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हीरो की हैरानी ~ ममता कालिया | love story of amitabh and rekha - Mamta Kalia

ममता कालिया को यह महारथ प्राप्त है कि वह हम सबके सामने बिखरे क़िस्सों को कलमबद्ध कर सकती हैं। उनकी कहानी 'हीरो की हैरानी' उनको मिली इस सिद्धि का ताज़ा उदाहरण है। लंबे हीरो की लंबी कहानी का आनंद उठाइए!

अमिताभ बच्चन और रेखा की लव स्टोरी क्या है? 


हीरो की हैरानी

~ ममता कालिया


सुमित श्रीवास्तव बहुत लम्बा था। छह फुट साढ़े तीन इंच उसकी दादी बतातीं- जब वह अठारह साल का हुआ, एक सुबह सो कर उठा तो अचानचक एक फुट लम्बा हो गया। दादी अचानक को अचानचक बोलतीं। वे बतातीं इसका पाजामा सुबह एक फुट छोटा हो गया। मैं डर गयी, भई रात में लड़के का पाजामा कैसे चढ़ गया। गर्दन इसकी ऊंट जैसी निकल आई। दुबला तो पहले ही था अब सींकिया लगने लगा। सड़क पे चले तो जिराफ, ऊंट और शुतरमुर्ग तीनों की झलक इसकी चाल में।

सुमित खुद भी अपने लमडीग कद से भन्ना गया। बाजार का कोई रेडिमेड कपड़ा उसके शरीर पर फिट ना हो। उसकी नाम का कपड़ा उसके ऊपर उंचकट्टा लगे और बड़ी नाप का कपड़ा- शामियाना। गली के शौकत मास्टर को खास हिदायत दी गयी, 'मास्टर जी, बच्चे ने कद निकाल लिया है। आप ऐसी कमीज सियो कि गले की हड्डियां नजर ना आयें, पेंट इतनी नीची हो कि टखने ढंक जाएं।' मास्टर शोकत ने एक नजर सुमित के ऊपर डाली और कहा, 'आधा मीटर कपड़ा ज्यासती लगेगा जी'

यही हाल बाटा के जूतों का हुआ। तीन महीने पहले खरीदे जूते उसके पैरों में न घुसें। घंटाघर के बड़े बाटा शोरूम में गये। सुमित अपने पापा के सामने शर्म से गड़ा जा रहा था। सेल्समेन जो भी जूता दिखाए उसमे उसका अंगूठा दबे।

हार कर सेल्समेंन ने सिविल लाइंस के एक मोची का पता दिया कि वह गैर मामूली पैरों के जूते बनाना जानता है।

क्लास में उसे बैठने के लिए पिछली सीट मिलती। सोने के लिए हर चारपाई छोटी पड़ती। उसकी हड्डियां उभरी हुई और नुकीली थीं। जिस किसी से सुमित टकरा जाता, वही हाय हाय कर उठता।

बॉयज हाई स्कूल के आखिरी साल में उसे क्रिकेट टीम का कप्तान बना दिया गया। जिस भी तरफ सुमित होता, वह तरफ मैच जीत जाती। सुमित सुपरमैन की तरह लम्बे-लम्बे डगों से पिच लांघ जाता।

एक और खासियत थी सुमित की। उसकी आवाज बहुत अच्छी थी। भावपूर्ण और ओजस्वी। स्कूल में कोई भी नाटक मंचित होता तो राजा या बॉस का रोल उसी को मिलता। उसकी याद्दाश्त तेज थी। वह फर्राटे से सारे संवाद रट लेता। उसने कहीं अभिनय सीखा नहीं था। स्कूल की ड्रामा सोसाइटी में ही उसकी प्रतिभा मंजती चली गयी।

सभी घरवालों की तरह सुमित के माता-पिता भी चाहते थे कि वह प्रतियोगी परीक्षा दे कर सिविल सर्विस में आ जाए। पिता जीवन-भर प्रायवेट कॉलेज की मनमानी के शिकार रहे। उनकी अच्छा थी कि उनका इकलौता बेटा सरकारी नौकरी की सुरक्षा में अपना जीवन बिताए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तीन साल पढ़ कर उसने बी.एस.सी. परीक्षा पास तो कर ली लेकिन आगे पढ़ने की उसकी मंशा नहीं थी। इलाहाबाद में थियेटर का उसका शौक पूरा हो रहा था। किसी न किसी नाटक में उसको रोल मिलता रहता। दादी से पैसे मांग कर वह कई बार निरंजन टॉकीज में फिल्म भी देख आता। तभी उसके मन में यह आशंका पैदा हुई थी। फिल्मों में अभिनय की।

जब पापा ने उससे कहा कि वह सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी में जुट जाए, सुमित ने पहल बार मुंह खोला।

उनका बेटा बम्बई जाकर फिल्मों में टक्कर मारेगा यह जानकर पापा को जोर का धक्का लगा। एक बार तो मन हुआ कि उसे चांटा मार दें। फिल्मी दुनिया तो प्रायवेट कॉलेज की नौकरी से भी ज्यादा रद्दी जगह है जहां सैंकड़ो किस्मत आजमाने जाते है पर कामयाब मुश्किल से एक दो होते हैं।

यह भ्रष्ट शौक इसे कहां से लग गया। घर में खर्च की खीचातानी के चलते कभी कोई सिनेमा सर्कस की ओर मुंह न करता था। घर में एक श्वेत शाम टीवी था जो खबरें देखने के काम आता। दादी को अखबार की खबरें ज्यादा अच्छी लगतीं और मां दिन भर किसी न किसी काम में फंसी रहतीं। टीवी केवल रात में नौ से इस बजे तक चलता। सुमित पढ़ाई के अलावा नाटकों और दोस्तों में रमा रहता। इकलौता बच्चा था, पढ़ाई में ठीक था, कोई ऐब में नहीं पड़ा था। और उसकी कोई शिकायत भी नहीं आई थी। कुल मिलाकर उनकी एक शांतिपूर्ण गृहस्थी थी जिसमें पहली खलबली सुमित के बयान से मची।

उसके पापा बौखला गये, 'तू जनता है बम्बई के बारे में? कभी फाफामऊ से आगे गया भी है कि ऊंट की तरह मुंह उठा कर बक दिया- बम्बई। इतने बड़े शहर में खाने का खर्चा कहां से आएगा। वहां काम मिले ना मिले। नहीं पढ़ना आगे तो सालभर में बी.एड. करके टीचर बन जा।' 

सुमित ने पापा का मुकाबला किया, 'मैं आपसे पैसे नहीं मांग रहा सिर्फ परमीशन मांग रहा हूं। मुझे दो साल की मोहलत दीजिए। अगर फेल हो गया तो वापस लौट कर टीचर बन जाऊंगा।' 

मां बोली 'बम्बई में क्या सड़क पर रहेगा ? क्यों दुखी कर रहा है हम सब को'।

दादी इस बीच मौन धारण कर, सारी तू-तू मैं-मैं देख-सुन रही थीं। पता नहीं, क्यों उन्हें गुस्सा नहीं आ रहा था। उन्होंने पोते की आंखों में सपनों के चिराग देख लिए थे। उन्हें लग रहा था, उनका सुमित कोई पगला तो है नहीं। आए दिन एक्टिंग में, खेलों में इनाम जीत कर लाता रहता है, क्या पता कहीं कामयाब हो ही जाए।

दादी ने दबे स्वर में कहा, 'देखो जी, सत्तू हमें कम से कम अपना इरादा बता तो रहा है।' तुम क्या कर लेते अगर वह बिना बताए मुम्बई भाग जाता सुमित के पापा अपनी मां पर भड़के, 'तुम्हीं ने इसे सिर चढ़ाया है अम्मा। अब भुगतो। इसी दिन के लिए इसे पाल पोस कर बड़ा किया था कि जोकरों की तरह फिल्मों में नाचे-कूदे। शहर के ड्रामों की बात अलग है'।

मां ने कहा 'सत्तू बाहर जाएगा तो मैं अन्नजल त्याग दूंगी।'

सुमित को नहीं रुकना था वह नहीं रुका। हार कर मां और पापा ने उससे बेशुमार वादे लिए, वह हर हफ़्ते, चिट्ठी लिखेगा। बम्बई में बेइज्जती हो तो फौरन लौट आयेगा। सुमित हर शर्त पर गर्दन हिलाता गया।

उसके पास दादी की वोट थी। हौसला बुलन्द था।

पिता ने उसे दो तीन पते और फोन नम्बर दिए। ये उनके ऐसे विद्यार्थियों के थे जो अब बम्बई में किसी न किसी सरकारी महकमों में काम कर रहे थे। सुमित ने बिना ना-नुकर के वे जेब में रख लिए। मां ने उसके लिए ढेर सी मठरी-लड्डू बना दिए कि बेटा बम्बई जाते ही फाके न काटे।

इस सब दिलासों से पढ़ कर सुमित के पास एक और पतवार थी जिसके भरोसे वह बम्बई के अरब सागर में छलांग लगाने जा रहा था। बॉयज हाई स्कूल का ही उसका दोस्त नवरोज उससे पहले ही बम्बई पहुंच चुका था। पिछले छह महीनों से वहां था और उसने ऐलेक पद्मसी की विज्ञापन फिल्मों में अपनी छोटी-सी जगह बना ली थी।

नवरोज की मम्मी पद्मसी खानदान से परिचित थीं। इलाहाबाद में एक कॉनवेंट में इंग्लिश की टीचर थीं और उन्हीं की प्रेरणा से नवरोज भी थोड़ी बहुत एक्टिंग, थोड़ी बहुत कविता और काफी इंग्लिश, हिन्दी और गुजराती जानता था। स्कूल के दिनों में नवरोज चार्ली चैपलिन की बहुत मजेदार नकल करता था। सारा हॉल हंसते-हंसते लोटपोट हो जाता। नवरोज ठिगना और हल्के बदन का था। ढीली पैंट और आधी खुंसी कमीज पहन कर जब वह मंच पर आता, छोटी सी मक्खी मूंछ लगा कर, तो उसके बोलने से पहले लोग ताली और सीटी बजाना शुरू कर देते। इसी खासियत ने उसे एलेक पद्मसी के विज्ञापन फिल्म में काम मयस्सर करवा दिया।

सुमित को चिट्ठी लिख कर और सड़कों का नक्शा बना कर नवरोज ने समझा दिया कि उसे स्टेशन से कैडिल रोड कैसे पहुंचना है। वहां साधना कैफे के सामने खस्ताहाल इमारत खड़ी थी संजना मैन्शन। ऊंचे गगनचुम्बी भवनों के बीच यह दुमंजिली इमारत पूरी की पूरी लकड़ी की बनी थी। इसकी सीढ़ियां भी लकड़ी की थीं और चढ़ते वक्त चूं चूं आवाज करती थीं। बस से उतर कर जब अपना छोटा सूटकेस और बड़ा झोला लेकर सुमित श्रीवास्तव संजाना मैनशन की सीढ़ी चढ़ने लगा, एक बार को वह इस चूं-चूं चई-मई आवाज से चौंक गया। उसे लगा कहीं सीढ़ी उसके बोझ से टूट न जाय।

इस चौकोर इमारत के चारों ओर लकड़ी का सांझा छज्जा बना था, जिस पर कपड़े सुखाने की सख्त मनाही थी। सबने अपने कमरे में ही ऊंचाई पर रस्सी बांध रखी थी, जिस पर हैंगर के सहारे कपड़े सूखते।

नवरोज इस वक्त कमरे पर था। सुमित को देख कर उसने पहली बात कही 'कुछ खाने को लाए हो। बाय गॉड बड़ी भूख लग रही है'

सुमित ने मठरी और लड्डू के डब्बे उसके आगे रख दिए और कहा, 'तुझे और कहीं ठिकाना नहीं मिला जो इस खण्डहर में आ गया?' 

नवरोज ने जल्दी-जल्दी दो लड्डू गड़पने के बाद कहा, 'देख, इलाहाबादी अपने ठाठ यहां भूल जा। बम्बई में मकान किराए का आइडिया है तुझे? वो तो संजाना आंटी ने मम्मी के जोर देने पर मुझे कमरा दे दिया वरना फ्लाय-ओवर के नीचे रहना पड़ता। खाली पांच सौ रुपये लेती हैं, उसमें सुबह की चाय भी मुफ्त देती हैं। अक्खा बम्बई में इससे सस्ता ठिकाना तुझे नहीं मिलेगा। तेरी बहुत तगड़ी सिफारिश लगाई है मैंने, तब जाकर उन्होंने बगल वाले कमरे की चाभी मेरे को दी है। अब तू अपना सामान लगा कर फ्रेश हो ले। मैं ठीक 11 बजे निकलूंगा। अगर लक ने साथ दिया तो पद्मसी सर या मैम से तेरी मुलाकात करवा दूंगा। देख देर मत करना, बी पंक्चुअल।'

सुमित ने अपने कमरे का ताला खोला। ऐसा लगा यह दरवाजा बहुत दिनों बाद खुल रहा था। अन्दर दीवारों के कोने जालों से भरे हुए थे। मेज पर धूल थी। पलंग पर बिस्तर भी साफ नहीं था। सुमित उसी दम बाहर निकल आया।

तभी उसने देखा एक अधेड़ आदमी हाथ में लम्बी सी झाड़ू और झाड़न लिए उसके कमरे के पास आ रहा है।

सुमित का डील देख कर वह एक बार को भौंचक देखता रहा। सुमित ने कहा, 'जरा जल्दी साफ कर दें। मुझे तैयार हो कर बाहर जाना है।'

'अभी लो साब जी।' सेवक ने कहा और अंदर घुस गया। सुमित नवरोज को डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था। वह छज्जे पर कुहनियां टिका कर झुक कर खड़ा हो गया और नीचे देखने लगा।

इस अधेड़ सेवक का नाम था दिलावर और चौके में काम करने वाली सेविका थी, आबान।

दिलावर ने बाहर निकल कर कहा 'सुबू से मेरे को टाइम नहीं मिला। लेट हो गया। मैंने बाथरूम भी एकदम साफ कर दिया है। आप फ्रेश हो लो।'

सुमित बहुत फुरती से नहा कर तैयार हो गया। सुबह की चाय संजाना मेंशन में बंट चुकी थी लेकिन आबान ने एक कप चाय और एक मोटा बिस्किट लाकर मेज पर रख दिया- 'ले लो मैन, तुम देर से आया, इधर आठ बजे चाय खलास हो जाता है।'

'आज मेरा पहला दिन है। कल से ध्यान रखूंगा।' सुमित ने कहा। 

नहाने के बाद भूख चमक आई। सुमित ने मां के लिए मठरी और लड्डू बड़े प्रेम से खाये। मां बहुत याद आई। दादी भी याद आईं जिन्होंने रात में उसकी मुट्ठी में हजार-हजार के दो नोट दबा दिए थे। पापा ने एक हजार रुपए के साथ हजार हिदायतें दी थीं, 'सोच समझ कर खर्च करियो। तुझे मालूम है मेरे कॉलेज मे बीस-बीस तारीख तक तनख़्वाह नहीं बंटती।' उसने झुंझला कर पापा की तरफ देखा था। उनके पैरों पर आधा झुक कर प्रणाम किया था। मम्मी की बाहों में फंस कर नन्हा बच्चा बन गया था। और दादी के चरणों मे लिपट गया था।

'मुझे ऐसी ही मिलना ज्यों की त्यों।' उसने दादी से वादा लिया था।

नवरोज उसके कमरे पर आया।

'ये घर का नाश्ता खतम मत करो, बाद में काम आएगा। अपने पास पन्द्रह मिनिट हैं। चल कर कैफे में बड़ा पाव खाएंगे।'

साधना कैफे बहुत छोटा था। मुश्किल से साठ मेजों वाला। कुर्सी और मेज के बीच फासला इतना कम कि सुमित के लिए बैठना दूभर। वेटर उसकी दिक्कत समझ एक स्टूल लाया तब जाकर सुमित फंस कर बैठा।

नवरोज ने कहा, 'दो बड़ा पाव और हॉट कॉफी।' 

बड़ा पाव दरअसल एक गोल बन के अन्दर आलू-बड़ा दबा कर रखे गये नाश्ते का नाम था।

सुमित को खासा बेस्वाद और फीका लगा। हां कॉफी बढ़िया थी। सड़क से उन्हें डबल डैकर बस मिल गयी और वे दस मिनट में वरली सीफेस पर उतर गये। वरली सीफेस पर एक तरफ विशाल भवन खड़े थे तो दूसरी तरफ समुद्र लहरा रहा था। नवरोज उसे दिखाता रहा, 'इस बिल्डिंग में राजकुमार बड़जात्या रहते हैं जिन्होंने 'नदिया के पार' बनाई। वहां मेहरा रहते हैं, चार गोल्डन जुबिली दे चुके हैं। इधर हर्मीज हाउस में 'यह जो है जिंदगी' का प्रोड्यूसर ओबेराय रहता है।'

सुमित समस्त सूचनाएं अपने दिमाग में इकट्ठी कर रहा था। आखिरी इमारत में वे प्रविष्ट हुए। दरबान नवरोज को पहचानता था। 'साब जी' कह कर उसने अभिवादन किया। लिफ़्ट से वे ग्यारहवें माले पर पहुंचे।

लिफ्ट के बाहर की लॉबी में ही बाजार का सेट लगा हुआ था। नवरोज को देखते ही मैनेजर फारुख ने कहा, 'फटाफट मेकअप करना मांगता मैन।'

सुमित को वहीं खड़े छोड़ नवरोज अन्दर चला गया।

सुमित सैट की तरफ दिलचस्पी से देख रहा था। यहां चैरी ब्लॉसम बूट पॉलिश पर फिल्म शूट होने जा रही थी। सब अपने-अपने काम में मुस्तैदी से लगे हुए थे। एक मोटा आदमी ढीला सूट पहने लकड़ी के स्टूल पर बैठा हुआ था। 

उसके पीछे कुछ दुकानों के नामपट आधे-अधूरे नजर आ रहे थे। एक लड़का फटेहाल कपड़े पहने, हाथ में स्क्रिप्ट लेकर संवाद रटने का काम कर रहा था। काफी जल्द नवरोज तैयार होकर आ गया। एकदम चार्ली चैपलिन लग रहा था। हल्का, दुबला शरीर तो उसका था ही। उपर से ढीली, खिसकती पैंट और उड़सी कमीज, मक्खी मूछें और हाथ में घड़ी उसका किरदार भरोसेमंद बना रही थी।

लेकिन विज्ञापन फिल्म शूट करने के समय बहुत सी चीजों का संतुलन जरूरी था। कहानी यह थी कि एक मोटा आदमी आपने बेडौल जूते पॉलिश करवाने के लिए रेल्वे स्टेशन के पास बैठे बूट पॉलिश वालों के पास आता है। एक ही जगह दो लड़के उसे घेर लेते हैं। एक मोटा लड़का बहुत घिस-घिस कर उसका जूता चमकाने की कोशिश करता है, कपड़ा फेरता है मगर जूता एकदम बदरंग ही रहता है। दूसरी तरफ चार्ली चैपलिन जेब से चमकदार चैरी ब्लॉसम की डिबिया निकालता है। जरा सी पॉलिश जूते पर रगड़ता है कि जूता शीशे की तरह चमकने लगता है। मोटा आदमी दूसरे पॉलिश वाले को मारने को लपकता है। तभी चैरी ब्लॉसम की डिबिया का दृश्य और सन्देश सामने आ जाता है, 'केवल चमक नहीं, शीशे जैसी चमक।'

तीन-चार री-टेक में शॉट ओके हो गया और शूटिंग उसी दिन पूरी हो गयी। मैनेजर फारुख ने संतुष्ट होकर कहा, 'बाकी का काम एडिटिंग टेबिल पर हो जाएगा।'

पद्मसी ग्रुप काम तुरंत फुरत का था। उसी दिन उन्होंने नवरोज को चार हजार का चैक भी थमा दिया।

सुमित यह सब देख कर बड़ा प्रभावित हुआ। साथ ही उसे यह भी लगता रहा कि थियेटर की दुनिया ज्यादा सुसंगत और सुनियोजित होती है, वहां विरूप इतना विरूप नहीं होता और स्वरूप उतना मनोहारी नहीं होता।

थियेटर की दुनिया ज्यादा विश्वसनीय होती है। दो दिन नवरोज के साथ वरली जाने में सुमित ऊब गया। उसने देखा काम की एवज में स्टूडियो में नवरोज सबका चमचा बना हुआ था।

अन्दर ही अन्दर सुमित एक अकड़ू लड़का था।

उसका दिमाग अभी इलाहाबाद के रंगकर्म की याद में तना हुआ था। तीसरे दिन वह नवरोज के साथ नहीं गया। उसने सिरदर्द का बहाना बना दिया। कुछ देर वह निष्क्रिय पड़ा रहा। उसे अभी से लगने लगा कि वह बम्बई शहर में नहीं अरब सागर में पड़ा है, जहां संजाना मैन्शन एक छोटी डगमगाती नाव है। सागर में तूफान है और उसके पास नवरोज नाम की कमजोर पतवार है।

क्या वह फिल्म स्टूडियो के चक्कर लगाना शुरू करे। कौन उस पर भरोसा करेगा। कौन उसे काम देगा।

किसी तरह अपनी दुश्चिन्ता पर काबू पाकर उसने पुरानी जीन्स की जेब से वह मुड़ा-तुड़ा कागज ढूंढ़ निकाला जिस पर उसने पापा के बताए लोगों के नाम और फोन नम्बर लिखे थे। कागज मिल गया सवाल यह था कि फोन कहां से करे। तभी उसे याद आया उसने साधना कैफे के काउंटर पर काला फोन रखा देखा था। 

अब उसे कुछ अच्छा लगा। उसने मुंह धो कर बाल सीधे किए, कमीज पैन्ट के अन्दर उड़सी और पैसे और कागज लेकर बाहर आ आया। साधना कैफे पहुंचने तक सुमित को भूख भी लगने लगी। पहले उसने फोन की तरफ रुख किया। पहले नम्बर पर घंटी जाती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया। दूसरे नम्बर पर फोन किसी बच्चे ने उठाया और नितिन शर्मा नाम सुनकर कहा- 'पापा तो ऑफिस में हैं।'

तीसरा फोन नम्बर घुमाते वक्त सुमित कोई उम्मीद नहीं थी। वह केवल कागज पर लिखे की औपचारिकता पूरी कर रहा था। ताज्जुब कि पहल किर्र-किर्र पर ही फोन उठा लिया गया, '5197844' किसी ने साफ लहजे में कहा।

सुमित के मुंह से सुनकर कि वह शशिकांत श्रीवास्तव का बेटा सुमित श्रीवास्तव बोल रहा है, 'मैं उनका शिष्य अविचल गोस्वामी बोल रहा हूं। कहां हो तुम क्या स्टेशन से बोल रहे हो।'

सुमित के अन्दर स्फूर्ति का संचार हुआ, 'जी नहीं। मैं केंडिल रोड पर एक लॉज में ठहरा हुआ हूं।

'आओ किसी दिन। मेरा पता है- 'गडकरी सोसायटी'। अंधेरी ईस्ट चले आओ। प्रकाश स्टूडियो के बगल में है कॉलोनी।'

अविचल गोस्वामी से बात करने के बाद सुमित थोड़ा चुस्त और सजग हुआ। उसने एक की जगह आज दो बड़ापाव खा लिए। कॉफी पी और सड़क पर लगे नामपटों को पढ़ कर दादर का रास्ता समझने लगा। 

उसे याद आया, जेब में पूरे पैसे नहीं है। वापस लॉज आया। नहा कर साफ कपड़े पहने और ढंग से तैयार होकर निकला। इलाहाबाद में उसकी प्रिय पोशाक थी जीन्स के उपर लम्बा खादी का कुर्ता। उसने वही पहना। सोचा दिलावर से पूछ ले यहां से दादर स्टेशन कितनी दूर है।

'बरोबर सीधा चले जाना। किधर भी मुड़ना पन नहीं। उधर बहुत कपड़ा-विपड़ा बिकता, एक स्टोर पर लिखा मिलेगा 'लोनी तूप चक्का' उहां लोकल स्टेशन मिलेगा।'

सुमित चल दिया लम्बी रानाडे रोड पार की। रास्ता इतना लम्बा था कि सुमित को शक होने लगा कि कहीं गलत तो नहीं जा रहा। वह जिससे भी रास्ता पूछता वही कहता, 'पुढ़े चला।' (आगे चलो)।

दादर स्टेशन पर इतने इंडिकेटर लगे हुए थे कि उसे सही प्लेटफार्म तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। अभी दो ही मिनट हुए थे कि विरार जाने वाली लोकल दन्न से आ खड़ी हुई। रेल खचाखच भरी हुई थी। चढ़ने उतरने का कोई नियम नहीं था। बहुत कोशिश करने पर भी सुमित रेल में चढ़ नहीं पाया। इंडिकेटर बता रहा था कि अगली लोकल 'स्लो' है और बोरिवली जाएगी।

पास पड़ी बैंच पर बैठने का इरादा स्थगित कर सुमित लोकल पकड़ने के लिए ऐसे खड़ा हो गया कि जैसे शिकार पकड़ना हो। बस की तरह कोई कतार नहीं थी। सब धक्का मुक्की कर रहे थे। डिब्बा सामने आने पर सुमित ने अपने लम्बे हाथ पांव फैला कर चील जैसा आकार बनाया और फट से डिब्बे में घुस गया।

जिस तरह लोग दरवाजे के पास ही भीड़ लगा कर खड़े थे, सुमित समझ गया कि- उतरने के लिए सीमित समय मिलेगा। वह हर स्टेशन का नाम कौतुक से पढ़ता रहा। बांद्रा, खार, सान्ताक्रूज और विलेपार्ले। आखिरकार अन्धेरी आया। सुमित को उतरने में कोई जतन नहीं करना पड़ा। पीछे की उतावली भीड़ ने उसे अपने आप आगे धकेल दिया।

नाम के विपरीत अन्धेरी स्टेशन पर बिल्कुल अंधेरा नहीं था। सुमित ने अपना कुर्ता सीधा किया। लम्बी बाहें इधर उधर फैला कर तय किया कि पूरब-पश्चिम कौन सी तरफ हुआ। फिर भी पुल की खड़ी सीढ़ी चढ़ने से पहले उसने एक आदमी से पूछ लिया, 'भाई अंधेरी ईस्ट कौन सी तरफ है?'

उस आदमी ने हैरानी से सुमित का डीलडौल देखा और लापरवाही से बोला 'पुढ़े जा।' (आगे जा)।

सुमित की जानकारी में कोई इजाफा न हुआ। उसने एक और लड़के से पूछा 'अन्धेरी की पूर्व दिशा यह दाईं ओर है न?'

लड़का हंस पड़ा, 'बड़ी टंग ट्विस्टिंग हिन्दी बोल रहे हो। क्या गुरुकुल से आए हो। दावी बाजू जाओ नी।' (दाईं तरफ जाओ न)।

'प्रकाश स्टूडियो कितनी दूर है? कौन सी बस जाएगी?'

इस सवाल से लड़के के सामने साफ हो गया कि यह कोई फिल्मी लाइन का स्ट्रगलर है जो किस्मत आजमाने निकला है।

उसने हमदर्दी से कहा, 'जासती दूर नहीं है पन एक बात बोलता। स्टूडियो में घुसना पन मुश्किल। कायको कि वह मुच्छड़ दरबान सबको हकालता।'

सुमित ने हंस कर उससे कहा, 'ऐसा क्या ? प्रकाश स्टूडिया में मेरा कोई काम नहीं है। बगल की कॉलोनी में जाना है।'

सुमित पैदल चल पड़ा। वह बड़े गौर से दृश्य देख रहा था। इलाहाबाद से एकदम अलग किस्म का परिदृश्य था यह। झुग्गी-झोंपड़ियों की गोद में आलीशान इमारतें खड़ी हुईं। हर आदमी किसी न किसी काम में लगा हुआ।

एकाएक उसे लगा क्या होगा अविचल गोस्वामी से मिल कर। पापा का शिष्य है तो उन जैसा ही व्यवहार-अकुशल और सनकी होगा। वह अपना समय नष्ट करने के लिए बम्बई नहीं आया है। इससे तो अच्छा है वह प्रकाश स्टूडियो के दरबान से मुलाकात करे।

विचार क्लिक कर गया।

दायें हाथ को प्रकाश स्टूडियो था। सुमित ने देखा दरबान हथेली पर खैनी मसल रहा था। लम्बा चौड़ा डील-डौल था उसका। चेहरे पर नुकीली ततैया मूंछें। उस आदमी की सारी अदा उसकी मूंछों में थी।

सुमित थोड़ी देर उसे दूर से देखता रहा। दरबान भी खैनी का आनंद ले रहा था। इस बीच उसने एक-दो बार फाटक खोला और बड़ी-बड़ी दो कारों को सलाम भी ठोंका।

खैनी का सुरूर था या दरबान की आदत, उसका सिर दायें-बायें हल्का डोल रहा था। तभी सुमित को दिखी उसके सिर के ऊपर, बालों में छुपी चुटिया। बाकायदा नन्हीं-सी गांठ लगी चोटी। सुमित का इलाहाबादी अभिनेता कलाकार जाग गया। उसके पास जाकर आधे से भी कम झुक कर उसने कहा 'पालागी पंडित जी'।

दरबान गोवरधन ने देखा ऊंट जैसा लम्बा एक नौजवान उसे पालागी कर रहा है। उसके अंदर का ब्राह्मणत्व जगा उठा। 'खुश रहो।' उसने असीसा। सुमित को अवधी बोलनी आती थी। उसने कहा- 'बड़ा जबर डियूटी थामे हो पंडीजी।'

गोवरधन तिवारी प्रतापगढ़ का था। पिछले तीन साल से यहां दरबानगिरी कर रहा था। उसने पहले ही दिन बता दिया था, 'दिन में भले हम बारह घण्टे खट लें, रात का डियूटी हम से न होई'।

वह से सवेरे नौ बजे से रात नौ तक फाटक पर तैनात रहता। यों तो फाटक के पास उसके लिए बिना हाथ वाली एक कुरसी भी रखी थी लेकिन वह ज्यादातर खड़ा रहता, मुस्तैद। उसके रहते, फिल्में में घुसने को बेताब लड़के-लड़कियों को मायूस लौटना पड़ता। दरबान किसी को अन्दर झांकने भी न देता।

स्टूडियो के अहाते में बाईं तरफ एक मंजिला मकान में ऊपर नीचे यह कमरे स्टाफ के लिए बने हुए थे। एक कमरा गोवरधन को मिला हुआ था। अन्दर के हिस्से में एक बड़े हॉल में आधे भाग में कैन्टीन था और आधे भाग में चौका। यहां एक महाराज और उसके दो सहायक भोजन और चाय नाश्ते की कमान संभाले हुए थे। चाय अन्दर बाहर ले जाने वाले लड़कों को छोकरा कहा जाता था। ये आठ दस थे और इनमें बदलाव होता रहता था।

कैन्टीन तरह तरह के लोगों से भरा रहता। उनमें स्टूडियो के सैट खड़ा करने वाले मजदूर और कारीगर तो होते ही, साथ में जूनियर आर्टिस्ट, साउंड रिकार्डिंग के सहायक और संगतकार, कलाकरों के सहयोगी या सेवक, यहां वैरायटी की भरमार थी।

सुमित ने बताया वह इलाहाबाद से आया है। दरबान ने दिलचस्पी ली, 'कौन तरफ के, ई पार के ऊ पार?'

'ऊ पार ही समझो पंडीजी, जौन फाफामऊ के पुल पे रेल चले तो हमरे हियां सुनाई पड़े।'

गोवरधन का मन मगन हुआ।

'हमहूं परतपागढ़ के भोपिया मऊ में अहें। फाफामऊ से कौनो दूर नाहीं। इहां कइसे आना भया?'

अब सुमित को खुलना जरूरी लगा। उसने एक सार-संक्षेप इतनी फर्राटे से अवधी में सुना दिया कि गोवरधन उसे देखता ही रह गया।

'अरे बेटवा तुम तो सर्र-सर्र बोले जात हो। हमरे गांव-बखार की बोली-बानी। आज हमरे कान तिरप्त हुए हैं।'

गोवरधन को एक बार फिर पालागी करते हुए सुमित ने विदा ली तो उसने कहा- 'आवा जावा करो बेटवा। कौनो काम पड़े तो हम हैं हियां।'

सुमित प्रफुल्ल मन से निकला और बगल में बनी कॉलोनी 'गडकरी सोसायटी' में पहुंचा।

'इतनी दूर आया हूं तो पापा के दोस्त से मिलता चलूं। उसने सोचा।

चौकीदार ने बताया, 'दूसरे माले पर तीसरा फ्लैट।'

वहां पहुंच कर सुमित ने दरवाजे की घंटी बजाई।

एक महिला ने दरवाजा खोला।

सुमित ने अपना परिचय दिया।

महिला ने उसे इशारा किया, 'बोशो बोशो'

जल्दी ही अन्दर से एक व्यक्ति निकल कर आए।

सुमित ने उन्हें जल्दी से अपने पापा का नाम बताया।

'ओह तुम शशिकांत सर के बेटे हो, तुम्हें वहां कभी देखा ही नहीं।'

सुमित ने पहचाना यह बांग्ला परिवार था। इलाहाबाद की बात छिड़ने पर उनकी पत्नी भी आ गयीं उन्हीं से पता चला कि अविचल जी के माता-पिता अभी भी इलाहाबाद में बैरहना में रहते हैं। कॉलेज की पढ़ाई के बाद ये प्रतियोगी परीक्षा में निकल गये। श्रेणी थोड़ी नीचे आई थी इसलिए सहवर्ती सेवाओं में आना पड़ा। उन्होंने रेल्वे चुना कुछ देर में अन्दर से कॉफी की सुगन्ध आई। उसके साथ ही मैक्सी पहने एक मिनी साइज लड़की ट्रे पकड़े हुए कमरे में आई। यह अविचल जी की बेटी बानी थी। उसने एक पल हैरानी से सुमित की तरफ देखा। पहले पिता को कॉफी देकर कहा, 'लो बाबा'। दूसरा कप मां को दिया। तीसरे कप में काफी कुछ कम थी। उसने असमंजस में कहा, 'मैं अभी और बना कर लाती हूं। तब तक इतनी पियो'। वह कॉफी का कप सुमित को पकड़ाकर, चिड़िया की तरह ओझल हो गयी। 

अविचल ने बताया 'हमारी बेटी है बानी। बी।एस-सी। कर चुकी आजकल थियेटर से जुड़ी है।'

बानी की मां का नाम प्रणति था। उन्होंने सुमित से पूछा, 'किस सिलसिले में आए हो बम्बई।'

सुमित ने बताया कि वह फिल्मों में जाना चाहता है। 

सुनकर प्रणति निराश हुई।

'तुम अपना टाइम खराब करोगे और कुछ हाथ नहीं आएगा। वहां तुम्हारे टैलेंट को कोई नहीं पूछेगा। इन्डस्ट्री में नया चेहरा ये लोग आने नहीं देते। इससे अच्छा तुम थियेटर करो।

'तीन साल से इलाहाबाद में यही कर रहा था। उसका जादू मैं जी चुका'

अविचल जी भी गम्भीर हो गये, 'देखो एक एक्टर को सारी उमर काम करना पड़ता है। ही इज ऑलवेज स्ट्रगलिंग।'

सुमित को तकलीफ हुई। वह यहां उपदेश सुनने नहीं आया था।

अगली कॉफी आने के पहले ही वह उठ खड़ा हुआ, 'अंकल मुझे बड़ी दूर जाना है। चलता हूं'

जो आधा कप कॉफी उसे दी गयी थी, वह भी उसने बस एक सिप लेकर रख दी। वह ठंडी और फीकी लगी उसे।

अंधेरी स्टशन की तरफ जाते वक्त उसकी जिद थोड़ी और पक्की हुई।

'पापा के सब दोस्त ऐसे ही सनकी होंगे। अब किसी से नहीं मिलूंगा।' उसने तय किया।

अंधेरी पर उसने लोकल न लेकर पश्चिम दिशा का पुल पार किया और डबलडेकर बस में बैठ गया जो सीधी कैडिल रोड उतारती थी, साधना कैफे के सामने। 

सुमित ने पहले साधना कैफे में मस्का बन और डबल अंडे के ऑमलेट का ऑर्डर किया। भूख शांत होने के साथ साथ मूड भी संभला।

देखा नवरोज अपने कमरे में है। उसे देखते ही वह चहक उठा, 'क्या यार तुम तो ईद का चांद हो गये। कभी मिलते ही नहीं हो' 

'इतनी बड़ी बम्बई है हमारे रास्ते भी अलग हैं।' सुमित मुस्कराया।

'तुम मैदान में कूद पड़े हो क्या?' नवरोज चौंका

'यही समझ लो। गेटकीपर से मिल कर आया हूं।'

नवरोज जोर से हंसा, 'यानी तुम स्वर्ग के फाटक के सेंट पीटर से मिल लिए। बस अब ताला खुलवाने कि देर है। बबुआ बन कर उसके सामने थोड़ी नौटंकी करना, क्या पता चांस लग जाये।'


सुमित हफ़्ते में एक दो बार प्रकाश स्टूडियो चला जाता।

पंडित गोवरधन के लिए कभी मगही पान के बीड़े तो कभी खैनी की सौगात जरूर ले लेता।

चौकीदारी की नीरस दिनचर्या में पंडित गोवरधन को सुमित में थोड़ा अपना देस दिखाई दे जाता।

एक दिन पंडित ने सुमित से कहा, 'सुन भैया अब तुझे सीधे हीरो का सुपना तो देखे भी ना चाही। कोई छोटा-मोटा रोल करे तो बात चलाई का।

सुमित पंडित गोवरधन के घुटने दबाने लगा, 'काका बस एक बार हमका पिक्चर में घुसा दो, फिर देखना आपका जे भतीजा का कर देगा।'

पंडित ने लाड़ से उसे परे धकेलते हुए कहा, 'अबहिन सेठ कापड़िया से बात भाई। बोले- 'पंडत कोई ऐसा बांस भर ऊंचा आदमी बताओ जो खेत में बिजूका बन कर खड़ा रहे। यूनियन का भेजा हुआ एक भी छोकरा काम का नहीं है। आजकल कोई महनत तो करना नहीं चाहता। सब एकदम हीरो बनेंगे'

सुमित ने सीना ठोंक कर कहा, 'काका हम करेंगे ये काम। चाहे जित्ती देर कहो, ठाड़े हो जायेंगे। आंधी में पानी में। बस एक बार सेठ अपना काम देख लें।'

अगले दिन पंडित गोवरधन ने सुमित को कापड़िया सेठ के सामने खड़ा कर दिया।

एकबारगी कापड़िया सेठ सुमित को अच्छे से देखते रह गये। वे खुद पांच फुट के गेंद-गुट्टा से आदमी थे, जो हर वक्त पान मसाले का डब्बा हाथ में रखा करते।

डायरेक्टर जयेश देसाई ने समझाया, 'देखो मुश्किल से दो दिन का काम है, तुम्हें पीछे बने खेत में एक जगह जम कर खड़े रहना है। हमारी हीरोइन भानुजा का डांस सीक्वेन्स हैं। वह तुम्हारे आसपास उछलेगी-कूदेगी, मगर तुम्हें हिलना-डुलना एकदम नहीं है। जब तक टेक ओके नहीं हो जाता, तुम्हें ऐसे ही रहना होगा, ओके?'

सुमित बड़ा खुश हुआ। इंतजार लम्बा रहा। दोपहर को हीरोइन आई। गोवरधन ने दूर से दिखाया, 'वह जो नीली मोटर से उतर रही है, वही है हीरोइन भानुजा।' 

सुमित की थियेटर-अभ्यस्त आंखों को उसकी एक झलक में लगा निहायत मामूली डील-डौल की लड़की है, सांवली भी ज्यादा और लम्बाई जैसे है ही नहीं। मगर आजकल उसका डंका बोल रहा था।

सुमित को फटा कुरता, ऊंचा पजामा, मैली चादर और सिर पर पगड़ी बांध कर पिछवाड़े के लॉन में खड़ा कर दिया गया। वहां बड़े कैमरे, ट्राली, स्टाफ और स्पॉट बॉय का समूह था। सभी सुमित की बिजूका शक्ल देख कर हंसी रोक रहे थे।

नृत्य निर्देशक ने भानुजा से गाने पर एक रिहर्सल करवाई। स्कर्ट नुमा ऊंचा घाघरा और पोलका पहने भानुजा ने दुपट्टा लहरा कर काफी दौड़ लगाई। मचान से लगी सीढ़ी चढ़ी, उतरी, गालों पर बालों की लट झटका देकर काफी बिजली गिराई और मचान से कूद कर उतरते हुए बिजूका से जा टकराई।

सुमित के बदन में कोई जुम्बिश हुई होगी। उसने जाहिर नहीं होने दी पर भानुजा चौंक पड़ी, 'ओ माय गॉड, ये तो जिन्दा बन्दा है।'

नृत्य निर्देशक देसाई ने उसे दिलासा दिया, 'तुम्हें भरम हुआ होगा। अभी तो कारीगरों ने खपच्चियां जोड़ कर यह तैयार किया है।'

सुमित को गुस्सा तो ऐसा आया कि जा कर देसाई की गर्दन पकड़ ले पर वह खून का घूँट पी गया। तेज धूप में एक बार फिर यही दृश्य फिल्माया जाना था।

सुमित ने देखा नृत्य की बाजय भानुजा उछलकूद ज्यादा कर रही थी। निर्देशक शॉट ओके किए जा रहा था। भानुजा की एक फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर हिट हो चुकी थी। भानूजा को हिन्दी खास नहीं आती थी। वह अक्सर अपनी बात हिन्दी में शुरू कर इंग्लिश में समाप्त करती।

एक शॉट ओके होते ही उसकी मेकअप वूमन उसका प्रसाधन बॉक्स लेकर दौड़ती। भानुजा के जलवे निराले थे। उसके लिए डायलॉग रोमन लिपि में लिखे हुए थे, बड़े अक्षरों में।

सुमित ने पाया फिल्म बनना, थियेटर के मुकाबले, सुस्त काम है। इसमें री-टेक और तकनीकी कारण, कलाकार की प्रतिभा का क्षरण करते हैं। वह समझ रहा था मगर यह सब बोलने की स्थिति में नहीं था। आखिरकार उसका रोल तो केवल बिजूका का था, निष्प्राण, निर्वाक और निरपेक्ष।

दिन के अंत में उसे मैनेजर द्वारा दो हजार रुपये पकड़ाए गये तब उसे पता चला कि आजकल जूनियर कलाकार का रेट दो हजार रुपये चल रहा है।

एक बार हुआ कि पैसे वापस कर दे। इतनी छोटी रकम लेना अपमानजनक होता है। फिर स्वाभिमान ने सिर उठाया, यह उसकी मेहनत की पहली कमाई है।

कपड़े बदल कर वह सीधा पंडित गोवरधन के कमरे पर पहुंचा और रुपये उनके चरणों में रख दिए।

गोवरधन एकदम उठ कर बैठ गये, 'ई कौन गजब कर रह हो बेटा, तोहरी पहली कमाई के पैसे हैं। रखो अपने बटुआ मां।'

'आपके प्रयास से मैं यहां दाखिल हुआ हूं पंडितजी।' सुमित ने कहा 'कल भी आने को बोले हैं मैनेजर।'

'समझो काम बन गया। हमका तो बस दुई जोड़ा मगही पान लाय के धर इहां ताके पर।'

सुमित ने वैसा ही किया।

बाहर निकल कर एक गुजराती भोजनालय में भरपेट खाना खाया।


आखिरी बस से जब वह कैडिल रोड पहुंचा, नवरोज सोने की तैयारी कर रहा था।

'कहां की धूल फांक कर आए आज?' उसने पूछा।

सुमित ने सौ-सौ के कड़क बीस नोट जेब से निकाल उसके आगे लहरा दिए, 'बाय गॉड खून-पसीने की कमाई है। सारा दिन खम्बे की तरह खड़ा रखा सालों ने। मैंने भी सोच लिया देख लें ये बम्बई के बाबू इलाहाबाद के पानी में कितना जोर है।'

'दो हजार रुपल्ली के लिए तू खम्मा बन कर खड़ा रहा।'

'तू भी तो चार हजार में मोची बनता है'

सुमित ने तड़ाक से जवाब दिया।

दरअसल बम्बई संघर्षरत कलाकारों के लिए बेरहम थी। काम की गारंटी नहीं थी, किसी के भी सुख, दुख, सहूलियत की परवाह नहीं थी, रक्खो, हटाओ वाला नियम हर स्टूडियो में लागू था। हर फिल्ममेकर किसी भी कीमत पर कामयाब होना चाहता था।

भानुजा की पहली फिल्म चल निकली। निहायत लचर कहानी थी, बिछुड़े भाइयों की। भानूजा गांव की गोरी के किरदार में दर्शकों को भा गयी। उसकी मांसलता और मुटल्लापन, तन्वंगी तारिकाओं के ऊपर हावी रहा और हीरो शिवेन्द्र सिर्फ उसके इशारों पर नाचने वाला नट बन गया। दर्शकों को पता भी नहीं चला कि हिरोइन की हिन्दी इतनी अटपटी है कि उसके डायलॉग डॉली नाम की डबिंग आर्टिस्ट ने अदा किए। भानुजा की ऊर्जा और उछलकूद नौजवान दर्शकों को पसन्द आई।

फिल्म हिट होना मुम्बई में सबकी जिन्दगी में जादू की छड़ी घुमा गया। प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, सितारे और तारिकाओं के अलावा यूनिट से जुड़े सब छोटे-बड़े कलाकार, कारीगर लकी माने गये। भानुजा को अन्य दो नामी फिल्म निर्देशकों की तरफ से बुलावा आ गया।

दक्षिण की यह कलाकार गूंगी गुड़िया नहीं थी। उसने दक्षिण भारत में इसी फिल्मी माहौल में होश संभाला था। उसने कहा 'पहले मुझे स्टोरी सुनाई जाये, मेरा रोल बताया जाए तब मैं फिल्म साइन करूंगी।'

सब शर्तें मानी गयीं। लोकप्रिय सितारे जितेन्द्र को नायक का रोल मिला। पिछली फिल्म के कुछ फार्मुला दृश्य इस फिल्म में भी शामिल किए। भानुजा का हंगामा नृत्य जब होना था वह अटक गयी। खेतों में वह लम्बा सा बिजूका कहां गया। वह लगवाइये।

स्क्रिप्ट राइटर ने समझाया, 'मैम इस डांस में आपको पेड़ों के चारों ओर नाचना है, बिजूका वाला शॉट नहीं है।'

भानुजा अपनी निर्धारित कुर्सी पर पैर चौड़े कर के बैठ गयी, 'नो बिजूका, नो डांस।'

निर्देशक ने भी समझाया, 'सीन रिपीट करना अच्छा नहीं लगेगा।' भानुजा ने होंठ गोल कर के रूठने के अन्दाज में कहा 'मुझे सब पता है पब्लिक को क्या अच्छा लगेगा।'

सेट पर सुमित की ढुँढाई शुरू हुई। वह उस समय स्टूडियो में था ही नहीं। वह गोवरधन की कोठरी में बैठा चाय-समोसा उड़ा रहा था।

अचानक असिस्टेंट डायरेक्टर भागा हुआ आया और बोला, 'ओ भई लम्बू नाथ क्या नाम है तुम्हारा। हीरोइन तुमको याद कर रही है। जल्दी से वही फटे-पुराने कपड़े पहन कर सेट पर आओ।'

गोवरधन बड़ा खुश हुआ, उसके देस वाले को ओर काम मिल रहा। पर सुमिट असंतुष्ट हुआ, 'अब क्या मैं हर फिल्म में बिजूका ही बनता रहूंगा।'

'यह चकल्लस बाद में करना। अभी तो स्टूडिया में चलो।'

इस बार भानुजा ने सुमित को सेट पर आते देख लिया।

वह अपने छह फुटे कद में, जीन्स और टी-शर्ट में खासा स्मार्ट दिखाई दे रहा था।

भानुजा ने नाटकीय अन्दाज में सिर पर हाथ रखा, 'ओ माय गॉड। मेरा शक सच्चा था। यह तो जीता जागता नौजवान है। बिजूका सीन को चेन्ज कर दो। मैं इस नौजवान के साथ डांस करूंगी।' 

सुमित ने असमर्थता दिखाई, 'बिना रिहर्सल मुझे स्टैप्स कैसे लेने होंगे।

'बी नेचुरल। मैं सिखा दूंगी। तुम मेरे को संभालना ज्याद कुछ नहीं।'

फड़कता हुआ गाना था। आशा भोंसले की नशीली शोख, आवाज थी, युवा मुटल्ली भानुजा की स्फूर्ति और ऊर्जा सबको फुदकने पर मजबूर कर रही थी।

दो रिहर्सल में साफ हो गया कि सुमित के अन्दर जन्मजात डांसर मौजूद है। भानुजा की चपलता और शोखी गाने को गुदगुदा बना रही थी। तीन घंटे की मेहनत में डांस सीक्वेन्स ओके हुआ। इसके फौरन बाद पैकअप घाषित हो गया।

जैसे जादू की छड़ी फिरा दी गयी हो इस तरह प्रकाश स्टूडियो में सुमित का रुतबा बढ़ गया। वह जानता था यह निहायत कच्चा काम मिला है इसको लेकिन उसे कोई और निकाल नजर नहीं आ रहा था।

भानुजा के हाथ में कई फिल्में थीं आजकल और उसने हर फिल्म में शर्त कि डांस पार्टनर वह अपने पसंद का रखेगी। सुमित और भानुजा के कद और आकृति में अंतर होते हुए भी दोनों का समन्वय और संतुलन एकमेक था। अब तो गीतकार उनके कदम और कशिश के मुताबिक गीत भी लिखने लगे थे। सुमित के अन्दर कलाकार का लचीलापन था। वह बड़ी सहजता से अपने को किरदार के मुताबिक ढालना जानता। 

भानुजा में कूट-कूट कर आत्मविश्वास भरा था। वह टेक के बीच के वक्त में सुमित को बताती रहती कि उसे अपनी सितारा कीमत कैसे बढ़ानी चाहिए, उसे निर्देशकों से मनपसंद हीरोइन की मांग रखना चाहिए। वह कहती,

'तुम्हारे पास यह टैलेंट है कि तुम ट्रेजिक, कॉमिक दोनों रोल कर लेते हो। इसकी कीमत वसूल किया करो। तुम्हें अगर कोई साइन करता है, तो उसे न तो कॉमेडियन रखना पड़ता है, न अलग से डांसर। तुम एक तरह से ऑल इन वन एक्टर हो। इसका फायदा उठाओ, समझे।' 

दक्षिण भारत से आई इस खानदानी अभिनेत्री ने पच्चीस साल में फिल्मी दुनिया की रग-रग पहचान रखी थी।

प्रकाश स्टूडियो में काम खत्म होने को आया, तो सुमित को लगा यहां से दूर जाने से पहले एक बार अविचल जी से मिल लिया जाए। इतवार को कोई शूटिंग नहीं थी। वह दोपहर बारह बजे उनके यहां पहुंचा। वे बहुत खुश हुए। सुमित ने बताया उसे फिल्मों में छोटे-मोटे काम मिलने लगे हैं।

बानी कॉफी लेकर कमरे में आई। उसने यह बात सुनकर कहा, 'इसके पहले कि तुम्हारी जीनियस पूरी चौपट हो तुम्हें यह नकली दुनिया छोड़ कर थियेटर में लौट जाना चाहिए।'

'थियेटर में आकर खाऊंगा, रहूंगा कहां।'

बानी की मां बोली 'जब तक कोई इंतजाम न हो हमारे यहां रह सकते हो। स्टडी रूम रात में खाली पड़ा रहता है।'

बानी के पापा ने पत्नी की तरफ झुंझला कर देखा। वे बोले नहीं पर मन ही मन कुढ़ गये कि उनकी पत्नी किताबों के कमरे को फालतू समझती है। स्टडी रूम में उनकी सैंकड़ों किताबें रहती हैं। हर किताब में जान होती है।

बानी ने होठ सिकोड़ कर कहा, 'ऐसा नहीं है कि थियेटर में बिल्कुल पैसे नहीं मिलते। पिछले महीने ही मेरे हिस्से पांच हजार रुपये आए।'

बानी की मोहक अदा देखकर सुमित मुस्करा दिया। उसने यह बताना जरूरी नहीं समझा कि उसने तो आठ दिन की शूटिंग में पचास हजार कमा लिए। अभी उसकी फिल्में फ्लोर पर थीं और प्रारंभिक स्टेज पर। बहरहाल उसे बानी का नन्हा कद, सुबुक चेहरा और छलछलाती हुई आवाज बहुत दिलकश लगी। उसे लगा काश माता-पिता की पहरेदारी से पृथक बानी से बात हो सकती। भले ही वह फिल्मों में हाथ-पांव मार रहा था, रंगमंच उसका सपना था। 

उसने हंसते हुए कहा, 'तुम लड़की हो। तुम्हें कौन सा घर चलाना होगा। मुझे तो घर-परिवार लायक कमाऊ बनना ही पड़ेगा।'

अविचल गोस्वामी हो-हो कर हंस पड़े, 'एकदम सही बोले सुमित।'

वहां से वापस घर जाते समय सुमित को काफी हल्का और अच्छा लगता रहा। यह छोटा सा गोस्वामी-परिवार उसे सहज और उन्मुक्त लगा।

सन्जाना मैंशन में रहना अब सुमित को मनहूस लगने लगा था। नवरोज अपनी भागदौड़ में व्यस्त रहता। सुमित का भी घर लौटने का समय आगे-पीछे होता रहता। मिस सन्जाना अक्सर कराहती मिलतीं कि उनके दिल में दर्द बढ़ गया है और किसी भी वक्त उन्हें दिल का दौरा पड़ सकता है। मन ही मन सुमित ने उनका नाम मिस एन्जाइना रख लिया था। उसकी हसरत थी कहीं अन्धेरी या विलेपार्ले में उसे एक अच्छा कमरा मिल जाए। वह परिचितों से कहता लेकिन मकान के दलालों से उसे घबराहट होती।

जब उसकी पहली फिल्म हॉल में प्रदर्शित हुई, उसका दिल उत्साह, उत्कंठा के साथ-साथ ऊहापोह से भी ऊभचूभ हो रहा था। भानुजा हमेशा की तरह भारी कांजीवरम साड़ी और भड़कीले सिंगार में पहली कतार में बैठी थी। उसके आस-पास प्रेस छविकार, पत्रकार और प्रशंसकों की भारी भीड़ थी। सुमित तीसरी पंक्ति में किनारे वाली सीट पर बैठा था। चमड़े की मोटी फुटबॉल जैसा प्रोड्यूसर हिम्मत भाई शाह भानुजा से सट कर बैठा हुआ था। डायरेक्टर प्रेस के सवालों का जवाब देते हुए कह रहा था, 'फिल्म देखने के बाद सवाल कीजिएगा।'

यही अच्छा था कि नवरोज उसके साथ था। वह भी देखना चाहता था कि आखिर पिछले एक साल में सुमित ने क्या किया।

खास बात यह थी कि बिजूका वाली फिल्म अभी रिलीज नहीं हुई थी। यह एक दूसरी फिल्म थी जिसमें सुमित ने भानुजा के साथ नाच के स्टेप्स लिए थे। 'शेरा' नाम की इस फिल्म में खूब मारधाड़ थी, नायक था, खलनायक था फिजूल की ढिशुम-ढिशुम थी और बेसिरपैर की कहानी में भानुजा के नाच थे। जब उसका सीन आया उसने नवरोज की बांह कसकर थाम ली। दृश्य था कि पेड़ों के इर्द-गिर्द हिरोइन नाच रही थी। पास खड़ी भीड़ में से उसने सुमित को चुन लिया और उसके साथ कदमताल करने लगी। पहले अटपटे मगर बाद में सधे कदमों से सुमित ने इतने अच्छे स्टेप्स लिए कि भानुजा ने बाकी का गाना उसी के साथ खत्म किया। 

तभी फिल्म का हीरो आया और नायिका की बांह पकड़ उसे पेड़ के पीछे ले गया।

कुल इतना सीन था। पर सुमित इसी में रोमांच से थर्रा गया।

'कैसा लगा?' उसने नवरोज से पूछा।

'अच्छा है पर उसमें कोई सेंस नहीं है। तुझे खाली इस्तमाल किया गया है। एक बात समझ आई कि हीरोइन तेरे ऊपर लट्टू की तरह घूम रही थी।'

'नहीं यार उसे याद भी न होगी मेरी। बड़ी व्यस्त सितारा है।'

'कुछ पता नहीं होता। यही मुटल्ली तेरी किस्मत की चाभी बन सकती है।'

जैसे नवरोज के मुंह में सरस्वती बैठी थी उस रोज। भानुजा ने डायरेक्टर प्रोड्यूसर से कह कर सुमित श्रीवास्तव की ऐसी ढूंढ़ मचवाई कि सब भौंचक रह गये। कहने वालों ने कहा, 'उस लड़के में है क्या? ऊंट की तरह लम्बा, हड्डी-हड्डी शरीर, बस बिना थके नचवा लो उसे। और तो कोई खूबी नहीं।

भानुजा फिल्मी परिवार की उपज थी। उसने फिल्म उद्योग में आते ही देख लिया कि बाकि नायक हेकड़ी वाले हैं। सबकी किसी न किसी के साथ जोड़ी बैठी हुई है। ऐसे में उसे कोई ज्यादा भाव नहीं देगा। वह अपने लिए एकदम नया नायक चाहती थी जिसे अपनी मर्जी से गढ़े। साथ अभिनय करने में सिर्फ संवाद ही नहीं, एक रसायन भी काम आता है। सुमित को देखते ही उसे वह बिजूका वाला विद्युत स्पर्श याद आ गया, जो दर्जनों के साथ नृत्य और अभिनय करते हुए उसने नहीं पाया। सुमित के अन्दर किरदार की भीतरी तहों तक उतरने का सामर्थ्य था। थियेटर ने उसे सहज सिखा दिया था कि अभिनय में कल्पना का तापमान जरूरी है।

बीसवीं सदी के आखिरी दशक में फिल्मों के प्रति लोगों का पागलपन बरकरार था। टीवी आ चुका था लेकिन उसका इस्तेमाल लोग खबरें सुनते और सीरियल देखने में करते। फिल्म के लिए उन्हें सिनेमा हॉल का बड़ा परदा ही रोमांचक लगता। अब चवन्नियां चलन में नहीं रही थीं, जो लोग परदे पर उछालते लेकिन वे जिस तरह हॉल में सीटी बजाते, हो-हो कर हल्ला मचाते, उससे पता चलता वे कोई पैसा वसूल फिल्म देख रहे हैं। ऐसे दर्शकों पर ही फिल्म का कामयाब होना माना जाता। कला-फिल्में भी बम्बई में बन रही थीं। वे विदेशी फिल्म फेस्टिवलों की शोभा बढ़ाती, वहां से कोई गुमनाम इनामात भी जीत जातीं, नाजुक मिजाज कला-प्रेमी उसे तकरीबन खाली हॉल में बैठ कर देख आते, मगर फिल्मों की खिड़की तोड़ कामयाबी उस पब्लिक से होती, जो किसी खास गाने या दृश्य की खातिर फिल्म चार बार देखती।

पांच बरस की अवधि में सुमित श्रीवास्तव फिल्मों का जाना-पहचाना चेहरा बन गया। उसने श्रीवास्तव सरनेम से छुटकारा पाया और सिर्फ सुमित रहने दिया। उसने हर तरह की भूमिका की, सहनायक, हास्य कलाकार, प्रतिनायक और नायक की। वह हर किरदार को पूरी तबियत से जीता।

अब वह खुद इस स्थिति में आ गया कि डायरेक्टर से कहता कौन नायिका किस रोल में उपयुक्त रहेगी। उसमें गजब का आत्मविश्वास आ गया।

कभी-कभी वह गणेश रंगमण्डल चला जाता, बानी की खोज-खबर लेने। वह किसी न किसी रिहर्सल में लगी मिलती।

वह अपनी मंडली से थोड़ा सा अवकाश लेकर आती और वे रंगमंडल की अंधेरी कुर्सियों पर बैठ कर बतियाते। बानी उसे बताती कि उसका पिछला शो सुपरहिट रहा और डायरेक्टर ने उसे दस हजार रुपये इनाम में दिए। सुमित मुस्करा देता, 'फिल्म में तुम इतनी मेहनत से एक लाख कमा लेतीं।'

'मुझे फिल्मी दुनिया पसन्द नहीं। हमारे घर में फिल्मों को बड़ी नीची नजर से देखा जाता है'

'दोनों कला के रूप हैं। एक में जरा फिल्टर हो कर आती है कला। पर एक बात समझो। फिल्में विशुद्ध भारतीय कहानियों पर बनती है जबकि नाटक तुम लोग किसी न किसी विदेशी लेखक की दुम पकड़ कर करते हो।'

एक बार सुमित ने सुझाव दिया, 'बानी एक बार मेरे कहने पर फिल्म में काम करके देखो, तुम्हें अच्छा लगेगा।'

'बाबा कहते हैं वहां का माहौल ठीक नहीं।' बानी ने कहा।

'मैं हूं न, कोई अच्छी सी कहानी हो, तो तुम्हें अभिनय करना भी अच्छा लगेगा।'

'तुम साथ होगे तभी हो सकेगा।'

बिल्कुल हुआ। नवेन्द्र की एक नाजुक सी कहानी पर कम बजट में फिल्म बनाने का प्रस्ताव आया तो सुमित ने डायरेक्टर से कहा, 'मैं इसमें निशुल्क काम कर दूंगा लेकिन हिरोइन मेरी पसन्द की होगी।'

'तुम भनुजा के लिए कहोगे। वह इस रोल में जरा भी नहीं चलेगी।'

'आप पहले से कैसे सोच सकते हैं। हमें फिल्म डुबोना नहीं है। एक नई लड़की है, बानी गोस्वामी। थियेटर की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है उसने। किसी तरह उसे राजी करने की कोशिश करूंगा।'

'कितने पैसे लेगी?' डायरेक्टर की चिन्ता थी।

'वह आप मुझ पर छोड़ो। मेरी फीस भी उसी को दे देना।' सुमित ने कहा।

'ठसक' नाम की उस कहानी में थोड़े से किरदार थे और गांव की पृष्ठभूमि। उपशास्त्रीय संगीत की तर्ज पर आकर्षक गीत थे और कथा में भावनात्माक उतार-चढ़ाव। जहां कई व्यवसायिक फिल्में बनने में दो साल, तीन साल लगने आम बात थी, 'ठसक' छह महीने में तैयार हो गयी। डबिंग, एडिटिंग खटाखट होती गयीं। नई हीरोइन का नाम देख कर वितरक फिल्म प्रदर्शित करने में ना-नुकर करते मगर सुमित का नाम अब तक सफलता की गारंटी बन चुका था। 

फिल्म की शूटिंग से फरिग होकर बानी फिर से थियेटर की दुनिया में जाने लगी। उसने सुमित को बताया, 'बाबा को मेरा फिल्म स्टूडियो आना बिल्कुल पसंद नहीं सुमित। उन्होंने कई बार टोका मुझे।'

'तुम अपनी बात बताओ। क्या तुम्हें कोई दिक्कत हुई?'

'नहीं, मैं तो तुम्हारे दम पर थी पर फिल्मी दुनिया बदनाम बहुत है।'

'हम यहां बदनाम होने के लिए नहीं काम करने के लिए आए हैं, बस।'

गम्भीर प्रकृति थी बानी की, जिन दिनें किसी नाटक में काम नहीं चलता होता, वह किताबें पढ़ती और सहेलियों के साथ समय बिताती।

फिल्म से अलग सुमित भी संजीदा किस्म का इंसान था। उसे कई बार फिल्मी दुनिया से उकताहट या घबराहट होती मगर एक बार मैदान में उतरने के बाद वह जीतने के लिए सन्नद्ध था।

उसकी कुछ फिल्में फ्लॉप भी हुईं और कुछ हिट। बीच-बीच में कोई गम्भीर, कलाप्रधान फिल्म भी कर लेता। प्रायः उसमें वह बानी को मनुहार कर राजी कर लेता कि वह अभिनय कर ले। बानी गोस्वमी के चेहरे की सादगी और मासूमियत दर्शकों के दिल में उतर गयी। सुमित के साथ उसकी जोड़ी पसंद की जाने लगी। लेकिन ये सब छोटे बजट की फिल्में थीं। सुमित मुख्य धारा में, व्यावसायिक सिनेमा में पैर जमाना चाहता था। उसे तड़क-भड़क वाली फिल्मों से कोई परहेज नहीं था। बड़े परदे की कई अभिनेत्रियों के साथ उसकी शूटिंग होती रहती। फिल्मी पत्रिकाओं में कलाकारों के रिश्तों को लेकर झूठे-सच्चे किस्से भी खूब छपते। इन्हीं किस्सों पर पत्रिकाओं की साख बनती।

बानी अखबार और फिल्मी पत्रिकाओं की रसिया थी। उस तक ये किस्से पहुंचते रहते। अगर सुमित का नाम एक से अधिक तारिकाओं के साथ जुड़ा बताया जाता, वह उदास उद्विग्न हो जाती। जब कभी वे मिलते वह सबसे पहले यही प्रसंग शुरू करती। सुमित हंस देता।

बानी और जोर देकर पूछती। वह कहती, 'तुम पत्रकारों को डांट क्यों नहीं देते।'

सुमित टाल देता बात, 'अगली बार डांट दूंगा।'

वह जानता था कि सिने कलाकार की पूछ और लोकप्रियता इन्हीं अफवाहों पर टिकी होती है।

उसका नाम कभी भानुजा से, कभी वनजा से तो कभी तरन्नुम से जोड़ा जाता। अन्तर्मन में सुमित सादगी पसन्द नौजवान था।

एक शाम जब बानी ने उसे ज्यादा ही कोंचने की हरकत की, वह बोला, 'पसंद तो मुझे दरअसल तुम हो। बोलो करोगी मुझसे शादी?'

बानी भौंचक रह गयी। सुमित से उसे लगाव था लेकिन कभी उससे शादी के रिश्ते जैसा सपना उसने नहीं देखा था। उसके घर में फिल्म में काम करने वाले लड़के को सुपात्र नहीं समझा जा सकता था। रेडियो, टेलिविजन, थियेटर को उसके माता-पिता सम्मानजनक माध्यम मानते मगर फिल्मों को लेकर उन्हें लगता यह लचर और अनिश्चित रोजगार है।

घर की समस्त चेतावनियों के बावजूद बानी, सुमित के निकट आती गयी। इसमें सुमित का वह समर्पित साहित्य प्रेम भी रोल अदा कर रहा था, जो सुमित ने इलाहाबाद में अपने घर-परिवार और किताबों से पाया था। जब बानी ने उसे बातया कि, उसके बाबा कहते हैं, 

'अभिनेता का सुयश संझा की लाली है

चमक घड़ी भर फिर गहरी अंधियाली है।'

सुमित उसे सुनाता, 

'मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार

पथ ही मुड़ गया था।'

दोनों के बीच कविताओं के मुखड़े, उपन्यासों के टुकड़े और गीतों के अंतरे उतरते रहते।

यह आलाप, उन हल्की-फुल्की फिल्मों के चालू संवादों से एकदम अलग था जिनमें सुमित का दिन बीतता।

दोनों पिताओं के विषम वार्तालाप माताओं के नामर्ज़ी के बीच एक दिन सुमित और बानी ने सिविल मैरिज कर डाली।

अखबारों ने खबर खूब उछाली, 'बदनाम हीरो की गुमनाम शादी।' 'वह गन्धर्व विवाह किसलिए।'

सुमित ने इन खबरों की कोई परवाह नहीं की, उसे फिल्में बदस्तूर मिलती रहीं। वह फ्लैट की बजाय अब बंगले में रहने लगा। बानी थियेटर से बचा हुआ समय सुमित का हिसाब-किताब संभालने लगाने लगी। कई फिल्में ऐसी थीं जिनकी पूरी फीस अभी सुमित को नहीं मिली थी। वही निर्माता जब अगली फिल्म के लिए सुमित पर दबाव डालता, बानी सामने आ जाती, 'पहले मेहनताना, बाद में मेहनत।' 

सुमित को पत्नी का हस्तक्षेप अच्छा लगता। वह खुद कई बातें अपनी जुबान से नहीं कह पाता।

यहां तक तो सब सुन्दर था। लेकिन बानी का हस्तक्षेप पति की अन्य गतिविधियों पर भी लगने लगा। बानी की प्रतिभा और प्रखरता के चलते सुमित के लिए घर में आगामी फिलमों की कहानी सुनना मुहाल हो गया। बानी साफ कह देती, 'इतना ऊटपटांग चरित्र पब्लिक को हजम कैसे होगा।' वह थियेटर के मानक सिनेमा पर लागू करती जबकि दोनों भिन्न जगत थे।

सुमित सोचता वह अपने अभिनय से कैसी भी स्क्रिप्ट संभाल लेगा। उसका नाम पांच साल में चोटी के कलाकारों में आ गया। उसे केन्द्र में रखकर विशेष कहानियां लिखी जाने लगीं। वह अपनी आवाज और अंदाज से किरदार में जान डाल देता। भावप्रवणता उसके अन्दर कूट-कूट कर भरी थी। वही उसे चालित रखती। उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता उसकी नायिका कौन और कैसी है।

हालांकि उसे नायक के रोल में पाकर नायिकाएं भी अभिनय के प्रति सचेत रहतीं। भानुजा ने तो अपने को काफी तराश लिया था। उसने अपना वजन कम किया और अभिनय में संजीदगी डाली। उसके साथ की गयी फिल्मों में सुमित और भानुजा की जोड़ी खूब जमीं।

बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई लेकिन घर की खिड़की पर सुमित मुसीबत में पड़ गया।

बानी ने तुरन्त सवाल किया, 'रोमांटिक रोल करते वक्त हीरोइनों से इतना चिपकने की क्या जरूरत होती है। एक दृष्टिभाषा होती है, एक देहभाषा। दोनों का फर्क नहीं जानते या फायदा उठा रहे थे? '

सुमित ऐसे टेढे सवाल की उम्मीद नहीं कर रहा था। वह गड़बड़ा गया। उसने कहा, 'तुम खुद कलाकार हो, तुम जानती हो हम कलाकार अपने हर सीन में अपना सर्वोत्तम डालते हैं।'

'सुमित यहां सर्वोत्तम के अलावा और भी कुछ डाला हुआ लगता है।'

'यह बेबुनियाद इलजाम है बानी। तुम्हें क्या हो गया है।'

उनकी शादी के पहले साल में ही ऐसे सवाल सिर उठाने लगे। एकाधिकार की आकांक्षा बानी के अंदर उफनने लगी। जब वे दोनों किसी उत्सव में जाते, जलसे के खत्म होने पर भीड़ सुमित को घेर लेती। लोग उससे ऑटोग्राफ लेते, उसके हाथ चूमते, फोन नम्बर मांगते। सुमित बार-बार लोगों को हटाता पर प्रशंसक फिर से घेर लेते। ऐसे समय बानी बहुत एकाकी और उपेक्षित महसूस करती। उसका मूड़ उखड़ जाता। अगले उत्सव में वह जाने से इंकार कर देती, उसके माथे पर तीन खड़ी त्योरियां पड़ने लगीं, जिनके बीच उसकी छोटी सी बिन्दी ऐसे कंपकंपाती जैसे भंवर में पड़ी नन्ही नैया। सुमित ने एक बार बानी का परिचय भानुजा से करवाया था। कई बार सामने पड़ने पर में हलो-हाय का आदान-प्रदान हुआ मगर दोस्ती नहीं बनी। बानी उसे पड़ताली नजर से देखकर मुंह फेर लेती। भानुजा के माथे पर भी तीन आड़ी त्योरियां पड़तीं किन्तु वह बड़ी बिन्दी लगाती थी, जो स्थिर रहती। भानुजा हर उत्सव में बहुत फैशन से तैयार होकर आती। भारी से भारी साड़ी और शृंगार में। वह माथे पर बालों के बीचों बीच लिपस्टिक से सिन्दूर का चिह्न बनाती, जिसे लेकर सबको जिज्ञासा थी कि इसका आशय और संदर्भ क्या है। कानाफूसी यह चलती कि उसने चुपके से किसी से शादी कर ली है। लेकिन इस अनुमान की पुष्टि अभी तक नहीं हुई थी।

बानी ने भी एक बार सुमित से पूछा, 'तुम्हारी यह कल्लो रानी सिंदूर किसके नाम का लगाती है।'

'मैं क्या जानूं, तुम उसी से क्यों नहीं पूछ लेतीं ?'

'पूछे मेरी बला।' बानी ने मुंह बिचकाया।

'तुम अपना ध्यान रंगमंच की तरफ लगाओ। अच्छा-खासा नाम है तुम्हारा।' सुमित ने सुझाया।

'तुम मुझे रास्ते से हटाना चाहते हो?' बानी ने त्योरी चढ़ाई।

'तुम्हें क्या होता जा रहा है डार्लिंग, वही मैं हूं, वही तुम हो। तुम्हें हर बात उल्टी क्यों लगती है?'

'तुम बदल गये हो सुमित। एक्टिंग तुम घर में करने लगे हो। बाहर तो बहुत खुश और नॉर्मल रहते हो'।

'मैं तुम्हारी हर बात का जवाब नहीं दे सकता। मुझे कल के लिए संवाद याद करने हैं। परसों एक स्टेज शो के लिए तैयारी करनी है। तुम इतना ड्रामा करोगी तो मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा।'

सुमित दूसरे कमरे में आ गया। बहस ने उसे थका दिया। उसे अन्दाजा हुआ कि उसका सबसे मुश्किल रोल तो यहां घर की चारदीवारी में है। फिल्म तीन घंटे में पूरी हो जाती है पर घर का सिनेमा बिना इंटरवल के दिन रात चलता है। प्रेम के दिनों में न कभी उसे बानी के सवालों का सामना करना पड़ा, न त्योरियों का। उसकी सादगी और भोलेपन पर वह मर मिटा था।

अपने स्टडी रूम में कल की स्क्रिप्ट हाथ में लिए था मगर उसका ध्यान केन्द्रित नहीं हुआ। उसे लगा काश कोई लेखक उसके घर और बानी के रिश्ते की पटकथा फिर से लिख दे। यह एक दिन नहीं, रोज की कहानी बन गयी थी कि शूटिंग के बाद जब वह शारीरिक और भावात्मक रूप से थका-हारा घर आता, बानी एक चौकस पहरेदार की तरह उसके हावभाव का जायजा लेती और ताना मारने से बाज न आती। सुमित ऊपर से कुछ न कहता लेकिन समझ जाता कि इस वक्त उसकी जामातलाशी ली जा रही है। वह बानी को साथी कलाकार मान कर उसकी तरफ सराहना की उम्मीद से देखता। बानी कहती, 'तुम्हारे साथ मुश्किल यह है सुमित कि तुम हर किरदार में अपने को पूरा खर्च कर डालते हो। थोड़ी निजता बचा कर रखनी चाहिए।'

सुमित कहता, 'क्या अभिनय का पहला सिद्धांत यही नहीं है कि हमें अपने किरदार में निमग्न होना है, रम जाना है।'

'तुम्हारा रमना कुछ ज्यादा ही हो रहा है', बानी तीन न्योरियां डाल कर कहती। 'शूटिंग सात बजे खत्म हुई। तुम बारह बजे घर आ रहे हो। इन पांच घण्टों में कहां रमण हो रहा था, बोलो।'

सुमित आहत आंखों से अपनी गुस्सैल प्रिया को देख कर एकदम बुझ जाता, उसे लगता जैसे वह घर नहीं पुलिस थाने में आ गया है, जहां उसकी तफ्तीश चल रही है। स्टूडियो में वह जो भी जय-विजय करके आता घर में वह सब पराजय में परिणत हो जाती।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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