बताया जाये, सुकरम का कत्ल होने के एक मिनट के भीतर पुलिस कैसे पहुंच गयी? लेकिन उसकी आवाज पांच अदद गवाहों के नीचे दब कर रह गयी। उसने आश्चर्य से देखा—जिन लोगों के लिए वह लड़ा था, वही लोग एक-एक करके उसके खिलाफ गवाही देकर गये। इन्हीं लोगों के कारण श्रीवास्तव ने विक्रम साहब की दुश्मनी मोल ली और वही लोग कह गये कि सुकरम को श्रीवास्तव ने ही खुकरी मारी थी। मारने का कारण हड़ताल के दौरान की आपसी दुश्मनी बताया गया। श्रीवास्तव को लगा कि उसे पागल हो जाना चाहिए। वर्कर्स को या तो धमकी दी गयी है या ख़रीद लिया गया है, वह जानता था। 

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काले फौलाद के सींखचे बहुत मजबूत हैं और उनके पीछे खड़ा हुआ श्रीवास्तव बेहद कमजोर। उसकी बोलती बंद हो गयी है और आंखें खोखली। उसका चेहरा एकदम सपाट है और गाल धंस गये हैं। वह सींखचों से लगा खड़ा है। एक लंगड़ी औरत जो उसकी मां है, श्रीवास्तव सोचता है, एक बाप जो तेजी से जिन्दगी की ढलान पर लुढ़क रहा है। एक बहन जो ताड़ सरीखी हो गयी है। चार छोटे भाई। और...और...और एक कार आयेगी रात के सन्नाटे और अन्धेरे में। कार में विक्रम साहब होंगे और उसकी बहन कार में बैठकर चली जायेगी। मां सब देखेगी और गूंगी हो जायेगी, बाप अपना सिर दीवार से फोड़ लेगा। उफ! श्रीवास्तव अपना सिर सींखचों पर पटक देता है। काश मेरी सोचने की शक्ति बरबाद हो सकती। श्रीवास्तव सोच रहा है। लगातार। हवा में लटकता एक फंदा है और एक अदद गर्दन...। विक्रम साहब ठहाका लगा रहे हैं...श्रीवास्तव के भीतर जोर से कोई रोता है और नगर के साहित्यकार ‘डिलाइट’ में बैठकर कहानी के बदलते प्रतिमानों पर बहस कर रहे हैं। 

सामने एक आदमी खड़ा है, निरीह-दयनीय। उसके चेहरे की झुर्रियों से अन्तहीन यातना झांक रही है। यह श्रीवास्तव का बाप है। श्रीवास्तव बैठा-बैठा देर तक छाया को घूरता रहता है फिर भी छाया बुत की शक्ल में खड़ी रहती है। श्रीवास्तव को लगा-उसका बाप सचमुच खड़ा है। वह उठकर ठण्डे कदमों से सींखचों के करीब आता है और अचरज से सामने खड़े आदमी का चेहरा छूता है। उसे झटका लगता है। यह मूर्तता है। उसका बाप वाकई खड़ा है। वह चश्मा उतार कर साफ करता है और पहन कर फिर देखता है—सचमुच उसका बाप ही है। 

बाप हैरानी से श्रीवास्तव की हरकतें देखता है और अपनी बूढ़ी आंख चुपचाप पोंछता है। श्रीवास्तव कुछ कहना चाहता है लेकिन आवाज साथ नहीं देती। दरअसल श्रीवास्तव कुछ कहना ही नहीं चाहता। संवाद की स्थिति खत्म हो चुकी है। अब सिर्फ बियाबान है, जिसमें उसे सांय-सांय करना है। वह बुत रहता है और बाप सामने से हट जाता है। देर तक बाप का लौटना श्रीवास्तव अपनी सोच में साकार देखता है।

‘ओय हरामी। तेरे कू तेरी मां मिलने वास्ते आया।’ मुच्छड़िया सन्तरी गुर्राता है। श्रीवास्तव उठकर मिलने वाली कोठरी में चला जाता है।’

‘तूई तो हमारा सहारा था रे।’ मां रो पड़ती है।

श्रीवास्तव चीखना चाहता है—विक्रम साहब। लेकिन इस बार भी आवाज साथ छोड़ जाती है।

— मुझे अपने दोस्तों ने धोखा दिया है मां। वह मां को बताना चाहता है। विक्रम साहब तो खैर एक दुश्मन थे। लेकिन मां ऐसी बातें नहीं समझती। वह फिर पत्थर की बेंच पर बैठ जाता है और मां का लौटना महसूस करता है। 

— यार, श्रीवास्तव कुछ ज्यादा ही भावुक था। साहित्यकारों की बहस का यह टुकड़ा छिटक कर ‘डिलाइट’ की खिड़की से बाहर आ जाता है और तुरन्त कथाकार के पास आगरे पहुंचता है। कथाकार जोर से हंसता है—वीभत्स ठहाके के साथ और हंसता चला जाता है। 

आज भी विक्रम साहब एक रात में दो-दो हजार रुपया हार जाते हैं और शराब के साथ औरत को पीकर विजय दर्प से मुस्कराते हैं।

कोई नहीं सोचता किसी की ओर से और सुभाष पन्त ने एक कविता लिखी है—यह एक चरागाह की तरह समतल और खामोश शहर है। 

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